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________________ जेज कोई दुष्ट राजा अपनी महिमा के नृपय से प्रजा को कमला--लक्ष्मी को छीन उसे दरिद्र बना देता है तब जिस प्रकार दूसरा घमासु राजा पदासीन होने पर प्रजा से करोपचय-टैक्स का संग्रह नहीं करता उसी प्रकार जब शिशिर ने निरन्तर बर्फ की वर्षा से प्रजा के कमल छीम उसे फमलरहित कर दिया तब क्यालु एवं जवार ( पक्ष में, बक्षिणविशास्य ) सूर्य ने करोपचये-किरणों का संग्रह नहीं किया । इस प्रकार वसन्तादि ऋतुओं का पृथक-पृथक् वर्णन कर पमकालंकार की छटा दिखलाने के लिए वर्गान्त में एक-एक लोक द्वारा पुनः उन ऋतुओं का वर्णन किया है । जीवन्धरचम्पू के चतुर्थ लम्भ के प्रारम्भ में भी कवि ने वसन्त ऋतु का सुन्दर वर्णन किया है। जीवन्धरचम्पू का तपोवन भारतीय संस्कृति के अनुसार 'योगेनाम्ते तनुत्यजाम्' जीवन के अन्त में समाधि धारण करना, जिन्होंने अपना लक्ष्य बना रखा है वे संसार के विषय एवं दूषित वातावरण से दूर रहकर आश्रम या तपोषों में प्रारमसाधना करते हैं। यही कारण है कि हम महाकाव्यों में इन तपोवनों का सुन्दर वर्णन देखते हैं। कालिदास ने 'रघुबंश के प्रथम सर्ग में वसिष्ठजी के तपोवन का जो संक्षिप्त वर्णन किया है उसका विशदविस्तृत रूप हम बाणभट्ट की कादम्बरी में जावालि ऋषि के आश्रम-वर्णन में प्राप्त करते हैं । तदनन्तर वादीभसिंह को गधचिन्तामणि के दण्डकारण्याश्रम सम्बन्धी वर्णन में उसकी कुछ झलक देखते हैं । जीवन्धरचम्पू में भी उसका संक्षिप्त किन्तु विशद वर्णन हुआ है । देखिए ___ तत्र तत्र तीर्थस्थानानि याबयाजं सत्वरं गत्वरः कुरुवीरः, क्वचन बासःसमासक्ततापसकुल-कुष्यमाणतरुत्वङ्ममरारायमुखरम्, क्वचित्पावण्डिकरमण्डितकमण्डलुमुखनैरजलपूरणजनित-कलकलशब्दशोभितम्, कुत्रचिद्वालकत्रुटितोसितमीञ्जीमेखलाविकीर्णम्, कुत्रचन कुमारिकापूर्वमाणबालवृक्षालवालम्, क्वचन काषायवसनसेपनलोहितायमानसरोजलम्, वचन संसिक्तवल्कलशिखानिर्गलत्पयोधारारेमाश्चितम्, वचन अमूरुधर्मनिर्मिहासनासीनजपपरजनसङ्कलम्, कुत्रचित्स्नानकालसंसक्तशैवालन्छटायमानजटापटलघारितया परितो देदीप्यमानपावकप्रसृतधूमरेखालिङ्गिरिवोर्ध्वप्रसारितभुजदण्ड: पञ्चाग्निमध्यतपःप्रचण्डस्वापसैमंण्डितम्, क्यचन तत्पत्नीजनक्रियमाणनीवारपाकम्, क्वचित्तत्पुत्रच्छिद्यमानाईसमित्समाकुलम्, तपोवनं ददर्श ।-पृ. १०८-१०९ भाव यह है १. रघुवंझा, प्रथम सर्ग, श्लोक ४-५३ । २, कादम्बरी, निर्णयसागर संस्करण, पृ. ८-१०। ३. मचिन्तामणि, भारतीम ज्ञानपीठ संस्करण, पृ. ३०६-३२० । १४८ महाकवि इरिचय : एक अनुशासन
SR No.090271
Book TitleMahakavi Harichandra Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages221
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size4 MB
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