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________________ वह ईर्ष्यालु जरा कहीं से आकर अस्य स्त्रियों के साथ समागम की लालसा रखनेवाले हम लोगों के बाल खींच कुछ ही समय बाद पैर की ऐसी ठोफर देगी कि जिससे सब दांत झड़ जायेंगे । अरे, तुम्हारा शरीर तो बड़े-बड़े बलवानों से ( पक्ष में, बुढ़ापा के कारण पड़ी हुई ६५ की सिौ पः " मा लिर हिना न्यों नष्ट हो गया-कैसे भाग गया ? इस प्रकार यह बरा-वृद्धमानवों के कानों के पास जाकर उठती हुई सफ़ेदी के बहाने मानो उनकी हंसी ही करती है। भले ही वह मनुष्य शृंगारादि रसों से परिपूर्ण हो ( पक्ष में, जल से भरा हो) पर जिसके बालों का समूह खिले हुए काश के फूलों के समान सफ़ेद हो चुका है उसे युवती स्त्रियां हड्डियों से भरे हुए चाण्डाल के कुएं के पानी की तरह दूर से ही छोड़ देती है। मनुष्य के शरीर में कुटिल केशरूपी लहरों से युक्त जो यह सौन्दर्यरूपी सरोवर लबालब भरा होता है उसे बुढ़ापा झुर्रियों के बहाने मानो नहरें खोलकर ही बहा देता है। जो बिना पहने ही शरीर को अलंकृत करने वाला माभूषण था वह मेरा यौवनरूपी रत्न कहीं गिर गया ? मानो उसे खोजने के लिए ही वृद्ध मनुष्य अपना पूर्वभाग झुकाकर नीचे-नीचे देखता हुआ पृथ्वी पर इधर-उधर चलता है। इस प्रकार जरारूपी चतुर दूती को आगे भेजकर आपदाओं के समूहरूप पैनी-पनी डाढ़ों को धारण करनेवाला यमराज जबतक हात् मुझे नहीं प्रसता है तबतक मैं परमार्थ की सिद्धि के लिए प्रयत्न करता हूँ। सज्जन-प्रशंसा और दुर्जन-निन्दा 'क्वचिन्निन्दा खलादीनां सतां च गुणकोर्सनम्' इस उक्ति के अनुसार महाकाव्य के प्रारम्भ में कहीं दुर्जनों की निन्दा और सज्जनों की प्रशंसा की जाती है। बाणभट्ट ने कादम्बरी की पीठिका में ५,६ और ७वें श्लोक के द्वारा तथा वादीभसिंह ने गद्यविन्तामणि में ७ और वें श्लोक के द्वारा पल-निन्दा और साधु-प्रशंसा की है। धर्मशर्माभ्युदय का यह प्रकरण अन्य काव्यों की अपेक्षा विस्तृत और भावपूर्ण भाषा में लिखा गया है। यहां यह वर्णन प्रथम सर्ग के १८ से ३१ तक तेरह श्लोकों में पूर्ण हुआ है । पथा परस्य तुच्छेऽपि परोजुरागो महत्यपि स्वस्य गुणे न तोषः । एवंविधी यस्य मनोविवेकः किं प्राध्यते सोन हिताय साधुः ॥१८॥ दूसरे के छोटे से छोटे गुण में भी बड़ा अनुराग और अपने बड़े से बड़े गुण में भी असन्तोष, जिसके मन का ऐसा विवेक है उस साधु से हित के लिए नया प्रार्थना की जाये ? वह लो प्रार्थना के बिना ही हित में प्रवृत्त है। साधोबिनिर्माणविधी विधातुश्च्युताः कथंचित्परमाणयो ये । मन्ये कृतास्तरुपकारिणोऽन्ये पाथोयचन्द्रद्रुमचन्दनायाः ।।१९।। सज्जन पुरुषों की रचना करते समय ब्रह्माजी के हाथ से किसी प्रकार जो महाकवि हरिचन्द्र : एक मनुशीलन
SR No.090271
Book TitleMahakavi Harichandra Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages221
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size4 MB
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