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पश्चिम दिशा के क्षितिज में झुकते हुए चन्द्रमा और पक्षियों के कलकूजन में देखिए कवि ने अपनी प्रतिमा को कैसा साफार किया है ?
मूर्जीवोद्गतपलितायमानरश्मी पन्द्रेऽस्मिन्नमति विभावरीजरत्याः । अन्योऽन्यं विहगरवरिवोल्लसन्त्यो दिग्वध्यो विदधति विप्लवाट्टहासम् ॥१५॥
जिस पर किरणरूपी सफ़ेद बाल निकले है ऐसे मस्तक के समान चन्द्रमा, जब रात्रिरूपी वृद्धा स्त्री के आगे झुककर प्रणय-याचना करने लगा तब पक्षियों के शब्दों के बहाने परस्पर खिलखिलाती हुई दिशारूपी स्त्रियां मानो विप्लवसूचक अट्टहास ही करने लगीं।
कमलों के विकास, सूर्य की लालिमा तथा सूर्योदय आदि के वर्णन में कवि ने एक से एक नूतन कल्पनाओं को प्रकट किया है। धर्मशर्माम्मुदय का यह प्रभास-वर्णन षोडश सर्ग के १-४१ पलोकों में सम्पूर्ण हुआ है।
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महाकवि हरिश्चन्द्र : एक अनुशीलन