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है तथापि वह चम्पू का प्रकार नहीं माना जा सकता ! पद्य के साथ गद्य को मिश्रित करने की पत्ति विक्रम की द्वितीय शताब्दी में भी परिलक्षित होती है । आर्यसूर की 'जातकमाला' इसका सुन्दर दृष्टान्त है । हरिषेण को प्रयाग-प्रशस्ति में भी पद्य के साथ गद्य की समन्वित रचना पायी जाती है अतः इन्हें चम्पू-काश्य के पूर्व-रूप मानने में कोई विप्रतिपत्ति नहीं जान पड़ती परन्तु काश्य के सम्पूर्ण लक्षणों से समन्वित भम्यूकाव्य का जो रूप आज उपलब्ध है वह उनमें नहीं है। ___लोगों की रुचि विभिन्न प्रकार की होती है, कुछ लोग तो गद्यकाव्य को अधिक चाहते हैं और कुछ पद्यकाव्य को अच्छा मानते हैं, पर चम्पकाव्य में दोनों का ध्यान रखा जाता है इसलिए वह राबको अपनी ओर आकर्षित करता है। महाकवि हरिचन्न ने जीवापान प्रारम हा भी ...
गद्यावलिः पद्यपरम्परा च प्रत्येकमप्यावहति प्रमोदम् ।
हर्षप्रकर्ष तनुते मिलित्वा द्वाग् बाल्यतारुण्यवत्तीष कान्ता ॥ अर्थात् गद्यायली और पद्यायली-दोनों ही प्रमोद उत्पन्न करती हैं फिर हमारा यह काव्य तो दोनों से मुक्त है। अतः मेरी यह रचना बाल्य और तारुण्य अवस्था से मुक्त कान्ता के समान अस्पालाद उत्पन्न करेगी । संस्कृत का सर्वप्रथम उत्कृष्ट चम्पू, त्रिविक्रम भट्ट का नलचम्पू
इसमें नल-दमयन्ती की कथा गुम्फित है। सात उच्छवासों में अन्य पूर्ण हुआ है। श्लेष, परिसंख्या आदि अलंकार पद-पद पर इसकी शोभा बड़ा रहे हैं । पदविन्यास इतना सरस और सुकुमार है कि कवि की कला के प्रति मस्तक श्रद्धावनत हो जाता है। इसी कवि की दूसरी रचना 'मदालसाचम्पू' भी है। यह कवि ई, ९१५ में हुआ है। इसका दूसरा नाम 'यमुना-निविक्रम' भी प्रसिद्ध है। यशस्तिलकचम्पू
आचार्य सोमदेव के यशस्तिलकचम्पू की रचना ९५९ ई. में हुई है। इस चम्भू में आवार्य ने कथा-भाग की रक्षा करते हुए कितना प्रमेय भर दिया है, यह देखते ही बनता है। इसके गद्य कादम्बरी से भी बढ़-चढ़कर है, कल्पना का उत्कर्ष अनुपम है, कथा का सौन्दर्य ग्रन्थ के प्रति आकर्षण उत्पन्न करता है । सोमदेव ने प्रारम्भ में ही लिखा है कि जिस प्रकार नीरस तण खानेवाली गाय से सरस दूध की धारा प्रवाहित होती है उसी प्रकार जीवनपर्यन्त न्याय-जैसे नीरस विषय में अवगाहन करनेवाले मुझसे यह काव्यसुधा की धारा बह रही है। इस ग्रन्थ-रूपी महासागर में अवगाहन करनेवाले विद्वान ही समझ सकते हैं कि आचार्य सोमदेव के हृदय में कितना अभाध वैदुष्य भरा है। उन्होंने एक स्थल पर स्वयं कहा है कि लोकवित्व और कवित्व में समस्त संसार सोमदेव का उच्छिष्ट भोजी है अर्थात् उनके द्वारा वर्णित वस्तु का ही वर्णन करनेवाला है । इस महामन्य में आठ समुच्छ्वास हैं। अन्त के तीन समुच्छ्वासों में सम्यग्दर्शन तथा
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