SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 117
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्तम्भ १ : सिद्धान्त तीर्थंकर की पृष्ठभूमि धर्मशर्माभ्युदय के कथा-नायक भगवान् धर्मनाथ इस अवसर्पिणी युग में होने वाले २४ तीर्थंकरों में पन्द्रहवें तीर्थंकर थे । प्रथम तीर्थंकर भगवान् वृषभदेव थे और अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर । तीर्थधर्म की प्रवृत्ति के चलानेवाले को तीर्थंकर कहते हैं । तीर्थंकर बनने के लिए बड़ी साधना करनी पड़ती है। तीर्थंकर-कर्म के बन्ध का प्रारम्भ केवलज्ञानी के सन्निधान में ही होता है क्योंकि उसके बन्ध के लिए परिणामों में जितनी विशुद्धता अपेक्षित है उतनी अन्यत्र प्राप्त नहीं हो सकती । धर्मनाथ ने अपने तृतीय पूजयानगरी में जीकर प्रकृति का बन्ध किया था। राजा दशरथ ने विमलवाहन मुनि के पास साधु-दीक्षा लेकर घोर तपश्चरण किया था । सब जीवों में मध्यस्थभाव धारण किया था तथा दर्शन - विशुद्धि आदि गुणों की भावना के द्वारा अपने हृदय को निर्मल बनाया था। धर्मशर्माभ्युदय के चतुर्थ सर्ग में मुनिराज दशरथ को मध्यस्थ-वृत्ति का वर्णन देखिए कितना महत्वपूर्ण है- ध्यानानुबन्धस्तिमितोदेहो मिपि शत्रावपि तुख्यवृत्तिः #यालोपगूढः स दनैकदेशे स्थित श्चिरं चन्दनबच्चकासे ॥८१॥ उन मुनिराज का विशाल शरीर ध्यान के सम्बन्ध से बिलकुल निश्चल था, और मित्र में उनकी समान वृत्ति थी, तथा शरीर में सर्प लिपट रहे थे अतः वे चन के एक देश में स्थित चन्दन-वृक्ष की तरह सुशोभित हो रहे थे ? হা तीर्थकर गोत्र के यन्त्र की चर्चा करते हुए, दो हजार वर्ष पूर्व रचित षट्खण्डागम के बन्धस्वामित्व विजय नामक अधिकार खण्ड ३, पुस्तक ८ में श्री भगवन्त पुष्पदन्त भूतबलि आचार्य ने— 'कदिहि कारणेहि जीवा तित्थयरणामगोदं कम्मं वर्षति ॥३९॥ सूत्र में तीर्थंकर नाम कर्म के बन्धप्रत्ययप्रदर्शक सूत्र की उपयोगिता बतलाते हुए लिखा है कि 'यह तीर्थंकर गोत्र, मिथ्यास्य प्रत्यय नहीं हैं, अर्थात् मिथ्यात्व के निमिस से बँधनेवाली सोलह प्रकृतियों में इसका अन्तर्भाव नहीं होता क्योंकि मिथ्यात्व के होने पर उसका बन्ध नहीं पाया जाता । असंयम प्रत्यय भी नहीं है क्योंकि संयतों में भी उसका बन्ध देखा जाता है । कषाय सामान्य भी नहीं है क्योंकि कषाय होने पर भी उसका जन्धन्युच्छेद देखा जाता है अथवा कषाय के रहते हुए भी उसके बन्ध का सिद्धान्त १४ १०५
SR No.090271
Book TitleMahakavi Harichandra Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages221
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy