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________________ म ! गुमला जिलेगा.. कन्दपों विषमस्तनोति वनुर्वा तन्वा ज्वरे गौरवं मृत्युपचापि दयाकथाविरहितो मां नैव संभाषते । आर्य त्वं ध नवाङ्गनासुखवशाद्विस्मृत्य मां मोबसे जातीपल्लवकोमला कथमियं जीवेत्तक प्रेयसी ।।२१।। स्वामिनकरिती ममोरसि कुचो वृद्धि गतौ ताबके वाचस्तावकवाग्रसैः परिपिता मौग्ध्येन सन्त्याजिताः। बाहू मातृगलस्थलादपसृतो त्वत्कण्ठदेशेऽपिता वार्य प्रेमपयोनिधे स्थितमिदं विज्ञापितं किं पुन: ।।२२।। हे आर्यपुत्र ! गुणमाला ऐसा निवेदन करती है "यह विषम कामदेव शरीर में कुशता और ज्वर में गुरुता की वृद्धि कर रहा है तथा दया की चर्चा से रहित मृत्यु मुझसे बोलती भी नहीं है । हे आर्य ! आप नयी-नयी स्त्रियों के सुख से वशीभूत हो मुझे भूलाकर मौज कर रहे हैं फिर घमेली के पल्लव के समान कोमलांगी तुम्हारी यह प्रिया कैसे जीवित रहे । हे भार्म। हे प्रेम के सागर ! सच बात तो यह है कि स्तन हमारे वक्षःस्थल पर वृद्धि को प्राप्त हुए । हमारे बचनों ने आपके वचनों से परिचित होकर ही मुग्धता छोड़ी है और हमारी भुजाएं माता के गले से दूर हटकर आपके कण्ठ में अपित हुई हैं । इस तरह हमारे आधार एक आप ही है, अधिक क्या निवेदन करू ?" जीवन्धरचम्पू में शान्तरस की पावन धारा सांसारिक परिभ्रमण से निकालकर मानव को मुक्ति मन्दिर में भेज देनामोक्ष प्रास करा देना यही जैन कथानकों का अन्तिम उद्देश्य रहता है । यद्यपि इन कथाओं में प्रसंगोपात्त शृंगारादि समस्त रसों का वर्णन आता है तथापि उन सबका समारोप एक शान्तरस में ही होता है। जीवन्धरचम्प में भी यथास्थान राभो रसों का वर्णन आया है परन्तु अन्त में उन सबका समारोप एक शान्तरस में ही हुआ है। कथानायक जीवन्धर स्वामी, राज्यसिंहासनासीन हो चुकने पर एक दिन वासन्ती सुषमा से सुशोभित उद्यान में गये । उनको आठौं रानियों उनके साथ थीं । दक्षिण नायक की तरह वे अपनी समस्त स्त्रियों को प्रमुदित करते हुए एक ऐसे स्थान पर पहुंचे जहां वानरों का समूह स्वच्छन्द वनक्रीड़ा कर रहा था। वृक्ष की एक शाखा से अन्य शाखाओं पर उछलते हुए वानर-समूह को देखकर वे मानन्दविभोर हो उठे। एक वानरी, अपने वानर का अन्य वानरी के साथ प्रेम देख रुष्ट हो गयी। उसे प्रसन्न करने के लिए वानर ने बहुत प्रयत्न किये पर वह प्रसन्न नहीं हुई । अन्त में निरुपाय हो वानर मृत के समान रूप बनाकर पड़ रहा । पह देख वानरी भय से कॉप साहित्यिक सुषमा
SR No.090271
Book TitleMahakavi Harichandra Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages221
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size4 MB
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