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________________ 'समसिबत मुहर्मुहुः कुवानं करसलिलर्दयितो विमुग्धबध्वाः । मृदुतरहृदयस्थलीनरूलस्मरनवकल्पतरौरिवाभिवती ॥३१॥ -धर्मशर्मा,, सर्ग १३ कोई एक पुरुष हाथों से पानी छाल-उछालकर अपनी मां-भाली नयी स्त्री के स्तनाम भाग को बार-बार सींच रहा था जो ऐसा जान पड़ता था मानो उसके कोमल हुवय क्षेत्र में जमे हुए कामरूपी नवीन कल्पवृक्ष को बढ़ाने के लिए ही सींच रहा हो । स्थूल स्तनों से सुशोभित कोई स्त्री पानी में तैर रही थी उसका वर्णन देखिए कितना कल्पनापूर्ण है ? हदि निहितघटेन बद्धसुम्बीफलतुलिताङ्गलतेय कापि सन्वी । इह पयसि सविभ्रम तरन्ती पृथुलकुचोच्चयशालिनी रराज ।।३३।। -धर्मशर्मा. सर्ग १३ स्थूल स्तनमण्डल से सुशोभित कोई एक स्त्री पानी में बड़े विभ्रम के साथ तर रही थी और उससे ऐसी जान पड़ती थी मानो उसने अपने हृदय के नीचे दो घट ही रख छोड़े हों अथवा शरीररूपी लता के नीचे तुम्बी के दो फल ही बाँध रखे हों। किसी स्त्री के मुख पर एक भीरा बार-बार झपट रहा है और स्त्री उससे भयभीत हो अपने दोनों हाथ हिला रही है। उस भ्रमर के प्रति कवि की उक्ति देखिए कितनी ममोरम है ? महमिह गुरुलज्जया इतोऽस्मि भ्रमर विवेकनिधिस्त्वमेक एव । मुखमनु सुमुखी करी धुनाना यदुपअनं भवता मुहबूचुम्बे ॥३९।। -धर्मशर्मा. सर्गः१३ भाई भ्रमर ! मैं तो इस बड़ी लज्जा के द्वारा ही मारा गया पर विवेक के भाण्डार तुम्ही एक हो जो सब लोगों के समक्ष ही मुख के पास हाय हिलानेवाली इरा सुमुखी का बार-बार धुम्बन कर रहे हो। कनि की यह उक्ति अभिज्ञान शाकुन्तल में प्ररूपित कविकुलतिलका कालिदास की निम्नांकित उक्ति का स्मरण दिलाती हैचलापाङ्गां दृष्टि स्पृशसि बहुशो वेपथुमती रहस्याख्यायीव स्वनसि मृदु कर्णान्तिकचरः । करं व्याधुन्वन्त्याः पिबसि रतिसर्वस्वमवरं अयं तत्त्वान्वेषान्मधुकर हतास्त्वं खलु कृती ।। भाष स्पष्ट है। -- - - १, सुदतीकुच कुमनाप्रमारातरुणः कश्चिदसिचदम्युभिः । इद स्थलजातरागकल्पद्रुमवढमें किमु कामुकः परम् ॥१८॥ -- जीवघरसम्पू. लम् । आमोद-निदर्शन (मनोरंजन)
SR No.090271
Book TitleMahakavi Harichandra Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages221
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size4 MB
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