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भीषन्धरणम्पू का प्रबोध-गीत कविकुलगुरु कालिदास ने रघुवंश के पंचम सर्ग में श्लोक ६६ से ७५ तक मागों द्वारा युवराज अज को जगाने के लिए जिस प्रबोध-गीत का मंगल गान कराया है उसका प्रभाव हम जीवन्धरवम्मू पर भी देखते हैं। यहाँ विजया देवी को जगाने के लिए प्रायोधिक-जगाने के कार्य में नियुक्त मागधजनों ने जो हृदयहारी गीत गाया है वह संक्षिप्त होने पर भी एक विशिष्ट प्रकार के आनन्द की उद्भूति करता है। इस कार्य के लिए रघुवंश और भाबर दोनों में एक ही सन्ततिलका छन्द का चयन किया गया हैदेवि प्रभातसगयोऽयमिहाञ्जलि ते
पः करविरघयन्दरफुल्लरूपैः । भृङ्गालिमञ्जुलरवैस्तनुते प्रबोध
गीति नृपालमणिमानसहंसकान्ते ॥४३।। देवि त्वदीयमुखपङ्कजनिजितश्री
__श्चन्द्रो बिलोचनजितं दधदेणमङ्के । अस्ताद्रिदुर्गसरणिः किल मन्दतेजा
द्राग्वारुणीभजनतश्च पतिष्यतीव ॥४४॥ बलरिपुहरिदेषा रक्तसंध्याम्बरश्री
रविमयमणिदीपं रम्यदूर्वासमेतम् । गगनमहितपात्रे कुर्वती भाक्षसाने
प्रगुणयति निकाम देवि ते मङ्गलानि ॥४५।। देवि त्वदीयकचडम्बरचौर्यसृङ्गा
भुङ्गावली सपदि पङ्कजबन्धनेषु । राज्ञा निशासु रचिताद्य विसृष्टहष्टा
त्वां स्तौति मञ्जुलरबरररीकुरुष्व ॥४६॥-पू. १९-२० इनका भाव यह है
हे देवि ! हे राजा के मनरूपी मानसरोवर की हंसी ! यहाँ यह प्रातःकाल कुछ-कुछ खिले हुए कमलरूपी हाथों के द्वारा तुम्हें अंजलि बांध रहा है और मुंगावली के मधुर शब्दों के द्वारा प्रबोध-गीत गा रहा है।
हे देवि! तुम्हारे मुख-कमल के द्वारा जिसको श्री जीत ली गयी है ऐसा यह चन्द्रमा, तुम्हारे नेत्रों से पराजित हरिण को अपनी गोद में रखे हुए अस्ताचलरूपी दुर्ग की शरण में गया था, परन्तु वह अभागा वहाँ वारुणी-पश्चिम दिशा (पक्ष में, मदिरा) का सेवन कर बैठी, इसलिए अब मम्द-तेज होकर शीघ्र ही नीचे गिर जायेगा ऐसा जान पड़ता है।
महाकवि हरिचन् : एक अनुशीलन