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शरद् वर्णन के प्रसंग में इन्द्रधनुष से सुशोभित घवल मेष का वर्णन देखिए, कितना सरस है?
किमपि पाण्डुपयोधरमण्डले प्रकटितामरचापमखक्षता ।
मपि मुनीन्ध्र जनाय ददौ शरत्कुसुमघापमचापलचेतसे ।।४७॥
जिसके सफ़ेद मेषमण्डल पर ( पक्ष में, गौरवर्ण स्तनमण्डल पर ) इन्द्रधनुषरूप नखक्षत का चिह्न प्रकट है ऐसी शरद् ऋतु ने ( स्त्रीलिंग को समानसा से किसी स्त्री ने ) गम्भीर चित्तवाले मुनियों को भी काम-बाषा उत्पन्न कर दी।
नदियों के तट धीरे-धीरे जल से रहित हो रहे हैं इसके लिए कषि के द्वारा प्रदत्त उपमालंकार का चमत्कार देखिए--
विघटिताम्बुपटानि शनैः शनैरिह दधुः पुलिनानि महापगाः ।
नवसमागमजातहियो यथा स्वाधनानि धनानि फुलस्त्रियः ।।४८॥
जिस प्रकार नवीन समागम प उ लजीसी गुरांगाएँ। दोरे अपने प्यूर निलम्बमण्डल, वस्त्ररहित करती हैं उसी प्रकार उस शरद् ऋतु में बड़ी-बड़ी नदियो अपने विशाल तटों को जल-रूपी वस्त्र से रहित कर रही थीं।
इसी उपमा का प्रयोग भारवि ने शरद्-वर्णन के प्रसंग में गायों के समूह से छोड़े जानेवाले नदी-तटों का वर्णन करने के लिए किया है
विमुच्यमानरपि तस्य मन्धरं गयो हिमानी विशदैः कदम्बकः । शरन्नदीनां पुलिनैः कुतूहलं गलदुकूलर्जघनैरिवाद ॥१२॥
-किरातार्जुनीय, सर्ग ४ बर्फ़ के रामान सफेद गायों के समूह जिन्हें धीरे-धीरे छोड़ रहे थे ऐसे नदी-तटों ने उस अर्जुन के लिए घोरे-धीरे वस्त्ररहित होनेवाले नारी नितम्बों के समान कुतूहल उत्पन्न किया था।
हेमन्त-वर्णन में काम, वियोगिनी स्त्री के हवय में क्यों जा छिपा, इसका हेतु देखिए
मरुति वाति हिमोदयदुःसहे सहसि संततशीतभयादित्र ।
हृदि समिवियोगहुताशने वरतनोरवनोदसति स्मरः ।।५३।।
मार्गशीर्ष में घर्फ से मिली दु:सह वायु चल रही थी अतः निरन्तर को शीत से डरकर कामदेव, जिसमें वियोगाग्नि जल रही थी ऐसे किसी सुन्दरांगी के हृदय में जा बसा था।
शिशिर ऋतु में सूर्य की किरणे मन्द क्यों पड़ गयीं ? इसका फल्पनापूर्ण वर्णन देखिए
स महिमोदयतः शिशिरो व्यपादपाहतप्रसरत्कमलाः प्रजाः । इति कृपालुरिवाश्रितदक्षिणो दिनकरी न करोपञ्चयं दधौ ॥५७॥
प्रकृति-निरूपण
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