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दृप्यन्ति करोचता जलकणा ज्योम्नि स्फुरत्तारका
कारण नालासुरजीयन निशानायकः । धूलीमिः पिहिते व चण्डकिरणे संग्रामलोला बौ
निर्दोषापि विभावरीव सततं कीडन्याङ्गापि प ४५ उस समय मदोन्मत्त हाथियों की सूड़ों से उछटे हुए जल के कण बाकाश में बमकसे हुए ताराओं के समान जान पड़ते थे, देवांगना का मुख चन्द्रमा बन गया पा और धूलि से सूर्य आच्छादित हो गया था, इसलिए यह संगाम की क्रीड़ा निर्दोषादोषरहित ( पक्ष में, रात्रि-रहित ) होने पर भी रात्रि के समान दुशोभित हो रही थी। परम्तु विशेषता यह थी कि रात्रि में भी रयांग-पहिये ( पक्ष में, कम) निम्सर कोड़ा करते रहते थे-घूमते रहते थे।
क्रम से हाथियों, घोड़ों, रयों, पवातियों और सामन्तों के युद्ध का वर्णन करने के बाद काष्ठांगार और जीवन्धर के युद्ध का प्रांजल वर्णन किया गया है। गद्य और पच दोनों में ही गौड़ी रीति का आलम्बन लिया गया है जो कि वीर रस के सर्वमा बस है । अन्त में जीवम्बर द्वारा काष्ठांगार को मृत्यु का वर्णन देखिए
कोपेनाथ कुरूदहः प्रतिदिशं खालाकलापोमिल
चक्रं शत्रुगले निपात्य तरसा विच्छेद तन्मस्तकम् । देवाः पुष्पमथाकिरन्नविकलं श्लाघासहस्रः सम
लोकान्दोलनतत्परः कुरुषले कोलाहलः कोम्पभूत् ।।१२२॥ फिर क्या था, जीवन्धर स्वामी ने क्रोष में लाकर, प्रत्येक विद्या में जिसकी खालाएं निकल रही थीं, ऐसा चक्र शत्रु के गले पर मिराकर शीघ्र ही उसका सस्तक फाटाला, देवों हे अत्यधिक पुरुप बरसाये, और कुपों की सेना में हजारों प्रशंसायों के साथ-साथ लोक में हलचल मचा देनेवाला कोई माश्चर्यजनक कोलाहल हुआ।
काष्ठागार के मरते ही शत्रु सेना में भगदड़ मच गयी। चारों ओर जातक छा गया और काष्ठांगार के बन्धुजन मय से विह्वल हो गये। जीवम्बर स्वामी ने अभय घोषणा कर सबको शान्त किया । उस समय की निम्न पंजिया रम्प है
तदानी संत्रासपलायमान शायरलमालोक्य, कुरुवीरः करपाकरः भगापभयघोषणां विषाय तद्वन्धुता दीनामाहय, तत्कालोचित-संभाषणादिभिः परिसास्वयामास ।
विजयी जीवश्वर ने वैभव के साथ राज-मन्दिर में प्रवेश किया तथा कुररी की तरह विलाप करती हुई फाष्ट्रांगार को स्वी और उसके पूषों को मात्थना थी। बारह वर्ष के लिए पृथ्वी को करमुक्त किया।
इस प्रकार जीवन्धरचम्पू के १० पृष्ठों में युद्ध का वर्णन पूर्ण हुआ है।
सामाजिक दवा और बुद्ध-निदर्शन
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