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________________ है। उसमें सुलोचना ने वरमाला, हस्तिनापुर ( मेरठ ) के राजा सोमप्रभ के पुत्र जयकुमार के गले में डाली थी। स्वयंवर के अनन्तर उपस्थित राजाओं में संघर्ष हुआ। प्रतिपक्षी राजाओं में प्रमुख भरत चक्रवर्ती का पुत्र अकीलि था । मुख में विजय जयकुमार ने प्राप्त की 1 यह घटना जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान् वृषभदेव के समय की है जिसे आज जैन-काल-गणना के अनुसार असंख्य वर्ष हो चुके हैं। पह स्वयंवर किसी प्रमुख बात को लेकर अथवा उसके बिना ही सम्पन्न हुआ करते थे । जैसे धर्मनाथ का यह स्वयंदर किसी प्रमुख उद्देश्य के बिना सम्पन्न हुआ है और जीवन्धरचम्पू में गन्धर्वदत्ता का स्वयंवर वीणावादन सया लक्ष्मणा का स्वयंवर पनवेघ को लक्ष्य कर हुआ है। हस्तिमाल ने स्वयंवर-पद्धति की उपयोगिता बतलाने के लिए प्रवोहार के मुख से निम्नांकित भाव प्रकट करवाया है-- पिजी । माता या भय सस्तामया कुमारी लच्छन्दं निभृतमव गमछेदिति तु यत् । तदप्येषा दत्तिर्लघयति सदस्या रमयितुगुणं वा दोषं धा स्वरुचिमनुचक्षुर्विमृशति ।।३६|| -विनान्तकौरव, अंक ३, प, १०२-१०३ तात्पर्य यह है कि स्वयंवर की विधि कन्यादान की अन्य सब विधियों को तिरस्कृत कर देती है क्योंकि इसमें वर और वधू के नेत्र अपनी रुचि के अनुसार एक दूसरे के गुण और दोष का विचार स्वयं कर लेते हैं। स्वयंवर के अनन्तर होनेवाले युद्ध के प्रारम्भ में भी हस्तिमल्ल ने प्रवीहार के मुख से स्वयंवर-विधि का प्रयोजन तथा रामाओं के संघर्ष की निष्प्रयोजनता का इस प्रकार वर्णन किया है भूयांसः क्षितिपात्मजा वरयितुं वाञ्छन्ति वत्सामिमां सर्वस्याभिमतः स्वयंवरविधिस्तद्वाढमत्रोचितः । इत्यस्मत्प्रभुणा प्रवर्तितममूद् यत्कर्म निर्मत्सरं जात प्रत्युत वैरकारणमिदं तेषां मुषा द्वेषिणाम् ॥१॥ -विक्रान्तकौरव, चतुर्थ अंक इस बच्ची को बहुत राजकुमार बरना चाहते हैं इसलिए इस स्थिति में स्वयंवरविधि सबके लिए इष्ट तथा उचित होगी यह विचारकर हमारे स्वामी ने ईष्यारहित जो कार्य प्रारम्भ किया था वह हर्ष का कारण वो दूर रहा किन्तु अर्थ ही द्वेष फरनेवाले उन सबके बैर का कारण हो गया । धर्मनाथ, जनधर्म के पन्द्रहवें तीर्थकर थे। कविवर हरिचन्द्र ने उनका विवाह भी स्वयंवर-विधि से हो सम्पन्न कराया है। कन्या श्रृंगारवती विदर्भ देश के राजा की पुत्री थी । पिता की आज्ञापूर्वक युवराज मर्मनाय उस स्वयंवर में सम्मिलित होने के लिए गये थे। जान पड़ता है कवि ने अपनी काव्य-प्रतिभा को साकार रूप देने के लिए ही प्रकीर्णक मिर्वेषा
SR No.090271
Book TitleMahakavi Harichandra Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages221
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size4 MB
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