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वर्णन किया गया है। वैसे तो इसके सभी स्तवक विशिष्ट कवि-प्रतिभा के परिचायक है पर धतुर्थ स्तवक से लेकर आगे के स्सवकों में कवि-प्रतिभा का बिशिष्ट दर्शन होता है। इसके रचयिता अहंदासजी तेरहवीं शती के अन्तिम भाग के विद्वान् है। इन्होंने अपने आपकी जन घामय के प्रसिद्ध विद्वान पं. आशापुरजी का शिष्य घोषित किया है।
तदनन्तर भोजराज के 'चम्पूरामायण', अभिनव कालिदास के 'भागवतचम्पू', कवि कर्णपूर के 'आनन्दवृन्दावनचम्पू', जीव गोस्वामी के 'गोपालचम्पू, अनन्त कवि के 'चम्पूभारत', केशवभट्ट के 'नृसिंहचम्पू', रामनाथ के 'चन्द्रमोखरचम्पू', श्रीकृष्ण कवि के 'मन्दारमरन्दनम्पू' और पन्त विट्ठलदेव के 'गजेन्द्रसम्म आदि ग्रन्थ दृष्टि में आते हैं । आचार्य बलदेव उपाध्याय के उललेखानुसार एक सौ इक्तीस चम्पूकाव्यों के नाम तथा अस्तित्व का परिज्ञान होता है। जबकि डॉ. छविनाथ त्रिपाठी ने अपनी 'चम्पकाव्य का आलोचनात्मक एवं ऐतिहासिक अध्ययन' नामक कृति में २४५ चम्पूकाव्यों की सूची दी है। इनमें अधिकांश रचनाएँ अब भी अप्रकाशित है। इस अल्पकाय निबन्ध में समस्त नम्पुकाव्यों का परिचय दे सकना शक्य नहीं है, इसलिए कुछ प्रकाशित रचनाओं का परिचय व नाम देकर ही सन्तोष धारण किया है। इस प्रासंगिक भूमिका के अनन्तर महाकवि हरिचन्द और उनके ग्रन्थों का अनुशीलन किया जाता है ।
महाकवि हरिचन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व महाकाव्यों में 'धर्मशर्माभ्युदय' और चम्धूकाव्यों में 'जीवन्धरचम्पू' प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं। धर्मशर्माम्युदय के प्रत्येक सर्ग के तथा जीवन्धरचम्पू के प्रत्येक लम्भ के अन्त में दिये हुए पुष्पिकाआक्यों से और धर्मशर्माभ्युदय के उन्नीसवे सर्ग फे ९८-९९ श्लोकों के द्वारा रचिल षोडशदल कमलबन्ध से सूचित 'हरिचन्द्रकृतं धर्मजिनपतिचरितम्' पद से तथा उसी सर्ग के १०१-१०२ श्लोकों से निमित चक्रवन्ध से निर्गत निम्नांकित
आर्द्रदेवसुतेनेदं काव्यं धर्मबिनोवयम् ।
रचितं हरिचन्द्रेण परम रसमन्दिरम् ॥ श्लोक से सिद्ध होता है कि इन दोनों ग्रन्थों के रचयिता महाकवि हरिचन्द्र हैं। यह हरिचन्द्र कौन हैं ? किसके पुत्र हैं और इनके भाई का क्या नाम है ? इसका परिचय धर्मशर्माभ्युदय को प्रशस्ति से निकलता है। यधपि यह प्रशस्ति सम्पादन के लिए प्राप्त सब प्रतिमों में नहीं है, जैसे 'क' प्रति, जो संस्कृत टीका से युक्त है उसमें यह प्रशस्ति नहीं है। इससे संशय होता है कि यह प्रशस्ति महाकवि हरिचन्द्र के द्वारा रचित न हो, पीछे से किसी ने जोड़ दी हो किन्तु १५३५ विक्रम संवत् की लिखी ',' प्रति में यह मिलती है इससे इतना तो सिद्ध होता है कि यह प्रशस्ति यदि पीछे से किसी ने जोड़ो
१. सास्कृत साहित्य का इतिहास । २. मह प्रति ऐलक पन्नालाल दिन सरस्वती भग्न बाई की है। ३. यह प्रति भाण्डारकर रिसर्च इंस्टीट्यूट पुना को है।
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