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स्तम्भ २ : प्रकीर्णक निर्देश
जीवन्परचम्पू में शिशु वर्णन
महाकवि हरिचन्द्र ने शिशु अवस्था का वर्णन धर्मशर्माभ्युदय के नवम सर्ग में विस्तार से किया है पर जीवन्धरचम्पू के प्रथम लम्भ में भी जो जीवन्धर कुमार की शिशु अवस्था का वर्णन हुआ है वह संक्षिप्त होने पर भी सुन्दर है, देखिए -
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यथा यथा जीवकमामिनीशो विवृद्धिमा गाद्विलसत्कलापः । तथा तथावर्धत मोदाविरुद्धे लमूरन्यनिकायमतुः ॥९९॥ ते विभत्सृष्टिष्टिकरः सुतः । उद्यत्कुड्मलयुग्मश्रीपद्माकरतुलां दधौ ॥१००॥ मुग्वस्मितं मुखखरोजगलम्मरन्द
धारानुकारि मुखचन्दिर चन्द्रिकाभम् । पित्रोः प्रमोदकरमेष बभार सूनुः
कीर्तेविकासभित ह्रासमिवास्यलक्ष्म्याः ॥ १०१ ॥ पयोधरं धयन् सूनुः पयो गण्डूषितं मुहुः । उगिरकीतिकल्लोलं किरशिव विदिद्युते ||१०२ ॥ राञ्चरन् स हि जानुभ्याममले मणिकुट्टिमे । प्रतिविम्यं परापत्यबुद्ध्या संताडयन्बभौ ॥१०३॥
क्रमेण सोऽयं मणिकुट्टिमाणे नखस्फुरत्का ग्लिरीभिरचिते । स्खलत्पदं क्रोमलपादपङ्कजक्रमं सतान प्रसवास्तुते यथा ॥ १०४ ॥ पु. ३६-३७
भाव यह है
शोभायमान कलाओं से सम्पन्न जीवम्धररूपी चन्द्रमा जैसा जैसा बढ़ता जाता था वैसा - बेसा ही गन्धोत्कट का हर्षरूपी सागर बढ़ता जाता था ।
बालक जीवन्धर जब मुट्टियाँ बाँधकर चित्त सोता था तब उस तालाब की शोभा धारण करता था जिसमें कमल को दो बोंड़ियाँ उठ रही थीं ।
वह बालक माता-पिता के आनन्द को बढ़ानेवाली जिस सुन्दर मुसकान को धारण करता था वह ऐसी जान पड़ती यो मानो मुखरूपी कमल से मकरन्द की धारा
महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन