________________
सस्प्रेक्षालोक' हम पो सन्दर्भ लेखों के द्वारा जीवघरचम्मू की काव्यकला और उसकी उत्प्रेक्षारूप लम्बी-लम्बी उड़ानों का दिग्दर्शन कराया गया है। दोनों ही लेखों में काध्यगत अनेक उदाहरण सानुवाद प्रस्तुत किये गये हैं। जोवन्धरसम्पू की गद्य भी अपनी निराली छटा रखता है। इसे देख, ऐसा लगता है कि महाकवि हरिचन्द्र के हवय में न जाने कितने असंख्य शब्दों का भाण्डार भरा हआ है। रस के अनुरूप पादों का विम्यास करना इनके गय की विशेषता है।
रस, काव्य की आत्मा है अतः उसके परिपाक की ओर कवि का ध्यान जाना भावश्यक है। दोनों ही ग्रन्थों में कवि ने श्रृंगार के दोनों भेद, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, अद्वत, बीभत्स और शान्त इन नौ रसों का यथावसर अच्छा वर्णन किया है। जिस रस से काम्य का समारोष होता है वह अंगी रस कहलाता है । इस दृष्टि से दोनों ही काव्यों का अंगी रस शाम्त रस है परन्तु विभिन्न अवसरों पर अंगभूत रसों का भी पूरा-पूरा ध्यान रखा गया है । अनुष्टुप् छन्द तथा चित्रालंकार की विवशता के कारण यपि धर्मशर्माभ्युदय में वीररस का परिपाक अच्छा नहीं हो पाया है तथापि जीवन्धरचम्पू में यह सब परतन्त्रता न होने से वीररस का परिपाक पराकाष्ठा को प्राप्त हुमा है। उसके वशम लम्भ सम्बन्धी ३. गहलों में युद्ध का वह वर्णन है जिसमें वीररम अअस गति से प्रवाहित हुआ है । रस, अलंकार, गुण और रीति के समान छन्द भी काव्य के प्रधान अंग है। लिखते हुए गौरव होता है कि दोनों ही ग्रन्थों में रसानुरूप प्रायः समस्त प्रसिद्ध छन्दों का प्रयोग किया गया है। इस सन्दर्भ में दोनों ग्रन्थों के समस्त श्लोकों के छन्दों की छानबीन की गयी है । क्षेमेन्द्र के सुवृत्ततिलक के अनुगार ही इन काव्यों में छन्दों का प्रयोग हुआ है ।
आदान-प्रदान
इस स्तम्भ के अन्तर्गत सर्बप्रथम बताया गया है कि 'जीवन्धरचरित' को उपजीव्य बनाकर संस्कृत, अपभ्रंश, कर्णाटक, तमिल तथा हिन्दी आदि में कितनं कान्य उपजीवित हुए हैं उनका उल्लेख किया गया है । प्रत्येक कवि अपने से पूर्ववर्ती कवियों के काव्यों से कुछ ग्रहण करता है तो आगे आनेवाले कवियों के लिए विरासत के रूप में बहुत कुछ दे जाता है । इस सन्दर्भ में विविध उद्धरणों को उद्धृत कर यह सिद्ध क्रिया है कि महाकवि हरिचन्द्र ने कालिदास, भारवि, माण, दण्डी, माघ तथा बीरनम्दी आदि फत्रियों से क्या ग्रहण किया है तथा श्रीहर्ष और अहंदास आदि कवियों के लिए क्या दिया है।
___ "शिशुपालबध और धर्मशर्माभ्युदय' तथा 'चन्द्रप्रभचरित और धर्मशभियुवय' इन प्रकरणों में धोनों ग्रन्थों का तुलनात्मक अध्ययन कर यह प्रकट किया गया है कि किससे किसने क्या लिया है। दोनों में कितना सादृश्य और कितनी हीनाधिकता है। वस्तुतः ये समीक्षात्मक लेख इस स्तम्भ के महत्त्वपूर्ण अंग बन गये हैं ।