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बनभुवि पथि कश्चिनागमत्तस्म पार्य
नियतिनियतरूपा प्राणिनां हि प्रवृत्तिः ।।३।। जो हाथ में सीधा परेना लिये था, कम्बल से जिसका शरीर आच्छादित था, जिसकी कमर में हँसिया लटक रहा था लथा जिसके कन्धे पर हल रखा हुआ था ऐसा कोई पुरुष वनभूमि में उनके समीप आमा ।
किसान का यही रूप मध्यप्रदेश में आज भी देखा जाता है। जान पड़ता है कि कवि की आँखों में मध्यप्रदेश के किसान का गद हम बार-बार वा रहा है भी तो उसका इतना स्वाभाविक वर्णन किया है।
हरिचन्द्र नाम के अनेक विद्वान् और महाकवि हरिचन्द्र का समय - 'कर्पूरमंजरी नाटिका' में महाकवि राजशेखर ने प्रथम यवनिका के अनन्तर एक जगह विदूषक के द्वारा हरिचन्द्र का उल्लेख किया है । एक हरिचन्घ्र का उल्लेख बाणभट्ट ने 'श्रीहर्षचरित में किया है। एक हरिचन्द्र विश्वप्रकाशकोष के कर्ता महेश्वर के पूर्वज घरकसंहिता के टीकाकार साहसांक नृपति के प्रधान वैद्य भी थे। पर इन सबका धर्मशक्ष्यि ' और 'जीवन्धरसम्पू' के कर्ता हरिचन्द्र के साथ कोई एकीभाव सिद्ध नहीं होता, क्योंकि धर्मशर्माभ्युदय के २१ सर्ग में जैन-सिद्धान्त का जो वर्णन है यह पशस्तिलकचम्पू और चन्द्रप्रमचरित से प्रभावित है अतः उसके कर्ता, आचार्य सोमदेव और आचार्य श्रीरनन्दी से परवर्ती हैं पूर्ववर्ती नहीं 1 'कर्पूरमंजरी' के कर्ता राजशेखर और 'श्रीहर्षचरित' के कर्ता बाणभट्ट पूर्ववर्ती है। जीवन्धरचम्यू और धर्मशर्माभ्युदय के कर्ता एक ही हरिचन्द्र है ऐसा आगे तुलनात्मक उद्धरणों से सिद्ध किया जायेगा । जीवन्धरचम्पू का कथानक जहाँ वादीभसिंह सूरि की 'गद्यचिन्तामणि' तथा 'क्षत्रचूडामणि' से लिया गया है वहाँ गुणभद्र के 'उत्तरपुराण' से भी वह प्रभावित है अतः हरिचन्द्र गुणभद्र से परवर्ती है। साथ ही धर्मशर्माभ्युदय में श्रावक के जो आठ मूल-गुणों का वर्णन किया गया है वह यशस्तिलकचम्पू के रचयिता सोमदेव के मतानुसार है इसलिए सोमदेव के परवर्ती हैं। सोमदेव ने यशस्तिलकचम्पू की रचना १८१६ वि. सं. में पूर्ण की है । धर्मशर्माम्युदय की एक प्रति पाटण ( गुजरात ) के संघबीपाड़ा के पुस्तकभण्डार में वि. सं. १२८७ को लिखी विद्यमान है। इससे यह निश्चित होता है कि महाकवि हरिचन्द्र उक्त संवत् से पूर्ववर्ती है। इस तरह पूर्व और पर-अवधियों पर विचार करने से जान पड़ता है कि हरिचन्द्र ११-१२ शताब्दी के विद्वान् है। धर्मशर्माभ्युदय १. घिदूषक : ( अज्वेव तरिकन भण्यते, अस्माकं चेटिका हरिचन्द्र-मन्दिचन्द्र-कोटिया-हालप्रभृती
नामपि मुकविरिति) २. पवमधीज्ज्वलो हारी कृतवर्णकमस्थितिः ।
भट्टारहरिचन्द्रस्म गधबन्धो नपायते॥ ३. २२८७ वर्षे हरित-त्रि पिरचिव-धर्मशमभ्युदयपुस्तिका श्रीरत्नाकर-हरि-सावेशेन की नि
चन्द्रगणिना ज़िखिसमिति भनम् । पाटग के समीपाड़ा के पुस्तक भण्डार की सूची ।
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