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प्रसन्न हुए । क्षीरसागर के जल से भरे हुए कलशों के द्वारा सौधर्मेन्द्र तथा ऐशानेन्द्र ने जिन बालक का अभिषेक किया। इन्द्र ने भगवान् की स्तुति की ओर इन्द्राणी ने आभूषण पहनाये । तदनन्तर उसी वंभय के साथ वापस आकर जिन चालक को माता की गोद में इन्द्र ने अद्भुत नृत्य किया । यह सब कर चुकने के अनन्तर देव लोग अपने-अपने स्थानों पर चले गये ।
साथ भगवान् धर्मनाथ पदार्पण किया । उनके
विक्रिया ऋद्धि से बालशेष को धारण करनेवाले देवों के बालकीड़ा करने लगे । क्रम-क्रम से उन्होंने यौवन अवस्था में शरीर की सुषमा यद्यपि जन्म से ही अनुपम थी तथापि यौवन की अपेक्षा सहस्रगुणी हो गयी । विदर्भ देश के राजा प्रतापराज ने के स्वयंवर में कुमार धर्मनाथ को बुलाने के लिए प्रमुख दूत भेजा । पिता की आज्ञा पाकर धर्मनाथ, सेना सहित विदर्भ देश की ओर चल पड़े। उसे पार करते विन्ध्याचल पर पहुँचे ।
मधुर बेला में पहले की अपनी पुत्री शृंगारवती
बीच में गंगा नदी मिली,
विन्ध्याचल के प्राकृतिक सौन्दर्य से मुग्ध हो उन्होंने वहाँ निवास किया 1 प्रभाकर मित्र ने विन्ध्याचल की अद्भुत शोभा का वर्णन किया । किन्नरदेव ने विक्रिया से सुन्दर गावास की रचना कर वहां ठहरने की प्रार्थना की। उनके पुण्योदय से विन्ध्याचल पर एक साथ हों ऋतुएं प्रकट हो गयीं जिससे वन की शोभा अद्भुत दिखने लगो । साथ के स्त्री-पुरुष वनक्रीड़ा के लिए वन में बिखर गये । पुष्पित पल्लवित लताओं के निकुंजों में स्त्री-पुरुषों ने विविध क्रीडाएं कीं। पुष्पावचय किया । धान्त होने पर सबने नर्मदा के नीर में जल-क्रीड़ा की । जलशकुन्त्रों से युक्त लहराती हुई नर्मदा में जलक्रीड़ा कर युवा-युवतियों ने अपूर्व आनन्द का अनुभव किया ।
सायंकाल आया, संसार की अनित्यता का पाठ पढ़ाता हुआ सूर्य अस्त हो गया । रजनी का सघन तिमिर सर्वत्र फैल गया। थोड़ी देर बाद प्राची-गुरन्ध्री के ललाट पर चन्दनबिन्दु की शोभा को प्रकट करता हुआ चन्द्रमा उदित हुआ । हुई चांदनी में दम्पत्तियों ने पेयरस का पान किया, स्त्रियों ने किये । पान-गोष्ठियों के माध्यम से स्त्री-पुरुषों ने रात्रि पूर्ण की। उषा की लाली छा गयी। प्रभात हुआ और युवराज धर्मनाथ ने किया | नर्मदा नदी को पार कर वे विदर्भ देश में पहुंचे। वहीं कुण्डिनपुर के राजा प्रतापराज ने उनका बहुत स्वागत किया ।
चारुचन्द्र की चमकती
नये-नये प्रसाधन धारण
कथा
धीरे-धीरे प्राची में आगे के लिए प्रस्थान
स्वयंवर - मण्डप राजकुमारों से परिपूर्ण था। युवराज धर्मनाथ के पहुँचते ही सबकी दृष्टि उनकी ओर आकृष्ट हुई। सखियों के साथ शृंगारवती ने स्वयंवर मण्डप में प्रवेश किया । सखी ने क्रम-क्रम से सब राजकुमारों का वर्णन किया परन्तु श्रृंगारवती की दृष्टि किसी पर स्थिर नहीं हुई। अन्त में धर्मनाथ की रूपमाधुरी पर मुग्ध होकर श्रृंगारवती ने उनके कण्ठ में वरमाला डाल दी । धर्मनाथ ने जब कुण्डिनपुर की सड़कों पर प्रवेश किया तब वहाँ की नारियाँ कुतूहल से प्रेरित हो अपने-अपने कार्य छोड़ झरोखों
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