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________________ हुए उसका समाधान किया है । शंका- केवल उस एक दर्शनविशुद्धता ते ही तीर्थंकर-नाम-कर्म का बन्ध कैसे सम्भव है क्योंकि ऐसा मानने से सब सम्यग्दृष्टि जीवों के तीर्थंकर-नाम-कर्म के बन्ध का प्रसंग आता है । 1 समाधान - शुद्धय के अभिप्राय से तीन मूढ़ताओं और आठ मत्रों से रहित होने पर ही दर्शन-विशुद्धता नहीं होती किन्तु पूर्वोक्त गुणों से स्वरूप की प्राप्त कर स्थित सम्यग्दर्शन का साधुओं के प्रासुक परित्याग में, साधुओंों की संघारणा में, साधुओं के वैयावृत्यसंयोग में अरहन्तभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, प्रवचनवत्सलता, प्रवचनप्रभावमा और अभिक्षण ज्ञानोपयोग से युक्तता में प्रवर्तने का नाम दर्शन-विशुद्धता है। उस एक ही वनविशुद्धता से जीव तीर्थंकर कर्म को बांधते हैं । २. विनय सम्पन्नता -- ज्ञान, दर्शन और चारित्र की विनय से युक्त होना विनयसम्पन्नता है । ३. शीलवतेष्वनती चार महिंसादिक व्रत और उनके रक्षक साधनों में अतिचारदोष नहीं लगाना शीलवतेष्वनतीवार है । ४. आवश्यकापरिहीणता - रामता, स्लव वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और क्युत्सगं इन छह आवश्यक कामों में होनता नहीं करना अर्थात् इनके करने में प्रभाव नहीं करना आवश्यकापरिहीणता हूँ । ५. क्षणलय प्रतिबोधनता — क्षण और लव, काल-विशेष के नाम हैं । सम्यग्दर्शन, ज्ञान, व्रत और शील आदि गुणों को उज्ज्वल करना, दोषों का प्रक्षालन करना अथवा उक्त गुणों को प्रदीप्त करना प्रतिबोधमता है। प्रत्येक क्षण अथवा प्रत्येक लब में प्रतिबुद्ध रहना क्षण प्रतिबोधनता है । ६. लब्षि संवेगसंपन्नता - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र में जीव का जो समागम होता है उसे लब्धि कहते हैं । उस लब्धि में हर्ष का होना संवेग है । इस प्रकार के लब्धिसंवेग से — सम्यग्दर्शनादि की प्राप्तिविषयक हर्ष से संयुक्त होना सो लब्धिसम्पन्नता है । ७. यथास्थाम तप अपने बल और वीर्य के अनुसार बाह्य तथा अन्तरंग तप करना यथास्याम तप है । ८. सानूनां प्राकपरित्यागता - साधुओं का निर्दोष ज्ञान, दर्शन, चारित्र तथा निर्दोष वस्तुओं का जो त्याग दान है उसे साधुप्रासुकपरित्यागला कहते है । ९. साधूनां समाधि - संधारणा- साधुओं का सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र में ९. अनशन, अनवर तिरिन, रसपरित्याग, वित्रिवाय्यासन और कायक्लेश में छह माह्य तप 'अनशनामीदर्यवृतिपरिसंख्यान - रसपरित्याग विविक्तशय्यासन कायक्लेशा बाह्यं तपः' रा. सू. । २. प्रायश्चित विनम वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान में छह अभ्यासरत हैं। प्रायश्चितविनय-वैयावृत्य-स्वाध्यायन्युत्सर्गध्यानान्युत्तरस् । अध्याय ६ । सिद्धान्त . १०७
SR No.090271
Book TitleMahakavi Harichandra Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages221
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size4 MB
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