SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 123
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ को नष्ट करनेवाले जीव सिद्ध अवस्था को प्रास होते हैं। सिद्ध जीव फिर कभी जन्ममरण के चक्र में नहीं पड़ते। अजीव तत्त्व जो चेतना जानने-देखने की शक्ति से रहित है उसे अजीव कहते हैं। यह अजीब धर्मास्तिकाय, 'अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और काल के भेद से पाँच प्रकार का है। पांच अजीव और एक जीव इस तरह दोनों मिलकर छह द्रव्य कहलाते हैं। इन छह बन्यों से ही लोक का निर्माण हुआ है । इन छह द्रव्यों में जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य क्रिया सहित है, शेष चार द्रव्य निस्क्रिय है 1 धर्मास्तिकाय जीव और पुद्गलों के चलने में सहायक होता है और अधर्मास्तिकाय उनके ठहरने में साहाय्य करता है । आकाशास्तिकाय से सब द्रव्यों को ठहरने के लिए अवगाहन प्राप्त होता है। पुद्गलास्तिकाव से शरीर तथा अन्य दृश्यमान पदार्थों का निर्माण हुवा है। कालख्य सब द्रव्यों के परिवर्तन में ग्रहायक है। दिन, पात, मही घण्टा आदि का व्यवहार काल, द्रव्य की ही सहायता से होता है। अनादि काल से जीव के साथ कर्म और नोकर्मशानावरणादि रूप अजीव का सम्बन्ध लगा रहा है। इस सम्बन्ध के कारण ही जीष को संसार-भ्रमण करना पड़ता है। जब इस अजीव का सम्बन्ध सर्वथा छूट जाता है तब जीव सिद्ध हो जाता है। आस्रव तत्त्व ज्ञानावरणादि कर्म रूप होने के योग्य पुद्गल द्रव्य के परमाणु लोक में सर्वत्र व्यास है। आत्मा के साथ उनका सम्बन्ध होने में जो कारण पड़ता है उसे आस्रव कहते है। यह आस्रव प्रमुख रूप से योग के कारण होता है। आत्मप्रदेशों में परिष्पन्दकम्पन होने को भोग कहते हैं। यह योग काय, वचन और मन के निमित्त से तीन प्रकार का होता है । शुभ परिणामों से रखा हुआ योग शुभ योग कहलाता है और अशुभ परिणामों से रचा हुआ अशुभ योग। शुभ योग से पुण्य कर्म का आरव होता है, और अशुभ योग से पाप कर्म का । शुभ कर्म सांसारिक सुख का कारण है और अशुभ कर्म सांसारिक दुख का कारण । ज्ञानावरण, दर्शनाबरण, वेदनीय, मोहनीय, मायु, नाम, गोत्र और अन्तराय के भेद से कर्म आठ प्रकार का होता है | इन आठों के आरव अलगअलग परिणाम है। बन्ध तत्त्व ___ कषायसहित होने के कारण जीव कर्म-रूप होने के योग्य पुद्गल परमाणुओं को ग्रहण करता है। वे पुद्गल परमाणु किसी निश्चित समय तक यात्मप्रदेशों के साथ संलग्न रहते हैं, यहो बन्ध तत्व है । मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग सिद्धान्त
SR No.090271
Book TitleMahakavi Harichandra Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages221
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy