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हाथियों को मदवर्षा ओर घोड़ों की टापों के उत्पतन-पतन का सम्मिलित वर्णन देखिए
मदाञ्जनेनालिखितां गजेन्द्रः सहेषमुत्क्षिप्तखुरामटकाः।
ह्याः किलोच्चार्यशिलासु जनीमिहोत्किरन्ति स्म यशःप्रशस्तिम् ॥४४॥
पर्वत की शिलाओं पर हाथियों का मद फैला था और घोड़े हिनहिनाकर उनपर अपनी टापें पटक रहे थे जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो हाथियों के द्वारा मदरूपी अंजन से लिखी हुई जिनेन्द्रदेव की कीलिंगाया को घोड़े ऊपर उठायी हुई टाप-रूपी दौकियों के द्वारा जोर-शोर से सच्चारण कर संकीर हो रहे है।
घोड़ों को टापों के पड़ने से उछलते हुए तिलगों का वर्णन देखिए कितनी विचित्र कल्पना से ओत-प्रोत है
दृढस्तुरङ्गानखुरप्रहारैरिहोच्छलन्तो ज्वलनस्फुलिङ्गाः । बभुर्विभिद्येव महों विभिन्नफणीन्द्रमौलेरिव रस्नसाः ॥४७॥
घोड़ों के अगले खुरों के कठोर प्रहार से जो अग्नि के तिलगे उछट रहे थे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो खुरों के आघात ने पृथिवी का भेदन कर शेषनाग का मस्तक ही विदीर्ण कर दिया हो और उससे रत्नों के समूह ही बाहर निकल रहे हों।
हाथी की जलावगाहम-लीला देखिएविलासवत्याः सरितः प्रसङ्गमवाप्य विस्फारिपयोधरायाः ।
गजो ममज्जाव कुतोऽथवा स्यान्महोदयः स्त्रीव्यसनालसानाम् ॥५८11
बिलास-पक्षियों के संचार से युक्त ( पक्ष में हावभाव से युक्त तथा विस्फारिपयोधर-विशाल जल को धारण करनेवाली (पक्ष में स्थूल स्तनों को धारण करनेवाली) मदी का ( पक्ष में स्त्री का ) समागम पाकर हाथी डूब गया सो ठीक हो है क्योंकि स्त्रीलम्पट पुरुष का महान् उदय कैसे हो सकता है ?
बोड़ों का भूमि पर लोटना तपा नदी से उनका बाहर निकलना कितना कौतुकोत्पादक है
इतस्ततो लोलनमाजि वाजिन्यभिच्युताः फेनलवा विरेजुः । तदङ्गसङ्गत्रुटितोरुहारप्रकीर्णमुक्ताप्रकरा इबोाः ॥६३॥
जब घोड़ा इधर-उधर लोट रहा था तब उसके मुख से कुछ फेन के टुकड़े निकलकर पथिवी पर गिर गमे थे जो ऐसे जान पड़ते थे मानो उसके शरीर के संसर्ग से पृथिवी-रूपी स्त्री के हार के मोती हो टूट-टूटकर विखर गये हों।
नदामिलच्छवलजालनीला निरीयुराक्रम्य पयस्तुरङ्गाः।
दिनोदये व्योम समुत्पतन्तः पयोधिमध्यादिव हारिदश्वाः ॥६४॥
जिस प्रकार प्रभात समय माकापा की ओर जानेवाले सूर्य के हरे-हरे घोड़े समुद्र के मध्य से निकलते हैं उसी प्रकार शरीर पर लगे हुए शेषाल-दल से हरे-हरे दिखनेवाले घोड़े पानी चीरकर नवी के बाहर निकले।
महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन