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________________ वहाँ के मनुष्यों में किसी का सर्वनाश नहीं होता था, और परमोह-सम्भच-परम + अह उत्कृष्टव्याप्तिज्ञान प्रमाणशास्त्र-न्यायशास्त्र में ही था, वहाँ के मनुष्यों में परमोहसंभव - दूसरों को मोह उत्पन्न करना अथवा अत्यधिक मोह का उत्पन्न होना नहीं था । विरोधाभास महानदीनोऽप्यजडाशयो जगत्यनष्टसिद्धि : परमेश्वरोऽपि सन् । बभूव राजापि निकारकारणं विभावरीणामयमद्भुतोदयः ॥२-३३।। यह राजा संसार में महानदीन-महासागर होकर भी अजडाशय-जल से रहित था, परमेश्वर होता हुआ भी अणिमा आदि आठ सिद्धियों से रहित था और राजा-चन्द्रमा होकर भी विभावरी-रात्रियों के दुख का कारण था । परिहार पक्ष में वह राजा महान-अत्यन्त उदार अदीन-दीनता से रहित तथा प्रबुद्ध आयवाला था। अत्यन्त सम्पन्न होता हुआ अनष्ट-सिद्धि था-उसकी सिद्धियो कभी नष्ट नहीं होती थीं और राजा-नृपत्ति होसर भी वा अंगाविमौ शत्रुराजाओं के दुख का कारण था। इस तरह वह अद्भुत उदय से रहित था। और भी चित्रमेतज्जगन्मित्र नेत्रमंत्री गते त्वयि । यन्मे जडाशयस्यापि पङ्कजार्स निमोलति ॥३-५१॥ यह बड़ा आश्चर्य है कि आप जगत् के मित्र--सूर्य है और मैं जडाशय-तालाब हूँ, आप मेरे नयन-गोचर हो रहे हैं फिर भी मेरा पङ्कजात-कमल निमीलित हो रहा है। पक्ष में जगत् के मित्रस्वरूप आपके दृष्टिगोचर होते ही मुझ मूर्ख का भी पापसमूह नष्ट हो रहा है। दीपक नभो दिनेशेन नयेन विक्रमो वन मृगेन्द्रेण निशीथमिन्दुना । प्रतापलक्ष्मीबलकास्तिशालिना विना न पुत्रेण च भाति नः कुलम् ॥२-७३॥ सूर्य के बिना आकाश, नय के बिना पराक्रम, सिंह के बिना धन, चन्द्रमा के बिना रात्रि और प्रताप, लक्ष्मी, बल तथा कान्ति से सुशोभित पुत्र के बिना हमारा कुल सुशोभित नहीं होता। भ्रान्तिमान रक्तोत्पलं हरितपत्रविलम्बितीरे विस्रोतसः स्फुटमिति निदतिपेन्द्रः । बिम्बं विकृष्य सहसा तपनस्य मुन्छन् धुम्बन्करं दिवि चकार न कस्य हास्यम् ।।६-४४॥ साहिरियक सुषमा
SR No.090271
Book TitleMahakavi Harichandra Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages221
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size4 MB
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