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________________ देव त्ववारम्धमिदं विभाति नभःप्रसूनामरणोपमानम् । जीवास्पया तत्त्वमपीह नास्ति कुतस्तनी तत्परलोकवार्ता ॥६३]] न जन्मनःप्राङ्न च पञ्चतायाः परो विभिन्नेऽवयवे न चान्तः । विशन्न निर्यन च दृश्यतेऽस्माझिनो न देहादिह कश्चिदात्मा ॥६४॥ किं त्वत्र भूवह्निजलानिलानो संयोगतः कश्चन यन्त्र वाहः । गुहान्नपिष्टोदकधातकोनामुन्मादिनी शक्तिरिवाम्युवेति ॥६५॥ विहाय तदृष्टमदृष्टहेतोर्वृथा कृपाः पार्थिव मा प्रयत्नम् । को वा स्तनाग्राण्यवधूय घेनोर्दुग्ध विदग्पो ननु दोग्धि भूङ्गम् ॥६६॥ हे देव 1 आपके द्वारा प्रारम्भ किया हुआ यह कार्य आकाशपुष्प के आभूषणों के समाम निर्मल जान पड़ता है। क्योंकि जब जीवनाम का कोई पदार्थ ही नहीं है तब उसके परलोक की वार्ता कहाँ हो सकती है ? इस शरीर के सिवाय कोई भी आत्मा न तो जन्म के पहले प्रवेश करता ही दिखाई देता है और न मरने के बाद मिलता ही ! इसी प्रकार किमी अवयव के सण्डित हो जाने पर न भीतर प्रवेश करता और न निकलता हआ दिखाई देता है। किन्तु जिस प्रकार गुड़, अन्नचूर्ण, पानी और आंवलों के संयोग से एक उन्माद पैदा करनेवाली शक्ति उत्पन्न हो जाती है उसी प्रकार पृथिवी, अग्नि, जल और वायु के संयोग से इस शरीररूपी यन्त्र का कोई संचालक उत्पन्न हो जाता है। इसलिए हे राजन् ! प्रत्यक्ष को छोड़कर परोक्ष के लिए व्यर्थ ही प्रयत्न न कीजिए । मला ऐसा कौन बुद्धिमान् होगा जो गाय के स्तन को छोड़ सींगों से दूध दुहेगा। ___तात्पर्य यह है कि चार्वाक दर्शन, जीव के स्वतन्त्र अस्तित्व को ही स्वीकृत नहीं करता है। अब इसके समाधान रूप उत्तर पक्ष देखिए । राजा दशरथ ने कहा अये सुमन्त्र ! इस नि:सार अर्थ का प्रतिपादन करते हुए तुमने अपना नाम ही मानो निरर्थक कर दिया । हे मन्धिन् ! यह जीव अपने शरीर में सुखावि की तरह स्वसंवेवन से जाना जाता है, क्योंकि उसके स्वसंविदित होने में कोई भी बाधक कारण नहीं है और यतः बुद्धिपूर्वक व्यापार देखा जाता है अतः अपने शरीर के समान दुसरे के शरीर में भी वह अनुमान से जाना जाता है। तत्काल का उत्पन्न हुया बालक जो माता का स्तन पीता है उसे पूर्वभव का संस्कार छोड़कर अप कोई भी सिखानेवाला नहीं है इसलिए यह जीव नया ही उत्पन्न होता है-ऐसा आत्मज्ञ मनुष्य को नहीं कहना चाहिए । मतश्च यह आत्मा अमतिक है और एक ज्ञान के द्वारा ही जाना जा सकता है अतः इसे मूर्तिक दृष्टि नहीं जान पाती। अरे ! अन्य की बात जाने दो, बड़े-बड़े निपुण मनुष्यों के द्वारा भी चलायी हुई पनी तलवार क्या कभी आकाश का भेदन कर सकती है ? भूतचतुष्टय के संयोग से जीव उत्पन्न होला है-यह जो तुमने कहा है उसका वायु सिद्धान्त
SR No.090271
Book TitleMahakavi Harichandra Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages221
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size4 MB
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