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________________ हो !" पुत्र की विनम्रता से गन्वोत्कट बहुत प्रसन्न हुआ। उसने कहा, "तू भोजन कर, यह तपस्त्री मेरे साय भोजन कर लेगा।" जीवनधर भोजन के लिए भोजनशाला में बैठे। भोजन गरम था इसलिए रोने लगे। उन्हें रोते देख तपस्वी ने पूछा “तू अच्छा बालक होकर भी क्यों रीता है ?" इसके उसर में जीवन्धरकुमार ने रोने के अनेक गुण बता दिये । जिसे सुन हास्य गंज उठा और प्रसन्नता का वातावरण छा गया । __ जीवन्धरचम्पू और गद्यचिन्तामणि में चर्चा है कि वह तपस्त्री भस्मक-व्याधि से पीड़ित होने के कारण उस भोजनशाला में हुए समस्तजा गया फिर भी उसे तृप्ति नहीं हुई। आश्चर्य से चकित बालक जीवन्धर ने अपने हाथ का एक पास उसे दिया । जिसे खाते ही उसकी क्षुधा शान्त हो गयी। कृतज्ञता से प्रेरित तपस्वी ने बालक जीवन्धर को विद्या पट्टाना उचित समझा। जब गन्धोत्कट भोजन कर चुका तब शान्ति से बैठे हुए तपस्वी ने कहा, "यह बालक बहुत होनहार है। मैं इसे पढ़ाना चाहता हूँ।" गन्धोरकट ने कहा, "मैं श्रावक हूँ इसलिए अन्य लिगियों को नमस्कार नहीं करता । नमस्कार के अभाव में आपको बुरा लगेगा अतः आपसे पढ़ाई का काम नहीं हो सकता।" इसके उत्तर में तपस्वी ने अपना परिचय दिया, "मैं सिंहापर का राजा था, आर्यवर्मा मेरा नाम था, चीर-नन्दी मुनि से धर्म का स्वरूप सुन सम्यग्दर्शन धारण कर लिया और अपने तिपेण पुत्र को राज्य देकर दीक्षा धारण कर ली, परन्तु भस्मक-व्याधि से पीड़ित होने के कारण मैंने तपस्वी का वेष धारण कर लिया है, मैं सम्यग्दृष्टि हूँ, तुम्हारा धर्मबन्धु हूँ।" इस प्रकार तपस्त्री के वचन सुन तथा उसकी परीक्षा कर गन्धोत्कट सेठ ने उसके लिए मित्रों सहित जीवनरकुमार को सौंप दिया ।' तपस्त्री ने थोड़े ही समय में जीवघरकुमार को समस्त विद्याओं का पारगामी बना दिया और स्वयं फिर से 'दीक्षा धारण कर मोक्ष प्राप्त किया। तदनन्तर कालकूटननामक भीलों के राजा ने अपनी सेना के साथ नगर पर आक्रमण कर गायों का समूह चरा ले जाने का उत्पात किया। काष्टांगारिक ने घोषणा करायी कि गायों को छुड़ानेवाले के लिए गोपेन्द्र की स्त्री गोपथी से उत्पन्न गोदावरी नाम को कन्या दी जायेगी। इस घोषणा को सुनकर जीवन्ध रकुमार, काष्टांगारिक के पुत्र कालांगारिक तथा अन्य साथियों के साथ काव्यकूट भील के पास पहुँचे और उसे १. इस बिनोद घटना का भी चिन्तामणि में कोई वर्णन नहीं है परन्तु जीवन्धरचम्भू में बड़ी सरसता के साथ इसका वर्णन किया गया है। २. जीवन्धरचा आय में गुरु ने विद्याध्ययन समाप्ति के पश्चात् अपना परिचय देते हुए कहा है, "मैं विनारों के निवास स्थल में लोकपाल नाम का राजा था।" आदि । ३. जोवन्धरम् आदि ने नर्णन है कि तपस्मो ने भद्याएं पूर्ण होने के नाब जघन्घर को रत्नप्रय का उपदेश दिया और साथ में यह भी कहा, "तुम राजा सत्यन्धर के गृष हो । काठोगार ने तुम्हारे पिता को मार डाला था।" यह मनमर जोवन्धरकुमार को कायागार पर बहुत कध बाया और उसे मारने को तत्पर हो गये परन्तु तपस्वी ने उसे समझाकर एक वर्ष तक ऐसा न करने के लिए शान्य कर दिया। महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन
SR No.090271
Book TitleMahakavi Harichandra Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages221
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size4 MB
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