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________________ कामायतन के दो खम्भे ही हों ॥५५॥ इसका नितम्बमण्डल ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो दुकूलरूपी स्वच्छ जल से अलंकृत बालू का टीला ही था, अथवा कामरूपी सागर में डूबनेवाले तरुणजनों के तैरने के लिए यौवनरूपी अग्नि से तपाया हुआ सुवर्णकला का युगल ही था, अथवा वस्त्र से परिवृत कामदेव का एक चक्रवाला वाहन ही था, अथवा श्रृंगाररूपी राजा के क्रीडाशैल का भण्डल ही था। इसकी रोमराजि ऐसी जान पड़ती थी मानो चन्दन से लिस स्तमरूपी पर्वत पर चढ़नेवाले कामदेव के लिए मरकतमणियों की बनी सीढ़ियों की पंक्ति ही थी, अथवा सोन्दर्यरूपी नदी पर फैला हुआ पुल ही था, अथवा नाभिरूपी वापिका में ग्रोवा लगाने के लिए उद्यत कामदेवरूपी हाथी कास्पल से उसी हुई अगर जीशि ही थी, अथवा बहुत भारी स्तनों का बोझ धारण करने की चिन्ता से कृशता को प्राप्त हुए मध्य भाग के द्वारा सहारा के लिए ग्रहण की हुई लाठी ही थी, अथवा नाभिरूपी दामी के मुख से निकलती हुई काली नागिन दी थी। _इस मृगनयनी के स्तन ऐसे जान पड़ते थे मानो रोमराजिरूपी लता के दो गुच्छे ही हों और इसीलिए वे जीवन्धरकुमार के नेत्ररूपी भ्रमरों को अपनी ओर खींच रहे थे ॥५६॥ हाररूपी बिजली से सहित तमा नीलाम्बर-नील वस्त्र (पक्ष में नीले आकाश) के भीतर वृद्धि को प्राप्त उसके पयोधरों-स्तनों ( पक्ष में मेषों) की उन्नति कामरूपी ममूर को पुष्ट कर रही थी ।।५७॥ उसके दोनों स्तन क्या ये मानो चूचुकरूपी उत्तम लाख से मुद्रित कामदेव के रस से परिपूर्ण दो फलश ही थे और कभी गिर न जावें इस भय से विधाता ने उन्हें लोहे के कोलों से कोलित कर दिया था क्या ? ॥५८॥ उस सुलोचना की लम्बोलाची भुजाएँ बाकाशगंगा में सुशोभित सुवर्ण-कमलिनी के मृणाल के समान थीं और ऐसी जाम पड़ती थीं मानो कामीजनों को साधने के लिए विधाता के द्वारा बनाये हुए दो बड़े-बड़े पाशजाल ही हों ।।५९॥ गन्धर्षदत्ता स्वयं एक पतली लता के समान थी और कोमल तथा स्निग्ध शोभा से सम्पन्न उसकी दोनों भुजाएँ शाखाओं के समान सुशोभित हो रही थी। उसकी भुषारूम शाखाएं अपनी अंगुलियोस्पी पल्लवों से सहित थीं, नख ही उनके सुन्दर फूल थे और मनोहर शब्द करनेवाली मरकतमणि की चंचल चूड़ियां ही उन पर छाये हुए भ्रमर थे ॥६॥ उस खंजनलोचना के शंख तुल्य कण्ठ में वीर कामदेव ने यह सोचकर ही मानो तीन रेखाएं खींच दी थी कि इसने तीनों जगत् को जीत लिया है ।।६॥ उसके अधरोष्ठ को कितने ही लोग वो ऐसा कहते है कि यह मुखरूपी चन्द्रमा के समीप शोभा पानेवाला सन्ध्याकालीन राग ही है-सन्ध्या की लाली ही है, कोई १२८ महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन
SR No.090271
Book TitleMahakavi Harichandra Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages221
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size4 MB
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