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________________ विवाहदीक्षा के बाद धर्मनाथ अपनी दुलहिन श्रृंगारवती के साथ चौक के घोष सुवर्णसिंहासन को अलंकृत कर रहे थे उसी समय उन्हें पिता का एक पत्र मिला, जिसे पढ़कर वे एकदम कुबेरनिर्मित विमान पर आरूढ़ हो रनपुर की ओर चल देते है। यहाँ ऐसा लगता है कि स्वयंवर के बाद होनेवाले युद्ध से मछूसा रखने के लिए ही कवि ने उन्हें सीमा विमान द्वारा रत्नपुर भेजा है और युद्ध का दायित्व सुषेण सेनापति के ऊपर निर्भर किया है । सुषेण ने प्रतिद्वन्दी राजपुत्रों से युद्ध कर विजय प्राप्त की। यहाँ वीर रस का परिपाक हुआ तो अवश्य है, पर अनुष्टुप् छन्द और चित्रालंकार के चक्र ने उसे पूर्णतया विकसित नहीं होने दिया है। तुलनात्मक पद्धति से विचार करने पर जोवन्धरपम्पू में प्रत्येक रस का जितना उच्चतम परिपाक हुआ है उतना धर्मशर्मा म्युदय में नहीं हो सका है। इसका कारण कवि की अशक्तला नहीं है किन्तु, रसानुकूल प्रकरणों का अभाव है । जीवन्धरचयू के रसपाक की समीक्षा आगे की जायेगी। जोवन्धरचम्पू का रस-प्रवाह साहित्य में श्रृंगार, हास्य, करुणा, रौद्र, वीर, भयानक, बीभत्स, अद्भुत और शान्त ये नौ रस है। भरतमुनि ने वात्सल्य नामक वसा रस भी माना है। इन सभी रसों का जीवन्धरबापू में अच्छा परिपाक हुआ है। कथानायक जीवन्धरकुमार की गन्धर्वदत्ता आदि आट नयी नवेली बधुएं हैं। उनके साथ पाणिग्रहण के बाद श्रृंगार का अच्छा परिपाक हुआ है पर मुख्य बात यह है कि कवि ने उसके वर्णन में गश्लीलता नहीं आने दी है । नयम लम्भ में जीवन्धरकुमार एक जर्जरकाय वृद्ध का रूप बनाकर जब सुरमंजरी के घर पहुंचते हैं और 'कुमारीतीर्थ की प्राप्ति के लिए घूम रहा हूँ इन शब्दों के द्वारा अपने आगमन का प्रयोजन बताते हैं तब इस प्रसंग में मानो हास्य की निरिणी ही प्रवाहित हो उठती है । वे अपने दिव्य संगीत से सुरमंजरी को प्रभावित कर तथा वांछित वर-प्रदान करने का प्रलोभन देकर अनंगगृह में ले जाते है और अनंग प्रतिमा के सामने सुरमंजरी के द्वारा चिरकांक्षित जीवन्धर के प्राप्त होने को प्रार्थना की जाती है तथा छिपे हुए बुद्धिषेण के द्वारा 'लब्धो बरः' का उच्चारण होने पर जब जर्जर-शरीर वृद्ध जीवन्धरकुमार के वेष में प्रकट होता है तब विषण्णवदन पाठक भी खिल-खिला उठता है। विजया माता के चित्रण में तघा द्वितीय लाम में भीलों द्वारा गोपों को गायों के चुरा लिये जाने पर कवि ने गोपों की वसति का जो वर्णन किया है तथा माताओं के अभाव में भूख से पीड़ित गायों के दुधमुंहे बछरे अब गोपियों के स्तनों पर मुख कगा देते हैं तब करुण रस का परिपाक सीमा के बांध को लांघ जाता है और वनादपि कठोर मनुष्य के नेत्रों से शोक के गरम-गरम आंसू निकल पड़ते हैं। काष्ठांगार को क्रूरता जब हिलावह मार्ग का प्रदर्शन करनेवाले धर्मदत आदि साहित्यिक सुषमा
SR No.090271
Book TitleMahakavi Harichandra Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages221
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size4 MB
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