SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 121
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भक्ति के नाम को परिवर्तित कर मार्गप्रभावना नाम रखा गया है । अभिक्षण अभिक्षणज्ञानोपयोगयुक्तता के स्थान पर संक्षिप्त नाम ज्ञापयोग रखा है। लब्धिसंवेगभावना के स्थान पर संवेग इतना संक्षिप्त नाम रखा है। क्षणलव प्रतिबोधनता भावना को अभी ज्ञानोपयोग में गतार्थ समझकर छोड़ा गया है ऐसा जान पड़ता है और ज्ञान के समान आचार को भी प्रधानता देने की भावना से बहुश्रुतभक्ति के साथ आचार्यभक्ति को जोड़ा गया है । शेष भावनाओं के नाम और अर्थ मिलते-जुलते हैं । इन सोलह भावनामों का चिन्तन कर मुनिराज दशरथ ने तीर्थंकर कर्मकर as किया था। उसी के फलस्वरूप वे सर्वार्थसिद्धिविमान से च्युत होकर धर्मनाथ तीर्थंकर हुए | धर्मशर्माभ्युदय में जैन सिद्धान्त समवसरण सभा के मध्य में स्थित गन्धकुटी में देवनिर्मित रत्नमय सिंहासन पर भगवान् धर्मनाथ विराजमान हैं। वे सिंहासन से चार अंगुल ऊपर अन्तरीक्ष में स्थित है । उनके चारों ओर बेरकर बारह सभाएँ हैं जिनमें क्रम से १ निर्ग्रन्थ मुनि, २. कल्पवासिनी देवियाँ २ व्यायिकाएं, ४. ज्योतिष्क देवियाँ, ५ व्यन्तर देवियाँ ६. भवनबासिनी देवियों, ७ भवनवासी देव, ८ व्यन्तर देव, ९. ज्योतिष्क देव १०. कल्पवासी देव, ११. मनुष्य और १२ तिर्यच - पशु प्रशान्तभाव से बैठे हैं । भगवान् आठ प्रातिछापों से सुशोभित हैं । बारह सभाओं के लोग उनकी दिव्यध्वनि उत्कण्ठित है । , · सुनने के लिए निर्ग्रन्थ मुनियों की सभा में समासीन गणधर - - प्रमुख श्रोता ने हे भगवन् ! संसार के प्राणियों का कल्याण किस प्रकार हो सकता है ? उनकी दिपष्वनि खिरी - दिव्योपदेश प्रारम्भ हुआ । उपदेश के समय कोई विकार नहीं था । प्रशान्त गम्भीरमुद्रा में बोलते हुए उन्होंने कहाजिन शासन में जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संगर, निर्जरा और मोक्ष ये सात सत्त्व हैं। पुण्य और पाप बन्धतत्व के अन्तर्गत हो जाते हैं इसलिए उनका अलग से निरूपण नहीं किया जा रहा है। वैसे पुण्य और पाप को मिलाकर सात तत्त्व नौ पदार्थ कहलाते हैं । उनसे पूछा कि इसके उत्तर में उनके मुख पर जीव तत्त्व は इनमें जीव तत्व चैतन्य लक्षण से सहित है, अमूर्तिक है, शुभ -अशुभ कर्मों का कर्ता और भोक्ता है, शरीर प्रमाण है, ऊर्ध्वगमन स्वभाव वाला है तथा उत्पाद व्यय और प्रौव्य स्वरूप है | सिद्ध और संसारी के भेद से जीव तत्त्व दो प्रकार का है। जन्ममरण के चक्र में फँसे हुए जीव संसारी है और इसके चक्र से जो पार हो चुके हैं वे सिद्ध कहलाते हैं सिद्धान्त संसारी जीव नारको, निर्यख मनुष्य और देव के भेद से चार प्रकार के है । 7 १०९
SR No.090271
Book TitleMahakavi Harichandra Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages221
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy