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________________ यमक मादि शब्दालंकार, अलक्ष्यक्रम-व्यंग्य, अर्थान्तर-संक्रमितवाच्य आदि ध्वनि, माधुर्य-ओज मावि गुण तथा प्रवी-पांचाली आदि रीति के विविध उदाहरण देकर . धर्मशर्माभ्युदय और जीवन्धरचम्पू के कान्यवैभव का दिग्दर्शन कराया गया है । धर्मशर्माम्युदय तथा जीवन्धर पम्पू के अनेक स्थल इतने अधिक कौतुकावह हैं कि उन्हें पढ़कर सहृदय पाठक हर्षविभोर हो जाता है । सज्जन-दुर्जन-प्रशंसा, चन्द्रग्रहण, मरा, पुष्पावच्य, जलकोड़ा तथा चन्द्रोदय आदि का वर्णन कवि ने जिस चमत्कार-पूर्ण बाणी में किया है उससे उनकी काव्य-प्रतिभा साकार हो उठी है। अभ्युदयनामान्त काव्यों की परम्परा संस्कृत-साहित्य में अभ्युदयनामान्त काव्यों को भी एक बड़ी शृंखला है । उस शृंखला में हम जिनसेनाचार्य के 'पाश्र्वाम्मुदय' का महत्त्वपूर्ण स्थान देखते है। इसमें उन्होंने कालिदास के मेघदूत के समस्त इलोकों को समस्या पूर्ति के रूप में मात्मसात् करके तीर्थंकर पार्श्वनाथ का दिब्य चरित लिखा है। नवीं शती के शिवस्वामी का 'कफिर्णाभ्युदय' भी अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है । यादवाभ्युदय, भरतेश्वराभ्युदय, मालवाभ्युदय, रामाभ्युदय, मला युदय, अच्युतरामाभ्युदय और रघुनाथाभ्युदय भी संस्कृत-साहित्य की गरिमा को बढ़ा रहे है। इसी परम्परा में महाकवि हरिचन्द्र का यह 'धर्मशर्माभ्युदय' महाकाव्य माता है जिसमें पन्द्रहवें जैन-तीर्थंकर धर्मनाथ का चरित्र निबद्ध किया गया है। महाकाव्य परिभाषानुसन्धान विश्वनाथ कविराज ने साहित्य दर्पण के षष्ठ परिच्छेद में ३१५ से ३२५ श्लोक तक महाकाव्य की जिस परिभाषा का उल्लेख किया है वह धर्मशर्माभ्युदय में पूर्ण रूप से चटित होती है। धीरोदात्त नायक के गुणों से युक्त, क्षत्रियवंशोत्पन्न धर्मनाथ तीर्थंकर इसके नायक है । शान्त रस अंगो रस है, शेष रस अंग रस हैं । जीवन्धरचम्प की रचना गद्य-पद्ममय है इसलिए वह चम्पूकाव्य में आता है। उसमें भी धीरोदात्त नायक जीवन्धर स्वामी का चरित्र अंकित है। उसका भी अंगी रस शान्त रस है और अंग रस के रूप में सब रसों का अपछा विन्यास है । इराके दशम लम्भ में वीर रस का प्रवाह उच्चकोटि का है। इसका शब्दविन्यास और वर्णनक्रम आश्चर्यजनक है। कथा का आधार द्वितीय स्तम्भ में धर्मशर्माभ्युदय और जीवन्धरचम्पू की कथाओं का आधार बतलाते हुए दोनों के आख्यान दिये गये हैं। धर्मशर्माभ्युदय का आख्यान भरतक्षेत्र के उत्तर कोशलदेश में राजा महासेन रहते थे। उनकी रानी का नाम सुनता था । पति-पत्नी में अगाध प्रेम था । अवस्था दल गयी परन्तु सन्तान उत्पन्न
SR No.090271
Book TitleMahakavi Harichandra Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages221
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size4 MB
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