SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 196
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 'न खलु मतिविकासावशंदृष्टाखिलाः कथमपि विततायो वाचमाचक्षते ते ॥८॥४il 'प्रतिशिखरि वनानि ग्रीष्ममध्येऽपि कुर्यात् किमु न जलदकाल: प्रोल्लसत्पल्लवानि' ।। ८१४९।। 'यः स्वप्नविज्ञानगते रगोचरमरन्ति नो यत्र गिरः कवेरपि । यं नानुबध्नन्ति मनःप्रवृत्तयः स हेलयार्थो विधिनैव साध्यते ॥९॥३७॥ 'छह विकृतिमुपैति पण्डितोऽपि प्रणयवतीपु न कि जडस्वभावः' ॥१३॥३०॥ 'अधिगतहृदया मनस्विनीनां किमु विलसन्मकरध्वजा न कुर्युः ॥१३॥३२॥ अहो दुरन्तो बलवहिरोषः' ॥१४॥१२॥ 'कः स्त्रीणां गह्नमवैति तच्चरित्रम्' ॥१६॥३३॥ 'को का चरितं महतामवति' ||१७४५।। 'द्रष्टुं दृढौपायमन एव चक्षुस्तृतीयं सुदृशामुपैति' ।।१७।९५।। 'अपत्यमिच्छन्ति तदेव साधको न येन आतेन पतन्ति पूर्वजाः ॥१८॥१२॥ 'निया पिशाच्येव नृपत्वचत्वरे परिस्खलकलितो न भूपतिः ॥१८॥१६॥ 'इनार्थकामाभिनिवेशलालसः स्वधर्ममर्माणि भिनत्ति यो नृपः । फलाभिलाषेण समीहते तरूं समूलमुन्मूलयितुं स दुर्मतिः ॥१८॥३२॥ 'यरसंसक्तं प्राणिनां क्षीरनीरन्यायेनोश्रङ्गमप्यन्तरङ्गम् । आयुश्छेदे याति चेत्तत्तदास्था का बाह्येषु स्त्रीतनूजादिकेषु ॥२०।१३।। सूचना- अष्टादश सर्ग के १२ से लेकर ४३ वक के श्लोक सुभाषित रूप ही है। नौस्युपवेश और राज्यशासन बाणभट्ट ने कादम्बरी में शुकनासोपदेश का सन्दर्भ देकर नोत्युपदेश की जो परम्परा प्रचलित की थी वह उत्तरवर्ती लेखकों को बहुत रुचिकर हुई। किसी न किसी रूप में उन्होंने अपने ग्रन्थों में उसे स्थान दिया है। भारवि ने किरातार्जुनीय में युधिष्ठिरोपदेश के द्वारा, माघ ने शिशुपालवच में उद्धवोपदेश के द्वारा, और वीरनन्दी ने चन्द्रप्रभचरित में श्रीषेणोपदेश के द्वारा उसे अपनाया है। धर्मशर्माम्युदय के अष्टावश सर्ग में दीक्षा लेते समय राजा महासेन ने अपने प्रिय पुत्र धर्ममाण के लिए जो देशना दी है वह भी उसी परम्परा की सम्पुष्टि है। महाकवि हरिचन्द्र ने यह प्रकरण १४ से लेकर ४४ तक ३० श्लोकों में पूर्ण किया है। इनके उपदेश को विशेषता यह है कि उस यत्र-तत्र साहित्यिक छटा बिखरी हुई है । उदाहरण के लिए, दो चार श्लोक देखिए गुणार्जन की प्रेरणा करते हुए राजा महासेन कहते हैंभृशं गुणानर्जय सद्गुणो जनैः क्रियासु कोदण्ड इव प्रशस्यते । गुणच्युतो बाण इवातिभीषणः प्रयाति वलयपमिह क्षणादपि ॥१५॥ नीति-निकुंज
SR No.090271
Book TitleMahakavi Harichandra Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages221
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy