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________________ जिस देश में पथिकों को सर्वत्र फलों से मुके हए आम, जामुन, जम्बीर, सन्तरे, लोग और सुपारियों के वृक्ष मिलते है अतः वे व्यर्थ ही मार्ग में पाथेम का बोझ नहीं उठाते। प्रजा की सुख-सुविधा और स्वास्थ्य सम्पत्ति का वर्णन परिसंख्या अलंकार को आमा में देखिए काले प्रजानां जनयन्ति तापं करा रवेरेव न यत्र राजः । स्याद्भोगभङ्गोऽपि भुजङ्गमाना स्वस्थ्ये कटारिन्न एनर्नराणात ॥११|| गर्ग ४ जिस देश में सूर्य की किरणें ही समय पाकर प्रजा को सन्साप पहुँचाती थीं, राजा के कर—टेनस नहीं। इसी प्रकार भोगभङ्ग-फणा का नाश यदि होता था तो सों के ही होता था, वहाँ के मनुष्यों के स्वस्थ रहते हुए भौगभङ्ग-विषय का नाश नहीं होता था। प्रथम सर्ग में रत्नपुर नगर का वर्णन करते हुए वहाँ के महलों की ऊंचाई और उनपर फहाती हुई धवल पताकाधों का वर्णन देखिए कितना मनोरम हुआ है-- प्रासादशृङ्गेषु निजप्रियाया हेमाण्डकप्रान्तमुपेत्य रात्री । कुर्वन्ति' पत्रापरहेमकुम्भभ्रमं झुगङ्गाजलचक्रवाकाः ॥६॥ शुभ्रा यदलिमन्दिराणा लग्ना यजामेषु न ताः पताकाः । किंतु त्वचो घट्टनतः सितांशोनों चेत्किमन्तनणकालिकास्य ॥६१॥-सर्ग १. उस मगर में रात्रि के समय आकाशगजा के जल के समीप रहनेवाले चक्रवाक पक्षी, अपनी स्त्रियों के वियोग से दुखी होकर मकानों के शिखरों पर स्वर्णकलशों के समीप यह समझकर जा बैठते हैं कि यह चक्रवाकी है और इस तरह वे कलशों पर लगे हुए दूसरे स्वर्ण-कलशों का भ्रम उत्पन्न करने लगते हैं । उस नगर के गगनचुम्बी महलों के ऊपर बजाओं के अग्रभाग में जो सफेदसफ़ेद वस्त्र लगे हैं ये पताकाएँ नहीं है किन्तु संघर्षण से निकली हुई चन्द्रमा को स्वचाएँ है । यदि ऐसा न होता तो इस चन्द्रमा के बीच प्रण को कालिमा क्यों होती ? कोट की ऊंचाई का वर्णन करने के लिए कवि की उत्प्रेक्षा देखिएमद्वाजिनो नोयधुरा रथेन प्राकारमारोढुममुं क्षमन्ते । इतीव यल्लङ्घयितुं दिनेशः श्रयस्यवानीमधवाप्युदोषीम् ॥८१॥ सर्ग १ जिसकी चुरा बिलकुल ऊपर की ओर उठ रही है ऐसे रथ के द्वारा हमारे घोड़े इस प्राकार को लापने में समर्थ नहीं है। यह विचारकर ही मानो सूर्य उस रत्नपुर को लांघने के लिए कभी तो दक्षिण की ओर जाता है और कभी उत्तर की ओर । इसी सन्दर्भ में तद्गुणालंकार का वैभव देखिएरात्री तमःपीत-सितेतराइम-वेश्मानभाजामसितांशुकानाम् । स्त्रोणी मुखर्यत्र नवोदितेन्दुमाला कुलेव क्रियते नभःथीः ।।८०॥ सर्ग १ वर्णन १२१
SR No.090271
Book TitleMahakavi Harichandra Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages221
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size4 MB
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