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ये पांच बन्ध के प्रमुख कारण है। प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेद से बन्ध के पार भेद होते हैं। शानावरणादि कर्मों का जो अपना-अपना स्वभाव है वह प्रकृतिबन्ध है । जबतक ज्ञानावरणादि कर्म आत्मप्रदेशों के साथ संलग्न रहकर अपना कार्य करने में समर्थ रहते हैं तबतक के काल को स्थितिबन्ध कहते है। कर्मों के फल देने की शक्ति में जो होनाधिक भाव होता है वह अनुभाग बन्ध कहलाता है और कर्म-प्रदेशों का जो परिमाण है वह प्रदेशबन्ध कहलाता है। एक बार का बैंधा हुआ ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराम कर्म अधिक से अधिक तीस कोड़ाफोड़ी सागर तक मात्मप्रदेशों के साथ संलग्न रह सकता है, मोहनीय कर्म सत्तर कोडाकोड़ी सागर तक तथा माम और गोत्र बोस कोडाकोडी सागर तक यही इनका उत्कृष्ट स्थिति-बन्ध है। ज्ञानाबरण कर्म, आत्मा को शाम को और कारण धर्म दर्शन गण को मात करता है। वेदनीय कर्म सुख और दुख का अनुभव कराता है । मोहनीय कर्म पर-पदार्थों में अहंभाव तथा ममभाव उत्पन्न करता है। आयुकर्म इस जीव को निश्चित समम तक नरक, तिर्यंच, मनुष्य अथवा देव के शरीर में अवक्षस रखता है। नाम कर्म से शरीर तथा इन्द्रिय आदि की रचना होती है। गोत्र कर्म इस जीव को उच्च अथवा नीच कुल में उत्पन्न करता है तथा अन्तराय कम दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य-आत्मबल में बाधा डालता है।
संवर तत्त्व
___ आत्मा में नवीन कर्मों का आसव-भामा, रुक जाना संवर कहलाता है। यह संवर, गुसि, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र के द्वारा होता है। तात्पर्य यह है कि जिन भावों से आस्रव होता है उन भावों के विपरीत भावों से संवर होता है । मन-वचन-काय रूप योगत्रय को नियन्त्रित करना गुप्ति है। गमनागमन, भाषा, भोजन, वस्तुओं के रखने, उठाने और मल-मूत्र छोड़ने में प्रमाद-रहित होकर प्रवृत्ति करना समिति है । उत्तम-क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य ये दश धर्म है। अनित्य, अशरण, संसार, एकत्थ, अन्यत्व, मशुचित्व, आनव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्म ये बारह अनुप्रेक्षाएं हैं। क्षुधा, तृषा मावि चाईस प्रकार की बाधाओं को समता भाव से सहन करना परीषजय है और सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात में पांच प्रकार के चारित हैं। इन सब कारणों से संवर होता है। आसव संसार का और संवर मोक्ष का कारण है। निर्जरा तत्त्व
पूर्वबद्ध कर्मों का एक-देश पृथक् होना निर्जरा है। इसके सकाम निर्जरा और अकाम निर्जरा के भेद से दो भेद है। लपश्चरण आदि के द्वारा बुद्धि-पूर्वक जो निर्जरा
महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन