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________________ पूर्वानिमित्यन्तरितोऽय रागात्स्वज्ञापनायोपपतिः किलेम्भुः । पुरम्दराशाभिमुखं कराप्रश्चिक्षेप ताम्बूलनिभा स्वकान्तिम् ।।३२।। - धनी , सर्ग १४ तवनम्तर पूर्वाचल की दीवाल से छिपे हुए चन्द्रमा-रूपी उपपति ने अपना परिचय देने के लिए पूर्व दिशा के सम्मुख किरणों के अग्न भाग से ( पक्ष में, हाथों के अग्रभाग से ) पान के समान अपनी लाल-लाल कान्ति फॅको । चन्द्रोदय होते ही रात्रि का अन्धकार नष्ट हो गया, इसका कल्पना-पूर्ण वर्णन कवि की काव्यमयी भाषा में देखिए मुखं निमीलनयनारविन्दं कलानिधी चुम्बति राज्ञि रागात् । गलत्तमोनीलदुकूलबम्धा श्यामाद्रवच्चन्द्रमणिच्चलेन ।।३९।। -धर्मशर्मा., सर्ग १४ ज्यों हो चन्द्रमारूपी असुर ( पक्ष में, कलाओं से युक्त ) पति ने, जिसमें नेत्ररूपी नीलकमल निमीलित है ऐसे रात्रिरूपी युबती के मुख का राग-पूर्वक घुम्बन किया त्यों ही उसकी अन्धकाररूपी नीली साड़ी को गोठ खुल गयी और वह स्वयं चन्द्रकान्त. मणि के छल से द्रवीभूत हो गयो । नील नभ के मध्य में चमकते हुए चन्द्रमा को लक्ष्मी का वर्णन देखिए कितना सुन्दर है तावत्सती स्त्री ध्रुवमन्यसो हस्ताग्रसंस्पर्शसहा न यावत् । स्पृष्टा करानः कमला तथाहि त्यकार विन्दाभिससार चन्द्रम् ।।५२।। -धर्मशर्मा., सर्ग १४ ऐसा जान पड़ता है कि स्त्री तभी तक सती रहती है जबतक कि यह अन्य पुरुष के हाथ का स्पर्श नहीं करती। देखो न, ज्यों ही चन्द्रमा ने अपने कराग्र--- किरणास से ( पक्ष में, हस्तास से) लक्ष्मी का स्पर्श किया त्यों ही वह कमल को छोड़ उसके पास जा पहुंची। चन्द्रमा की रूपहली चांदनी में स्त्रियों की वेषभूषा तथा पति-मिलन की समुस्कण्ठा का वर्णन कवि ने बहुत ही सरस भाषा में किया है। दोनों पक्ष की दूतियों ने प्रेमी और प्रेमिकाओं के पास जाकर उन्हें अनुकूल करने में अपनी अद्भुत कला दिखलायी है। ___ कोई दूती, नायक के सामने विरहिणी नायिका का चन्द्रमा के प्रति आक्रोश प्रकट करती हुई कहती है ___ आः संघरम्नम्भसि बारिशरायोः श्लिष्टः किमीग्निशिखाकलापः । स्विच्चण्डचण्डधुतिमण्डलामप्रवेशसंक्रान्तकठोरतापः ।।७४।। प्रकृति-निरूपण २० १५३
SR No.090271
Book TitleMahakavi Harichandra Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages221
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size4 MB
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