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________________ लिए समर्थ नहीं हो अतः गृहस्थ का धर्म धारण करो। इस गृहस्थ-धर्म से मोक्षलक्ष्मी निकटस्थ हो जाती है। जो पांच अणुव्रत, तीन गुणवत और चार शिक्षाप्रतों के शरण करने में उद्यत है तथा सम्मग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से युक्त है वे गृहस्थ कहलाते हैं । हिंसा, असत्य, पौर्य, अब्रह्म और परिग्रह इन पांच पापों का स्थूल रूप से त्याग करना और मद्य, मांस तथा मधु का त्याग करना ये गृहस्थ के आठ मूल गुण कहलाते है। अहिंसाणुवतः-स जीष की संकल्पपूर्वक हिंसा का त्याग करना, सस्थाणुव्रत - पोडाकारक, कठोर और निन्ध वचनों का त्याग करना, अचौर्याणुवत–सार्वजनिक उपयोग के लिए घोषित जल और मिट्टी के बिना, बिना दी हुई अन्य वस्तुओं का त्याग करना, ब्रह्मचर्याणुव्रत-अपनी विघाहित स्त्री के अतिरिक्त अन्य स्त्री का त्याग करना और परिग्रह-परिमाणाणुव्रत-अपनी आवश्यकता से अतिरिक्त परिग्रह का त्याग करना, ये पांच अणुव्रत कहलाते हैं। नशा उत्पन्न करनेवाली मदिरा, अफीम, गांजा, चरस आदि वस्तुओं का त्याग करना मद्यत्याग है। स्वयं मृत अथवा मारे हुए उस जीव के मांस का त्याग करना मोसत्याग है और मधुमक्खियों के उगाल से उत्पन्न हुए मधुशहद का त्याग करना मपुत्याग है। जैनाचार का पालन करने के लिए उपयुक्त आठ नियमों का पालन करना सर्वप्रथम आमाक है इसलिए इन्हें लगा है। इन मूलगुणों के अतिरिक्त गुहस्थ को तीन गुणव्रत धारण करने पड़ते हैं। दिग्वत', देशनत और अनर्थदण्डनत ये तीन गुणवत कहलाते हैं। किन्हीं-किन्हीं आचार्यों ने दिन्द्रत, अनर्थदण्डवत और भोगोपभोग परिमाणव्रत इन तीन को गुणवत्र कहा है | दशों दिशाओं में आने-जाने की सीमा जीवन-पर्यन्त के लिए निर्धारित कर लेना और उससे बाहर नहीं जाना दिग्वत कहलाता है। दिम्यत के भीतर जीवन-पर्यन्त के लिए की हुई प्रतिज्ञा को काल की अवधि रखफर संकोचित करना देशवत कहलाता है और मन-वचनकाय की व्यर्थ-निष्प्रयोजन प्रवृत्ति का त्याग करना अनर्थदण्डवत है । पागोपदेश-दूसरेके लिए पाप का उपदेश देना, हिंसादान–हिंसा के सावन-अस्त्र-शस्त्र आदि दूसरे के लिए देना, दुःश्रुति-राग-द्वेष को बढ़ानेवाले शास्त्रों का सुनना, अपध्यान-राग-द्वेष के वशीभूत होकर किसी के वध-बन्धन आदि का चिन्तन करना और प्रमादचर्या-निष्प्रयोजन वूमना-घुमाना तथा जल धादि का बिखेरना, ये अनर्थदण्ड के पांच भेद है। जो वस्तु एक ही बार भोगो जाती है उसे भोग कहते है जैसे भोजन आदि और जो बार-बार भोगी जाती है उसे उपभोग कहते हैं जैसे वस्त्र-आभूषण आदि । इन भोग और उपभोग की वस्तुओं का जीवन-पर्यन्त के लिए अथवा कुछ समय के लिए परिमाण निश्चित करना भोगोपभोग परिमाण व्रत है। १. मधासमधुरयाग: महागुयक्षपञ्चकम् । हणा श्रमणोत्तमाः ॥-रस्नकरण्डमप्रावकाचार । सिद्धान्त ११५
SR No.090271
Book TitleMahakavi Harichandra Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages221
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size4 MB
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