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________________ गतेऽपि दृग्गोचरमत्र शत्रवः स्त्रियोऽपि कंदर्पमपत्रपा' दधुः । किमद्भुतं तद्धृतपञ्चसायके यदद्वन्संगरसंगताः क्षणात् ।।२-२।। इस राजा के दिखते हो शत्रु अहंकार-रहित हो जाते थे और स्त्रियां काम से पीड़ित हो जाती पो । शत्रु सवारियां छोड़ देते थे और स्त्रियाँ लज्जा खो बैठती थीं । जब दिखने में ही यह बात थी तब पांच बाणों के धारण करने पर युद्ध में आये हुए शत्रु क्षणभर में भाग जाते थे इसमें क्या आश्चर्य था? इसी प्रकार जब यह राजा स्वयं पंचसायक-काम को धारण करता था तब स्त्रियो समागम के रस को प्राप्त होकर क्षणभर में द्रवीभूत हो जाती थी इसमें क्या आश्चर्य था ? दिग्विजय के लिए प्रयाण का वर्णन देखिए न केवलं दिग्विजये चलचमूभरभ्रमद्भूबलयेऽस्य' जङ्गमः। श्रिताहितत्राणकलङ्कशङ्कितरिव स्थिरैरप्युदकम्मि भूधरैः ॥२-३।। चलती हुई सेना के भार से जिसमें समस्त भूमण्डल कम्पित हो रहा है ऐसे महाराज महासेन के दिग्विजय के समय केवल जंगम भूधर-राजा ही कम्पित नहीं हुए थे किन्तु शरणागत शत्रुओं की रक्षारूप अपराध से शकित हुए स्थिरभूधर-पर्वत भी कम्पित हो उठे थे। तदा तुदुत्तुङ्गनुरङ्गमक्रमप्रहारमज्जन्मणिशङ्कुसंहिताम् । न भूरिवाषाविधुरोऽप्यपोहितुं प्रगल्भतेऽद्यापि महीमहीश्वरः ॥६।। -सर्ग २ उस समय राज्ञा प्रहासेन के ऊंचे-ऊँचे घोडों की टापों के प्रहार से घसती हुई मणिरूपी कील में पुषिवी मानो खचित हो गयी थी, यही कारण है कि शेषनाग भारी बाधा से दुखी होने पर भी उसे अब तक छोड़ने में असमर्थ बना है। ___उन दोनों इलोकों में भाषा का प्रवाह भी प्रष्टव्य है, आगे राजा महासेन के यश का वर्णन देखिए कितना मनोहारी है ? कुलेऽपि कि सात तबेदृशी स्थितियंदात्मजा श्रीन सभास्वपि त्यजेत् । ___ तदङ्कलीलामिति कीतिरीय॑या ययावुपालन्धुमिवास्य वारिधिम् ॥२-५।। हे तात ! क्या तुम्हारे भी कुल में ऐसी रीति है कि पुत्री-लक्ष्मी सभाओं में भी सनके गोद की क्रीड़ा को नहीं छोड़ सकती। ऐसा उलाहना देने के लिए हो मानो इस राजा की कीति समुद्र के पास गयी थी। इसी से प्रभावित अन्य कवि का भी सुयश-वर्णन देखिएलग्न रागावताङ्गमा सुदृढमिय यौवासियष्टयारिकण्ठे मातङ्गानामपोहोपरि परपुरुषर्या च दृष्टा पतन्ती । १, क पगिति थेवः, पक्षे कंध कामए । २. न विद्यते पत्र श्रेष्ठ-वाहन मेषा ते, पक्षे अपगता-नष्टा प्रपा-लज्जा यासा ताः । ३. धृताः पञ्च सायकाः पञ्चषका माणा मेन सः, पक्षे धूयः पञ्चसायक: कागो मेन सः । ४. संगरे युद्ध संगता मिलिताः, पक्षे सा रसः सरसः सम् गमाः प्रायाः । चर्पन १५३
SR No.090271
Book TitleMahakavi Harichandra Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages221
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size4 MB
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