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स्थानों पर असमानता भी। उसमें स्थान तथा पात्रों के नाम भी दूसरे-दूसरे है। बीचबीच में कुछ ऐसी घटनाएं भी उपलब्ध हैं जिनका उक्त तीनों ग्रन्थों में उस्लेख नहीं है । गद्यचिन्तामणिकार ने यद्यपि प्रारम्भिक वक्तव्य में--- ____ निःसारभूतमपि बन्धनवन्तुजातं मूनों जनो वति हि प्रसवानुषङ्गात् ।
जीवन्धरप्रभवपुण्यपुराणयोगावाक्यं ममाप्युभयलोकहितप्रदायि ।। कोक द्वारा जीवन्धर से सम्बद्ध पुराण का उल्लेख किया है और विद्वान् लोग उनके इस पुराण से गुणभन्न के उत्तरपुराणान्तर्गत जावकचारत को समझते आते हैं पर कथा में भेद होने से ऐसा लगता है कि वादोभसिंह ने अपने ग्रन्थों का आधार उत्तरपुराण को न बनाकर किसी दूसरे ही पुराण को बनाया है। पुराण का कान्यीकरण तो हो सकता है और अनावश्यक कथाभाग छोड़ा भी जा सकता है परन्तु स्थान और पात्रों के नाम भादि में परिवर्तन सम्भव नहीं दिखता। हाँ, जीवन्धरचम्पकार महाकवि हरिचन्द्र ने अपने ग्रन्थ का आधार जहाँ मद्य चिन्तामणि को बनाया है वहां उत्तरपुराण के वृत्तवर्णन का भी उपयोग किया है । उदाहरण के लिए एक स्थल पर्याप्त है
जीवन्धर का गुरु लोकपाल विद्याधर, अपनी पूर्व कथा जीवन्धर को सुना रहा है। वह भस्मक व्याधि के कारण बनतपस्या से भ्रष्ट होकर अन्य साधु का रूप रख लेता है और भोजन करने के लिए जीवन्धर के साथ गन्धोपट की भोजनशाला में पहुँचता है। जीवन्धर के सामने गरम भोजन आता है उसे देख वे रोने लगते है, साधु उनसे रोने का कारण पूछता है और जीवन्धर कौतुकपूर्ण रीति से रोने के गुण बतलाते हैं। इस घटना का वादी भसिंह की गद्यचिन्तामणि और क्षत्रचूडामणि में उल्लेख नहीं है पर गुणभद्र के उत्तरपुराण में पाया जाता है। जीवन्धरचम्पूकार ने भी इस घटना का बड़ा सुन्दर वर्णन किया है, देखिए
सहायः सह संविश्य भोक्तुं प्रारब्धवानसी। अथार्भकस्वभाचेन सर्वमुष्णमिदं कथम् ॥२७१।। भुजेऽहमिति रोदित्वा अननीमकदर्थयत् । रुदन्तं तं समालोक्य भन्द्रतत्ते न युज्यते ।।२७२॥ अपि त्वं वयस्वाल्पीयान् वीस्थो वीर्यादिभिर्गुणैः । अधरी कृतविश्वोऽसि हेतुना केन रोदिषि ॥२७३।। इति तापसवेषेण भाषितः स कुमारकः । शृणु पूज्य न घेरिस त्वं रोदनेऽस्मिन्गुणानिमान् ।। २७४।। निर्याति संहतश्लेष्मा वमत्यमपि नेत्रयोः । शोतीभवति थाहारः कथमेतन्निवार्यते ॥२७५।। इत्याख्यत्तत्समाकर्ण्य मातास्य मुदिता सतो । यथाविधि सहायैस्वं सह सम्यगभोजयत् ॥२७६॥
-उत्तरपुराण, पर्व ७५ महाकवि हरिरम्द्र : एक अनुशीलन