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अथाङ्कदम्भेन सहोवरत्वात्सोरसाहमुत्सङ्गितकालमूटः।
अङ्गानि यन्मुर्मुरवह्निपुञ्जभाजीव मे शीतकरः करोति ॥५५॥ अरे 1 क्या यह पन्द्रमा समुद्र के जल में बिहार करते समय वडवानल की ज्वालाओं के समूह से आलिंगित हो गया था, अथवा अत्यन्त उष्ण सूर्यमण्डल के अग्रभाग में प्रवेश करने से उसका कठोर सस्ताप इसमें आ मिला है ? अथवा कलंक के बहाने सहोदर होने के कारण बड़े उत्साह के साथ कालकुट को अपनी गोद में धारण कर. रहा है, जिससे कि मेरे अंगों को मुर्मूरानल के समूह से व्याप्त-सा बना रहा है।
चन्द्रमा के सन्तापफ बनने में कवि ने जिन कारणों की कल्पना की है उनमें से दो कारणों की कल्पना दमयन्ती के विरह-वर्णन में श्रीहर्ष ने भी की है । यथा--
अयि विधं परिपृच्छ गुरोः कुतः स्फुटमशिक्ष्यत वाहवदान्यता । चलपितशम्भुगलाङ्गरलास्वया किमु वधौ जड वा वडवानलात् ॥४८॥
-नैषधीयचरित, सर्ग ४ हे गखि ! चन्द्रमा से पूछ तो सही कि तूने वाह प्रदान करने की यह उदारता किस गुरु से मीत्री है ? क्या शंकरजी के गले को ग्लापित करनेवाले कालकूट विष से या समुद्र में रहने वाले वडवानल से ?
पन्द्रहवें सर्ग के प्रारम्भ में पानगोष्ठी का वर्णन कर उत्तरार्ध में सम्भोग श्रृंगार का वर्णन किया गया है जिसमें नायक-नायिकाओं के सात्त्विक और संचारी भावों का सुन्दर चित्रण हुआ है।
प्रभात
संस्कृत-साहित्य में शिशुपालवध का प्रभात-वर्णन प्रसिद्ध है पर जब हम धर्मशर्माभ्युदय के प्रभाव-वर्णन को देखते हैं तब एक विचित्र ही प्रकार के आनन्द की अद्भुति होती है। शिशुपालवध के प्रभात-वर्णन में हम जहाँ कहीं अश्लीलता का भी दर्शन करते हैं पर धर्मशर्माभ्युदय के प्रभात-वर्णन में प्रालीलता दृष्टिगोचर नहीं होती। धर्मशर्माभ्युदय यद्यपि शिशुपालवध से प्रभावित है तथापि उसको निरय-नूतन कल्पनाएँ सहृदय जनों के हृदय में एक विचित्र ही रसानुभूति कराती है। आकाशान्त में झुके हुए सालंक चन्द्र को छोड़कर रात्रि क्यों जा रही है ? इसमें कवि की कल्पना देखिए
संभोग प्रबिंदघता कुमुदतीभिश्चन्द्रेण द्विगुणित आत्मनः कलङ्कः । तन्नूनं मतिपरमम्बरानालग्न यात्येनं समवगणय्य पामिनीयम् ॥३॥
--सर्ग १६
१. विपुलतनितम्बामोराद्धे रमण्याः
शगिनुमनधिग सम्परजीविदेशोऽयकामाय । रतिपरिच पश्यन्नद्रान्द्रः कथति द
पति शनोये शर्वरी करोतु ॥
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महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलम