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जलक्रीड़ा के बाद नदी से बाहर निकली हुई किसी स्त्री के केशों में पानी की बूदें टपक रही हैं । झ्यों टपक नही है : इसका अन्तर कवि की कलम से सुनिए---
जलविहरणकेलिमुत्सृजन्त्याः कचनिचयः क्षरदम्बुरम्बुजाक्ष्याः । परिविदितनितम्बसङ्गसौख्यः पुनरपि बन्धभियेद रोविति स्म ॥५९।।
--धर्मशर्मा., सर्ग १३ जलविहार को क्रीड़ा छोड़नेवाली किसी कमलनयना के केशों से पानी कर रहा था जिससे वे ऐसे जान पड़ते थे कि अब तक तो हमने खुले रहने से नितम्ब के साथ समागम के सुख का अनुभव किया पर अब फिर बांध दिये जायेंगे इस भय से मानो रो ही रहे थे।
किसी पुरुष ने स्वी के स्थूल स्तनमण्डल पर पानी उछाल दिया इससे पास में खड़ी हुई सपत्नी को बड़ी वेदना हुई और उस वेदना के कारण वह स्वेद से तर हो गयी । देखिए, सपत्नीगत मात्सर्य का कितना सुन्दर वर्णन है
सरभसमधिपेन सिच्यमाने पृथुलपयोघरमण्डले प्रियायाः। श्रमसलिलमिषात्सखेदमण्यहह मुमोच कुचद्वयं सपत्न्याः ॥३७॥
-धर्मशर्मा., सर्ग १३ ज्यों ही पति ने अपनी प्रिया का स्थूल स्तनमण्डल सहसा पानी से सींचा त्यों ही सपत्नी के दोनों स्तन पसीना के छल से बड़े खेद के साथ आंसू छोड़ने लगे।
इसी से मिलता-जुलता भाष' महाकवि माघ ने भी प्रकट किया है । देखिएउद्वीक्ष्य प्रियकरकुड्मलापविद्ध
वक्षोजवयमभिषिक्तमन्यनार्याः । अम्भोभिर्मुहुरसिचद्वधरमर्षा
दात्मीयं पृथुतरनेत्रयुग्ममुक्तः ॥३७॥ पति के करकुड्मलों के द्वारा उछाले हुए जल से अन्य स्त्री के स्तनयुगल को अभिषिक्त देख कोई स्त्री क्रोध के कारण अपने स्तनयुगल को विशाल नेत्रयुगल से छोड़े हए जल से-आंसुओं से बार-बार सींचने लगी।
इस तरह धर्मशर्माम्युदय का समस्त त्रयोदश सर्ग जलकोड़ा के मनोहर दृश्यों से भरा हुआ है। इसके समक्ष भारवि का जलक्रीड़ा वर्णन (किरातार्जुनीय, सर्ग ८) निष्प्रभ जान पड़ता है, और माघ का वर्णन समकक्ष प्रतिभासित होता है।
जीवन्धर चम्पू का वसन्त-वैभव पुष्पावचय
जन-जन के मानस को आन्दोलित कर देनेवाले वसन्त का शुभागमन हुआ है । वन की शोभा निराली हो गयी है। उसका वर्णन करने के लिए महाकवि हरिचन्द्र की पंक्तियाँ देखिए---
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महाकवि हरिश्चन्द्र : एक अनुशीलन