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________________ चन्द्रमारूपी नायक-नायिका के रतिसम्म के कारण बिखरे फूलों के समान म्लानता को प्रास हो गये थे। रात्रि के समय चमकनेवाली ओषधियो अपने तेज से रहित हो गयी थों सो ऐसी जान पढ़ती थी मानो अपने पति-चन्द्रमा को बीहीन देखकर ही उन्होंने अपना तेज छोड़ दिया हो । चन्द्रमा लक्ष्मी से रहिल हो गया था जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो इस कुमुदों के बन्धु ने-पक्षकार ने हमारी वसतिस्वरूप कमलों के समूह को विध्वस्त किया है--सति पहुँचायी है, इस क्रोष से ही मानो लक्ष्मी चन्द्रमा से निकलकर अन्यत्र चली गयी थी। कुमुविनियों में से काले-काले भ्रमर निकल रहे थे जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो कुमदिनीरूपी स्त्रियां उन निकलते हुए भ्रमरों के बहाने अपने पति की विरहानल सम्बन्धी धूम की रेखा को ही प्रकट कर रही हो । इसके सिवाम उस समय प्रातःकाल की ठण्डी हवा चल रही थी जिससे ऐसा बान पड़ता था मानो स्त्री-पुरुषों के सम्भोग के समय जो पसीना आ रहा था उससे उनकी कामाग्नि बुझनेवाली थी सो उसे वह प्रातःकाल की हवा खिले हुए कमलों के पराग के कणों के द्वारा मानो प्रज्वलित कर रही हो। इसी तरह दावानल के समय धूमपटल उठकर आकाश में व्याप्त हो गया है इस सन्दर्भ में कमि की उत्प्रेक्षा देखिए कितनी सुस्पष्ट है-- असूर्यपश्येषु प्रचुरतपण्डान्तरवल प्रदेशेष्वत्यन्वं यदुषितमभूवन्धतमसम् । तदग्निवासनोद्यतमिव तदा धूमपटले तमालस्तोमाभं गगनतलमालिङ्ग्य वयुधे ।।१८। पृ. ९७ तमाल वृक्षों के समान कान्तिवाला जो धुएँ का पटल आकाश-तल का आलिंगन कर सब ओर बढ़ रहा था वह ऐसा जान पड़ता था मानो सूर्य के दर्शन से रहित सघन वृक्ष-समूह के तल-प्रदेशों में जो सघन अन्धकार चिरकाल से रह रहा था, अग्नि के भय से वही ऊपर की ओर उठ रहा था । धर्मशमोम्युक्य का रस-परिपाक शब्द और अर्थ काव्य के शरीर है तो रस उसकी आत्मा है। जिस प्रकार आत्मा के बिना शरीर निष्प्राण हो जाता है उसी प्रकार रस के बिना काव्य निष्प्राण हो जाता है। इस दृष्टि से धर्मशर्माभ्युदय के रस का विचार करना आवश्यक है। महाकाव्य में शृंगार, वीर और शान्त-इन तीन रसों में से कोई एक अंगी रस होता है और शेष अंगरस होते हैं। काव्य का समारोप जिस रस में होता है वह अंगी रस कहलाता है और अवान्तर प्रकरणों में आये हुए रस अंग रस कहलाते हैं । धर्मशर्माम्युदय में धर्मनाथ तीर्थकर का पावन चरित वर्णित है। तीर्थकर का जन्म संसार के प्राणियों को सांसारिक दुःखों से निकालकर निर्माण के वास्तविक सुख की प्राप्ति कराने के लिए साहित्यिक सुषमा
SR No.090271
Book TitleMahakavi Harichandra Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages221
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size4 MB
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