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________________ से व्यतीत होने लगा एक बार जीवनयकुमार ने सुर नामक स्थान सुनिराज से धर्म का स्वरूप सुना और व्रत लेकर सम्यग्दर्शन को निर्मल किया । नरवाला आदि भाइयों ने भी यथाशकि व्रत लिये। तदनन्तर बीचन्धर किसी एक दिन अपने अशोक वन में गये । जहाँ लड़ते हुए दो मन्दरों के झुण्डों को देखकर संसार से विरक्त हो गये । वहीं उन्होंने प्रशान्तवक नामक मुनिराज से अपने पूर्वभव सुने । उसी समय सुरमलम उद्यान में भगवान् महावीर का समवसरण बाया सुन वैभव के साथ वहाँ गये और गन्धर्वदत्ता के पुत्र वसुन्धरकुमार को राज्य देकर नन्दाय आदि के साथ दीक्षित हो गये । महादेवी विजया और गन्धर्वदत्ता आदि रानियों ने भी चन्दना आर्या के पास दीक्षा ले ली । सुधर्माचार्य राजा श्रेणिक से कहने लगे कि अभी जीवन्धर मुनिराज महातपस्वी तो है परन्तु घातिया कर्मों को नष्ट कर केवलज्ञानी होंगे और भगवान् महावीर के साथ बिहार कर उनके मोक्ष चले जाने के बाद विपुलाचल से मुक्ति प्राप्त करेंगे। इस प्रकार अनेक ग्रन्थों के तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट है कि जीवन्चर स्वामी का उदास चरित्र अलौकिक घटनाओं से परिपूर्ण है तथा आत्मोन्नति में परम सहायक है । जीवन्धरचम्पू के प्रमुख पात्रों का चरित्र चित्रण १. महाराज सत्यन्धर P महाराज सत्यन्धर हेमांगद देश और राजपुरी नगरी के राजा थे । कथानायक जीवन्धर के पिता है। प्रजा तथा मन्त्री बादि मूल वर्ग को अपने अधीन रखते थे, अत्यन्त शूरवीर थे, यशस्वी थे और अपनी दानवीरता से कल्पवृक्ष की गरिमा को भी मन्द करनेवाले में कुरुवंश के शिरोमणि थे। शत्रुओं को जीतकर जब अपने राज्य को स्थिर कर चुके तद विषयासक्ति के कारण राज्य कार्यों से विमुख हो गये। राज्य का कार्य काष्यगार मन्त्री के स्वायत्त कर आप रागरंग में मस्त हो गये । राजा के भविष्य को समझनेवाले धर्मदत्त आदि मन्त्री राजा को हितावह उपदेश देते हैं और काष्ठांगार का विश्वास न करने की प्रार्थना करते हैं परन्तु विषयासक्ति की प्रबलता और काष्ठागार के ऊपर जमे हुए अपने विश्वास के कारण मन्त्रियों के हितकर उपदेश को उपेक्षित कर देते १. चिमण तथा जीवन्धरम् आदि में चर्चा है कि राजा जीवनभर जम अशोक वन में पहुंचे तब एक बात और वानरों में प्रणयं हो रही थी। प्रणयकलह शान्त होने पर वानर ने एक पनस क' कल वानरों के लिए दिया परन्तु वनपाल बानरी से वह पास नवीन लिया। इस घटना से जाबन्धर के मन में यह विचार आया. जिस प्रकार इस वनपाल ने बजरी से पनस फल छीना है उसी प्रकार मैंने भी कार से राज्य है। इस माटी मे भरे हुए संसार में कोई भी मनुष्प स्थायी रूप से युवी नहीं है।" ऐसा विचार करके संसार से विरक्त हो गये और मुनिराज के मुख से धर्मोपदेश सुनकर घर लौट आये तथा गन्धर्नदत्ता के पुत्र सत्यन्धर को राज्य देकर थुनि हो गये । कथा
SR No.090271
Book TitleMahakavi Harichandra Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages221
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size4 MB
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