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असंभृतं मण्डनमङ्गयष्टे व मे योवनरत्नमेतत् ।
श्ती वृद्धो नतपूर्वकायः पश्यन्नोऽषो भुवि सम्भ्रमीति ॥४- ५९ ॥
- धर्मशर्माभ्युदय
जो शरीरयष्टि का बिना पहना हुआ आभूषण था ऐसा मेरा यौवन रूपी रत्न कहाँ गिर गया ? मानो उसे खोजने के लिए ही वृद्ध मनुष्य अपना पूर्वभाग झुकाकर नीचे देखता हुआ पृथिवी पर इधर-उधर चलता है ।
यहाँ कालिदास के यौवनवर्णन के पद को हरिचन्द्र ने वृद्धावस्था के वर्णन में कितनी सुन्दरता से संजोया है यह दर्शनीय है ।
दशकुमारचरित में अवन्ति सुन्दरी के सौन्दर्य का वर्णन करते हुए दण्डी ने निम्न पंक्तियाँ लिखी है-
'ललनाजनं सृजता विधात्रा नूनमेषा घुणाक्षरन्यायेन निर्मिता । नो वेदब्जभूरेवंविषो निर्माणनिपुणो यदि स्यातहि तत्समानलावण्यामन्यां तरुणों किं न करोति ?' वि सविस्मयानुरागं त्रिलोकयतस्तस्य समक्षं स्यातुं लज्जिता सती
पूर्वपीठिका, पंचम उच्छ्वास
मंत्रन्ति सुन्दरो को देखता हुआ राजवाहून विचार करने लगा कि स्त्रियों की रचना करनेवाले ब्रह्माजी से सचमुच ही यह घुणाक्षरन्याय से बन गयी है । यदि ऐसा नहीं है और ब्रह्माजी वास्तव में ऐसी रचना करने में निपुण हैं तो वे इसके समान लावण्यवाली दूसरी तरुणी को नहीं बनाते ?
ठीक यही उत्प्रेक्षा धर्मशर्माभ्युदय में सुव्रता के सोन्दर्य का वर्णन करते हुए हरिचन्द्र ने अंगीकृत को हैं । श्लोक इस प्रकार है
समग्रसौन्दर्यविधिद्विधो विधेर्घुणाक्ष रन्यायवशादसा भूत् ।
तदास्य जाने निपुणत्वमीदृशीमनन्यरूपां कुरुते यदापराम् ||६१|| - २ समस्त सौन्दर्यविधि से द्वेष रखनेवाले विधाता से यह सुत्रता, घुणाक्षरन्याय से बन गयी हैं । इनकी चतुराई तो मैं तब जानूं जब यह ऐसी हो असाधारण रूपवाली दूसरी स्त्री को बना देते ।
चन्द्रप्रभचरित के चतुर्थ सर्ग में दीक्षा लेने के लिए उद्यत राजा श्रीषेण ने पुत्र के लिए जो मार्मिक उपदेश दिया है ( ३३-४४ ) उसका विस्तार धर्मशर्माभ्युदय के १८वें सर्ग में (६-४४ ) महाकवि हरिचन्द्र ने किया है। कितने ही श्लोकों में भावसाम्य भी परिलक्षित होता है । यथा
समागमो निर्यसनस्य राज्ञः स्यात्संपदां निर्धनत्वमस्य । ard स्वकीये परिवार एव तस्मिन्नवक्ष्ये व्यसनं गरीयः ||३७|| विधित्सु रेनं तदात्मवश्यं कृतज्ञतायाः समुपैहि पारम् । गुणैरुपेतोयपरैः कृतघ्नः समस्तमुद्वेजयते हि लोकम् ||३८|
- चन्द्रप्रभचरित, सर्ग ४
धादान-प्रदान
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