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भाव स्पष्ट है।
यतश्च वर्धमानचरित की रचना वि. स. १०४५ में हुई है अतः महाकवि हरिचन्द माघ के समान उससे भी प्रभावित है।
शिशु का सर्वशत्रिम महाकवि हरिचन्द्र ने शिशुपालवध से पर्याप्त प्रेरणा प्राप्त की है। यद्यपि धर्मशर्माम्युदय की वर्णन-शैली, भाषामाधुरी और अलंकार की विच्छित्ति पर्याप्त उच्च-कोटि की है, तथापि पर्वत, ऋतु, वनकोड़ा, जलक्रीड़ा, प्रभात, सूर्योदय, घस्द्रोदय आदि के वर्णन का क्रम शिशुपालवध से प्रभावित है। शिशुपालवध के चतुर्थ सर्ग में माघ ने रैवलक पर्वत का नाना छन्दों में वर्णन किया है। इसी प्रकार हरिचन्द्र ने धर्मशर्माभ्युदय के दशम सर्ग में विन्ध्यगिरि का नाना छन्दों में वर्णन किया है। यमकालंकार के लिए भी दोनों काश्यों में स्थान दिया गया है। यहां शिशुपालवध और प्रमशर्माभ्युदय के सादृश्य को सूचित करनेवाले कुछ पद्य देखिए
दृष्टोऽपि शैलः स मुहुर्मुरारेरपूर्ववद्विस्मयमातसान । क्षणे क्षणे यन्नवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयतायाः ||१७||
___--शिशुपाल, सर्ग ४ वह रैवतक गिरि यद्यपि श्रीकृष्ण का बार-बार देखा हुआ था तथापि उस समय अपूर्व की तरह माश्चर्य उत्पन्न कर रहा था सो ठीक ही है क्योंकि जो क्षण-क्षण में नूतनता को प्राप्त होता है वही रमणीयता का स्वरूप है ।
स दृष्टमात्रोऽपि गिरिगरीयांस्तस्य प्रमोदाय विभोर्वभूध । गुणान्तरापेक्ष्यमभीष्टसिय नहि स्वरूपं रमणीयतायाः ॥१४॥
-धर्मशर्माभ्युदय, सर्ग १० वह विशाल विन्ध्याचल दिखलाई पड़ते ही भगवान धर्मनाथ के आनन्द के लिए हो गया। यह ठीक ही है, क्योंकि अभीष्ट की सिद्धि के लिए सुन्दरता का रूप किसी दूसरे गुण की अपेक्षा नहीं रखता।
शिशुपालवध में रेवतकगिरि का वर्णन माघ ने दारुक से कराया है तो धर्मशर्माम्युदय में हरिचन्द्र ने प्रभाकर से कराया है और दोनों में ही इस वर्णन में यमक का अवलम्बन किया है--
उच्चारणज्ञोऽथ गिरा वधानमुम्चा रणत्पक्षिगणस्तटोस्तम् । नत्क धरं द्रष्टुमवेक्ष्य शौरिमुत्कंघरं दारुक इस्युवाच ।।१८।।
-शिशुपाल., सर्ग ४ शब्द करते हुए पक्षियों से युक्त अंधे तटों को धारण करनेवाले उस पर्वत को देखने के लिए उद्ग्रीव-उत्कण्ठित श्रीकृष्ण को देख वचनों के उच्चारण को जाननेचाला दारुक इस प्रकार बोला।
महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन