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________________ जाने से काव्य की सुषमा में बाधा उपस्थित करता है इसलिए धर्मशर्माभ्युदय के फर्ता ने उसे संक्षिप्त कर मात्र चार्वाफ-दर्शन की समीक्षा तक सीमित किया है । पुत्राभाव की वेदना का वर्णन जैसा चैन्द्रप्रमचरित में किया गया है वैसा ही धर्मशर्माभ्युदय में भी किया गमा है । शैली अपनी-अपनी अवश्य है। धर्मशर्माभ्युदय के ऋतुवर्णन, वनक्रीडा, जलकोड़ा, चन्द्रोदय तथा सम्भोग आदि के वर्णन अन्द्रप्रभ के अनुरूप है । चन्द्रप्रभ में पिता ने पुत्र के लिए जो उपदेश दिया है उसका विस्तृत रूप धर्मशाभ्युदम में दिया है। उपदेश की कितने ही बातों का दोनों अन्थों में सादृश्य पाया जाता है। चन्द्रप्रभचरित में जैनधर्म का उपदेश जिस क्रम से रखा गया है वही क्रम धर्मशर्माम्युदय में भी अपनाया गया है । चन्द्रप्रभचरित के १५वें सर्ग में अनुष्टुप् छन्द वारा युद्ध का वर्णन किया गया है और उसमें यमक तथा चित्रालंकार का माश्रय लिया गया है । उसी प्रकार धर्मशर्माभ्युदय के १९वें सर्ग में अनुष्टुप् छन्द के द्वारा मुख का वर्णन किया गया है और उसमें पमक तथा चित्रालंकार का आश्रय लिया गया है। इसी प्रकार शिशुपालवध के १९वें सर्ग में भी युख का वर्णन करने के लिए अनुष्टुप् छन्द और यमक तथा विशालकार को स्वीकृत किया गया। पन्ना विभाग वर्णन रघुवंश के दिग्विजय वर्णन से प्रभावित है। . चन्द्रप्रभचरित के कवि ने पूर्वभववर्णन में ग्रन्ध के १६ सर्ग रोके हैं और वर्तमान भव के वर्णन के लिए मात्र १६, १७, और १८ तीन सर्ग दिये है इससे प्रमुख चरित्र के वर्णन में उन्हें बहुत संकोष करना पड़ा है। स्वप्न दर्शन, जन्माभिषेक, राज्यप्रणाली तथा दीक्षाकल्याणक आदि जो तीर्थकर चरित के प्रमुख अंग है वे संक्षिप्त वर्णन के कारण निष्प्रभ से हो गये है, धर्मशर्माम्मुवय के कवि ने पूर्वभव के वर्णन में मात्र एक सर्ग रोका है और शेष ग्रन्य चर्मनाथ तीर्थकर के वर्तमान चरित्र के वर्णन में ही उपयुक्त किया है इसलिए तीर्थकर चरित्र के प्रत्येक अंग अच्छी तरह विकसित हुए है तथा कवि को अपनी काम्य-प्रतिभा प्रकट करने के लिए योग्य क्षेत्र मिला है । १. चतुर्थ सर्ग, ६२-७५ । २. चन्द्रप्रभचरित, तृतीय सर्ग, २०४९ । १. धर्म शर्माभ्युदय, द्वितीय सर्ग, १८-७४ | ४. धनप्रभ, चतुर्थ सर्ग, ३३-४३ । १. धर्मशाभ्युदय, अष्टादश सर्ग. २४-४४ । ६. चन्द्रप्रभचरिस, सगं, १८ । ७. धर्मशर्मा युदय, सर्ग, २१ । ८. चन्द्रम, षडदा सर्ग, २४-५३ । ६. रघुश. चतुर्य सर्ग, २६ सर्गान्त । भादान-प्रदान १०.
SR No.090271
Book TitleMahakavi Harichandra Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages221
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size4 MB
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