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________________ वह समुद्र भी अकलुषतर-वारिकोडमज्जन्महीघ्र-अत्यात निर्मल जल के मध्य में अनेक पर्वतों को निमग्न करनेवाला था। क्षीरसमुद्र की लहरें ऊपर उठकर नीचे भावों, इस स्वाभाविक वर्णन में देखिए कवि को प्रतिभा कितनी साकार हुई है नियतमयमुदश्चद्वीचिमालाछलेनो च्छलति जलदमार्गे ज्ञातजैनाभिषेकः । तदनु जहतयोच्चाधिरोतुं समर्थः पतसि पुनरपस्तात्सागरः किं करोतु ॥१६|| निश्चित ही यह समुद्र जिनेन्द्र भगवान् के अभिषेक का समय जानकर उछलती हुई तरंगों के छल से आकाश में छलांग भरता है परन्तु स्यूलता के कारण ( पक्ष में, जलरूपता के कारण ) ऊपर चढ़ने में असमर्थ हो पुनः नीचे गिर पड़ता है। बेचारा क्या करें? क्षीरसमुद्र की सफ़ेदी का कारण क्या है ? इसमें कवि की कल्पना देखिए--- प्रशमयितुमिवाति दुर्वहामार्ववह्न ___यदपिरजनि चान्द्रीः शीलयामास भासः । वदयमिति मतिम क्षीरसिन्धुजनाना मजनि हृदयहारी हारनीहारगीरः ॥१७॥ मेरा तो ऐसा व्यान है कि यतः इस क्षीरसमुद्र ने बडवानल को तीव्र पीड़ा को शाम्त करने के लिए रात्रि के समय चन्द्रमा की किरणों का अत्यधिक पान किया था इसलिए ही मानो वह मनुष्यों के हृदय को हरनेवाला हार और बर्फ़ के समान सफ़ेद हो गया है। तरंगों का गर्जन क्यों हो रहा था इसमें कवि की युक्ति देखिएद्विरदवरुतुरङ्गनीसुधाकौस्तुभायाः कति कति न ममार्था हम्त धूर्तर्गृहीताः । इति मुहुरयमुर्वी ताइयन्नूमिहस्त प्रहिल इव विरावैः सागरो रोरवीति ।।१८।। ऐरावत हाथी, कल्पवृक्ष, उच्चैःश्रवा घोड़ा, लक्ष्मी, अमृत तथा कौस्तुभमणि आदि मेरे कौन-कौन पदार्थ इन धूतों ने नहीं छीन लिये हैं ? इस प्रकार तरंगरूप हाथों के द्वारा पृथ्वी को पीटता हुआ यह समुद्र पागल की भांति पक्षियों के शब्द के बहाने मानो रोही रहा है। इसी प्रकार लहरों में उतराते हुए असंख्य शंख, जल लेने के लिए आकाश में स्थित श्यामल घन, धेरकर खड़े हुए हरे-भरे वृक्ष और आती हुई नदियों आदि के वर्णन में कवि ने जो विभुता प्राप्त की है वह आश्चर्य उत्पन्न करनेवाली है। क्षीरसमुद्र के ११० महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीकन
SR No.090271
Book TitleMahakavi Harichandra Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages221
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size4 MB
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