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________________ श्रृंगार का विस्तृत वर्णन करते हुए दम्पती के मनोभावों का सुन्दर चित्रण प्रस्तुत किया है। विप्रलम्भ श्रृंगार के प्रमुख प्रकरण यद्यपि धर्मशर्माभ्युदय में नहीं हैं तथापि पुष्पावघय के समय एक रूठी हुई नायिका को अनुकूल करने के लिए सखियों द्वारा नायक को विरहावस्था का जो चित्रण किया गया है वह विप्रलम्भ श्रृंगार के वर्णन की कमी को कुछ अंशों में पूर्ण कर देता है । देशि से नायिः माहिती हे तन्धि 1 तेरी भृकुटी रूपी लता बार-बार अपर उठ रही है और ओष्ठ रूप पल्लव भी कांप रहा है इससे आन पड़ता है कि तेरे हृदय में मुसकान रूपी पुष्प को नष्ट करनेवाला मान रूपी पवन बढ़ रहा है। हे मृगनयनि | इस समय, जो कि संसार के समस्त प्राणियों को आनन्द करनेवाला है, तूने व्यर्थ ही कलह कर रखी । मानवती स्त्रियों को मान सदा सुलभ रहता है परन्तु यह ऋतुओं का क्रम दुर्लभ होता है । पति से किसी अन्य स्त्री के विषय में अपराध बन पड़ा है. इस निर्हेतुक बात से ही तेरा मन व्याकुल हो रहा है। पर हे भामिनि ! यह निश्चित समझ कि परस्पर उन्नति को प्राप्त हुआ प्रेम अस्थान में ही भय देखने लगता है। अन्य स्त्री में प्रेम करनेवाले पति में जो तूने अपराध का चिह्न देखा है वह तेरा निरा भ्रम है क्योंकि जो स्नेह से तुझे सब ओर देखा करता है वह सेरे विरुद्ध आचरण कैसे कर सकता है ? जिस प्रकार स्नेह-तेल से भरा हुआ दीपक, चन्द्रमा की शोभा को दूर करने बाली प्रातःकाल की सुषमा से सफेदी को प्राप्त हो जाता है-निष्प्रभ हो जाता है उसी प्रकार स्नेह-प्रेम से भरा हुआ तेरा वल्लभ भी चन्द्रमा की शोभा को तिरस्कृत करने वाली तुम्चा दूरवर्तिनी से सफ़ेद हो रहा है-विरह से पाण्डवर्ण हो रहा है। उसने अपना चित्त तुझे दे रहा है इस ईर्ष्या से ही मानो उसकी भूख और निद्रा कहीं चली गयी है और यह चन्द्रमा शीतल होने पर भी मानो तुम्हारे मुख की पासता को प्राप्त होकर ही निरन्तर उसके शारीर को जलाता रहता है। जान पड़ता है उसके वियोग में तुम्हारा हृदय भी तो काम के बाणों से खण्डित हो चुका है अन्यथा श्रेष्ठ सुगन्धि को प्रकट करनेवाले ये निःश्वास के पवन क्यों निकलते ? अतः मुहा पर प्रसन्न होओ और सन्तस लोहपिण्डों की तरह तुम दोनों का मैल हो. इस प्रकार, सखियों द्वारा प्रार्थित किसी स्त्री ने अपने पति को अनुकल किया था कृत्रिम कलह छोड़ उसे स्वीकृत किया था। __इस तरह उपर्युक्त श्लोकों में मानात्मक विप्रलम्भ शृंगार का अच्छा परिपाक हमा है। १. सर्ग १२. श्लोक १२ से १६ तक बदम्चति भ लतिका मुष्ठर्मुहुः.................. ॥१२ । कान्तं किल कापि कामिमी !१६॥ महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन
SR No.090271
Book TitleMahakavi Harichandra Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages221
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size4 MB
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