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________________ सचिवों का वध करती है तथा अपने आश्रयदासा रामा सत्यन्धर को मारकर अपनी कृतघ्नता का परिचय देती है तब रौद्र रस की निष्पत्ति होती है। गन्धर्ववत्ता तथा लक्ष्मणा के स्वयंवर के पश्चात् जीवन्धरकुमार ने पुखों में जो शूरता दिखायी है और काष्ठांगार के मारे जाने के बाद उसके परिवार को जो राजभवन में ही रहने की उदारता प्रकट की है उससे वीर रस का उत्तम परिपाक हुमा है । दशम सम्भ के बहुभाग में जो युद्ध का वर्णन उपलब्ध है वह अन्यत्र दुर्लभ है। श्मशान में जलती हुई चिताओं और उनकी प्रचण्ठ ज्वालाओं में जलते हुए नरशवों के वर्णन में बीभत्स रस का अच्छा परिपाक हुआ है । लक्ष्मणा के स्वयंवर में जीवन्धरकुमार के द्वारा सहसा चन्द्र कवेध का होना अद्भुत रस को उपस्थित करता है। अन्तिम लम्भ में वनपाल के द्वारा वानरी के हाथ से तालफल छीन लिया जाता है, इस दृश्य को देखकर जीवन्धरकुमार के मुख से निकल पड़ता है-'मद्यते वनपालोऽयं काष्ठांगारायते हरिः' और उनका हृदय संसार की दशा देख निविषण हो जाता है। मुनिराज धर्मोपदेश करते हैं और चरित्रनायक जीवन्धरस्वामी राज्य छोड़कर दैगम्बरी दीक्षा धारण कर लेते हैं। यहाँ शान्त रस का उच्चतम परिपाक होता है। इस तरह यद्यपि जीवम्बरचम्पू में अंगीरस शान्त है तथापि अंग रूप से शेष आठ स स्थास्था: पदी रि-1 पर से हैं। निया के चरित्रचित्रण में वात्सल्य रस की निष्पत्ति भी अपनी प्रभुता रखती है । जीवन्धर-कथा के उदात्त अंश जो विजया माता प्रातःकाल राजमहिषी के पद पर आरूढ़ थी वही राजा सत्यन्धर का पतन हो जाने पर सायंकाल श्मशान में पड़ी है और रात्रि के धनषोर अन्धकार में मोक्षगामी कथा-नायक जीवघर को जन्म देती है । रानी विजया को आँखों में अपने पुत्र के अन्मोत्सव का भानन्द और वर्तमान दयनीय दशा पर कारुण्योद्वेग, एक साथ हैं। अपने सद्योजात पुत्र को दूसरे के लिए सौंपने पर भी उसके हृदय में वह विकलता कवि ने नहीं आने दी है जो अन्य माताओं में देखी जाती है। विजया अपने भाई विदेहाधिप गोविन्द के घर जाकर अपमान के दिन बिताना नहीं चाहती है। वह दण्डकवन के तपोवन में तापसी के वेष में रहकर अपने विपत्ति के दिन काटना उचित समझती है। एक बात और है कि कुतध्न काष्टांगार राजा सस्यन्धर का समूल बंधाच्छेद करना चाहता है अतः वह इनके सद्योजात पुत्र को भी जीवित नहीं छोड़ेगा। विजया यदि अपने भाई गोविन्द के घर स्वकीय वेष में रहती है तो गुप्तचरों के द्वारा काष्ठांगार को उसका और उसके सद्योजात पुत्र का परिचय अनायास मिल जायेगा और तब वह पुत्र की हत्या में सफल हो जायेगा--इस भावी आशंका को अपनी दूरदर्शिनी दृष्टि से देखकर वह दण्डकबन के तपस्वि-आश्रम में तपस्विनी के रूप में छद्मनिवास करने लगी। ७२ महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन
SR No.090271
Book TitleMahakavi Harichandra Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages221
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size4 MB
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