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सस नगर में रात्रि के समय अन्धकार से तिरोहित नोल मणियों के मकानों की छतों पर बैठी हुई नील वस्त्र पहननेवाली स्त्रियों के मुख से माफाश को शोभा ऐसी जान पड़ती है मानो नवीन उदित चन्द्रमाओं के समूह से ही व्याप्त हो रही हो।
पतुर्थ सर्ग में मुसीमा नगर का वर्णन करते हुए वहाँ की हH-पक्ति का वर्णन करने के लिए कवि ने जिस श्लेषोपमा का आश्रय लिया है उसका एक नमूना पाखर
व्यापार्य सज्जालकासंनिवेशे करानभिप्रेति यत्र राज्ञि। दवत्यनोचस्तनकूटरम्या काम्तेव चन्द्रोपलहर्म्यपङ्क्तिः ॥१९॥ सर्ग ४,
जब राजा-प्राणवल्लम संभले हुए केशों के बीच धीरे-धीरे अपने हाथ चलाता है तब जिस प्रकार पीनस्तनों से सुशोभित स्त्री काम से द्रवीभत हो जाती है उसी प्रकार जब राजा-चन्द्रमा उस नगरी के सुन्दर भरोखों के बीच धीरे-धीरे अपनी किरणें चलाता है तब ऊंचे-ऊँचे शिखरों से सुशोभित उस नगरी को चन्द्रकान्तमणिनिर्मित महलों की पंक्ति भी द्रवीभूत हो जाती है उससे पानी झरने लगता है।
___ इस प्रकार हम देखते हैं कि कवि ने देश और नगर के वर्णन में विविध अलंकारों को जो छटा दिखलायी है वह अन्य काव्यों में दुर्लभ है ।
जोवपरचम्पू का नगरी-वर्णन देखिए, प्रथम लम्भ में हेमांगद देश की राजपुरी का वर्णन करते हुए कवि की काव्यप्रतिभा कितनी साकार हो उठी है।
'उस हेमांगद देश में राजपुरी नाम की जगप्रसिद्ध नगरी है । उस नगरी के कोट में लगे हुए नीलमणियों की किरणें सूर्य का मार्ग रोक लेती हैं जिससे सूर्य मह समझकर विवश हो जाता है कि मुझे राहु ने घेर लिया है और इस भ्रान्ति के कारण ही वह हजार चरणों ( पक्ष में किरणों) से सहित होने पर भी वहाँ के कोट को नहीं लाँच सकता है ॥१३॥
'वह नगरी अपने मेघस्पी महलों को ध्दजाओं के वस्त्रों से सूर्य के घोड़ों की थकान दूर करती रहती है तथा बिजली के समान चमकीली शरीरलता की धारक स्त्रियों से सुशोभित रहती है। उसके मणिमय महलों को फैली हुई कान्ति की परम्परा से स्वर्गलोक में चंदोवा-सा तन जाता है और नील पत्थर के कोट से निकलती हुई कान्ति बहाँ हरे-भरे बन्दनमाल के समान आन पड़ती है ॥१४॥' ৫. যম+ লনী দল গৰিকা
यासालनीलमणिदीधितिरुमार्गः। राहुभ्रमेण विवशस्तरणिः सहस्र:
पादप्तोऽपि न हि लखपति स्म सालस ॥१३॥ २. अम्भोमुक्चुम्मिसीय ध्वजपटपमनोद्धृतसप्ताश्वरथ्य
श्रान्तः सौदामिनीश्रीतुलिततनुलतामानिनीमानितायाः । अस्या माणिक्योहामृतचिमरीकसिंपतोहिताने नियंशीलाइमसालय तिरमर पुरे बदनसामसूब ६१४ा. --लम्भ १
महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन
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