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श्रीमद्-अजितसागरसूरिविरचितः
लघुस्तोत्ररत्नाकरः
संशोधको मुनिहेमेन्द्र सागरः
प्रकाशक
श्रीबुद्धिसागरमरिजनज्ञानमन्दिरम्-( वोजापुर )
प्रथमं संस्करणम्
मूल्यं ०-१२-०
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श्रीअजितसागरसूरिजैन ग्रन्थमालाङ्क: १८
श्रीमद्-अजितसागरसूरिविरचितः
लघुस्तोत्ररत्नाकरः
संशोधको मुनिहेमेन्द्रसागरः
मममममममममममममममममममममममममममा
प्रकाशकश्रीबुद्धिसागरसूरिजनज्ञानमन्दिरम्-(वीजापुर )
प्रथमं संस्करणम्
वि. १९श्री में
"प्रेत १०००
मूल्यं ०-१२-०
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प्रकाशक- wwwmmmmmmmmmm
mm श्रीबुद्धिसागरसूरिजैनज्ञानमन्दिर.
वीजापुर (गुजरात)
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-
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मुद्रक:
शेठ देवचंद दामजी, आनंद प्रीन्टींग प्रेस-भावनगर.
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निवेदन
अाजे अमे श्रा 'श्री लघु स्तोत्ररत्नाकर प्रथम भाग' नामना ग्रंथने ' श्री अजितसागरसूरि ग्रन्थमाला' ना अढारमा अंक तरीके प्रसिद्ध करी जनताना करकमलमां समर्पित करीए छीए । श्रा ग्रन्थमालाचें कार्य अमारा हस्तक प्राव्यु तेथी त्रण-चार वर्ष पूर्व ज्यारे आचार्यश्री हयात हता त्यारे ा ग्रंथ छपाववाने तेनुं भेटर प्रेस पर मोकलवामां श्राव्युं हतुं, पण अनेक कारणोने लइने ते अटकी पडयुं हतुं। जिनस्तुतिचतुर्विशतिका ' मुद्रित थया बाद भा पुस्तक, मुद्रण मुनिश्री हेमेन्द्रसागरजीनी सूचनानुसार अमारा हाथमा श्राव्युं, अने या पुस्तकनी राह जोनाराभो माटे जो क मोडं थयु के तो पण छेवटे ते कार्य उपरोक्त मुनिश्रीनी कृपाथी पार पड्युं छे।।
अमारी भावना के के अमारा तरफथी बहार पडती मा ग्रंथमालाने जेम बने तेम वधारे सस्ती बनावीए पण अमारी पासे तेवू आर्थिक साधन न होवाने लीधे अमारे तेनी कीम्मत मात्र बार पाना राखी पडी छ भने ते कीम्मत आ पुस्तकना खरीदनार महाशयो जाणी शकशे के तेना अढार फरमाना कद प्रमाणे पडतरथी पण काइक ओछी ज छ।
अाजकाल पूर्वाचार्योए रचितस्तोत्रोना संग्रहरूप अनेक पुस्तक बहार पडी रह्यां छे अने ते भिन्न भिन्न रुचिवाळा वाचकपाठक भक्त जनोने माटे आदरणीय तथा पाठ्य छ । प्रत्येकमां
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४
कांइने कां विशेषता अवश्यमेव होय छे ज; तेवी ज रीते श्रा ' लघु स्तोत्ररत्नाकर प्रथम भाग मां संग्रहीत स्तोत्रो पण तेनी विशेषताने लइ जरूर तेनो उपयोग करनाराओ माटे आदरणीय अने पाठ्य थइ पडशे. एत्री अमने खात्री छे । श्र पुस्तकमा अनेक संस्कृत - प्राकृत ग्रंथोना कर्ता तथा केटलाक प्राचीन ग्रंथोना भाषान्तरकार ने विविध विषयो परत्वे कवितामां गानार आचार्य श्रीमद्- अजित सागरसूरिजीनां रचित स्तोत्रो तथा तेमना शिष्य साहित्यरसिक मुनिश्री हेमेन्द्रसागरजीनां रचित केटलॉक स्तोत्रो - अष्टको साथै अर्बुद - आबूवर्णन विगेरे छे । उपरांत मां प्राचीन आचार्योनां पण पूर्वघर श्रीभद्रबाहुसूरिरचित - मंत्रगर्भित उवसग्गद्दर स्तोत्र' 'उवसग्गद्दरपादपूर्ति ' प्राचीन पद्मावती अष्टक, बप्पभट्टिसूरिकृत ' सरस्वती स्तोत्र प्रतिष्ठाकल्प आदिमां वर्णन करायेल श्री शासनरक्षक ' घंटाकर्ण वीरस्तोत्र मंत्रकल्प ' विगेरे बहु महत्त्वमय केटलाक चमत्कारिक स्तोत्रो छे, के जेनो वांचको पाठादिथी उपयोग करी लाभ लेशे अने ते द्वारा अमे आ अमारो प्रयास सफळ थयो मानीशुं ।
,
आ पुस्तकनुं संशोधन कार्य मुनिराज श्री हेमेन्द्रसागरजी महाराजे करी आप्युं छे ते मांट श्रमे तेश्रो श्रीनो आभार मानीए छीए ।
ता. १४-१०-३५
प्रकाशक
बीजापुर - (गुजरात) बुद्धिसागरसूरि जैन ज्ञानमंदिर.
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प्रस्तावना
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पुंसामेकमपिस्तोत्रं, स्वर्गापवर्गसम्पदम् । . जनयत्येव लोकेस्मिन्, जिनानां पावनं परम् ॥१॥
श्रीमद्विधादेव्युपासकानां भूतार्थवादिनामनल्पतत्ववेदिनामनपेक्षिताऽनहवादानां सहृदयहृदयानां विद्वद्वराणामेतन्नाऽविदितम् , यत्स्तोत्ररत्नमालिकाग्रथनमनहारि, सद्भक्तिप्रधानानां विश्वस्तचेतसां पिपठिषणां वाचकानां संस्मर्तृणाञ्च । यद्यपि श्रीमद्भद्रबाहुप्रभृतिभिः पूर्वाचायविविधसिद्धिप्रदानि बहूनि स्तोत्राणि नैकार्थाऽलङ्कारघटितानि रचितानि विद्यन्ते जैनशासने, तथाप्येष ' लघुस्तोत्ररत्नाकरः' योगनिष्ठजैनाचार्यश्रीमद्बुद्धिसागरसूरीश्वरशिष्यरत्नश्रीमद-अजितसागरसूरिभिः प्रणो. तस्तस्याऽयं प्रथमो भागः सरलभाषार्थः सम्यग्वैराग्यभक्तिरसो. पेतः प्रकटीकृतः। यस्मिन् जिनेन्द्राणांगण पृच्छ्रीमदगौतमस्वामिनः, आचार्यश्री हरिभद्रसूरिश्रीमद्धेमचन्द्राचार्यनिजगुरुप्रभृतीनां महामुनीनाञ्च स्तवस्तुतिस्तोत्राष्टकानि च सन्टब्धानि । स्तवाः स्तुतयः स्तोत्राण्यष्टकानि चाभिन्नोर्था एव व्युत्पत्या रूढिव शाच्च । कश्चिद्विशेषोऽप्येतेषां विद्यते-तथाचोत्तराध्ययनवृहदवृत्तौ " तत्र
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स्तवा:-देवेन्द्रस्तवादयः, स्तुतयः- एकादिसप्तश्लोकान्ताः, यत उक्तम्-एगदुगति सिलोका (थुइओ) अन्नेसि जाव हुंति सत्तेव । देविदत्थवमादी तेण परं थुत्तआ होंति " । व्यवहारभाष्ये च उ० ७ गाथा १८३ ।
___ “एगद्गति सलोया, थुतिओ अन्नेसि होइ जा सत्त । देवेंदत्थयमादो तेणं तु परं थया होइ”॥ श्रीमदमलयगिरिकृतवृत्तौएक श्लोका-द्विश्लोका-त्रिश्लोका वा स्तुतिर्भवति, परतश्चतु: श्लोकादिकः स्तवः। अन्येषामाचार्याणां मतेनैकश्लोकादिसप्तश्लोकपर्यन्ता स्तुतिः । ततः परमष्टश्लोकादिकाः स्तवाः । यथा देवेन्द्रस्तवादयः । आदिशब्दात्कर्मस्तवादिपरिग्रहः" "गंभीरमहुरसहं, महुरसह, महत्थजुत्तं हवइ थुत्त ॥५८॥" (देवेन्द्रसूरिप्रणीतचैत्यवन्दनभाष्ये) "सकयभासाबद्धो, गंभीरस्थो थवोत्ति विक्खाओ । पाययभासाबद्धं, थोत्तं विविहेहि छंदेहिं ॥८५१॥" ( चेइयचंदणभाष्ये श्रीशान्तिसूरिः) अद्यावधि मुद्रितामुद्रितस्तोत्रादिषु प्रायः पूर्वोक्तलक्षणानि न घटन्ते, इति नासमञ्जसम् । चूलिकास्तुतिस्तोत्रापेक्षया स्यादियं रूढिः। सर्वेष्वपि प्राचीनतरा: कथ्यन्तेऽहनिशं जैनशासने प्रतिक्रमणादिकक्रियाविशेषेषु दण्डकरूपाः स्तवाः पञ्च-तद्यथा
" सक्कत्था ओ य चेइय-थओ य चउविसईथओ चेव । सुत्तत्थओ य सित्थत्थओ य नामाई दंडाण | "
एतेषामेवावश्यकवृत्त्युत्तराध्ययनादौ कुत्रचित् स्तवत्त्वं क्वचिच्च स्तुतित्वं संप्राप्यते तद् व्युत्पत्त्यनुरोधात्, किवा गोबलीवदन्यायमवलम्ब्य सामान्यत ।
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अस्मिन् ग्रन्थे पद्मावतीदेव्या:-सरस्वत्याः-घण्टाकर्णवीरस्य च सम्यक्त्वधारित्वात् प्राचीनाचार्यैस्तदाराधनसंमतत्त्वा व सबीजमन्त्रगर्भितानि तेषां स्तोत्राणि संगृहीतानि । स्वविरचितस्तोत्राष्टकानिकियन्ति जिज्ञासुजनप्रेरणया विनिवेशितानि च ।
कियन्ति च प्राचीनाऽऽचार्यरचितानि संगृहीतान्यत्र । अनेन सूरिणा विनिमितान्यपराणि स्तोत्राणि सबीजमन्त्रकाणि, तथैव प्राचीनसूरिपुङ्गवप्रणीतान्यमुद्रितानि संगृहीतानि सन्ति तान्यपि यथोपयोगं यथासमयञ्च प्रकटयिष्यन्ते । केषुचित्स्तोत्रेषु संवत्सरादिनामोल्लेखा विहितः कुत्रचिदप्रदर्शितश्चैव, ग्रन्थकर्ता स्वतीर्थ्यश्रीमदमृतसागरस्य स्मृतये “ सुधासिंधु"रिति काव्यंविरचितम् । तदपि संगृहीतम् । ग्रन्थप्रणेतुरस्य विद्वत्त्वं कवित्व शक्तिश्चैतद्ग्रन्थावलोकनैव ज्ञास्यते वाचकवरैः । इत्याशास्ते ।
वि. सं. १९९२ बु.सं. ११ मार्गशीर्ष शुक्लपञ्चम्याम्
मु. विद्यापुर (वीजापुर) 0 विद्याशाला
मनिहेमेन्द्रसागर!
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शुद्धिपत्रकम् ।
अशुद्धि:
जिनश्वरो
भूभिजा
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ध्यान
सूनं
भजेद्धि
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दक्षनश्चः
ऽर्चनीयः सततं
द्धतञ्जयाऽ
श्रयतु
मनधा
मध्ये
योगन्द्रि
श्रेष्टायुधं
मानवानां
नायातीत
निभ
मनक -
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शुद्धि:
जिनेश्वरो
भूमिजा विराजित ! |
ध्यान
सूनुं
भजेद् वि
दक्षतश्च ॥
Seaपारस
द्धनञ्जयाऽ
श्रयति
मनघा
मध्ये
योगीन्द्र
श्रेष्ठायुधं
मानवानां
मायातीत
निर्भ
मनेक
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४८ ५१ ५२ ५२
तप्त श्रयेत्स
१६ २० २ २
तिप्त श्रयत्स श
मिदं
५२ ५५ ५६
सर्वदेहिनाम् सर्वदेहिनां शितांशुः
शीतांशुः सद वृषभं सद् वृषभं। हाटकराजतरन्त- रत्नाऽष्टापदरूप्य महोज्वलां महोज्ज्वलां
भासे
मासे
w o o o ovo ovo wo oo u ono 20 20
स्वलोक पदावली यद्विलोकी सत्यवमै
६४
ख लोकपदाबली तद्विलोकी सत्यवर्त्मः
द्ध नाथचरणः मूत्ति ताऽद्धि," रमला प्रोधूतपोतय
नाथचरणे
६५१
८४
ताऽविं, उचितां प्रोद्धृत पोताय
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१८
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९७ १०५
१५
संस्तु
१०८
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सर्वकाले प्रबलवर शशी वक्तुमुप
११० १२४९
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स्वर्गों
سم
१४८ १४८
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१४९ १५०
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सस्तु । सर्वकाले प्रभूतवर शशी: क्क्तु मुप स्वगौजलजेक्षणं मोक्षदम् - विभिन्न पुंजम् भ्रकूटिं वन्दो बिभतु गुणामु भूवि वित पुण्या : तद्ददरव द्विमुखान्वद्ध्यानगिगै
पभेक्षणं शर्मदम् विभिन्न पुञ्जम्ध्रुवश्च वृन्दो बिभर्तु गुणानु
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१५१ १५३ १६३ १६३
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२०१ २०२
विहङ्ग पुण्यातहदस्व पराङ्मुखात्वद्धयान गिरौ परमा
२०४
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पगमा
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११
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वशिष्टा
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सुहेम
हेम वासुधा वाकला नाऽनुमोदपराः नाऽन्वमोदन्तहि
२१८
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सूरि
सूरिं
२२०
२२१ २२२ २२३
९ १७ ९
सुमदाम् स्वभक्त्या दायिनी निरूपम कुत्रः निरूपम
सुमुदाम् सुभक्त्या दायिनी निरुपम कुत्र निरुपम
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जैनाचार्य श्रीमद्-अजितसागरसूरिवृत्तान्तम्
प्रणम्य पद्मप्रभपद्मनाथं, संक्षेपतोऽहं कथयामि किश्चित् । गुरुप्रसादाद् गुरुजीवनस्य, शुभं चरित्रं गुणवृद्धिहेतुम् ॥ १॥
विविधवैभवशालिनि चारुतर( चरोतर )देशे पेटलादपत्तनसन्निधौ प्रधानतो वैश्यजनमण्डितोऽन्वर्थनामा नार( नरसमूह)इत्यभिधानं दधानो ग्रामः प्रसिद्धः समस्ति । यस्मिन्वीत. रागधर्मोपासकाः कियन्तः स्वेष्टदेवता उपासते, यैधर्मसन्तानकराः कतिपयाऽर्भकाः सद्गुरुभ्यः समर्पिताः, दीक्षिताश्च ते धर्मोन्नति विदधति, एतस्मिंश्च प्रामे विशुद्धप्रकृतिः परमात्मिकधर्मनिष्ठो वैश्य (लेउआपाटीदार)कुलविभासकः (लल्लुभाई ) इत्याख्याख्यापकोऽभवत्, धर्मपत्नी च तस्य शीलवतीनां प्रशंसनीया( सोनबाई). नामाऽऽसीत् , दम्पती तौच समानशुभशीलौ विनीतस्वभावौ प्रभुभक्तिपरायणी शुद्धदेवगुरुभक्तिभाजावुहारमानसौ प्रेमाङ्कुरपोषको सततं बभूवतुः । यस्याः कुक्षौ शुभस्वप्नसूचितोऽयं गर्भवेन समपातरत । वि. सं. द्विचत्वारिंशदधिकैकोनविंशतितमे हायने पोषशुक्ल पञ्चभ्यां सा बालमजीजनत् , द्वादशेऽह्नि पित्रा ( अंबालाल ) इत्यभिधानमकारि । क्रमेण बालशशाङ्क इत्र स वृद्धिमगमत् , प्रकृत्यैवासौ निजपितृगुणानुसारी शुभलक्षण. सूचितो भविष्यद्भाग्योदयवशात् सामुद्रिकलक्षणैः कियद्भिरुपजक्षितोऽभूत् , पाद्यवयस्येव तं वाग्मित्वं बुद्धिवेशद्यञ्चाशिश्रियत् ।
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अत एवासावचिराद् गुर्जरगिरां रहस्यमवेदीत् । स च स्वयमेव वाक्चातुर्यबुद्धिप्रभावं सफलीकत्तुं व्यचिन्तयत् । तस्मिन्समये देवनियोगात्तन्मातापितरौ पश्चत्वं गतौ, भवस्वरूपमेतादृशम्वउत्पद्यते कर्भनिबद्धजन्तु-बिलीयतेऽसौ किल कर्मयोगात् । सुखं च दुःखञ्च चलस्वभावं, प्रकीर्तितं चक्रवदत्र लोके ।।१।। संसारवासः खलु सारहीनो,-निःसार सेवो बहुदुःखखानिः । एकस्य दुःखस्य न यावदन्त-स्तावद् द्वितीयं निपतत्यकाण्डम् .. इत्थं संसारस्थितिं परिभाव्य पट् पञ्चाशदधिकै कोनविंशतितमे वैक्रमाब्दे स्थानक वासिसाधूनां समागमं प्राप्य. विरक्तमना: स तेषां सन्निधौ दीक्षामङ्गीकृतवान् । अमीऋषेति नामनिर्देशं जग्मिवान् । ततो गुरुभिः सह तेन महाराष्ट्र-खानदेश-कर्णाटकमालव-मध्यहिन्दुस्तानप्रभृतिषु देशेषु विहागे व्यधायि, तत्रत्यजनाः प्रबोधिताश्च निजबुद्धिवैभवेन । अमीऋषिणा. भाण्डारकररचितपुस्तकद्वयं पुगऽपाठि. ततस्तपागच्छीयदीक्षामङ्गीकृत्य , सिद्धान्तचन्द्रिकासिद्धहेमकाव्यन्यायादि विषयाः सम्यगालोकिताः इति तदीयमुद्रितामुद्रितग्रन्थ श्रेण्या विज्ञायतेमतिमद्भिः स्वयमेव।
.. अनेकधा धर्मशास्त्राणां विविधभाषाणां चाभ्यासस्तेन विहितः । ततोऽनेकविदुषां मुनीनां महात्मनाश्च समागमं कुर्वाण: स सम्यग् ज्ञानाऽनुभवं प्रापत् । ततस्तस्य स्थानकवासिमुनीनां परिचयो जातस्तन्मते मूर्तिपूजनं सर्वथा न्यषेधि, तञ्च तस्मै निज
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ज्ञानानुमत्रान्नारोचत, शास्त्र तैतिहानिप्रमाणेश्च तेन विज्ञातम् - यद्वात्रिंशत्सूत्र सूत्रितमेव माननीयं नान्यदितिमर्यादा भ्रमजनका तैर्मूर्तिपूजा खण्डयितुङ्गीकृताऽस्ति द्वात्रिंशत्सूत्रेष्वपि मूर्त्तिपूजा प्रतिपादिता, पञ्चचत्वारिंशत्सूत्रान्तर्गतानितान्यपि । तथापि संस्कृतभाषाऽनभिज्ञेन लुम्पकमतोत्पाद के नाष्टाधिक पञ्चदशशताब्द्यां मूर्तिपूजा न्यषेधि, मूर्तिपूजा प्राचीनैः सर्वैः संमतास्ति । तत्सम्बन्धिशङ्काममाधानं तन्मतावलम्बिना तेन नाऽऽसादि । केचि - तन्मतानुयायिनस्तदयिशङ्काः श्रुत्वा हास्यास्पदीचक्रुः केचित्तूष्णीं बभूवुः, अपरे च मिथ्या श्रद्धाशालिनत्वेनैव जीवनं निर्वाहयितुं उपदिदिशुः । तेन सत्यशोधक: स नातुष्यत् ।
ततस्तेन विजिज्ञासुना - अध्यात्मज्ञानदिवाकरयोगनिष्ठाचार्यश्रीमद्बुद्धिसागरसूरीश्वरैः साकं पत्रव्यवहारः प्रारभ्यत, क्रमेण च प्रश्नोत्तर सन्तानेन बहुधा शङ्कासमाधानमजनिष्ट, ततः स्वयमेव स समागत्य सूरीश्वरदर्शनमकार्षीत्, तैश्च साकं तेन भक्ष्याभदयाचारसमाचारी जीवदया - प्राकृत संस्कृत भाषा - सूत्ररचना - मूर्त्ति प्राचीनत्वावश्यकताप्रभृतीनां प्रभुता ऊहापोहा विहिताः, मीमांसायकृत । ततो निश्चितं तेन यत् स्थानकवासिमत आधुनिक एव, तेऽपि रूपान्तरेण गुप्ततया तत्सदृश (स्थापना) स्वरूपेण मूर्ति मन्यमाना अज्ञजनान् भ्रान्तान् कुर्वाणास्तेषां स्वस्य चात्मिकहितं नाशयन्ति । इत्थं तेन ( अभिऋषि) मुनिना सुपरीक्षां विधायपञ्चषष्टयत्तरैकोनविंशतितमे (१९६५) वि. संवत्सरे गृहीतमतम
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नादृत्य पूर्वोकसूरश्विरपादान्ते श्वेताम्बर साम्प्रदायिका संवेगिदीक्षा स्वीकृता । अजित साग़र इत्यभिधया ख्यातिमभज इस्मिन् सम्प्रदाये, यद्यपि स्थानकवासिमतं वितथं विज्ञाय त्यक्तवान् तथाऽपि परमतसहिष्णुत्वात् सोऽन्यमतानिव तन्मतमपि समानभावेनाऽपश्यत् ।
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बहुशस्तेन स्थानकवासिसाधुभिः समं प्रसिद्धभाषणादिप्रवृत्यो विहिताः, अत एव निश्चीयते तन्मनसि क्वचिदपि केनापि सार्द्धं तिरस्कारो द्वेषबुद्धेिश्य न प्रादुरभवत् । सर्वैः सह प्रमोदभावेन वर्तितव्यं सत्यवर्त्म न परित्याज्यमिति तजीवनस्य प्रधानताऽऽसीत् । अथ स मुनिराजः प्रत्यहं ज्ञानवृद्धिं विधातुं प्रावर्त्तत, संस्कृतप्राकृतवाङ्मयतत्त्वानि सम्यग् ज्ञातवान् । तदन्त्रागमिकभावान् पुनरवलोकितवान् । तत्तट्टीका नियुक्तिभाष्यचूर्णिंकापर्यालोचनत श्रागमिकगौरवं तेन प्रत्यक्षीकृतम् । प्राथमिकवक्तृत्वशक्तिप्रभावेण सञ्जातप्रसिद्धिसन्मानोऽसौ विशेषतः स्वागमज्ञानपूर्वकं निजगुरुसकाशात्प्रत्यहं संप्राप्ताध्यात्मज्ञानादिना व्यस्फुरत् । विज्ञानतपसा बपुरपि सविषयं कृशतामभजत् । श्रष्टाहिकादितपश्चर्या बहुशः परिचिता तेन, योगोद्वहनतप आराध्य ज्ञानाश्वाराधितम् । ततः सानन्दनगरे तस्मै महोत्सवपूर्वकं पंन्यासश्रीमद्वीरविजयेन पंन्यासपदं गणिपदं च प्रदत्तम् । मेघगम्भीनादेन सततं देशना प्रदानेन लोकोपकारकारिणा पंन्यास श्रीमद् अजित सागरगणिना जीवनं परहितायैव व्ययितम् | संस्कृत - प्राकृतभाषायां तेन बहवो लेखाः प्रादुष्कृताः, संस्कृत - प्राकृतम
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न्थार्थाः देशभाषया प्रकटीकृताश्च । तद्विरचितग्रन्थाश्मे भीमसेनचरित्रं, अजित सेनचरित्रं, तरङ्गवतीकथा ( पद्यात्मका ) चन्द्रराजचरित्रं, स्तुतयः, श्रीशोभनस्तुतेष्टीका, धर्मशर्माऽभ्युदय - नेमिनिर्वाण - तिलकमञ्जरी - शान्तिनाथचरित्रादिमहाकाव्यानां टीकाः, शब्दसिन्धुः, बुद्धिप्रभाव्याकरणं, सुभाषितसाहित्यं, बुद्धिसागरसूरिचरित्रं, श्रीकल्पसूत्रसुखबोधिका घेति संस्कृतगिरा गुम्फिताः सन्ति । कृतिश्चैषां मनोहारिणी सुगमा रसमयी च । वेदान्ततत्त्वञ्च तेन ग्रन्थद्वाराव्यक्तीकृतम् । वेदान्तरहस्यं च काव्यप्रबन्धेन गुर्जरगिरा बहुधा विशदीकृत्य प्रकाशितम् । तच्च समयोचितभावमयं हृल्लासकं जनानानन्दयति । सुपार्श्वनाथचरित्र - सुरसुन्दरी - कुमारपालचरित्रादीनां भाषान्तराणि तद्रचितानि मुद्रितानि वर्त्तन्ते । इत्थं तेन मुनिना साहित्यप्रमुखप्रवृद्धिर्विशेषतो विहिता ।
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तेषामीदृशीं प्रखरशक्तिमनेकधाऽपरयोग्यतां च निरीक्ष्य तस्मै योगनिष्ठाध्यात्मज्ञानदिवाकर श्रीमदाचार्य बुद्धिसागरसूरिभि: ( प्रांतिज) पत्तने अशित्युत्तरै कोनविंशतितमेऽब्दे आचार्यपदं प्रदत्तं सागरसंघाटकस्यधूश्च समर्पिता । ततोऽसौ कियत्कालं सूरिपदं व्यंभूषयत्, तदन्तरेऽपि ग्रन्थविलेखने देशनादाने च तेन सर्वथा समयो व्ययितः । महात्मनां चयोऽपि जगञ्जनानाममूल्य इति को न विजानाति ? । धार्मिकसामाजिकोन्नतिकारकप्रवचन-प्रदानेन सह कानिचिद्धार्मिक क्षेत्राणि गुरुकुल विद्यानिकेतनानि च साहाय्यदानद्वारा सजीवनानि विहितवान् सः । अभ्यस्तयो-'
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गविद्यः स गुरुभक्तिमेव मुख्यतोऽमन्यत । इति तदुपदेशेन निर्मापितानि श्रीमद्बुद्धिसागरसूरीश्वरस्य गुरुमन्दिराणि सूचयन्ति । आर्यसमाजिसनातनधर्मिनिस्तिपारसिकयवनानां धर्मस्थानेष्वपि गत्त्वा स्वयं व्याख्यानानि धर्मप्रवृत्तयेऽदात् । तेन च नरेशाननेकधा प्रबोधयता राज्यस्थानेषु सदुपदेशेनाहिंसाधर्म: प्रतिष्ठितः सततं विहारप्रियः स सूरिः क्रमेण श्रीनगर ( अहमदावाद ) सुरत-मुम्बापुरी-पट्टण-राजधन्यपुर (राधनपुर )-विजयपुर ( विजापुर-विद्यापुर )-सानंद-प्रान्तिक (प्रांतिज)-वटपल्ली ( वडाली )-प्रल्हादनपुर (पालनपुर )-महेशान (महेसाणा ) उमापुर (ऊंझा)-पादलिप्त (पालीताणा)-यामनगर (जामनगर)अमदावाद-प्रांतीज-पेथापुर-विजापुर-महानसादिपतनेषु चातुमौसी: कुतवान् । इत्थं स महानपि समाजकार्याणि धर्मबुद्ध्या साधयन् महत्वमानं मनसाऽपि नाऽचिन्तयत्. अन्यान् प्रभावशालिनो विधातुं सदैव स प्रमुदितोऽभूत् । अतस्तेन सतीर्थ्याभ्यां मुनिश्रीऋद्धिसागर-मुनिश्रीकीर्तिसागराभ्यां मुनिश्री दुर्लभविजय-मुनिश्री रंगविमल-अश्चलगच्छीय मुनिश्री दानसागरभ्यश्च गणिपदं पंन्यासपदश्च व्यतीर्यत ।
ततः पश्चाशीत्युत्तरैकोनविंशतितमे वैक्रमसंवत्सरे चाश्विन-- शुक्ल तृतीयायां स्वर्गस्थोऽभूत् । येनाऽऽत्मकल्याणं साधयता जगदुद्धारायाऽनल्पः परिश्रमः सेवितः, यतोऽधुना सोऽसन्नपि विद्यमानतां भजति ।
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मयापि तज्जीवनपरिचयेन, 'निजात्मकल्याणं शासनजगद्धितं च यथास्यात्तथा यतितव्य'मिति भावनया तत्संक्षिप्तजीवनं पूर्णयता विरम्यते ।
सूरीशस्य मुनीन्द्रस्य, विस्तृतं चरितं गुरोः। विद्यते विदुषां मान्यं, दयाधर्मनिकेतनम् ।। १॥ संक्षेपात्सारमुद्धृत्य, जनसन्तुष्टिहेतुकम् । प्रकटीकृतवानस्मि, जीवनाचरितं कियत् ॥२॥ समयं योग्यमासाद्य, व्यलेख्यनवकाशतः।। यथाज्ञातमनल्पार्थ, गुरुभक्तिवशादिदम् ॥३॥ महानसे पुरे रम्ये, रमणीयतरोदये ।। अभ्यर्थनेन भव्यानां, श्राद्धानां गुरुसेविनाम् ।।४।। चन्द्राङ्कनिधिभूयुक्ते, वैक्रमे वत्सरे शुभे ।
ऊर्जेमासि सितेपदे, पश्चम्यां तिथिवासरे ।। ५ ।। माणसा-कार्तिक-)
तत्पादपङ्कजालिमुनिशुक्लपञ्चम्याम्
हेमेन्द्रसागरः सं. १९९२
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श्रीमहावीरस्मरणम् ।
भज महावीरं भज महावीरं महावीरं भज मूढमते ! मरणे संनिहिते संयाते, नहि नहि रक्षति भोगविलासः ।
भज महा० ध्रुवपदम् ॥
द्वारा: कारागारा असारा चित्रचरित्राश्चित्तलवित्राः । पुत्रा मित्रजनाः सुखजननाः, सर्वेऽप्येते शिवसुखहननाः ||
भज महा० ॥ १ ॥
Harrat भ्रमणं कृत्वा सम्यग्धर्मरतिं ननु हित्वा । रे मनुज ! त्वं मिथ्या धर्म, किं न जहासि कुकर्मनिदानम् ?
भज महा० ॥ २ ॥
कायः प्रायः कर्मनिकायो - न्यायः प्रायो नास्ति विमायः । परिवारोऽयं निजसुखरक्तः, परहितकरणे क्वाऽपि न शक्तः ॥ भज महा० ॥ ३ ॥
नायं देहो दीव्यविलासः, स्थाताऽस्थिरतरकल्पितवासः । माता भ्राता पुत्रकलत्रं, सर्वभ्रश्यत्यचिरा मित्रम् ||
भज महा० ॥ ४ ॥
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कुरु तत्कर्म यतः शिवशर्म, धृतमतिवर्मा निश्चितधर्मा । येन विना मानवभवलाभो-मिथ्या भाति कुरङ्गाजलाभः ॥
भज महा० ॥ ५॥ इह संसारे खलु दुस्तारे, धर्मस्त्राताऽवितथोपारे । विज्ञायेति समाचर धर्म, सर्वज्ञप्रतिपन्नमपूर्वम् ।।
भज महा० ॥६॥ भुजगाभोगसमाना भोगा-विद्युद्दामसमाना माया । रायः सर्वाः क्षणवासिन्यो-मत्वेत्याशु समाचर धर्मम् ।।
भज महा०॥७॥ दुष्टाशां सर्वस्वविनाशां, त्यजत विमूढधियः सततम् । सुकृतपथं परिपालयतारं, जयत विकारं वारं वारम् ॥
भज महा०॥८॥ गुणवद्गुरुष्वतिभक्तिप्रीति-दत्ते सत्यशुभङ्करीतिम् । त्यक्त्वा पूज्यप्रणति प्रवरां, कलयसि केवलदुःखमपारम् ॥
भज महा० ॥९॥ गुणवद्गुरुचरणाम्बुजलीनो-ज्ञानसुधारसवारिधिमीनः। कुरु सत्कर्मरतिं गतभीति-स्त्वं त्यज निन्धमतान्तररीतिम् ॥
भज महा० ॥१०॥
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कालः क्रीडति गच्छत्यायु-भ्रम्यसि किं भवदावे व्यर्थम् ? | चेतय चेतन ! चित्ते चिन्तय, भवपाथोधिं दुस्तरमेतम् ॥
भज महा० ॥। ११ ॥
दन्ताश्चलिताः पलिताः केशा - गतिरप्याशु स्खलिताऽशेषा । तदपि न तृष्णा दासी क्षीणा, सत्याऽसत्यविवेकविहीना || भज महा० ॥ १२ ॥
द्रव्यं दुःखनिदानमशेषं, भावय संसृतिदुःखमनन्तम् । मूढमते ! त्वं निर्भयचेताः, शेषे किं ज्वलदग्न्यागारे ||
भज महा० ।। १३ ।।
शास्त्रमधीतं ध्येयं ध्यातं गीतं गानं दानं दत्तम् । शीलं शीलितमक्षतमेत-च्छान्तिर्नोचेद् व्यर्थमशेषम् ||
LAKARA
भज महा० ।। १४ ।।
क्लेशग्रस्तं जगदतिकष्टं, सृष्टं स्वार्जितकर्मविपाकाद् । स्वात्मध्यानरतो भव विद्वन् ! येन तदन्तं द्रक्ष्यसि नूनम् ||
भज महा० ॥ १५ ॥
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॥ श्रीजिनेन्द्रस्तोत्रम् ॥ ( वैतालीयवृत्तम् )
॥ १ ॥
जय तीर्थपते ! दयानिधे ! सुरसार्थाधिपसेवितक्रम ! | कलिकालजदोषहारक ! सदसदविचारदायक ! सदुपायविचारशून्यतां, भजमानो हृदि पीडितो भृशम् । शरणं ननु यामि तावकं, जिनदेव ! क्षुभितैकपालक ! ॥ २ ।। हृदि नाशय मे स्थितं तमो - रविणाच्छेद्यमिदं गुणापहम् । दिननाथविभा विभो ! कुत - स्तव रेखांशमपि क्षितौ भजेत् ॥ ३॥
भगवन् ! पदवीं तवेक्षितुं प्रभुरस्येव न चर्मचक्षुषा । कृपया प्रविलोकयस्व मां दिश मे दीव्यविकासमीक्षणम् ॥ ४ ॥
9
स्मरणं तव पावनं प्रभो ! किमु वाच्यं स्तवनेन संयुतम् । मधुरा प्रकृतिर्हि पायसी, अधिका शर्करया भवेन्न किम् ? ॥ ५ ॥ विषमोऽपि समो भवेत्प्रभो ! तव पादान्तिकमागतो जनः । विषवानपि चामृतायते भवरागोऽपि विरागतां श्रयेत् ॥ ६ ॥
"
हृदये स्मृतिमात्रतो हितं कुरुषे त्वं किल कल्पपादपः । भवतारक ! वीक्षितं तव क्रमयुग्मं वितरत्यभीष्टताम् ॥ ७ ॥ सहसा दययोज्झितः शठो - विनिगृह्णाति न मां यमः प्रभो ! अभयं कुरु तावदेव मे, गतजीवस्य सृतं महोषधैः
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|| 2 ||
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૩
बहवो मुनयस्त्वयोद्धृताः, करुणावारिनिधे ! त्वदाश्रिताः । भवपारगतं कुरुष्व मा - मपरं नैव विलोकये क्षमम्
॥ ९ ॥
तव पादसरोरुहं प्रभो ! प्रणमाम्यप्रतिमप्रभावदम् । जगदण्डमिदं त्वदाश्रितं, प्रतिजानेऽक्षरमात्मविद्यया ॥ १० ॥ भवतापहरस्त्क्या विना, भुवनेऽस्मिन्नहि दृश्यतेऽपरः । भव मेऽक्षयशर्मदायक - स्त्वमिदानीं न विलम्बनं कुरु ॥ ११ ॥ क नु यामि विलोकयामि कं, क्व च तिष्ठामि नमामि कं विभो ! | परिपालय मां कृपानिधे ! भवकान्तारभयाकुलं सदा ॥ १२ ॥
,
शरणं जिनराज ! तावकं शरणं मेऽस्तु सदा शिवप्रदः । शरणं गिरिराजभूषणं, शरणं नान्यदहं समाश्रये
॥ १३ ॥
शरणं भवतः शुभावहं, सुमतिः कः प्रविहाय संभजेत् । विफलं भवदायकं प्रभो !, विविधापत्तिनिदानमन्वहम् ॥ १४ ॥ सुरपादप उन्नतिप्रदः प्रददात्येव मनोविकल्पितम् । जिनकल्पतरुस्त्वनल्पद - स्त्रिषु लोकेषु मनोतिगं हितम् । ||१५||
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॥ १६ ॥
अथवा किमु याचनेन मे, प्रभुभक्तिर्जनयत्यसंशयम् । सफलं जनुरङ्गिनामिह, क्षपित क्रूरकषायमण्डली विदितं तव वर्त्तनं विभो !, परमार्थैकपरायणं जने । किमु नाऽस्मि कृपाकटाक्षतः, समवेक्ष्यः समयेक्षिणा त्वया ॥ १७ ॥
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त्वदलङ्कृतमेतकज्जगत्, प्रविभाति प्रथुलश्रियोर्जितम् ।
प्रभुता प्रथिता तव प्रभो ! क्षपितक्षोभपरम्परा नृणाम् ॥ १८ ॥ विधिनैव तवार्हणाऽङ्गिनां, शुभभावेन विभो ! प्रकल्पिता । परिपूरयते मनोरथान्, बहिरन्तश्च विशुद्धिदायिनी जिननाथ ! तत्र क्रमाब्जयोः पतितं मां परिपालयोत्सुकम् । नहि चित्रमिदं जनिष्यति, परकार्येकरतस्य साम्प्रतम् ॥ २० ॥ कलिकालकरालदुःखतः, कुरु मां दूरतरं जिनेश्वर ! | नहि शक्तिरिहास्ति कस्यचिद् भवतः कार्यमिदं सुनिश्चितम् ॥ २१ ॥ जिननाथ ! तव प्रभावतो - बहवः सिद्धपदं हि भेजिरे । मम कि नहि तत्र योग्यता, शुभभक्ति तत्र कुर्वतोऽधुना ॥ २२ ॥ मम पूर्वभवानुसारतो - जनिता दोषगणास्त्वया प्रभो ! | न मनागपि मानसे शुभे, स्मरणीयाः कृपया कृपानिधे ! || २३ || विदधातु सुखं सुखार्थिनो-मम लोकोत्तरशर्मसेवधे ! जिननाथ ! भवन्तमन्तरा, नहि याचेऽन्यमनन्यरागतः ॥ २४ ॥
॥ १९ ॥
विषमस्थितिमानहं प्रभो ! समतासद्मनि त्वं सदा स्थितः । अत एव ममोपरि क्षमा, करणीया भवता भवापहा 11 34 11
भववारिधिरेष दुस्तर - स्तवभक्त्योज्झितकर्मणां नृणाम् | गुणिनां स तु गोष्पदायते, गुणदोषैकवशं शुभाशुभम् ॥ २६ ॥
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गुणिनस्तव कीर्तनात्सदा, शुभधाम प्रति यान्ति यत्नतः । किमहं न तवान्तिकस्थितः, कलयिष्यामि विभूतिमत् पदम् ॥२७॥ किमपेक्ष्य जना इमेऽर्थिनः, परिधावन्ति पिपासिता इव । अबुधा भवता समर्थितं, नहि जानन्ति तदेवकारणम् ॥ २८ ॥ अबुधा अपि केचनस्तव-स्मरणाद् भावतया भवाम्बुधिम् । तव तेरु रनन्यसाधनाः, प्रभुभक्तिर्न करोति किं नृणाम् ।। २९॥ परिणामसुखप्रदे भव-चरणाब्जे रतिरस्तु मे सदा । इतरन्न मया समीक्ष्यते, भवपाथोधिनिपातनक्षमम् ॥३०॥ क्षणभङ्गुरदेह उच्यते, तदलं तत्प्रतिबन्धनेन मे। सुखदात्मनिबन्धनं सदा, रुचये मेऽस्तु दिवानिशं प्रभो।॥३१॥ तव मूर्तिविलोकनेन मे, नयनं निवृतिमेति नाऽन्यथा । हृदयश्च मदीयमुत्सुकं, गुणगाने भवभेदिनः प्रभो! ॥३२॥ श्रवणौ च सदा विभूषितौ, सततं तत्त्वविधारणेन मे (ते)। किमिहान्यविभूषणैः परै-रतिभाराय मतानि तानि वै ॥ ३३ ॥ करयुग्ममिदं तवाहणां, कुरुते चेत्सफलं निगद्यते । कुत एव सकामकर्मणि, सततोद्योगपरं प्रशस्यते ॥३४॥ विधिकल्पितमेव शर्मद, श्रुतधर्मस्य निषेवणं वरम् । त्वदनुग्रह एव केवलः, सुखसंपत्ति विधायकः प्रभो! ॥ ३५ ॥
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भववारिधिरस्ति दुस्तर-स्तवभक्तिं न विजानते यके । परदोषगृहीतचेतसां, बत तेषां परभावभेदिनीम् ॥३६॥ न भवार्णवमीश ! दुस्तरं, तब मन्ये चरणाम्बुजं श्रितः। कुत एव भयं महात्मनां, विषयव्याधिविमुक्तचेतसाम् ॥ ३७॥ प्रपठिष्यति भावतः स्तवं, रचितं हेमपयोधिनाऽनिशम् । य इदं कृपया कृपानिधेः, स इयर्येव विभूतिमक्षयाम् ॥ ३८ ॥ भवभीतिमभीतमानवः, परिहायैव निजेष्टसेवया । लभतेऽन्तकमूर्ध्नि धारयन्, पदमुच्चैःपदसम्पदं सदा ॥३९॥ सभयो विभयः प्रजायते, धनरिक्तश्च धनीयते यतः ।। विभवेच्छरजस्रवैभवः, सुखकामः सुखसम्पदान्वितः ॥४०॥ परितुष्यति येन केन चित, स्तवनेनाऽऽशु जिनेश्वरप्रभुः। इति चेतसि निश्चयन्नरो-विधुरं नैव कदापि पश्यति ॥४१॥
गुरुजयन्तीस्तोत्रम्।
( मुजङ्गप्रयातवृत्तम् ) जयन्ती मुनीनां जने जायमाना
ममानानि सौख्यानि संपादयन्तीम् । सदा कुर्वते भव्यभक्तिप्रभावाल्लभन्ते जयं तद्गुणोत्कीर्तनात्ते
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सदा विद्यमाना दयाधर्ममुख्यं,
प्रबोधं दिशन्तः सुधासारवाचः । यथा लाभतृप्ताश्चरन्तः पृथिव्यां, __ न केषां मुनीन्द्रा महानन्दहेतुः ॥२॥ जिताऽक्षप्रचारो विचारे विशुद्धः,
शुभे शासनीये विकारैविहीनः । विशालप्रभावः श्रिताऽनेकवादोऽ---
जितः सूरिवर्यः क्षमी पूज्यपादः मुधावादवाताहतक्षोभहारी,
महाशीलरत्नप्रभाऽऽनन्दकारी । कलिक्केशलेशं तृणं मन्यमानोऽ
जिताब्धिः सुधीः मूरिरक्रोधमानः ॥४ ।। प्रभावप्रमेया कृता नैकभावा,
वरा ग्रन्थकोटी यकेन स्वभावात् । अचिन्त्यं प्रकाशं प्रदत्तेत्र लोके,
सदौचित्यमेतत्किमन्यद्वि लोके प्रकाशचरित्रं यदीयं जनानां,
मनःसमनि स्थानमाराधकानाम् । विधायोन्नति सद्गुणानां विधत्ते,
किमन्यत्प्रियं प्रार्थनीयं विशेषात्
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गुणाः पूजिता येन सद्भावहेतो
गुरोः शुद्धिमूला हि सद्बुद्धिकेतोः । अतस्तेन निःसीमतत्त्वप्रकाशः,
प्रपन्नस्तमोमोहहारी निराशः ॥७॥ विकासदहस्यप्रवेदी प्रभास्त्र
जिनेन्द्रागमानामित स्वाऽन्यभावः । सुविद्यारतानां मनोमन्दिरस्थोऽ
जिताब्धिः सदा सूरिरिष्टार्थदोऽस्तु ॥८॥ कृताऽनेकधा ग्रन्थना पुस्तकानां,
सुधासोदरस्वर्गिभाषाप्रबन्धात् । स्वदेशे विदेशे प्रचारात्प्रकाम,
प्रबुद्धास्तु तेषां कियन्तो विधिज्ञाः ॥९॥ सुचारित्रिणां सेवनीयक्रमाजः
प्रशान्तस्वभावः सदाराधनीयः । शुभैः साधनैरात्मतत्वैकनिष्ठः,
प्रबोधप्रदानप्रधानप्रभावः ॥ १० ॥ क्षतानिष्टवस्तुप्रयोगः प्रकाम,
प्रयुक्तेष्टसंयोग आत्मानुयोगात् । निदानं सदानन्दताया मुनीन्द्रः,
शुचित्वं दधानो विशुद्धात्मभावात् ॥११॥
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कृताऽनेकभव्योद्धतिश्चोत्तमश्रीः
सुधासोदरोक्तिप्रचारः प्रसिद्धः । गुणानां महासागरः सूरिवर्योs
जिताब्धिः सतामिष्टयोगार्थदोऽस्तु ॥१२ ।। निवृत्तिप्रचारप्रवीणैकधीरः,
प्रचुरप्रजाऽधर्मकक्षे समीरः । कुवादिप्रलापप्रभेदैकवीरोऽ
जितान्धिः सतां सूरिरिष्टार्थदोऽस्तु ॥१३॥ परात्मप्रदेशाऽनुरागाऽन्वितानां,
जनानां वितानं सदा पालिताऽलम्। विवेकाङ्गहीनाङ्गिनां बोधदाताऽ--
जिताब्धिः सतां सूरिरिष्टार्थदोऽस्तु ॥ १४ ॥ सुविद्याऽवदातस्वभावः सुविज्ञो
धिया राजितोऽनल्पया दीर्घदृष्टिः । जने जैनतत्वप्रपञ्चप्रणेताs
जिताब्धिः सतां सूरिरिष्टार्थदोऽस्तु ॥१५॥ हेमेन्द्रसागरकृतेयमनन्यभावाद्
शुद्धा स्तुतिर्निजगुरोरखिलार्थखानिः । स्तोतुः प्रपाठकगणस्य च सिद्धिदाऽस्तु,
स्वर्गाऽपवर्गसुखवृद्धिकरी क्रमेण ॥१६॥
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श्रीमज्जगद्गुरुविजयहीरसूरीश्वर गुणाष्टकम्
( ललित-भद्रिका वृत्तम् ) विजयहीरकं सरिपुङ्गवं, भवभयापहं तत्वबोधदम् । निखिलदेहिनां शान्तिदायक, स्मृतिपथं नये श्रीजगद्गुरुम् ॥१॥ शिवपथार्थिनं सार्थवाहक, सकलकामदं कर्महारकम् । जिनमताम्बुधौ चञ्चदिन्दुकं, स्मृतिपथं नये श्रीजगद्गुरुम् ॥२॥ तपनतेजसं शान्तभावनं, निकटवर्तिनां तापवारकम् । करुणयाश्रितं कोमलश्रियं, स्मृतिपथं नये श्रीजगद्गुरुम् ॥ ३॥ अकबराधिपो बोधितः क्षणात-शमवताऽवता येन देहिनाम् । मुनिगणार्चितं तं तपस्विन, हृदि विचिन्तये श्रीजगद्गुरुम् ॥४॥ विपदनेकधा दारिताऽऽदराद्-भुविजना घना येन तारिताः । जगति मारणं वारितं तकं, हदि विचिन्तये श्रीजगद्गुरुम् ॥५॥ वदनवारिजे यस्य भास्वरे, जनमनोऽलयो लीनतामगुः । सुरभिसंगतास्तं प्रभाविनं, हृदि विचिन्तये श्रीजगद्गुरुम् ॥६॥ कति विबोधिता भूपतिव्रजाः-जयपथाश्रिता येन सूरिणा। विमलविद्यया तं मुनीश्वरं, हृदि विचिन्तये श्रीजगद्गुरुम् ॥७॥ वितथवादिनां सत्यवादतो-विजितवान्नज यो बुधाग्रणीः । तमजितं जगज्जीवतारकं, हृदि विचिन्तये श्रीजगद्गुरुम् ॥ ८॥ गुरुगुणाष्टकं हेमवज्रिणा, रचितमद्भुतश्रीप्रदायकम् । पठति यो जनः शान्तमानसो-जननमृत्युतोऽसौ विमुच्यते ॥९॥
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जगत्पूज्ययोगनिष्ठ श्रीमद् बुद्धिसागरसूरि
स्मरणाष्टकम् |
विबुधवन्दितं तत्त्ववेदिनं, वृषधुरन्धरं योगपारगम् । समयकोविदं सूरिशेखरं, स्मरत सद्गुरुं बुद्धिसागरम् ॥ १ ॥ क्षुभितदेहिनां संसृतेर्भयाद् - विशद देश नादायिनोद्धतिः । अकृत येन तं सूरिशेखरं, स्मरत सद्गुरुं बुद्धिसागरम् ॥ २ ॥ विमलवाचनां यन्मुखाम्बुजाच्छ्रवणगोचरीकृत्यभावतः । अमरतां गताः सूरिपुङ्गवं, स्मरत तं गुरुं बुद्धिसागरम् ॥ ३ ॥ स्मरणमुत्तमं यस्य भूतले, सुखविधायकं शान्तपावनम् । शरणमङ्गिनां सूरिशेखरं, स्मरत तं गुरुं बुद्धिसागरम् ॥ ४ ॥ समतया मनोवृत्तिरद्भुता - भवदखण्डिता यस्य कोमला । समजनेषु तं सूरिशेखरं, स्मरत सद्गुरुं बुद्धिसागरम् ॥ ५ ॥ चयनमक्षयं शास्त्रसंपदा, विहितमुत्कटं येन धीमता । विकसति स्वयं सर्वदाक्षितौ स्मरत तं गुरुं बुद्धिसागरम् ॥ ६ ॥ विजित कामनः शुद्धमानसः, सततमुन्नतश्रीसुधाकरः । दलितदुर्मदः सूरिशेखरं, स्मरत तं गुरुं बुद्धिसागरम् ॥ ७ ॥ कलिमलाविलोsप्यर्थिनां गण-वरणपङ्कजं यस्य संश्रितः । स तु गतापदः सूरिशेखरं, स्मरत तं गुरुं बुद्धिसागरम् ॥ ८ ॥ सुखनिधिप्रदं स्तोत्रमेतक - त्पठति यो जनो हेमसंस्कृतम् । सुरवरार्चितः पुण्यवानह - र्निशमनल्पधी राजतेतराम् ॥ ९ ॥
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शास्त्रविशारदश्रीमद्-अजितसागरसूरि
स्मरणाष्टकम् । जगति शर्मदं धर्मनायक, जनिमतां सदा क्षोभहारकम् । नमत भावतो भव्यमानवा-अजितसागरं सूरिशेखरम् ॥१॥ मृदुवचस्ततिश्रेणिराजितं, मुखसिताम्बुजं भ्राजतेतराम् । जनमनोहरं दिव्यशान्तिदं. भुवि नमाम्यहं सूरिपुङ्गवम् ॥२॥ जनगणाऽचितं सत्त्वतारकं, गुरुदयाकरं तन्वदेशकम् । कलिमलापहं क्लेशवारकं, शुभतपःक्रियाध्यानधारकम् ॥३॥ विविधवाचनादानकारकं, विकटकर्मणां मूलहारकम् । भवभवाऽतिहं श्रीगुरुं जन ! अजितसागरं सूरिमानम ॥४॥ जननमृत्युतो मोचनं नवै, गुरुकृपां विना देहिनामिह । गुरुपदाश्रिता ये भवाम्बुधिं, भुवि तरन्ति ते निर्मलश्रियः ॥५॥ उपकरोत्यसौ सर्वदा गुरु-र्वचनविस्तरात्सर्वदेहिनाम् । गुरुमिमं प्रभुं स्तोतुमक्षमः ! शिवसुखकर स्वर्गसिद्धिदम् ॥ ६॥ विजितकामनं दमितमानसं, पतितपावनं शान्तभावनम् । विदितसन्मतं शुद्धचेतसं, पजत सद्गुरुं सूरिशेखरम् ॥ ७ ॥ दुरितवार्दलश्रेणिमारुतं, सुरगणार्चितं भूरिभावतः । नमत सर्वदा मानवोत्तमाः ! अजितसागरं सूरिशेखरम् ॥ ८ ॥ विमलभावतो गीतमष्टकं, निजगुरोरिदं नम्रचेतसा । शिवदयानिधेहेमसागर-जयतु शान्तिदं सर्वभूतले ॥९॥
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'वैराग्यभावना'
(वैतालीयवृत्तम् ) संसारमसारमधीः , समवेक्ष्यैष हिताय केवलम् । विषमार्जिमनुक्षणं जनो-भजते कर्मनियन्त्रितो भुवि ॥१॥ विदितश्रुततत्त्रमानवो-वचसातीतविरागभावनाम् । प्रतिपद्य यथाक्रमं तर-नपरांस्तारयितुं क्षमो भवेत् ॥२॥ विधिरेव विधातुमीश्वरः, सततं प्राणभृतां सुखादिकम् । वितथं वदति द्विषद्गणो-विषमं पीडयतीति मां मुधा ॥३॥ सुखसंपदतीव धर्मिणं, श्रयतेऽनन्यधिया धरातले । विमुखा हि भवन्ति दुर्धियो-निजधर्मादतिसङ्कटच्छिदः ॥ ४ ॥ विचरन विषमाध्वनि प्रियं, सुगम मार्गमतीत्य मानवः । विधुरं लभतेऽविचारतः, प्रतिहत् न तदस्ति शक्तिमान् ॥ ५ ॥ परमार्थसुखप्रदायको-यतिधर्मो जिनराजभाषितः । विधिना समुपासितः सितः, परलोकैकसुखस्य साधनम् ॥६॥ विभवा दयया विराधिताः, शुभया दुःखकराः प्रमादिनाम् । अत एव सुखार्थिभिर्जनैः, सदयः साधयितव्य एष वै ॥ ७ ॥ कलुषात्मनि धर्मभावना, न हि तिष्ठत्यकलङ्किता जने । निजकल्पितदुष्टचिन्तनं, जनयत्याशु विकारमुत्कटम् ॥८॥ समतोदधिरेष सर्वदा, सुखमत्यन्तमवाप्य मोदते । विकृति कलयन कश्चन, शिवशमैंति नराधमः क्वचित् ॥ ९॥
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विषयानुक्रमः
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निवेदन प्रस्तावना .... शुद्धिपत्रकम् श्रीप्रजितसागरसूरिवृत्तान्तम् श्रीमहावीरस्मरणम् श्रीनिनेन्द्रस्तोत्रम् गुरुजयन्तीस्तोत्रम् श्रीमदुजगद्गुरुगुणाष्टकम् .... श्री बुद्धिसागरसूरिस्मरणाष्टकम् अजितसागरसूरिस्मरणाष्टकम् 'वैराग्यभावना' । ... मङ्गलम् .... .... श्रीचतुर्विंशतिजिनस्तवनसंग्रहः प्रशस्तिः श्रीचतुर्विशतिजिनस्तुतिसंग्रहः श्रीमद्वीरजिनस्तुतिः प्रशस्ति ..... श्रीसुखसागरसद्गुरुस्तुतिः
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श्रीकेसरीयातीर्थस्तोत्रम् , संखेश्वरपार्श्वनाथजिनस्तोत्रम् श्रीमदर्बुदाचलजिनेशस्तोत्रम् ,, चारुपतीर्थ स्तोत्रम् ,, उपर्यजातीर्थ स्तोत्रम् .... , मातातीर्थस्तोत्रम् । ,, शेरीशातीर्थस्तोत्रम् श्रीमदगाशीतीर्थस्तोत्रम् ,, झघडियातीर्थस्तोत्रम् ,, झपडियातीर्थस्तोत्रम् .... श्रीमदिलादुर्गतीर्थस्तोत्रम् .... , पञ्चासरपार्श्वनाथस्तोत्रम् , युगादीश्वरजिनस्तोत्रम् ,, सवेश्वरपार्श्वनाथचैत्यवन्दनम् , सिद्धचक्र चैत्यवन्दनम् .... .... ,, पर्युषणपर्वस्तुतिः .... .... ,, ऋषभदेवजिनस्तुतिः (प्राचीना) .... ,, · महावीरजिनस्तुतिः , ... , शान्तिनाथजिनस्तुतिः , , पार्श्वनाथमिनस्तुतिः , पार्श्वनिनस्तुतिः
म्
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नेमिनाथजिन ( ज्ञानपञ्चमी ) स्तुतिः
ऋषभजिनस्तुतिः महावीर जिनस्तुतिः
....
शान्तिनाथ जिनस्तवनम्
....
सत्यस्मरणम्
79
" शत्रुञ्जयमण्डनश्री ऋषभदेव जिनस्तुतिः
"
,, महावीर जिनस्तवनम्
श्रीमद्वीर जिन स्तवनम् महावीर जिनस्तवनम् श्रीमहावीरस्तोत्रम् प्राऽऽनन्दमन्दिर नाममङ्गलस्तवनम्
अथ मङ्गलस्तवनम्
अथ चतुर्विंशति जिनस्तोत्रम् अथ श्री पञ्चपरमेष्ठिस्तवनम्
अथ जिनस्तवनं प्रारभ्यते थाईजिन स्तोत्रं प्रारभ्यते अथ श्रीमहावीर जिनस्तवनं प्रारभ्यते
....
थाईत्स्तोत्रं प्रारभ्यते
अथ सिद्धाष्टकं प्रारभ्यते प्रथाचार्य स्तोत्रं प्रारभ्यते थोपाध्यायस्तोत्रं प्रारभ्यते ....
अथ साधुस्तोत्रं प्रारभ्यते
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GO
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18.0
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2000
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800.
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अथ चतुर्विंशतिजिन स्तोत्रं समारभ्यते
अथ श्री जिनवाणी स्तवनं प्रारभ्यते
अथ श्री गौतमप्रशस्तिः
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"
श्रीमन्महावीराष्टकम्
श्रीमहावीर जिन स्तवनम्
सिद्धाचलाष्टकम्
तारङ्गतीर्थाष्टकम्
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मल्लीनाथाष्टकम् ( श्री पानसर ) श्रीमहावीराष्टकम्
श्रीमद्गौतमस्त्रा मिस्तोत्रम्
गुरुगुणगीतम्
श्रीसद्गुरु स्मरणम्
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गुरुविराष्टकम्
गुरुस्मरणाष्टकम् श्रीमद्धरिभद्रसूरीश्वर गुणाष्टकम् कलिकाल सर्वज्ञश्रीमद् हेमचन्द्राचार्याष्टकम्
श्री बप्पभट्टिसूरिविरचितं शारदास्तोत्रम्
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006)
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तारङ्गातीर्थ कोटी शिलास्तुतिः
जिनवरस्तोत्रम्
पार्श्वनाथस्तोत्रं ( मन्त्रगर्भित प्राचीनम् ) श्रीमद्भद्रबाहुप्रणीतं मन्त्रगर्भितमुपसर्ग हरस्तोत्रम् )
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, उपसर्गहरस्तोत्रं ( पादपूर्तिरूपम् ) .... पूर्वाचार्यप्रणीतं पद्मावत्यष्टकम् घण्टाकर्ण महावीरमूलमहामन्त्राः श्री घण्टाकर्ण महावीरमन्त्रस्तोत्रम् श्री अर्बुदाचलवर्णनम् .... श्री श्रादिनाथजिनस्तवनम् श्री अर्बुदाचलश्री शान्तिनाथस्तवनम् श्री नेमिजिन स्तवनम् अर्बुदस्थविशेषवर्णनम् अम्बिकास्तोत्रम् गुरुस्तोत्राणि (अष्टकानि ).... सुधासिन्धुकाव्यम्
Upa ० ० ० ० -
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लघुस्तोत्ररत्नाकर:
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स्तोत्ररत्नाकरः।
(राग भैरवी-त्रिताल) हे ! जनपालक ! शिवसुखदायक !
हे ! भवतारक ! दीव्यतनो ! मानन्दसिन्धो ! दुःस्थितबन्धो!
कर्मकलङ्कनिवारक ! हे ! ध्रुवपदम् ! नित्यनिरामय ! शांतिनिकेतन !
ब्रह्माऽनन्त ! सनातन ! हे! जगदीश्वर ! जगदीश ! अनादे !
निरुपम ! देव ! निरञ्जन ! हे! प्राणसमानसुधर्मनिधानक !
जीवनवतिसुधारक ! हे! परमकृपालुचिदानन्दमूर्ते !
कर्मलताऽऽलिकुठारक ! हे !
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श्रीमहावीर ! जिनेश्वर ! नश्वर
सुखसम्पत्परिहारक ! हे! शुद्धसमाधिविधारक ! देहि
मुक्तिपदं शिवदायक ! हे!
॥२॥
चतुर्विंशतिजिनस्तवनसंग्रहः ।
प्रणम्य पादाम्बुजमन्तिमप्रमो-गुरोश्व शुद्धां श्रुतदेवतां तथा । तनोमि सम्यक् जिनभक्तिसंभृतो-जिनेश्वराणां स्तुतिमात्मसिद्धये।
श्रीमदादिनाथस्तवनम् ॥१॥
( शार्दूलविक्रीडितम् ) श्रीमद्देववरानतोत्तमपदा-म्भोजद्वयः सिद्धिदः, ... श्रीसर्वार्थविमानतोवृतसुख-श्युत्वाऽऽगतोभूतले । श्रद्धाध्याननिदानमानवगणः शर्मावलीसद्गृहं,
श्रीनाभेयजिनेश्वरोऽस्तु सुखदो धर्मार्थिनां प्राणिनाम् ।। त्रैलोक्यं कलयन्करामलकव-द्योनि श्रितोनाकुली,
सर्वज्ञः पुरुषोत्तमोजिनवरः शान्तः समाधिस्थितः । सद्धोधाश्चितहृयहत्सरसिजः सत्प्रेमराजन्मनाभव्याम्भोजविभावसुर्विजयतां, श्रीमारुदेवप्रभुः ॥२॥
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( ३ )
सम्यग्ज्ञानकलान्विता विदधता प्रौढप्रतापश्रियोज्ञातस्ततिर्विनिहता चेतः स्थिता प्राणिनाम् । सोऽयंमानसभूभिजाऽऽर्त्तिविरुधां संघातमुन्मूलयन्माङ्गन्यं धनराशिमाँस्तनुमतां कुर्याद्युगादीश्वरः ॥ ३॥ सर्वज्ञानमयोजगत्रयगुरु- र्यः संश्रिता यं जना -
येन श्रीरचला वृताऽमरगणा - यस्मै नमस्कुर्वते । यस्माद्दूरगतं विमोहतिमिरं यस्याऽस्ति सेव्यंवचो
यस्मिन्गौरवतास्थिताजिनवरं वन्दे तमादीश्वरम् ||४|| श्री सिद्धाचलसानुरत्नविलस-न्मूर्त्ते ! कृपावारिधे !
भव्यांभोज विबोधनैकतरखे ! राजत्प्रभाभास्वर ! | दुर्ध्यानाऽनलतप्तमेघपटल ! ग्लानाऽर्त्तिहानिप्रिय ! त्वं क्रीडस्व मदीयमानसवराss - रामे युगादीश्वर ! ॥५॥
श्रीमदजितनाथस्तवनम् ॥ २ ॥
( मालिनीवृत्तम् )
वरविजयविमानं पुण्यवान्प्रोज्झ्य सद्योइतभवमनुजाङ्गं प्राप्तवान्प्राप्त रेखः । चपितभवभयारि-ध्येयमूर्तिप्रभावो
ऽजितजिनवृष राशि -- मङ्गलं वोददातु ॥ १ ॥
सकलभुवनसौख्य-श्रेणिदाताऽवदातचरितगुणगणेनोद्भासमानाङ्गयष्टिः ।
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जगतिसकलमान्यो-भव्यमुद्रास्वरूपः,
स जयति यतिपूज्योवायुमुग्योनिरीशः ॥२॥ विलसति शिवशान्ति-र्यस्य पादारविन्दे,
अघविततिरजस्रं दूरतः संस्थिता च । नरपतिजितशत्रो-रन्वयाऽधिक्षपेशा,
स विभुरजितनाथ-स्त्रायतां भूतसंघान् ॥ ३॥ कलितकलिगुणानां मानवानां नतानां,
निजपदमतिशोकं दानदक्षोददानः । प्रवरमहिममा तारकोय:श्रिताना
मजितजिनवरोऽसौ पातु मां तीर्थनाथः ॥४॥ जननमरणशान्ति-र्यक्रमाऽम्भोजयुग्मं,
सकृदपिमनुजानां जायते पश्यतां द्राग् । कृतनिजकृतिशान्ति-मैग्नतान्तिप्रकारः,
स जगदखिलसिद्धि, तीर्थनाथोददातु ॥५॥
श्रीसंभवनाथस्तवनम् ॥३॥
( उपजातिवृत्तम् ) अवेयकात्सप्तमतोऽतिपुण्य-श्युत्वाऽतिशस्तान्मृगशीर्षजन्मा ।
नमाम्यहं संभवनाथमीशं, तं मोक्षदं देवगणं वरेण्यम् ॥१॥ निधानमक्षीणममन्दसंपदा, निदानमक्षय्यगुणव्रजानाम् । पात्रं परं ज्ञानवचोऽमृताना, ध्यानाऽधिरूढं कुरु युग्मराशिम् ।।
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(५)
यद्भक्त्यधीनीकृत मानसाब्जाः, सद्योबभूवुर्भवभीतिमुक्ताः । सद्भावनोल्लास गुणानुरक्ता-स्तं देवदेवाधिपतिं भजन्तु ||३|| सुखप्रदं पन्नग योनिमन्तं, योनिप्रभेत्तारमनल्पवीर्यम् । जगत्रयाधारमखण्डभावं, जिनेश्वरं संभवमाश्रयामि ॥ ४ ॥ श्रीमान् प्रतापाश्रयसंभवेशो - विश्वोपकाराय कृतप्रवृत्तिः । स सेव्यतामक्षय संपदायै, दीव्यानुभावो भुवि भव्यलोकाः ! |५|
श्रीमदभिनन्दनस्तवनम् ॥ ४ ॥
( द्रुतविलम्बितम् )
विकसदम्बुजलोचनरोचनो-विशदशारद चन्द्रसमाननः । विमलतत्त्वगुणोऽस्त्वभिनन्दनो - जयकरोजगति क्षमतानिधिः १ मिथुन राशिगतः सुगतिप्रदो - मुषक भोजन योनिरयोनिकः । जयजयाऽर्थिंगणेष्टविधायको - निखिज्ञभक्तजनाऽहिराग्रणीः । २ हरिण राजसु लाञ्छन भूषित - क्रमसरोरुह कान्तिविराजित । जगति शाश्वत सिद्धिविधायक, त्वदतिरिक्तमहं न विलोकये | ३ | प्रवरसंवरभूमिपतेः सुत !, स्तुत सुरासुरमानव भूमिपैः । शरणमस्तु पदं तव निर्मलं, मम सुभक्तिरसोर्जितचेतसः |४| सकरुणं करुणाऽऽलय ! ते पदं, विभवदाय कमस्खलितप्रभम् । भवभयाऽमयकारकमञ्जसा, वयमनन्यधिया तदुपास्महे ||
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श्रीसुमतिनाथस्तवनम् ॥ ५॥
(स्रग्धरावृत्तम् ) गद्धस्वान्तारविन्दे-ऽनवरतयतना भव्यभावा यदीयं,
ध्यायन्तःपादपद्मा-म्बुजयुगलमिह क्षेमभावं प्रपनाः । सन्तोषस्वादुमोज्यं श्रुतरसनतया स्वादयन्तः प्रकामं,
शुद्धां बुद्धिं प्रदद्या-त्सुमतिजिनवरो-भक्तिराजजनेभ्यः॥१॥ वैमानं भरिमानं प्रवरगुणयुतो-निर्गुणश्रीजयन्तं,
सन्त्यज्य स्फीतकीर्तिः स्थितिमभयकरी योभुवि स्वीचकार। विख्यातो यस्य तीर्थ-ङ्करसुमतिविभो-राक्षसाख्यो गणश्व, तद्ध्यानं सिद्धिकार जनशुभमतिदं केवलं राधनीयम् ॥२॥ तीर्थाधीशः समस्ति क्षपितपररतिर्मेषभूपाऽऽत्मजोमे,
जीमूताभासमानः समसु हृदसुह-न्मानसे मानहीने । तस्माचा द्वेषवन्हे ! प्रशमनमनघो-नेष्यति क्रूरकर्मन् !
सद्यः संसारदावाऽनलगतजनताऽऽ-नन्दसन्दोहदायी ॥३॥ नक्षत्रक्षेत्रवृद्धि-भवति भुवनगा यद्पदाम्भोजलक्ष्म्या,
शान्ता दुर्दान्तभावाः, परमपटुतर-ज्ञानभास्वत्प्रभावात् । योनि संप्राप्त श्राखो-य॑रुचदतिविभां, बर्द्धयन् वृद्धशील
स्तं देवंदेववन्धं सुमतिजिनमहं प्रार्थये प्रार्थनामिः ॥४॥ भ्राजत्सौवर्णवर्णो-गजरिपुतुलनां धारयन्मामकीनेचित्ताऽऽरामे विशाले निवसति सुमतिः सर्वदा सर्वपूज्यः।
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( ७ )
तस्मावं दुष्टराग-द्विप ! कुरु गमनं देशमन्यं विचिन्त्य, सन्तस्तिष्ठन्ति यत्र चणमपि वसतिर्नाऽसतामेव शस्या ॥ ५ ॥
श्रीपद्मप्रभस्तवनम् ॥ ६ ॥ ( भुजंगप्रयातं वृत्तम् ) प्रधानप्रभाराशिभिर्भ्राजमानः प्रभिन्नातिदुर्दान्तमोहप्रमादः । सुसीमाऽऽत्मजश्रीपतिर्मेऽचनीयः, सदा त्वं सुरेन्द्राऽभिवन्द्य
क्रमाब्जः | १ | स कन्यारव्यराशिं दधानोऽत्र पद्म-प्रभोर्भूतले भूतलोकप्रकाशी । करोतु क्रियाज्ञानरक्ते मदीये, निवासं हृदि श्रेष्ठभावे सदैव |२| मनःपङ्कजं नित्यमेव त्वदीयं, स्वरूपं स्मरत्यक्षयं देव ! यस्य । तमेवाऽतिधन्यं नरं पुण्यवन्तं, त्रिलोकाऽधिनाथाऽत्र जानामि लोके | ३| वरेण्यं शरण्यं त्वदङ्गप्रभावं, प्रकामं स्मराम्यक्षताऽक्षप्रकाण्डैः । कृपाधीश ! पद्मप्रभ ! क्षेमधाम, महायोगिगम्यं मनोवागतीतम् ४ त्वदीयप्रभाभासुरोवासरेशो-जगञ्जीव पद्माकरं सावधानः । सदा सच्चरं स्वक्रियायां विबुद्धं, करोतीशपद्मप्रभ ! क्षोभहारिन् । ५
श्रीसुपार्श्वनाथस्तवनम् ॥ ७ ॥ ( तोटकवृत्तम् )
गुणवन्तमनन्तकलानिचितं, पृथिवीतनुजं तनुतारहितम् । स्वयमेव सदा सुखदानरतं, परमोत्तमरूपविभानिरतम् ॥ १ ॥
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( ८ ) मुनिवृन्दसमानकरं प्रवरं, हृदयेप्सितसिद्धिवितानकरम् । भवभीतिदवाऽनलशान्तिकरं, करदीकृतधर्मरिपुप्रकरम् ॥२॥ अतिमर्दितमोहनकर्मवलं, सुरनाथगणार्चितपत्कमलम् । कृतधर्मरताऽखिलरूढखलं, प्रभया वरयाऽश्चितहस्ततलम्॥३॥ तुलराशिविराजितमारजितं, वृकयोनिभृतं निभृताऽऽत्मवृतम् । गतरागमदं शिवशर्मपदं, शरदिन्दुसमाननवारिरुहम् ॥४॥ कनकोत्तमकान्तसुकान्तिधरं, वरपार्श्वसुपार्श्वजिनप्रवरम् । विनयाञ्चितमानसकोऽहमिह,प्रणमामि मुदाऽमितभावयुजा ॥५॥
श्रीचन्द्रप्रभस्तवनम् ॥८॥
(उपजातिवृत्तम् ) त्वत्पादपद्याऽर्चनतोविधाय, प्राचीनजन्माऽर्जितकर्मराशेः । निःशेषमन्तं भववारिराशेः, प्रयान्ति पारं भवतःप्रभावात् ॥१॥ चन्द्रप्रभ ! त्वां शरणं प्रपद्ये, निर्मिन्नमायाऽतितमःप्रकाण्ड!। सन्तस्तरन्त्येव तव प्रभावा-दनन्यभावेन हि गेयकीर्ते ! ॥२॥ अनन्तकान्तिप्रभवासदाशी, सदाशिवः सौम्यवपुःप्रभावः । चन्द्रप्रभोनिर्मलमानसाय, ददातु शं चन्द्रविभःप्रभुमे ॥३॥ उद्दामचारित्रकलानिधान !, त्वदाननाऽम्भोजविलोकिनोमे । गताऽऽपदुद्भूतमनन्तशम, चन्द्रप्रभ ! प्रौढमहोधिराज ! ॥४॥ स्तोत्वजस्तुत्यगुणप्रकारः, प्रकामसंभूतिविभासमानः । तनोतु सौख्यं समविश्वलोकः, पद्मप्रभोवृश्चिकराशिमा ॥५॥
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श्रीसुविधिनाथस्तवनम् ॥ ९ ॥
( वसन्ततिलकावृत्तम् ) लोकत्रयाऽभिनमनीयपदारविन्द !,
लक्ष्मीपते ! मकरलाञ्छितपादपद्म !। संसारसागरभयाद्विकरालरूपा
प्रायस्व मां सुविधिनाथ ! जगत्प्रभो! त्वम् ॥१॥ सेवापरेषु सकलेषु जनेषु नित्यं,
देवा भवन्ति सकला अपि सौम्यभावाः । लोकत्रयेऽविषमभाववता त्वयैव,
संजातमस्तु नमनं तव पादयोमें ॥२॥ सुग्रीवराजतनय ! प्रथितप्रभाव !,
भव्याऽऽत्मनां त्वमसि तारक उत्तमौजाः। तस्मावदीयभजनं प्रबलं वदन्ति,
सत्याश्चितातिवचना विदितप्रभावाः ॥३॥ भव्या:श्रयन्ति भवतारक ! शान्तिसम्म,
संप्रेक्षणात्सुविधिनाथ ! भवत्सुमृतेः । सावधशान्तिजननोत्तमभूमिमीश!, .
किं चिन्तयाऽन्यसुरपादपकामधेन्वोः ॥४॥ मत्वा भवन्तमनघं सुदयानिधानमभ्यर्थयामि सुतरां धनराशिग ! त्वाम् ।
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( १० ) इत्थं त्वदीयचरणाऽम्बुजरक्तचित्तस्तिष्ठामि शश्वदखिलेश! तथा कुरुष्व ॥ ५ ॥
श्रीशीतलनाथस्तवनम् ॥ १०॥
( भद्रिका [ललित] छंदः) जयतु शीतलः शान्तभावनो-जनमनोहरोरिष्टनाशकः । अघनिवारको मुक्तिदायको-गुरुगुणः सदा मावितात्मनाम् । शिवशुभाङ्कुरोवृद्धिकारणे, जलधरोपमं विश्वतायिनम् । अखिलसंपदा हेतुमीश्वरं, जिनवरं स्तुवे शीतलं सदा ॥२॥ दृढरथक्षितीन्द्राऽऽत्मनन्दनं, सकलनन्दनं नाकिसंस्तुतम् । नमत देहिनोभूरिभूतये, कलिमलक्षतिर्जायते ततः ॥३॥ सुरतपत्तने निश्चलस्थितं, विदधदईतामीश्वरः सताम् । हृदयपङ्कजे ध्यानकारिणां, शिवकरः स्मृतःशीतल प्रभुः॥४॥ प्रजनि सर्वदा व्याधिहारकं, तव सुदर्शनं मादृशां नृणाम् । जननमृत्युतो नास्ति मेऽधुना,भयमहो? क्षितौ शीतलप्रभो!॥५॥
श्रीश्रेयांसस्तवनम्.॥ ११ ॥
(मन्दाक्रान्तावृत्तम् ) दुष्टादृष्टि-चिरपरिगता स्वात्मनिष्ठाऽतिमत्ता,
गाढव्याप्ता निजबलपरिस्फुर्तितश्चण्डमावा । दूरं सद्यो-व्यपगतवती यस्य दृष्टिप्रभावात् , तं श्रेयांसं शिवसुखकरं नौमि नित्योत्सुकोऽहम् ॥१॥
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( ११ ) विष्णोर्वशे-ऽतुलगुणनिधैर्भूपते-स्किरामो_दानेदक्षो-ऽमरगणनतो-ध्वस्तदुष्टप्रचारः । प्रादुर्भूता-ऽनवमविरति-स्तस्वराशिप्रणेता,
श्रीश्रेयांसः प्रभुरनुदिनं लोकरक्षाकरोऽस्तु ॥२॥ संसारेऽस्मि-विविधविधुरे मोहभूपाऽभिभूते
विश्वस्तानां, विमतिदलनः कल्पनातीतसवः । लोकाऽलोक-प्रशमजनको-ध्यानगम्यस्वरूपः,
श्रीश्रेयांसो जिनगणवरो-ऽभ्यर्चनीयोन केषाम् ? ॥३॥ योगक्षेमं जनयति सतां यत्पदाम्भोजरेणु
निर्मिनार्तिः सकलवसुधा-चारिणां चोत्तमामः । शान्ताऽनङ्गः सुखपरिगतः प्रेक्षणीयोत्तमाङ्गः,
स श्रेयांसः शरणमचलं जायतां मे दयालुः ॥४॥ निर्मोहारिः प्रवरमकरा-ख्यातराशिप्रचारी,
निर्भावारि-विषमविषय-क्षोभकारी सुचारी । सत्याधारी-सदयवचन-स्तोमवृष्टिप्रसारी, श्रीश्रेयांसः, सततमचलं, शं विदध्याजनानाम् ॥ ५॥
श्रीवासुपूज्यस्तवनम् ॥ १२ ॥
( वसन्ततिलकावृत्तम् ) पूर्णेन्दुसुन्दरकलारमणीयकान्ति
कान्ताऽऽननं प्रथितदेहविभावितानम् ।
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( १२ )
सम्यक् पवित्रचरितं परिशान्तदृष्टि, श्रीवासुपूज्यमनिशं नमतेष्ट सिध्यै ॥ १ ॥
शिष्टाङ्गिसंघपरिवेष्टितसन्निवेशं, कुम्भाऽख्यराशिविलसन्तमजस्रबोधम् । विश्वेश्वरं प्रवरशील कलाऽभिरामं,
लोकास्स्तुवीध्वमनघं वरवासुपूज्यम् || २ ||
दुर्भानवा अपि विभावमनुश्रयन्तस्त्वत्पादपद्मभजनानुमता जिनेश ! | प्रक्षीणमोहततयस्तव सत्यरूप
मासेदुरुच्चविभवा जगदेकनाथ ! ॥ ३ ॥ भूताऽधिनाथ वसुपूज्य नरेश गेहे,
संप्राप जन्म सुखदं जगतीगतानाम् । यः सर्वदः शमनको विपदां जनानां, तं वासुपूज्यपरमेशमहं स्तवीमि सत्यात्मलब्धिजननोत्तमहेतुमन्यं,
त्वामन्तरेण भवतारक ! नैव मन्ये । तस्माच्वदीय चरणाऽम्बुजदर्शनं मे,
शान्तिप्रदायि सततं निपुङ्गवास्तु ॥ ५ ॥
श्रीविमलनाथस्तवनम् ॥ १३ ॥ ( हरिणीप्लुतवृत्तम् )
118 11
उपकृतमति, संसारेऽस्मिन्महत्यधिदैवतमखिलसुकृति - श्रेणीसेव्यं, विनाशितविप्रियम् ।
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( १३ )
विपुलविलस-त्सत्यज्ञान -प्रदायिनमीश्वरं, विमलमरि-हन्तारं नित्यं, नमामि विभूतये ॥१॥
प्रशमसुखदं, श्यामासूनं, विचित्रकलाऽन्वितं
भवरतिहरं, शुद्धाऽऽनन्दं, सदाऽऽत्मरुचिप्रदम् । कुमतिदलनं, स्वाऽऽत्मारामं परार्थपरायणं,
सुमतिसदनं, भग्रक्षोभं, भजेद्विमलाऽधिपम् ॥ २ ॥ कुमति पिहित- स्फारोद्बोधा - विमूढजनास्तव,
विमलविभवां, मूर्त्ति रम्यां, निरीक्ष्य मनागपि । विमलजिन ! ये द्वेषातीता भवन्ति न तादृशां,
गतशुभदृशां दुष्टानां गतिर्बत कीदृशी ॥ ३ ॥ अभयपदवी, धीराधीना, यदीयमुखोद्गता,
भववनगत - क्षोभक्षान्ति, विधापयति चणात् । अनुपममहा - ऽऽनन्दाऽऽत्मानं, सुरेश्वरपूजितं,
तमतिविमलं देवं वन्दे, प्रधानपद स्थितम् ॥ ४ ॥ विमलभगवन् ! शस्याचाराः, सदैव वचस्तव,
मनसि विमले, भव्याऽऽत्मानो - विचिन्त्य जिनेश्वर !, विकसित धिय-स्त्वामाराध्यं, भजन्ति महोत्सुकाः, सुकृतसुभगा - धन्याऽऽत्मानस्त एव विचक्षणाः ||५||
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( १४ ) श्रीअनन्तनाथस्तवनम् ॥ १४ ॥
( भुजंगप्रयातं वृत्तम् ) मुभव्याऽऽत्मनो यस्य दीव्याऽऽत्मगेहे,
सदा द्योततेऽनन्तचिन्तामणिः । स्वयं तस्य दुष्टाऽपदो यान्ति दरे,
सुसंपद्विलासो भवेदक्षतवः ॥१॥ समस्ति प्रभा मानहीना यदङ्गे, __ मृगाङ्कोष्णरश्मिविभा भासयन्ती । नतं देवदेवाऽसुरेन्द्रैर्नृनाथै
रनन्तप्रभुं तं मुदाऽहं स्मरामि ॥२॥ स्वरूपस्थितं सर्वलोकप्रकाशं,
जनो योगतःसिंहसेनाऽऽत्मजातम् । निरीक्षेत तं नेत्रवन्तं जनेषु,
सुधन्यं भवोद्भेदकारं हि मन्ये ॥३॥ समाराधतेऽनन्तनाथं विनाथं,
जनः सजनाऽऽनन्ददायी सुधीर्यः। तदीयाखिला वांछिता कार्यसिद्धिः,
सदा सन्निधित्वं जना ! नोजहाति ॥४॥ सुखाऽऽधारकं मीनराशिप्रतीत
मनन्तं जिनेशं कृपावारिराशिम् । भवोत्तारकं तं नमन्तु प्रसन्न, जना इष्टलब्धिप्रदातारमीशम् ॥५॥
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( १५ ) श्रीधर्मनाथस्तवनम् ॥ १५ ॥
( कामक्रीडाछन्दः) सत्यज्ञानं भास्वद्रूपं धर्माऽऽत्मानं ध्यातृणां,
ध्यानीयाङ्गं सिद्धिक्षेत्रं प्रेमाऽमत्रं नक्षत्रम् । चिन्तारत्नं नष्टायनं वन्दे प्रत्नं दुःखानं,
धर्मेशानं वृत्यालानं सन्नामानं भूमानम् ॥१॥ संतप्तानां सम्यक्त्राता मारीहर्ता त्वं भर्ती,
दीनादीना-मापद्धा संपत्कर्ता सत्वानाम् । दुर्भावानां नित्यं हर्त्ता सिद्धेर्दाता निर्माता,
विश्वत्राता कामादीनां मूलोद्धा विख्याता ॥२॥ स्तोतुं योग्यो भव्यैर्भाग्यैर्योग्यैर्गम्यो विज्ञेयः,
श्रद्धाध्येयो बुद्ध्याऽमेयो भक्तर्गेयः संश्रेयः । पापाऽपायो-राजस्कायो-दाता रायो निर्मायः,
संसर्तव्यः सत्त्वश्लाघ्यःप्राप्तश्रेयःसातत्यः ॥३॥ संपज्ज्येष्ठः साधुश्रेष्ठः पूज्यप्रेष्ठो-भूयिष्ठो___ मानाऽस्पृष्टो विद्वत्पृष्टः कामाऽकृष्टः संजुष्टः । सद्भिर्भक्त्या-शक्त्याधीनः श्रद्धावद्भिः संस्तुत्यो_हेयो नो वै श्रीवज्राङ्को-मनातङ्को निःशंकम् ॥४॥ यः श्रीधर्मो-धर्माऽऽराम-स्तीर्थाधीशो-भूमीशो
निःशेषार्थ-प्रादुष्कर्ता नष्टक्लेशो-निःसीमा । कर्क राशिं त्रैलोक्यानां संत्रातारं संधत्ते,
भव्या भावा-त्संसेव्यःस क्षिप्रं लोके शान्ताऽऽत्मा ॥५
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( १६ )
श्रीशान्तिनाथस्तवनम् ॥ १६ ॥
(द्रुतविलम्बितवृत्तम् )
शशिसमानवराऽऽननभासुरः, सुरनरेन्द्रनताऽग्रपदाम्बुजः । प्रचुरविनतमस्सुदिवाकरो -- जयतु शान्तिदशान्ति जिनेश्वरः ॥ १ ॥ सुमतिदो दमितेन्द्रियवाजिक - श्वपल चित्तानिवार कबन्धुरः । विशद कान्ति भराश्चितनासिको - भवतु शान्तिजिनोजनशान्तिदः प्रवरसिद्धिकरं महिमाकरं, प्रथितकीर्त्तिभरं जगदीश्वरम् । विधिवशादनुभूतकृतिक्रियं भजत मेषकराशियुजं नराः ! ॥३॥ जनमनोरथदेवतरूत्तमो - निखिलदोषविवर्जितमानसः । अनुपमोत्तमतश्व विभासकः, सकरुणोऽचनीयः सततं सताम् ॥ ४॥ विमलभव्यसरोज विषोधने, निशितरश्मिरनुत्तमशासनः । विहितदुष्टपराक्रमरोधनः, शुभवतामवताद्गणमीश्वरः ॥ ५ ॥
"
श्री कुन्थुनाथस्तवनम् ॥ १७ ॥
( पचामरछन्दः )
प्रभूतभूतिसौध ! मानसाऽघराशिदारक !, प्रपूजनीयपादवारिज ! प्रभिन्नरागधीः ! । सुमन्त्र तन्त्रजातसिद्धिरन्वहं लुठत्यहो, पदाम्बुजे सुरार्चनीय कुन्थुनाथ ! तावके ॥ १ ॥
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( १७ ) महाप्रभामरोर्जितं जिताऽन्तरारिजातकं, - प्रजेशवरनन्दनं सुनन्दनं सुमेधसाम् । प्रसिद्धसिद्धविद्ययाऽऽश्रितं सिताऽम्बुजाऽऽननं, __ सदोद्यतोऽहमीश्वरं नमामि विश्ववन्दितम् ॥ २॥ सुमेरुभूधरेन्द्रधीरवीर्यसारमुत्कटं,
सुभोग्यभोगवर्जितं प्रमर्दिताऽऽधिवेदनम् । अयोग्ययोग्यनीतिरीतिपारगामिनं वरं,
भजध्वमाशु जन्तुजातखेदखेदकं जिनम् ॥ ३ ॥ पवित्रचारचित्रवृत्तिधारकं कृपाधरं,
निखर्वगर्ववारकं सुपर्ववर्गसेवितम् । जगप्रयाऽतितारकं प्रतारितप्रपञ्चकं,
भज श्रियोत्तमोत्तमं जिनेश्वरं वराऽऽतये ॥४॥ सुधर्ममर्मवेदिमानसाजभानुमालिनं,
शुभाशयाऽभियुक्तमुक्षराशियोगराजिनम् । समस्तशस्तभावहेतुकं विमायिनं जिनं,
भजामि कुन्थुनाथमिद्धबोधिबीजवापिनम् ॥५॥
श्रीमदरनाथजिनस्तवनम् ॥ १८ ॥
( रामगिरिरागण गीयते ) निष्टतादोदकं, शिष्टजनमोदकं,
विमतपथतोदकं, मुमतकारम् ।
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( १८ )
विजितपश्चाऽऽशुगं, मथितमोहोरगं,
भवचितापारगं, नष्टरागम् शिवसुकान्तावरं, विदिततच्या करं, विहितशास्त्राssदरं, शुद्धिकारम् ।
9
॥ क्लि० ॥ १ ॥
परमशान्त्यालयं, रचितवैरिचयं,
समतया निर्भयं, शस्तकायम् ॥ क्रि० २ ॥
सर्वसुखदायकं, सिद्धिपदभासकं, स्वाऽऽत्मगुणराजकं वीतशोकम् |
शमितसन्तापकं भव्यजनतारकं,
भवभयाssवारकं, सुभगकान्तिम् || क्लि० ||३|| विगतपरभावनं, विह्नितसर्वाऽवनं, भुवन परिपावनं, शान्तमूर्तिम् ।
भक्तजन संस्तुतं, दीव्यगुणसंभृतं,
जन्मना संगतं, मीनराशिम् ॥ क्वि० ||४||
"
सततमुक्तिप्रदं वमितसर्वाssपदं, प्रमितसिद्धाssस्पदं, ज्ञानगम्यम् ।
अदरनाथकं परदरोद्भेदकं,
शिवसुखोत्पादकं, नौमि नित्यम् || क्लि० ||५||
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( १९ )
श्रीमल्लिनाथजिनस्तवनम् ॥
( तोटक छन्दः )
9
श्रुततश्वसुतश्वघरं प्रवरं वरदं सितदन्तविभाविभवम् । परमोत्तममलिजिनं शिवदं, दमितेन्द्रियवारमजं जपत ॥१॥ नृपकुम्भसमुद्भवसिद्धभवं भववारिविशोषककुम्भभवम् । जनताप्रणतक्रमतामरसं वरमल्लिजिनेशमहं कलये ॥ २ ॥ निरुपाधिकसंपदतिप्रमदं, प्रभया विलसन्तमनुत्तमया । तमसा विकलं सुकलं मृदुलं, जगदीशमलं स्मरतेष्टबलम् ॥ ३॥ भजराशिभृतं निभृतं क्षमया, परिशोभितभीतिविवर्जितनुम् । परिखण्डितमानसमानरतिं, नमताऽखिल भव्यजनाः! सुजिनम् ॥ सततं भवतारक ! मल्लिविभो !, जगतामशिवं हर तापहर ! | तव पादसरोजर तिर्भवतु भवतेतिविधेयमनन्त ! मयि ॥ ५ ॥
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"
श्रीमुनिसुव्रतजिनस्तवनम् ॥ २० ॥
( द्रुतविलम्बितवृत्तम् ) विकचतामरसाऽऽभशुभाऽऽननो-विदलिताऽखिललोकतमोभरः । विषयवासनयोग्रथिताऽऽत्मनां, हतधियांभवपाशविमोचकः॥ १ ॥ निजपवित्र चरित्रमनोगति - मतिमतां वरराजिभिराश्रितः । विमलनीलवरद्युतिराजित - उचितव महाव्रतदेशकः ॥ २॥ विगतसंशयमेव सदा स्थितो - निजपराऽऽत्मविभेदविभेद्रकः । सुरपतिप्रकरप्रथिवोचम- शुभयशः प्रकरः प्रथिताऽऽशयः ॥ ३॥
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( २० ) मकरराशियुतः शुभराशिमा-मतजनाऽऽर्तिहरो महसोर्जितः। बरगुणोदितदीव्यवपुर्धरः, सुभगलक्षणलक्षितपत्कजः ॥४॥ बिततनित्यपदार्थनिरूपका, शमितदुष्प्रथिताऽन्यनिरूपणः । शिषसमृद्धिवितानविवर्द्धको-विजयतां मुनिसुव्रततीर्थकत ॥५॥
श्रीनमिनाथजिनस्तवनम् ॥ २१ ॥
(पञ्चचामरछन्दः) नमजगजनवजं सुरेन्द्रसेवितक्रम.
क्रमाङ्गुलीनखविषाऽतिभासिताम्बराऽऽलयम् । जगत्पते ! नमीश ! सत्यरूपसर्वदास्थितं,
भवन्तमेव संस्तुवे. मनासरोरुहे मुदा ॥१॥ प्रकाशयत्यशेषलोकभव्यमानसाम्बुजा
न्यहो विचित्रधामराशिरक्षतस्त्वदुत्थितः । समानतां नु तावकी विभो ! भजन्ति नश्वर
प्रभाधरोष्णरश्मिशीतरोचिरादयः कथम् ? ॥२॥ अनुत्तमोसिद्धिसममूर्धकल्पितस्थिति,
चराऽचराऽऽदिसर्वदर्शिनं विकस्वरप्रभम् । विमानमाननीयतत्ववादवादिनं जिनं, .. नमीश्वरं भजध्वमुच्चधामलिप्सया जनाः! ॥३॥ विभाति यत्पदाम्बुजे प्रफुल्लनीलवारिज,
तद्वितीयचोधनप्रकाशिनं वराशिषम् ।
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( २१.) शरच्छशाङ्कदीप्तिहारिभूरिभूतिमण्डलं,
भजन्तु ! भावुका! नरा भवान्धितारकं जिनम् ॥४॥ अरिष्टकष्टकारिकर्मवारिशर्मदायकं,
विपत्तिपत्तनक्षयज्वलद्धनन्जयाऽर्चिषम् । प्रभिन्नमानभूपति पतिं त्रिलोकवासिना, नमामि मोचदं प्रभुं नमीश्वरं कपापरम् ॥ ५॥
श्रीनेमिनाथजिनस्तवनम् ॥ २२ ॥
( उपजातिवृत्तम् ) याशुद्धबुध्याऽऽत्मसमं विदित्वा, निःशेषभूतादिगणं सुरक्यम् ।
सन्मानितं सत्पुरुषैर्वरेण्यं, समत्वमङ्गीकुरुते स्म सद्यः ॥१॥ यथाऽतिसंक्लिष्टपशुव्रजाना-मार्तध्वनि श्रोत्रपथं विनीय ।
न्यवीवृतत्सारथिना स्वकीयं, रथं स्वबन्धूनवमत्य विद्वान् ।। कृतारिषड्वर्गजयेनयेन, राजीमती राजसुतां विहाय । शिवार्थिना संजगृहे भवाऽपहा,शुभाऽऽवहा दीव्यमुनीन्द्रलक्ष्मी। शिवाऽऽत्मजातं प्रशमाकरं तं, कन्याख्यराशिं दधत विजिष्णुम् ।
विशिष्टमानन्दनिधानमेकं, नेमीश्वरं नौमि भवाब्धिपोतम्।। विजित्य कामं जितसर्वलोकं, सत्यस्वरूपे रममाणमीशम् । निसर्गसौन्दर्यविराजमानं, स्मरामि तीर्थाऽधिपनोमिनाथम् ।।
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( २२ ) श्रीपार्श्वनाथ जिनस्तवनम् ॥ २३ ॥
( पञ्चचामरचन्दः ) जगत्प्रकामकामितप्रदानदक्षतायुतं,
निजस्वरूपभाविताऽऽत्मतत्वसवसेवितम् । गतप्रमादसंगतिं श्रितप्रकृष्टसंगति,
भजध्वमक्षयप्रभं प्रभाविपार्श्वमीश्वरम् ।।१।। नृपाऽश्वसेननन्दनं सुमन्दरागतारकं,
निवारकं विपत्तिकारकैनसां सुमानसम् । सुसंपदाऽतिभूषिताऽमृताशिपूजितक्रम,
समन्ततोविशालचारुदेशनाकृताऽभयम् ॥२॥ व्यधत्त भक्तिवत्सलाञ्जनाञ्जनङ्गमानपि,
क्षणादयाईचेतसःसुभद्रचिन्मयाऽऽत्मकः । तुलाऽभिधानराशिमादधान उत्तमोत्तमः,
प्रसन्नसन्मपापराशिरिष्टभूतिभूषितः ॥३॥ प्रभूतभव्यसंपदा सुधामधामनि स्वके,
निजश्रिया विराजितः स्थितः सुखप्रदः सताम् । समानमोहलोभरोषवादलौघमारुतो
विजायतां स पार्श्वनाथ इष्टसिद्धिसाधकः ॥४॥ भवन्तु पार्थतीर्थकुनखप्रभाप्रभाकरः,
सुभव्यभव्यमानसाऽम्बुजालिबोधकारकः । प्रकामशाश्वतप्रभानिर्षि यदीयमुष्णगुनिरीक्ष्य तत्पदेच्छया भ्रमनिवेति लक्ष्यते ॥५॥
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(२३) श्रीमहावीरजिनस्तवनम् ॥ २४ ॥
( शार्दूलविक्रीडितम् ) यद्भक्तिप्रसरत्प्रभावकलितां लीलामखण्डश्रियां,
सद्भाग्यैकवशंवदां सुरगवी-माराधयन्ति क्षणात् । तत्सत्याश्चितवाक् सुधारसमयो-विश्वाऽऽगमार्थोऽत्र या, श्रेयःसंजननो भवत्वतितरां, लोकत्रयस्थायिनाम् ॥१॥ श्रेयःसन्ततिवर्द्धकं भवभय-क्षोभप्रदं भास्वरं, दुर्वारेन्द्रियवैरिवारविजयि, क्षीरोदकन्याश्रितम् । यत्पादाम्बुजयुग्मकं विलसति, क्षेमंकरं शान्तिदं,
सोऽयं वृद्धिविधायको विजयतां, श्रीवर्द्धमानप्रभुः ॥२॥ चेमं सन्तनुते निकृन्तति मतितोमं च यद्दर्शनं, संसाराऽम्बुनिधिं करोति सुतरं, सौभाग्यरत्नाकरः । सद्विद्या वशवर्तिनीं जनयति, द्वेषप्रपश्चाऽन्तकं,
भूयात्सर्वसुखप्रदस्त्रिजगतां, सिद्धार्थभूपाङ्गजा ॥३॥ यन्मूर्तीन्दुकलाः सुभव्य जलधीन्-कल्लोलितान्कुर्वते, मिथ्यात्वोजनितां तमस्ततिमरं, संप्रापयन्ति क्षयम् । सौजन्याऽभयभावनौषधिगणान्संवर्द्धयन्ते मुदा, तं देवेन्द्रसमर्चिताऽधिकमलं, वीरप्रभु नौम्यहम् ॥ ४॥ पापद्वारिधिमुत्तरन्ति भयदं, पादारविन्दश्रितादीव्यान्भोगगणान्जन्ति नितरां, संपूजनीयाः सताम् ।
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( २४ )
कन्याराशिगतस्य यस्य निहता - Sनङ्गप्रचारोजिनः, सोऽत्यन्तं वितनोतु मङ्गलकलां, श्रीत्रैश्लेयः सदा ॥ ५ ॥ प्रशस्तिः ॥
( वसन्ततिलकावृत्तम् )
atsara मृत्युभयहारी जिनेश्वराणां, शुद्धाऽऽत्मशर्मविततिप्रथने पटीयान् । सर्वाssपदां सततदारणतैकदक्षः, सर्वेप्सितार्थसुरपादप आदिमश्च
श्री वीरशासनसुधाकरचन्द्रतुल्य - श्रीहीर सूरिवरपट्टपरम्परातः संप्राप्तपट्टकमनीयविभूषणाई - बुद्ध्यब्धिसूरिचरणाऽम्बुजषट्पदेन
श्रीप्राप्तिपत्तनवरेऽजित सागरेण,
सूरीन्दुना स्तवनराशिरसौ प्रगीतः । संवत्सरेऽब्धि गजनागशशि (१९७४) प्रमाणे,
हेमेन्द्रसागरमुनिप्रथिता प्रशस्ति
माघे तिथौ विजयतां शुभपूर्णिमायाम् || ३ || त्रिभिर्विशेषकम् ॥
रेषा जगद्गुरुकृपावशतोवरेण्या,
॥ १ ॥
॥ २ ॥
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स्वाऽऽत्मप्रबोधजननैकगरीयसीह,
विख्यातिमेतु विपुलां विपुलाऽर्थसारा ॥ ४ ॥ इति श्री चतुर्विंशतिजिनस्तुतिः संपूर्णा.
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( २५ )
श्रीचतुर्विंशतिजिनस्तुति संग्रहः ॥
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( तोटकवृत्तम् )
त्रिशला सुततीर्थकरं सुगुरु, शुभबुद्धिनिधि कमलासनिकाम् । हृदयस्थमहं प्रविधाय जिन - स्तुतिसारमहं वितनोमि मुदा | १| श्रीमदादिजिनस्तुतिः ॥ १ ॥
( शार्दूलविक्रीडितवृत्तम् )
संसारार्णवतारक ! क्षतमहा - कर्माssवलीवेदन ! सद्भक्या प्रणतांघ्रिपद्मयुगल ! श्रेयस्ततिं साधय । श्रीमनाभिनरेन्द्रनन्दन ! जना -- नन्दप्रदानोत्तम ! भक्तानामभयप्रद ! श्रुतमतां सर्वापदां वारक ! ॥१॥ सर्वे पान्तु जिनोत्तमा वररुचः, सद्धर्मविस्तारिणोध्वस्ताऽज्ञानतमोभरा जनगणा - निर्मानमायालवाः । यत्पादाम्बुजयो लुठन्ति सततं, स्वर्गौकसःसादराः, सिद्धाऽऽनन्दपद प्रियाःकृतधियो - मन्दारमालाञ्चिताः। २ ।
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भष्या ! वस्तनुतां सुशान्तिमनिशं पूज्यैर्वृतीन्द्रैः कृतं, दुर्लक्ष्यं कुमतादिभिर्दलितदु-र्मोहारिवर्गोद्यमम् । अक्षोभ्यं कुमतैर्जनैः प्रवचनं, तत्त्वाऽर्थराशिश्रितं, निचेपाऽऽगमसिद्धतश्वविमला - गोराशिनुद्योतकम् |३|
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( २६ ) पायाद्वःश्रुतदेवता श्रितवती, शुक्लाऽम्बुजं निर्मलं,
सम्यक्तत्वविलासरक्तहृदया, विस्तारितानन्दका । यत्प्रेक्ष्याऽलसमानसास्थितवती, सद्भ्रामरीसन्ततिः,
सन्त्यज्याऽश्रमिताऽमरद्रुमसुमं, सौरभ्यसंराजितम्॥४॥
श्रीमदजितनाथजिनस्तुतिः ॥ २ ॥
( द्रुतविलम्बितवृत्तम् ) अजितनाथ ! तवाऽङ्घ्रिसरोजक, हृदयसअनि चारु विचिन्तये। स्वजननोत्सव इन्द्रगणस्तुतं, कनकभूधरसानुविराजितम् १ जिनगणं विमदं स्तुत मानवाः ! शमितसंसृतिभूतमहापदम् ।
अमरनाथगणाः स्तुतिमन्वहं, विदधतेऽस्य महोत्सवधारिणः२ प्रदिश मेऽन्तिमधामनिवासक, त्रिभुवनाऽर्तिनिवारकनिर्मले । जिनमतश्रुत! सर्वसुखाऽऽस्पदे, विततमोक्षयथेष्टसहायद!॥३॥ सितगरुत्मदधिष्ठितविग्रहा, विशददीप्तिपविं दधतीश्वरी । वितरतु चतरुग् भुवि मानसी, भवभयचयकारक!शं सदा।४।
श्रीमदजितनाथजिनस्तुतिः (२)
(पुष्पिताग्रावृत्तम् ) जिनवरमजितं स्तुवे मुदाऽहं,
त्रिभुवनपालकमद्वितीयकीर्तिम् ।
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( २७ )
विदितनिखिल भावनिर्जिताऽक्षं, चपित दुरन्तदुराधिकर्मजालम्
स्तुत जिननिकरं तमाप्तमीशं, सुरगण वन्दितपादपद्मयुग्मम् |
विजितरतिपतिप्रकामवेगं,
विधुरित मोहमदाऽभिमान से नम्
स्मरत जिनवरोदितं प्रकामं. प्रवचनमुत्तमतश्ववारिराशिम् ।
सकलजनहिताय शस्तमेतत् -
प्रथिततरं भुवनेषु शुद्धभावाः !
हरतु विविधमानसीं प्रपीडां, कनकविभासमदेहमानसीयम् ।
वरदपविकरा प्रभावयित्री,
शुचिवसनाच मरालवाहनस्था
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॥ १ ॥
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॥ २ ॥
113 11
॥ ४ ॥
श्रीसंभवनाथजिनस्तुतिः ॥ ३ ॥
( वसन्ततिलकावृत्तम् )
निर्भिन्नशत्रुभव भीतिविशेषशान्त ! संसारसागरमहाल व संभवेश ! | म प्रदेहि शशिसोदरशर्म सद्योलोकातिगं प्रथितसर्वजनप्रभाव ! ॥ १ ॥
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( २८ । महत्कदम्बक! तवग्रणतंवरेण्य
लक्ष्मीः सदा श्रयतु मानवमानमद्भिः । देवाऽधिपः स्तुतपदाऽम्बुज ! कामहीन !
निर्मानमोहमदमृत्युजराप्रभाव ! ॥२॥ अहंद्णेन रचितं शुभशासनं वः,
शर्माऽऽवली दिशतु सर्वनयाऽनुसारम् । बिभ्रत्परैरकलनीयमयानकेन,
त्रैलोक्यविश्रुतगुणेन विमानकेन ॥३॥ या शृङ्खलाऽऽभरणभूषितकान्तमूर्तिः, __ सौवर्णवर्णविभवा नम तामनिन्द्याम् । श्रीवजशृंखलयुतां श्रुतदेवतां द्राक,
पद्माश्रिताममदमानवपूजनीयाम् ॥४॥
श्रीमदभिनन्दनजिनस्तुतिः ॥४॥
( द्रुतविलम्बितवृत्तम् ) स्वमभिनन्दन ! देवगणस्तुत !, विदलयाऽशुभभावगणं मम । स्मरगजेन्द्रविदारण केसरि-परिहतप्रमदागणनिर्भय। ॥ १॥ जिनवरा! गतमोहमयाः सदा, मम तमोहरणाय विभासका। जितमदा प्रयतध्यमिताऽऽमयाः, सकरुणाऽऽचरणस्थितिमासुराः निनवरागम ! नो भवमायतं, प्रथितजन्मजराक्षयदुर्दशम् । प्रलघुतां नय निर्मथिताऽऽमय! प्रवरसारसनाथ! नयाऽऽलया।
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सुधनुषाऽश्चितहस्तलतामरं, विशिखशंखयुजा नम देवताम् । विशदवर्णकलामिह रोहिणी, सुरभियाततर्नु विपुलर्द्धिकाम् ।।
श्रीसुमतिनाथजिनस्तुतिः ॥ ५ ॥
( वसन्ततिलकावृत्तम् ) त्रायस्व संसृतिदरात्सुमते ! जिनेश !,
त्वत्पादपमनिरतां जनतां जितारे! सिद्धान्तनायक ! गताऽऽलय ! हेमकान्ते !,
भीताऽभयप्रद ! सुकान्तविशालमूर्ते ! ॥१॥ राकेशकान्ततनवस्तनुत प्रशान्ति,
तीर्थाधिपा! विमदना! मदमानहीनाः ।। सन्मार्गयातजनताहितमादधाना,
सदानिनोगतमयाऽभयदानदचाः ॥२॥ भव्याः! स्मरन्तु जिनराजिमुखाम्बुजन्म
जातं मतं मतिमतां हितजातदायि, विस्तीर्णतत्त्वजलधि परमार्थबोधं,
संरोधकं परमताऽर्थनिरूपकाणाम् ॥३॥ काली सुकान्तवदना रदनप्रभाभि
नीलाम्बुवाहघनदेहविभाविताना । दनाभयप्रदगदां दधती विशालां, कान्त्या विभूषितधरा भुवि रक्षतान्माम् ॥४॥
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श्रीपद्मप्रभजिनस्तुतिः ॥ ६॥
( वसन्ततिलकावृत्तम् ) पमप्रभोश्चरणपययुगं प्रमोदं,
दीर्ष ददातु सततं महतामुपास्यम् । दत्तप्रमोदविभवं जगति प्रकाम
मुन्मुद्रिताऽमरसभं विगताऽऽमयस्य ॥१॥ सा मे मतिं वितरतु चितकर्मभूमि
रहत्ततिः सुविदिता प्रथमामगाद्याम् । स्वौकसा ततिरजनविभासमाना,
देदीप्यमानमणिरत्नविभावितानः ॥२॥ लोकाः श्रयन्तु जिनकीर्तितमागमार्थ,
श्रान्तिच्छिदं यमिजनाश्रयणीयमीड्यम् । संसारसागरमहामवमाश्रिताना,
धामाग्रिमं विहतपापदरं नयानाम् ॥३॥ गान्धारि ! वज्रमुसले जयतस्त्वदीये,
नीलाऽम्बुजावलिनिमेंऽशुवितानधानी । ये कीर्तिपुञ्जमनवद्यसुखं लभेते, स्वर्गावनी जगलोकविमासमानम् ॥४॥
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( ३१ ) श्रीसुपार्श्वनाथजिनस्तुतिः ॥७॥
( वसन्ततिलकावृत्तम् ) ये जन्तुजातमकरोत्प्रणतिप्रधानं,
निर्वारिताऽतनुमनोजमदारिवाधः । तं मानव ! स्मर विचिन्त्य निजे सुपार्श्व,
चेतोऽम्बुजे परहितोद्यतमानभावम् ॥१॥ जैनेश्वरीततिरखण्डितवोधकामा,
चित्ताऽरविन्दमनिशं व्रजतु प्रसन्नम् । या नव्यवारिजगणे पदमादधाना,
चक्रे विहारमनधाऽमदमानवानाम् ॥२॥ संपादयच्छिवमुखं ननु संयतानां,
जैनं मतं भवभयातिहरं मुदाऽरम् । श्रेयोऽर्थिनो नमत नम्रधिया प्रशस्तं, __ स्वर्गाऽपवर्गवसति चणतो ददानम् ॥३॥ संरक्ष शर्मजननी भुवि मानसीष्ठान्,
पश्चाऽऽननोपरिगताऽमरमाननीया । खड्गं रविप्रभमहोज्ज्वल मादधाना, माणिक्यमुत्तमविभश्च कराऽजमध्ये ॥४॥
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( ३२) श्रीचन्द्रप्रभजिनस्तुतिः ॥ ८॥
( वसंततिलकावृत्तम् ) चन्द्रप्रमं नमत शारदचन्द्रकान्तं,
कान्ताऽनलं भवतमस्तृणपुञ्जदाहे। विद्वत्कदम्बकनतांघ्रिसरोजमीशं,
भो मानवा ! विगतमानमनोजगर्वम् ॥१॥ जीयात्कदम्बकमरोगमदं जिनाना
सत्याकरं जयदजस्रविमाप्रकारम् । पद्धर्मचक्रमवहद्भुवि भव्यहेतोर्लन्धावतारमनिशं प्रबलप्रतापम् ।
॥२॥ सिद्धान्तराशिरमलो हतयेहिताना
मख्यापयजिनगणो यमनिन्दिताऽऽत्मा । युष्माकमस्तु कमनीयविचारचार
देवेन्द्रवृन्दनुतपीतवचःसुधाका ॥३॥ वजाऽङ्कुशि ! प्रतपनीयविभे ? प्रयत्नं,
त्राणे जगजनिमतां विशदं विधेहि । अध्याश्रिता शशधरोज्ज्वलमासि मत्ते, सौवर्णकान्तिरुचिरावयवा द्विपेन्द्रे ॥४॥
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( ३३ ) श्रीसुविधिनाथजिनस्तुतिः ॥९॥
( वसंततिलकावृत्तम् ) संपत्तिमाशु भवतां सुविधिविधेया__ योगन्द्रिसन्नतपदाऽम्बुजयुग्म इष्टाम् । नाकिव्रजाऽसुरनराऽधिपसेव्यमानः,
स्वर्गाऽपवर्गसुखसिद्धिरुचिप्रधानाः ! ॥१॥ याऽशेषमानवगणाय हितानि राजी
सारक्रियाऽवददलं सदया जिनानाम् । मोदं ददातु विपुलं मम निर्ममच्चा, - पादारविन्दविलुठत्पुरुहूतराजिः ॥२॥ दिश्याजिनेन्द्र ! तव कण्ठविनिर्गता मे,
लोकोत्तरं शिवमुखं भुवि भारतीन ! भङ्नयैश्च रुचिरार्थपराऽतिशस्ताs
ज्ञानाऽन्धकारमखिलं प्रथितं क्षयन्ती ॥३॥ दिश्यात्तवाऽऽशु शिवदा ज्वलनायुधा शं,
स्वल्पोदरी गतदराऽभयदा सिताऽऽभा । शस्ताऽऽस्यकान्तिनिचयेन तिरस्कृतेन्दु
मध्यं समाश्रितवतीष्टवरालकस्य ॥४॥
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( ३४ ) श्रीशीतलनाथजिनस्तुतिः ॥ १० ॥
( वसन्ततिलकावृत्तम् ) दीव्यं सुखं दिशतु शीतलतीर्थनाथः,
शुद्धस्वरूपरमणः शिवसिद्धिधाम । यत्पादपद्मभजनेन दिवौकसोऽपि,
भेजुनिरामयसुखानि महोज्ज्वलानि ॥१॥ भव्या जनाः ! स्मरत वृन्दमरं जिनानां,
निर्मिनजन्ममृतिमोहजरारतीशम् । पादारविन्दविनतोरुजनाऽनवद्यं,
निर्वृत्तिशर्महितदं शमितप्रकोपम् ॥२॥ कल्पद्रुमोपममसारमताऽवभेदि,
बाचा वितानमकलङ्कितमहंदुक्तम् । श्रेयस्ततिं दिशतु दीव्यमहाप्रभावां,
लोकत्रयप्रथिततत्वगुणप्रभावम् ॥३॥ देव्यक्षताऽमरसमन्वितमानवीह,
सान्द्राऽङ्गकान्तिनिचया जनिता तिमोदा । त्रैलोक्यरवणपरा जयताजगत्यां,
श्रेष्टायुधं करतले दधती प्रसन्ना ॥४॥
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( ३५ )
श्रीश्रेयांसनाथजिनस्तुतिः ॥ ११ ॥
( वसन्ततिलकावृत्तम् )
यन्मानसं युवतयः कृतहावभावानो जरुचतरगीति कलाऽतिदक्षाः । श्रेयांसमानमत तं सुमनोचिताङ्घ्रि, मिमाम्बुजाऽऽयुधविकल्पमभेद्यत्रोधम् ॥ १ ॥
दीर्णश्रमा जिनततिर्नतिमादधद्भिर्देवाऽसुरेन्द्रनरनाथगणैः स्तुताऽलम् । दिश्यान्निरामय सुखानि पवित्रिताशा, संपन्नसर्वविभवा विगतामया वः
अन्मतं मतिमतां रुचिरप्रभावं, कल्याणमादिशतु निर्गतदोषलेशम् | नैकार्थसन्नयविराजिततच्चराशि,
वृत्रारिवारपरिपीतवचोऽमृतं द्राग्
वज्रं फलाक्षपटले च सुनादघण्टां, विभ्रत्यजत्रमुदिता करवारिजातैः । श्रध्यासिता वररुचिर्गतशोकवारां, मर्त्याधिपं जनमता जयतात्सुकाली
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॥ २ ॥
॥ ३॥
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( ३६ )
श्रीवासुपूज्य जिनस्तुतिः ॥ २१ ॥
( मन्दाक्रान्तावृत्तम् )
संपूज्य श्री - वृजिन जिनाधीशितो - वासुपूज्य ! नूत्नालानो - पमकर विभातोष्ण भानूरुकान्ते ! । निर्मान त्वं जगति जनतां, पालयस्वाऽतिनम्रां, कामक्लेशादवन दधतीं भूरिदुःखं वरेण्य !
"
॥ १ ॥
संपूतं यच्चरणरजसां मण्डलं देवराजे
"
श्रौण शोभां शिरसि दधति - स्माऽतिशस्तप्रभावम् । कीर्त्तः कान्त्या, ततिरतिवरा, निर्जयन्ती जिनानां, कर्मग्रन्थि, प्रविकिरतु सा युष्मदीयं गताऽघा ॥ २ ॥
9
हृद्या वाणी, तव जिनपते !, नो हितानि प्रदेयानित्यं हेतु - ग्रथितहृदया, युक्तियुक्ताऽपदोषा । निष्पापा या, समदमनुजै-गतकीर्तिप्रकाण्डसद्यो गाना - मतिशययुजां, भाजनं संपदाढ्य ! ॥ ३ ॥
श्री शान्तिस्त्वा - मवतु विदुषी, श्वेतपद्माऽधिरूढा, रक्षःक्षुद्र-ग्रहभवभया-दिनी श्वेतरोचिः । सन्नालीका निजपरिकरोद्भासिनी चारुवेशा, शिष्टैर्मान्या, जगदभिहितं सर्वदा धारयन्ती ॥ ४ ॥
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( ३७ ) श्रीविमलनाथजिनस्तुतिः ॥ १३ ॥
( मन्दाक्रान्तावृत्तम् ) निर्देष्टारं, विमलविमलं, तत्वराशिं जिनेशं,
वीतदोभ, वृतशमदयं, मानवानां हितानि । कुर्वन्तं तं, वयमभिमता-आनमामः सुभक्क्या,
देवालियं, नमनहृदया दूरतोनैव याति बैनी राजिा, परमसुखदा, दीर्णकामारिभीतिः, __ सवाषना, कुमतदलने, कर्मतापपहीणा । श्रेयाश्रेणि, दिशतु भवतां, जन्ममृत्युश्रयाणां,
स्वर्गस्थानां, प्रवरसभया, गीतसत्कीर्तिराशिः ॥२॥ भिन्नभ्रान्तिः, कलिमलहति, क्षोभयित्रीप्रकामं,
निर्दोषा या, जिनवरमुखाऽ-म्भोधिजाता पवित्री। वाचामालि-गमनयहिता, नाकिलोकाऽतिपीता,
संसारं सा, सुतरमनिशं, भक्तिभाजां करोतु ॥ ३॥ सौम्याऽऽरावा, तनुभवकरी, रोहिणी भासुरामा,
याता यानं, परमवनता, सौरमं वीतभीतिः । वेगाऽऽक्रान्त, मनुजसभयाऽ-चापलाऽपापयाऽलं, निःसीमानं, प्रमदमवनौ, सादरं संतनोतु ॥४॥
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(३८ ।
श्रीमदनन्तनाथजिनस्तुतिः ॥ १४ ॥
( मन्दाक्रान्तावृत्तम् ) निर्मानारे ! नतसुरसभा-राजिपादारविन्द !,
वीणानङ्ग ! प्रमितविभया, भ्राजमानाऽऽननश्री। धर्ये चक्रे, जनहितकृते, स्थायुकाऽनन्तनाथ !
मोक्षाऽध्वानं, कुरु सुखगमं, देशनाऽशीतभासा ॥१॥
जायातीत ! क्षणदसदन ! श्रेयसां निर्मलानां,
पादद्वन्द्वं, जिनवरकद-म्ब त्वदीयं मुदाऽरम् । दीव्याकारं, मम हृदि ततं, श्यामलत्वं निहन्तु,
देवेन्द्राणा-मभयसभया, स्तोत्रसारण गीतम् ॥ २॥ सियाराम, मतमभिमतं, जैनराजं जनानां,
जेगीयन्तेऽ-मरगणसभा-सेवनीयं विपारम् । तयुष्माकं, भवभयहति, दुर्निवारां विदध्या
चित्तप्रीति-प्रदमनुदिनं, क्षोभिताऽन्याऽनुयोगम् ॥३॥ उत्तुङ्गार्वाऽऽ-श्रिततनुलता, काञ्चनाभाऽच्युता मे,
रक्षादक्षा, धृतधनुरसि-श्चर्मवाणो दधाना । हस्तैः शस्तै-स्त्वरितगतये, शर्म दिश्यादमेयं,
संसाराम्धी, श्रमितवपुषां, तारणैकोच्चसस्वा ॥४॥
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( ३९ )
श्रीधर्मनाथजिनस्तुतिः ॥ १५ ॥
( मन्दाक्रान्तावृत्तम् )
शान्तक्लेशः, शरणमचलं, मानवानां समानां, श्रीमद्धर्मो - जिनवरगणः पूजितो नाकिनाथैः । निष्कर्मारि - स्तवकरगतां, मोक्षलक्ष्मीं विदध्यादुच्चैः कान्त्याऽखिलजनगता - ज्ञानराशिप्रभेत्ता ॥ १ ॥ दीर्णध्वान्तं, सुमतिसदनं, जैनराजं कदम्त्रं,
दीप्त्या राज- चरणपदवीं, सारतारां वितन्वत् । भोगान्नागा - निवपरिहर - दूरतः शान्ततान्ति, क्षान्त्यै भूया - त्सतत सुखद - क्षेमलक्ष्र्माप्रियाणाम् ||२||
पीयूषाशाs - सुरनरवरैः, प्रस्तुतं स्वाऽऽलयस्थैरक्षोभं य-त्परमतपरै - रप्रमेयाऽर्थभासि । वृन्दै - तमभिहितं निर्मदाऽनङ्गमानं, श्रेयोदिश्याद्भुवनविदितं, मानवानां नतानाम् ॥ ३ ॥
प्रज्ञप्तिर्वो- नवकजवरा - भा विशालाऽक्षिपद्मा, मायूरं या-वनविमलधी-र्यानमारोहदिष्टम् । सा विज्ञानां, हतिमतिबला - ऽयाचिता भक्तिभाजां, कुर्यात्कान्तो - समगतिरथं, शक्तिराजच्छयाऽब्जा ॥ ४ ॥
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( ४० )
श्री शान्तिनाथजिनस्तुतिः ॥ १६ ॥
( स्रग्धरावृत्तम् )
राजन्त्योत्तप्तहेमो-ज्ज्वलवरविभयाs - कोपमानमचार ! श्री शान्तीशान तन्वा, जितकनकगिरे ! शान्तमुद्रां वहन्त्या । धीरोदारप्रभाव ! क्रमवनजनतैः सेव्ययानिर्जरेशैः रच त्वत्पादरक्तं, वृतसुमतिवधू - मजिनेन्द्र ! प्रपन्नम् ॥ १ ॥ ते जीयासुर्जिनेशाः, सकलभुवनगां, संपदं धारयन्त:, कीवीतारिभावा - मदलवमपि ये, नैव चक्रुर्विशोकाः । कुन्दप्रख्य त्विषाऽलंकृतवरवपुषः, प्राप्तलोकैकराज्याउच्छिन्नाऽनङ्गभावा- नतविरतजना - नन्ददायिस्वभावाः॥२॥ जैनेन्द्र जैनसङ्घ - क्षतिहननपरं, बोभवीतु चताऽघं, सम्यक्त्वाऽऽवासितानामपहृतमदनं, दुष्टतापापहारि । दुर्भेद्यान्तस्तमिस्रा - विघटनशशभृ-त्सोदरं रातवृतमाराध्योच्चैर्गुणाली -भृदमरसभया - संस्तुतं स्वर्मतं द्राग् ॥ ३ ॥
दिश्यात्स ब्रह्मशान्तिः, सुखमतुलतरं, छत्रदण्डोदपात्रं, सच्छोभाढ्यं दधानो - नवकुसमकरैः, स्वच्छभामण्डलाढ्यः । विभ्रन्मुक्ताऽक्षमालां, मुनिजनहितद - स्तप्तचामीकराभोयो वक्राणां ग्रहाणां प्रशमनमतनो - त्सासुरारीतिकानाम् । ४
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( ४१ )
श्री कुन्थुनाथजिनस्तुतिः ॥ १७ ॥ ( मालिनीवृत्तम् )
शमितमरणजातिं कुन्थुनाथं मदान्तं, जिन पतिमनिमेषै- लोचनैः पीयमानम् । अमरपतिततीनां दीर्णतापं नमामि,
निजपरिकरभाजां, भाजनं मोक्षलक्ष्म्याः ॥ १ ॥
सकल जिनपतिभ्य-स्नायकेभ्यस्त्रिलोक्यावरवदन रवेभ्यः, सारवादेरतेभ्यः । कनकसुमगतिभ्यो - नाकिनाथस्तुतेभ्यस्तनुवचनमनोजं मामकीनं नमोऽस्तु ॥ २ ॥
प्रवचनममितं वो - जैनराजं विकासअयगमपदभङ्गैः, पावनं शर्म दद्यात् ।
दमितकुसुमचापं, चारुनीतिप्रतीत
मभिलषितसुरढुं, दीव्यमाराधनीयम् ॥ ३ ॥
सदसि फलकरास्ते, सैरिभी प्रौढगात्रीं, गतवति । तडिदा !, दतदीनप्रमोदे । । झटिति पुरुषदत्ते ! सन्तु मे सत्प्रसादाविकसद सिफलाभ्यां भ्राजमानाऽग्रहस्ते ! ॥ ४ ॥
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(४२ ) श्रीमदरजिनस्तुतिः ॥ १८॥
( मालिनीवृत्तम् ) नमत जिनवरं तं, भव्यलोका ! मुदाऽरं,
प्रमदसुरनरेशो-द्गीयमानप्रभावम् । व्यमुचदखिललक्ष्मी, चक्रिणोलोष्टबद्यो
द्रुतकनकनिभं स-बारिजातं प्रधानम् ॥१॥ यममरपतिराजि-स्तुष्टुवे धीररावा,
समवसरणभूमी, राजिता स्तोत्रगीतैः। तमनजिनवर्ग, निर्मदा मोदमानाः,
स्मरत रुचिरभावा ! भासयन्तं समन्तात् ॥२॥ जिनपतिमतमाद्यं, भीमसंमारवाड़ि
क्षुभितजनभयोघो-द्भदि भिमप्रमोहम् । कुरुत हृदयसाध्यं, सर्वसौख्यैकहेतु
मपगतपरमीति क्षिप्रमुधोतवन्तः । ॥३॥ जगति विविधवर्ण, वैनतेयं प्ररूढा,
हुतवहनसमाऽऽभा, चारुचर्विभाति । निरुपमदवतुन्यै-होरिचक्रेश्वरी या,
सुखमतनु विदध्या-त्पुण्यधीर्धामधारी ॥४॥
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( ४३ )
श्रीमल्लिनाथाजनस्तुतिः ॥ १६ ॥ ( उपजातिवृत्तम् ) तनोतु शान्ति भुवि मल्लिनाथः, प्रियङ्गुरोचिस्तनुमुज्जिहानः । अद्यशोभामचिरांशुदीसं, विडम्बयनंवरमंशुमाली ॥ १ ॥ स्तुवीत भव्या ! जगदाशुरक्षतो - जिनेश्वरानर्चितपादपङ्कजान् । वपुर्व्यथापीडितदीन मानवं, स्रजं दधानान्नवपुष्पनिर्मिताम् | २ | जिनेन्द्रसंभाषित श्रागमार्थो -गमोक्तियुक्तिप्रथितप्रमाणः । शमाऽऽवहन्संपदमादधातु चतातऽनुक्रोधतमोमनोभूः ||३|| बटाऽभिधानेऽकृतसंस्थितिर्मे, यक्षाऽधिपः क्रीडतु मानसे नगे । कपर्दिनामाद्विपमाश्रयन्भा - श्यामीकृताशश्च कितेन्द्रकुञ्जरम् | ४ |
श्रीमुनिसुव्रतजिनस्तुतिः ॥ २० ॥
( उपजातिवृत्तम् ) मवाजिनेशोमुनिसुव्रतोवोऽ-वतात्सुरौघाऽवनतोनिकामम् । निरस्तचेतोभवमानबाध चलत्प्रभामण्डलदीपिताऽऽशः ॥ १ ॥ नमामि तं जैनगणं विमाय-मपारसौरभ्य सुमानना यम् ।
ननामदेवेन्द्रवराङ्गनालं, प्रभावधामाऽसमसारशोचः ॥२॥ सिद्धान्त ! जैनोत्तम ! रक्ष भव्या- न्नतानजस्रं दयितोमुनीनाम् । नयप्रमाणाSSततशर्महेतो- र्निरस्तपापाऽपरभीतियोगः ॥ ३ ॥
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( ४४ )
चिणोतु विघ्नानि सुवर्णवर्णा, तवाधिरूढोचितगांधिकाऽऽशाः । विभासयन्ती निजभाचयेन, गौरी वरीयोवदनाऽरविन्दा || ४ ||
श्रीनमिनाथजिनस्तुतिः ॥ २१ ॥ ( शिखरिणीवृत्तम् )
नमि: पापत्राता, विदलयतु मे कर्मविततिं, विमायासं चारो विधुतमदमानोऽतिरभसा । प्रणेता हृद्यामो-नमदमर भव्या भयकृतां. प्रगल्भाऽनङ्गच्छि-द्भवभयहरो हृद्यवचसाम् ॥ १ ॥ जिनाऽधीशव्रातः, शमितभवदावाऽनलभयः, नमनाकीशानां वरमुकुटरत्नाऽरुणपदः । नताऽनन्तान्रातु, चपितमद मोहाऽतितिमिरः, पराभूतानङ्गः, प्रवरवरदानैकविदुरः ॥ २ ॥ श्रुतं स्फीतं गीतं, जिनपतिकदम्वेन निखिलं, भवाऽऽतङ्कच्छेदि, प्रमितनयभङ्गेन निचितम् | जनानन्दं दिश्या-द्भवभयहरं धर्मसदनं, सुधर्मायां कामं, स्तुतममरलोकैः सुखमयम् ॥ ३ ॥ विपक्षश्रेणि वो - विघटयतु काली घृतगदा, समारूढाऽम्लान प्रवरकमलं निर्भयकरी । वराक्षाणां मालां, विशदवदनाऽऽनन्दवसतिदधाना निर्माया जलधितनयातुन्यविभवा ॥ ४ ॥
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श्रीनेमिनाथजिनस्तुतिः ॥ २२ ॥
__ ( उपजातिवृत्तम् ) बमा यो लक्षमितं नृपाणां, कदम्बकं निर्जितराजकं तम् ।
राजीमतीतापदनमिनाथं, नमामि दीप्तं यदुपालितारम् ॥१॥ या प्रौढराज्यं प्रविहाय राजी, प्रव्रज्यया रक्ततमा बभूव ।
रजोवदक्षीणमहाप्रभावा, सा सेव्यतां पुण्यजनैर्जिनानाम् ॥२॥ वातावकीना जिनपुङ्गव! स्तात्, शस्ताऽतिसूक्ष्मार्थपदार्थदार्शनी निर्मिनमोहारितमोवितान! हिताय मेऽक्षोभ्यतमाऽन्यवादिनाम्यत्पादसेवामकरोजनौघः, सिंहाधिरूढाऽऽम्रसुलुम्बिहस्तासाऽम्बा विभूतिवितनोतु शुद्ध-सुवर्णवर्णा रिपुभीतिमेत्री ॥४॥
श्रीपार्श्वजिनस्तुतिः ॥ २३ ॥
( शार्दूलविक्रीडितवृत्तम् ) मालामायतबाहुरालिरतिमु-त्पार्थप्रभुमरी,
दधे यामपिवत्प्रभाभरचितो-मां रक्षतात्पातकाद् । शुद्धातिप्रवरद्विजालिरतनु-क्षेमध्वनिर्यक्रमौ,
दैवाऽब्जेषु निषादिनौ रुचिरभोऽ-भूतां स भूतिप्रदः॥१॥ अव्यात्सा परमारमाऽतिरुचिरा, राजीवनेत्राऽभया,
राजी जीवभयापहा मतिमतां,सेव्या जिनानां सदा। या हृद्याऽमलकीर्तिबोधजनका, साराधिकामादरं, सर्वान् भूतगणानजेयविभवा, निर्मानजन्मक्षतिः ॥२॥
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(१६) जैनी वागतिविस्तृताऽमलगमाऽ-सद्योगसंहारिणी
नूता देवकदम्बकेन समुदा, शास्त्री नराणां सदा । देयान्नूतनमर्थमाश्रितवती, निष्पक्षपातामुद
मादेया मलरोधिका जनमनो-हमो यशोवर्धिनी ॥३॥ या याताऽजगरेन्द्रमायतिहिता, निस्त्रिंशहस्ताऽभया,
सुध्वानाऽमरयोषिदर्चितपदा, कान्ताऽलकाऽन्ताऽमदा । साऽहीनाम्यवधूस्तवाऽस्तुसुखदा, त्रैलोक्यरक्षाकरीनिर्मिनारमरं सरोजवलय-श्यामागभामण्डला ॥ ४ ॥
श्रीमद्वीरजिनस्तुतिः ॥ २४ ॥
( शार्दूलविक्रीडितवृत्तम् ) निर्मानानमदिन्द्रमस्तकपत-त्सामोदनिनिंद्रक__ मन्दारालिरजोऽरुणाधिकमल-क्षोणीकृतारक्षण !। वीर ! क्षेमविधानदक्ष ! सुतरां, निर्वाणशर्माणि मे
देहि त्वं जितसङ्गमोहगतरुग् ? सिद्धार्थभूपाङ्गज १ ॥१॥ यस्या भूमितले रराज विपुलं, धर्मोचितं स्थानकं,
दीव्यानन्दसुचक्रकेतुकुसुमं, सालनयीराजितम् । सा दीप्ता जिनसंहतिः सुखतति, भक्तिप्रियाणामिह, दिश्यादचयरोचिषाऽमरजनाऽधीशाचिंता कामदा ॥२॥
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(४७ ) मानन्दोलसिताऽमरेन्द्रनिकरैः, संस्तूर्यमानी मुदी,
भङ्गै रिमिरातता परमता-नर्थद्रुमाऽनेकपः । अक्षय्यं सुखमातनोतु विशदा, ते भारती तीर्थकृत् !
व्यापमानमनोभवस्यमनुज-क्षोमान्तकृद्भावरी ॥३॥ मत्तेभचयदीविते क्षतिहते, कण्ठीरवे राजिनी
भाराजीप्रविराजिते परमवोत्कृष्टेऽचिरामारुचौ । भव्यानम्ब ! विनीतनाकिवनिता-संसेव्यमानक्रमे ! सम्यग्रावनिवारितारिपटलक्षोभाऽम्बिके ! त्वं सदा ॥४॥ ॥ इति श्रीचतुर्विंशतिजिनस्तुतिरगमत्संपूर्णताम् ॥
॥प्रशस्तिः ॥ भीशोभनस्तुतिमलं सुविचार्य बुद्ध्या,
सारं तदीयमखिलं विविधैर्गृहीत्वा । वृत्तैर्मया विरचिता स्तुतिराहतीयं,
भव्यात्मनां सुखकृते रुचिरा सदाऽस्तु ॥ १ ॥ भणहीलपुरे कृत्वा, स्थिति धर्मविधायिनीम् ।
भूरि संघाग्रहेणैव, जिनमन्दिरमाण्डते ॥२॥ अधिद्वीपनिधिक्षमापरिमिते संवत्सरे वैक्रमे, ज्येष्ठे मासि सिते द्वितीयदिवसे चक्रे स्तुतीनांग्रह।
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(४८) सूरीन्द्राऽजितसागरेण विदुषा लोकोपकारक्षमः,
यावत्सूर्यनिशाकरं विजयतां ग्रन्थोऽयमुया शुभः ॥३॥
श्रीसुखसागरसद्गुरुस्तुतिः॥
(पश्चचामरछन्दः। प्रचण्डचण्डमुण्डमोहमारमारिहारिणं,
विशुद्धशुद्धिसाधनप्रसाधनप्रसाधकम् । प्रसबसन्नताङ्गिमङ्गिनं सदाननाऽम्बुजं,
भजन्तु जन्तुजातयः सुखोदधिं सुखाऽऽप्तये ॥१॥ मुशान्तसन्ततिः सतां निवृत्तवृत्तिसेविनी,
यदीयपादपङ्कजोन्नति प्रणम्य निर्मला । सुधासुधाविधायकं निपाय यद्वचोऽमृतं,
बभूव तं सुखोदधि गुरुं मजस्व भावतः ॥२॥ अमेयमानशालिनो मनखिमुख्यगामिनो,
भवोदधिप्लवोपमक्रियामनेकपाविनीम् । निरीक्ष्य यत्कृपानिधेः सकाशतोऽन्वहं स्वयं,
शुभक्रियारता बभूवुराश्रयन्तु तं गुरुम् ॥३॥ अनन्तशान्तबोधवारिराशिमुन्नताशयं, .निजोरदीव्य भावनाप्रभावना शिवाशिवम् ।
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(४९)
प्रमोदभूलतावितानवारिवाहकोत्तमं,
भजध्वमेव मोदतः सुखोदधि गुरुं सदा ॥ ४ ॥ समस्तदेशकष्टलेशता गताऽऽशु शोषता,
निरन्तसेव्यसिद्धिरायतिक्षमा जनेऽजनि । यदीयदीव्यमूर्तिरत्नजातयोगतो जनाः,
श्रयध्वमेकमावत: सुखाम्बुधि गुरुं सदा ॥५॥ यदन्पकल्पना कृताऽपि भूरिसिद्धिसाधिका,
करालकालभूतभीतिहारिणी जगत्रये । भविष्यदाधिवारिणी प्रतारिणी मनोभुव
स्तमी ड्यमानमन्तु शर्मसागरं गुरुं मुदा ॥६॥ विशालशिष्टदृष्टिसारिणी यदुद्भवाऽभया,
चितिप्रकाण्डमादधाति भक्तिपुष्पसत्फलम् । विवेकवारिदानतोभवन्ति सर्वसंपदः,
स सद्गुरुः सुखान्धिरत्र जायतां विभृतये ॥ ७ ॥ यदन्तिकं सुशान्तिदं गता वरादरा नरा.
बभूवुरुचभावधारिणो महादयायुताः। भवाऽनलार्चिषाऽतिप्त जन्तुशीतलाऽम्बुदं,
नमन्तु तं सुखोदर्षि गुरुं सुमङ्गलप्रदम् ॥ ८॥ गुरुप्रभावकस्तुतिः कृताऽजिताब्धिना वरा,
सुवाचकोचमेन सिन्धुसप्तिभक्तिभूमि ते (१९७४) शरबसौ शुचौ सितेदलेऽष्टमीदिने शुमे, चिरं सुखप्रदाऽस्तु शुद्धधर्मतचधारिणाम् ॥९॥
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(५०) श्रीजिनस्तोत्रसंग्रहः श्रीकेसरीयातीर्थस्तोत्रम् ॥ १॥
(पश्चचामरच्छन्दः) प्रकष्टकृष्टलोकवृन्दसंनतक्रमाम्बुज !,
प्रशान्तशान्तदेहिकामदाहवारिदानन ! । प्रभातमातभानुभासमानपिङ्गलप्रम !,
नमोऽस्तु ते सदाऽऽदिनाथ केसरप्रियप्रभो ! ॥१॥ विदेशदेशवासिनोजना अनेकधा रता,
निवृत्तिवृत्तिशालिनोऽदराः समेत्य पुञ्जतः । सुकुङ्कुमस्य पूजयन्त्यहो वपुस्त्वदीयकं,
नमोऽस्तु ते सदाऽऽदिनाथ केसरप्रियप्रभो! ॥२॥ प्रकृष्टनीलनीलरत्नसुन्दरद्युतिव्रज
स्त्वदीयदेहजः सुजातपुण्यपुञ्जशालिनाम् । विराजते विशिष्टपापहारकः सदोज्ज्वलो,
नमोऽस्तु ते सदाऽऽदिनाथ केसरप्रियप्रभो ! ॥३॥ समृद्धिसिद्धिदानदक्षयक्षलक्षसेवित !
प्रचण्डलोकसंस्थितारिवृन्दकष्टनाशन !। मुधा धराधिपाऽधरीकृताऽखिलागिधारिणे,
नमोऽस्तु ते सदाऽऽदिनाथ केसरप्रियप्रभो! ॥४॥
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(५१) विचित्रचित्रमण्डपत्रयाङ्किते सुमन्दिरे,
विराजमानराजराजचर्चितक्रमांबुज।। सरागरागहारिणे विहारिवृन्दतायिने,
नमोऽस्तु ते सदाऽऽदिनाथ ! केसरप्रिय ! प्रभो॥५॥ चमत्कृतिः सदा त्वदीयपादपङ्कजश्रिता,
प्रणामकारिमोदधारिणां सुलोचनांबुजे । विशिष्टशिष्टनकधास्वरूपदीप्तिदायिने,
नमोऽस्तु ते सदाऽऽदिनाथ ! केसरप्रिय ! प्रभो ॥६॥ विशालशालशालमानधामधारिणे महा
धराधरप्रधानदुर्गमागंभीतिहारिणे । सदा नदत्यहो यदीयतूर्यवृन्दमद्भुतं,
नमोऽस्तु ते सदाऽऽदिनाथ ! केसरप्रियप्रभो ॥७॥ अमन्दमन्दभावनासुमेदपाटपाविने,
कलौ मलौघहारिणेऽवहारिणे सुदेहिनाम् । विभिन्न भिन्नचेतसोमखण्डितोग्रदीप्तये,
नमोऽस्तु ते मदाऽऽदिनाथ ! केसरप्रियप्रभो ॥८॥ स्वभावभाविताऽऽत्मना सुपुण्यशालिनाऽङ्गिना,
प्रभातकाल उत्तमं हि केसरप्रियाऽष्टकम् । सुखप्रदं सुमण्यते सदैकमावतोहदि, तदा क्रमेण दीव्यसंपदं श्रयत्म मानवः ॥९॥
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( ५२) त्रिसप्तसेवधिचमामिते (१९७३) सुवत्सरेष्टकं
विरच्यतेस सागराऽजितेन वाचकेन श-, मिदं सुमद्रमार्गमासि पूर्णिमादिने गुरौ ।
दधातु सर्वदेहिनाम् जिनेन्द्रमार्गयायिनाम् ॥१०॥
श्रीशंखेश्वरपार्श्वनाथजिनस्तोत्रम् ॥ २ ॥
( शार्दूलविक्रीडितवृत्तम् ) त्रैलोक्याऽऽधिपरम्परोपशमनक्षेमप्रधानौषधं
कैवल्याऽधिपति चराऽचरपति देवाधिपः संस्तुतम् । संख्याऽतीतवरेण्यचारुचरितं सम्यक्त्वसारप्रदं,
श्रीशंखेश्वरपार्श्वनाथमुनिपं ध्यायामि नित्यं मुदा ॥१॥ तिग्मांशुस्तनुतां जगाम भवतोऽनन्तप्रभाराशिभिः,
शितांशुः क्षयतां गतोऽपि नितरां तच्चिन्तया दूरगः । मन्ये भावतया नमन्ति परमं ते यान्ति धामाऽक्षयं,
श्रीशंखेश्वरपार्श्वनाथमुनिपं ध्यायामि नित्यं मुदा ॥२॥ स्थूलाभोगवता सहस्राणिना छत्रायितं मुनि ते,
तेन त्वं जगदीश ! कालभयहल्लोकेषु संस्तूयसे । इत्थं कस्तव पद्धति प्रभवति प्रोद्ध मन्तः परः,
श्रीशंखेश्वरपार्श्वनाथमुनिपं ध्यायामि नित्यं मुदा ॥३॥
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(५३) संसाराऽम्बुनिधौ पराजयपदं यः प्राप्य भानोत्सवा, ___ सोरं त्वत्स्नपनाऽम्बुसेचनतया धत्ते यथाकामितम् । प्राचीना धरणीधवा हि समरे जाता जयश्रीयुताः,
श्रीशंखेश्वरपार्श्वनाथमुनिपं ध्यायामि नित्यं मुदा ॥४॥ तीर्थाधीश ! कियाँस्तवाऽस्ति महिमा यं कीर्तितं न क्षमा.
वाग्देवी वचसांपतिविधिरपि त्यक्ताऽन्यकार्यव्रजाः। इत्याश्चर्यमशेषवेदिनि विभो ! नास्ति त्वयि मातले,
श्रीशंखेश्वरपार्श्वनाथमुनिपं ध्यायामि नित्यं मुदा ॥१॥ मो! विश्वाऽधिपते ! त्वदीयशरणं संप्राप्य के भावतो
मृत्युं जन्मजराभयं च सुखतो नो जिग्युरात्मप्रियाः। स स्मृत्याऽपि भवोदधिः क्षयति चेत्ते किं पुनदर्शना
छीशंखेश्वरपार्श्वनाथमुनिप! त्वां स्तौमि नित्यं मुदा ॥३॥ ये तीर्थाधिपते ! नमन्ति भविनस्त्वत्पादपद्यं, संसाराबुनिधि तरन्ति तरसा चात्राऽपि संभुज्य शम् । भावस्यैव महाप्रताऽध नियता तस्माद्वरा भावता
श्रीशंखेश्वरपार्थनाथमुनिप ! त्वां स्तौमि नित्यं मुदा ॥७॥ किं हेयं किमहेयमाशु करणीयं किं कुकृत्यं किमु,
धर्माऽधर्मविधानकश्च किमिति चित्यां हि के जानते । सार्वज्ञं विमलं परार्थघटकं शास्त्रं तदर्थक्षम, श्रीशंखेश्वरपार्थनाथमुनिप ! त्वां स्तौमि नित्यं मुदा l
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( वसन्ततिलकावृत्तम) येषां मनःसरसि पार्श्वमुनीश्वरस्य, ___ स्तोत्रोज्ज्वलच्छद इह चमिणां स्थिरीस्यात् । ते मृत्युभावमपहाय महात्मभावं,
यान्ति क्रमेण मनुजाः परमाऽर्थमाजः ॥९॥ संवत्सरे शशितुलाऽधराप्रमाणे,
चैत्रे सिते शुभतरोत्सवपूर्णिमायाम् । यात्रा विधाय मुनिभिः सह शुद्धभावं ,
स्तोत्रं व्यधायि यमिनाऽजितसागरेण ।। १०॥
श्रीमदर्बुदाचलजिनेशस्तोत्रम् ॥ ३ ॥
___ ( वसन्ततिलकावृत्तम् ) भक्तातिनाशनकरं विशदप्रभावं,
भक्ताऽमराऽसुरनरेन्द्रनतक्रमाजम् । संसारसिन्धुतरणोत्तमपोतकल्पं,
श्रीअर्बुदाचललसद्वृषभं स्तवीमि ध्यानस्थितं मुनिवरा वचनं त्वदीयं,
हगोचरं प्रविदधुः समशीलवन्तः । ते मोक्षसिदिवशगा वशिनो बभूवुः,
श्रीअर्बुदाचललसवृषभं स्तवीमि ॥२॥
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(५५) विघ्नानि यान्ति विततानि तव प्रभावा
नाशं विभो ! जगदनन्यहिताऽनुबन्धिन् ! । सर्वार्थदाननिपुणो न विभुस्त्वदन्यः,
श्रीअर्बुदाचललसवृषमं स्तवीमि ॥३॥ स्तोत्रप्रिया नरगणा भवशान्तिकारं,
सौम्यं प्रभो ! तव महागुणराशिमाशु । चित्ते विभाव्य भवभीतिपराङ्मुखाः स्युः, __ श्रीअर्बुदाचल लसदवृषभं स्तवीमि ॥४॥ संसारतापविधुराः परिणामसिद्धा
स्तद्धतुरत्र भवतश्चरणाऽनुपातः । कस्त्वत्प्रभावविमुखो गुरुसंगरक्तः,
श्रीअर्बुदाचललसवृषभं स्तवीमि ॥५॥ को बुद्धिमान्विदितभूरिगुणप्रतापं,
स्वन्पाऽणुधामविभवं जुषते विहाय । कालान्तकक्रमगतोऽपि भवान्तकारिन् ?,
श्रीअर्बुदाचललसवृषभं स्तवीमि ॥६॥ भव्या जनास्तव विभो ! शरणं प्रपना
स्तीवा॑ऽपमृत्युमनघाः शिवशर्ममाजः । रेजुः समस्तधरणीधवपूज्यपादाः,
श्रीअर्बुदाचललसवृषभं स्तवीमि ॥७॥
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( ५६ )
आदिप्रभो ! तव पदाऽब्जमहं प्रणम्य, मुक्तोऽस्मि संसृतिभयादखिलात्सुखेन । नातः परं मम भयं भवजातदुःखाअर्बुदाचललसद्वृषभं स्तवीमि ॥ ८ ॥
चोणीतुलाङ्कशशभृन्मितद्दायनेऽलं,
षष्ठ्यां सितेऽर्बुद गिरेः प्रविधाय यात्राम् । स्तोत्रं प्रगीतमिदकं शुभफाल्गुने च
कल्याणदातृगणिनाऽजित सागरेण ॥। ९ ॥
श्रीचारूपतीर्थस्तोत्रम् ॥ ४ ॥
( शार्दूलविक्रीडितवृत्तम् )
मेघश्याममनोहराऽऽकृतिजुषं चक्षुष्मतां शान्तिदं, दातारं विभवान्विचित्रसुखदास्त्रातारमागन्तुकान् । हन्तारं भवभूततापमखिलं भक्तिप्रियोल्लासिनां, चारूपेश्वरपार्श्वनाथमनिशं भक्त्या स्तुवे श्यामलम् ॥१॥
हाटकराजतरत्नभासुरमहाच्यत्रत्रय भ्राजिनं,
नागेन्द्राच्छफणासहस्रविलसन्मौलिप्रभादीपिनम् । केयूरप्रतिबद्ध बाहुयुगलं चेतोहराङ्गप्रभं,
चारूपेश्वर पार्श्वनाथमनिशं भक्त्या स्तुवे श्यामलम् ॥२॥
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(५७ ) कर्माऽरिप्रतिरोधकं गुणगणान्विस्तारयन्तं कमात् ,
संसाराम्बुधितारकं शिवगतिश्रेयाप्रदानक्षमम् । रागद्वेषमहारिवारविजयप्राप्तप्रशस्ति क्षणा
चारूपेश्वरपार्श्वनाथमनिशं भक्त्या स्तुवे श्यामलम् ॥३॥ यत्पादाऽम्बुजसेवनेन मुनयो दीक्षाफलं लेभिरे,
यद्ध्यानं शिवगामुका जनवरा रात्रिन्दिवं कुर्वते । तं तत्त्वार्थविभासकं जिनपति त्रैलोक्यरक्षाकर, __ चारूपेश्वरपार्श्वनाथमनिशं भक्या स्तुवे श्यामलम् ॥४॥ सर्वैः साम्यतया द्विजादिमनुजैर्यस्य प्रभोः सेवितं,
भन्युलासिमनाभिर िवनजं सद्रेखया शोभितम् । सस्याऽसत्यविवेकमित्थमनघा जानन्ति लोकोत्तमा
श्वारूपेश्वरपार्श्वनाथमनिशं भक्त्या स्तुवे श्यामलम् ॥५॥ संप्रेक्ष्य प्रथमां स्वभावमधुरां मृत्तिं जगत्पावनी,
यस्य क्षेमविधायिनी नरगणास्तापत्रयोन्मूलनीम् । संसाराऽर्णवतारिणी निजजनुःसाफल्यमातन्वते, ___ चारूपेश्वरपार्श्वनाथमनिशं भक्त्या स्तुबे श्यामलम् ॥६॥ यत्सेवा शिवसन्तति रचयति क्षेमं तनोति क्षिती,
कीर्ति दिक्षु महोज्वलां तनुजुषां विस्तारयत्यजसा । पेतःप्रापयति प्रसादमतुलं तृष्णां छिनत्तिक्षणा- चारूपेश्वरपार्श्वनाथमनिशं भक्त्या स्तुवे श्यामलम् ॥७॥
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(५८)
सिद्धं यं शरणं प्रपद्य बहवो भव्या भवं भावुका, निर्मथ्य क्लमवर्जिता निजगुणैर्जग्मुः श्रियं शाश्वतीम् । सर्वापत्तृण शिवमितुलं तं तस्थिवांसं हृदि, चारूपेश्वर पार्श्वनाथमनिशं भक्त्या स्तुवे श्यामलम् ||८||
चारूपेश्वर चारुमूर्ति भगवच्छ्री पार्श्वतीर्थेश्वर
स्तोत्रं शान्तिकरं बुधेन रचितं वाचंयमेनाऽद्भुतम् । श्रोतॄणां वसुषण्नवचितिमिते संवत्सरे वक्रमे, मासे भाद्रपदे गुराविदमिह प्रोत्सर्पतां भूतले ॥ ९ ॥
श्रीउपर्यलातीर्थस्तोत्रम् ॥ ५ ॥
( पचामरवृत्तम् )
भवभ्रमान्नितान्तजातपातकारिनाशकं,
ज्वलज्ञ्जगल्लय प्रदाऽशुभाऽनलोत्तमाऽम्बुदम् ।
उपर्यलाख्यपत्तनप्रजामनोऽभिरञ्जकं,
नमामि ते पदाम्बुजद्वयं मुदाऽन्तिम प्रभो ! ॥ १॥
कराल काल भी तिरीतिवारि हारि शर्मदं, पतत्पतङ्गरश्मिराशिहासिकान्तिमण्डलम् । नममराऽभयप्रदं प्रजेशशक्रवन्दितं,
नमामि ते पदाम्बुजद्वयं मुदाऽन्तिमप्रभो ! ॥ २ ॥
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( ५९ )
समानमान मित्रशत्रुसन्तति क्षपाकराचयाऽतिशीतिमाऽऽश्रितं श्रितान्तिकं चराचरैः । ans या तिपावनं नमज्जनाऽमराज्वनं, नमामि ते पदाम्बुजद्वयं मुदाऽन्तिमप्रभो ! || ३॥
नितान्त भावभासुरैः सुरैः खलोकलोकितं, सदाऽधरीकृताऽऽपदाबलीष्टलीलयाऽश्चितम् । शुभोन्नतिप्रकाशकं कदध्वभेदकारकं,
नमामि ते पदाम्बुजद्वयं मुदाऽन्ति मप्रभो ! ||४॥
स्खल ल्लघुप्रमाद मान्द्यहारकौषधं वरं,
विचारसारदानदायि तायि भाविचेतसाम् । विकारकार लोभमान मोहवारि तारकं,
नमामि ते पदाम्बुजद्वयं मुदाऽन्तिम प्रभो ! ॥ ५ ॥
तव क्रमाम्बुजोपमं न विद्यतेऽन्यदक्षयं, परःसहस्रविघ्नघातकारि तीर्थपावकम् । भवाऽटवीभ्रमोऽस्ति तद्विलोकि देहिनां न हि, नमामि ते पदाम्बुजद्वयं मुदाऽन्तिमप्रभो ! ॥ ६ ॥
कथञ्चिदेकभावतोऽपि दृष्टिगोचरीकृतं, त्वदीयपादपङ्कजं जनुर्जराभयापहम् । समुद्भवन्ति मङ्गलान्यलौकिकानि भूस्पृशां,
नमामि ते पदाम्बुजद्वयं मुदाऽन्तिमप्रभो ! ॥ ७ ॥
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(६०) निशान्तमुच्चसंपदा सुदान्तशान्तषट्पदै
निषेवितं प्रभारसोबतश्रियाऽतिशोभितम् । मुभष्यजन्मसार्थकत्वकारकं दयाभृतं,
नमामि ते पदाऽम्बुजद्वयं मुदाऽन्तिमप्रभो ! ॥८॥ बस्वाऽश्वाङ्कमहीमिते शरदि सन्माघेऽथशुक्लाष्टमी
तिथ्यां वीरविभोर्विधाय शुभदा यात्रामुपर्यालके । चक्रे वर्यगणीन्दुनेदमजितक्षीरोदकेन तितौ, कल्याणं विदधातु सर्वभविना मोक्षार्थिनां सन्ततम् ॥९॥
श्रीमातरतीर्थस्तोत्रम् ॥ ६ ॥
( वसन्ततिलकावृत्तम् ) सर्वज्ञ ! मोहरिपुमर्दितजीर्णभावा
स्त्वदर्शनेन विकला भववृद्धिकामाः । मार्ग विहाय विधुरा विपथं प्रयान्ति,
ध्यायामि मातरपुरस्थितसत्यदेवम् ॥ १ ॥ कामार्थिनः सुखधिया वनवीथिकासु,
भ्रान्त्वा परार्थविवशा विपदं भजन्ति । त्वत्पादपङ्कजगताः सुखिनो भवन्ति, ध्यायामि मातरपुरस्थितसत्यदेवम् ॥ २॥
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( ६१ )
देवाधिदेवपदवी सुलभा नतानां, त्वत्पादवारिजयुगे जगदेकनाथ ! | सर्वामयाश्च विनतान्हि परित्यजन्ति, ध्यायामि मातरपुर स्थितसत्यदेवम् ॥ ३ ॥
मोक्षार्थिनोऽपि तव दृष्टिपथप्रयातास्ती मृर्ति शिवसमृद्धिमनुव्रजन्ति । किं किं न साधयति नेत्रलता त्वदीया, ध्यायामि मातरपुर स्थितसत्यदेवम् ॥ ४ ॥ कल्पद्रुमस्तु भवसौख्यविधानदच
स्त्वच्चिन्तनं पुनरलौकिकशर्मदा यि । तस्माच्वदीयतुलनां न भजन्ति केऽपि,
ध्यायामि मातरपुरस्थित सत्यदेवम् ॥ ५ ॥ सत्यस्त्वया निगदितोऽतिविशुद्धधर्मः,
सत्यं त्वदीयमखिलं भुवि सच्चरित्रम् | सत्यस्वरूप भगवँस्तव सत्यवः,
ध्यायामि मातरपुरस्थित सत्यदेवम् ॥ ६ ॥
सन्तः समाधितधियः सततं स्मरन्ति, स्वन्मूर्त्तिमुन्नतिकरीं भवशान्तिहेतोः । तस्मादनन्यशरणं त्वमसि प्रजानां
ध्यायामि मातरपुर स्थित सत्यदेवम् ॥ ७ ॥
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( )
मायाविनो हि बहवो मुवि देवलोका, श्राश्रित्य तान्नरवराश्रयुतधर्मकृत्याः । सत्यार्थिनस्तव मतं प्रसमदिय जाता, ध्यायामि मातरपुरस्थितसत्यदेवम् ॥ ८ ॥
संवत्सरेऽष्टरसनागघराप्रमाणे,
यात्रां विधाय वरमातृपुराधिमर्त्तुः । वाचंयमोऽजितसमुद्र इदं पवित्रं,
स्तोत्रं मघौ सितदले प्रतिपद्यवोचत् ॥ ९ ॥
श्रीशेरीशातीर्थस्तोत्रम् ॥ ७ ॥
( शार्दूलविक्रीडितवृत्तम् )
यः संसारसुखं तृणाङ्कुरसमं संभावयचेतसि, चिन्तारत्नसमं चरित्रमनघं त्रैलोक्यरचाचमम् । स्वीकृत्याऽक्षयबोधिदानमदिशत्सर्वज्ञ सर्वोपमः, शेरीशाभिधपत्तनाधित्रसनं पार्श्वप्रभुं नौमि तम् ॥ १ ॥
पूजा यस्य विभोः कृता शुभततिं विस्तारयत्यञ्जसा, सलक्ष्मीं विभवोचितां वितरति ध्वस्तार्थितृष्णाभ्रमाम् । श्रधिव्याधिपरंपरां विघटयत्यत्यन्त दुःखोदधिं, शेरीशाभिधपत्तनाधिवसनं पाश्वप्रभुं नौमि तम् ॥ २ ॥
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यद्दष्टिक्षण प्रातनोति विविधां माङ्गल्यहारावली,
सद्बोधं दिशति प्रियं प्रथयति त्रैलोक्यरक्षावहम् । मानं मईयति क्षणाजनयते सौजन्यजन्यं यशः,
शेरीशाभिधपत्तनाधिवसनं पाचप्रभुं नौमि तम् ॥३॥ पक्ष्यानं विधुनोति पूर्वनिचितारिष्टाऽष्टकर्माऽऽवली,
कैवल्यं कलयन्त्यमन्दमुनयो यद्ध्यानतेजःश्रिताः। तेनैवोच्चगतिं श्रयन्ति विबुधा नित्योत्सुका योगिनः,
शेरीशाभिधपत्तनाधिवसनं पार्श्वप्रभु नौमि तम् ॥४॥ यन्मूर्तिहृदि धारिता भवभवां पीडां समुन्मूलय
त्यानन्दं जनतापहं नवनवं स्थाणूकरोत्यात्मनि । कौशन्यं प्रकटीकरोति विमदं सर्वार्थसिद्धिप्रदं,
शेरीशाभिधपत्तनाधिवसनं पार्श्वप्रभु नौमि तम् ॥५॥ यत्पूजास्नपनेन विघ्नविततिर्याति क्षयं सर्वथा,
पश्चेषुः क्षयतां व्रजत्यनुदिनं शाम्यन्ति घोरारयः । कुष्ठादिप्रचुरायोऽपि निखिला नश्यन्त्यरक्ता इव,
शेरीशामिधपत्तनाधिवसनं पार्श्वप्रभुं नौमि तम् ॥६॥ यन्मूर्धस्थितवायुभोजनफणासन्तानसंदर्शनाद् , __ भीताऽऽखुक्षयकुद्गणः परवशः संयाति देशान्तरम् । आपत्तिप्रभवे सति क्षणमपि स्थानं भजेको हित
छरीशामिधपत्तनाधिवसनं पाचप्रभु नौमि तम् ॥७॥
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(६४) संसारोदधिपोतमक्षयकरं संसेव्य चारित्रक,
शस्थानन्तगुणाऽऽकरं भवभय-च्छेत्तारमिष्टप्रदम् । सर्वत्राऽभयदानदक्षमखिलत्रस्ताङ्गिनां त्रायक,
शेरीशाऽभिधपत्तनाधिवसनं पार्थप्रभुं नौमि तम् ॥८॥ खाऽष्टाङ्कक्षिति संमिताऽद्धमधुगे शुद्धाऽष्टमीवासरे,
शेरीशाऽधिपपार्श्वनाथचरणः कृत्वा नतिं भावतः। स्तोत्रं भव्यमिदं चकार भविनामालम्बनं भूतले,
सूरीन्द्रोऽजितसागरश्चिरतरं चैतक्षितौ राजताम् ॥९॥
श्रीमदगाशितीर्थस्तोत्रम् ॥ ९ ॥
(मन्दाक्रान्तावृत्तम् ) बोभूयन्ते विभवबहुलास्त्वत्प्रभावप्रयुक्ता
जङ्गम्यन्ते जननमरणानिर्भयत्वं गुणज्ञाः । सासद्यन्ते निरुपमवरां मगलानां प्रशस्ति,
नन्नम्ये सु-व्रतमुनिपतेऽगाशिपूर्भासिबिम्बम् ॥१॥ मान्यो यावा-नमितमहिमा तावकीनस्त्रिलोक्यां,
ताकेषा-मभयजनको नैव दृष्टः श्रुतो वा। मन्दायन्ते सुगतिभवने निधनानां (निर्दयानां) मनांसि, नमध्ये सु-व्रतमुनिपतेऽगाशिपूर्भासिबिम्बम् ॥२॥
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( ६५ )
सौम्याकारा सकृदभिगता मूत्तिरग्र्या त्वदीया, तेषां चित्तं कलयति सदा निर्मलं साम्यभावम् । संसाराब्धि - चुलुकवदहो ! जायते चेमकारी, नमम्ये सु-व्रतमुनिपतेऽगाशिपूर्मासिबिम्बम् ॥ ३ ॥ स्वर्गस्थानाः पदमुपगता - देवता उच्चसारं,
तद्धेतुस्त्व-द्भजनमहिमा वर्णितुं नैव शक्यः । सर्वज्ञोक्त-प्रवचनवचः सारियां किं दुरापं ?, नमभ्ये सु-व्रतमुनिपतेऽगाशिपूर्मासिबिम्बम् ||४|| सिद्धी रम्या वरयति जनं त्वत्पदाम्भोजरक्तं,
सौभाग्यत्वं सरति निकटं सर्वदक्षप्रभावम् । विभ्यद्दरे व्रजति विषमं दुर्भगत्वं हि तमा
अनम्ये सु- व्रतमुनिपतेऽगाशिपूर्मासिबिम्बम् ||५|| कन्याणार्थी तब मुखगतो जातसंकल्पकल्पः,
सिद्धे कार्ये विमुखपटुता दृश्यते नैव केषाम् । चित्रन्त्वेतद्भुवनविदित ! त्वत्प्रतापस्य लोके, ननम्ये सु- व्रतमुनिपतेऽगाशिपूर्मासिविम्बम् ||६|| जाग्रचेज - स्तति रतिकरं भ्रान्तिशान्तिप्रदायि, जन्तूद्वेग श्रमभयहरं पूरिताशाप्रपञ्चम् । मानूद्योतं विरचयदलं वृद्धिभावं वरेण्यं, नन्नम्ये सु- व्रतमुनिपतेऽगाशिपूर्मासिबिम्बम् ॥ ७ ॥
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( ६६ ) संसारान्त:-प्रथनविभवं धारयत्कान्तिकान्तं,
भक्त्याऽधीनं परमकरुणं स्वच्छताशालिशीलम् । शश्वच्छान्ति-प्रथितविमलाकारमाराधनीयं,
ननम्ये सु-व्रतमुनिपतेऽगाशिपूर्भासिबिम्बम् ॥८॥ मार्गे मासे रसरसनिधिक्ष्मामिते वैक्रमाब्देऽ
गाशिग्रामाऽधिपमुनिपतेः सुव्रतस्यात्रियुग्मम् । नत्वा भूयोऽजितजलनिधिर्वाचकः स्तोत्रमेत
चक्रे शान्त्य जननमरणोद्वेजितानां जनानाम् ॥९॥
श्रीझघडियातीर्थस्तोत्रम् ॥ ९ ॥
( वसन्ततिलकावृत्तम् ) श्रीमत्पदाम्बुजलुठद्भवभीरुवृन्दैः,
संनादितं प्रवरसम यदीयमच्छम् । देशान्तराऽऽगतसुभव्यगणैः प्रकीर्ण
मादीश्वरं झगडियाऽधिपति तमीडे ॥१॥ भूत्या प्रसत्रमनसो विधिवद्यदायां,
पूजां प्रफुल्लकुसुमोत्करतो विधाय । प्रवीणवित्तविभवाः सुरलोकपूज्या
प्रादीश्वरं झपडियाऽधिपति तमीडे ॥२॥
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(६७) दीव्यद्धिसिद्धिसमलङ्कतचारुचैत्यं,
विभ्राजते प्रखरघण्टनिनादघुष्टम् । यस्य प्रधानपुरुषोपचिताऽन्तराल
मादीश्वरं अघडियाधिपति तमीडे ।। ३॥ देवाऽसुरेन्द्रनरनायकवन्दिताऽति,
सद्भक्तिभावितजनार्चितदीव्यमूर्तिम् । हृद्गोचरीकृतमलं समतां वहद्भि
रादीश्वरं झघडियाऽधिपति तमीडे ॥४॥ संसारकूपपततां सुदृढं विशाल
मालंबनं सुहिततत्वविवेचितारम् । रागाऽन्धिताऽक्षमनुजोष्णकरोपमान
मादीश्वरं झपडियाधिपतिं तमीडे ॥५॥ संतारकं निजपदाऽज्जनतप्रजानां,
भास्वचराऽचरगणं प्रविलोकितारम् । सृष्टारमक्षयदयाश्चितधर्मबोध
मादीश्वरं झघडियाऽधिपतिं तमीडे ॥ ६ ॥ नुमो नयेन विनयोज्झितदेहिवर्गः, __ संस्थापितो गुणिगणः सुदयाप्रधानः । संबोधितो जगति येन कलाकलाप
भादीश्वरं झपडियाधिपति तमीडे ॥ ७ ॥
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( ६८ )
को नाम यस्य महिमानमनन्तगेयं, विस्तारतः कथयितुं विभुरस्ति लोके । लोकत्रयप्रथितकीर्त्तिवितानकं तमादीश्वरं झघडियाधिपतिं स्तुवेऽहम् ॥ ८ ॥
संवत्सरे निधिरसाङ्कशशाङ्कसंज्ञे, ( १६६६ ) चैत्रासितप्रतिपदि स्तुतिमाततान । सूरीश्वरो झघडियाssदिजिनेश्वरस्य, श्रेयःप्रदामजितसागर इष्टसिद्धिः ॥ ९ ॥
( २ ) श्रीझ घडियातीर्थस्तोत्रमपरम् ॥ १० ॥ ( मन्दाक्रान्तावृत्तम् )
यो विश्वेषा-ममयजनकः सत्यवाणीविलासोयः सच्वानां विधुरमखिलं नाशयत्यात्मभावात् । यः पारोदयं परगतमजो-ध्यात एव च्छिनत्ति, प्रादीशं तं वरझघडिया - भूषणं नौमि नित्यम् ॥ १ ॥
सद्यः शान्ति - र्भवति मनना - द्यद्विभूतेर्जनानामात्माऽऽनन्दः प्रभवति परो- त्कर्षतादानदचः । बाह्यो भाव- स्त्यजति हृदयं शुद्धशान्तस्वरूपमादीशं तं वरझघडिया-भूषणं नौमि नित्यम् ॥ २॥
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( ६९ )
सोपानाssa - विलसति महा - चैत्यसंबन्धिनी या, तामाश्रित्या-ऽक्षयसुखगता जीवलोका (भव्यजीवा) भवन्ति । मूर्ति यस्य प्रवरविभया भ्राजमानां विलोक्य, श्रादशं तं वरझघडिया- भूषणं नौमि नित्यम् ॥ ३॥
मूर्ति यावत्तव विषहरां शुद्धधर्मानुरक्तानो वीक्षन्ते परजनकृपा- कांक्षिणो वीतमोहाः । पापच्यन्ते भयदभुवने तावदक्षीणपापा
श्रीशं तं वरझघडिया-भूषणं नौमि नित्यम् ॥ ४ ॥ मोक्षाssकांचा गतभवभया सिद्ध्यति त्वत्प्रणामा - हुःप्राप्योऽसौ परमभिभवा-दुष्टकर्मारिमूलाद् । सिद्धिः साध्या गुरुमुखतया सर्वथा मानवानामादीशं तं वरझघडिया-भूषणं नौमि नित्यम् ॥ ५ ॥ यस्याऽधीनं जगति विशदो- द्वारकं धर्मवर्त्म,
यस्याऽधीनं जगदभिमतं शर्म्मसन्तानमिद्धम् । यस्याधीनं कलिगुणगणो-द्भेदकं मुख्यतत्त्व
मादीशं तं वरझघडिया-भूषणं नौमि नित्यम् ॥ ६ ॥
पारावारे जननमरण - क्लेशवित्तं भवेऽस्मिन्,
खिद्यन्तस्त्व-चरणवनभू-नावमासाद्य सद्यः । तीरोत्तीर्णाः सुखमनुभवन्तो न खिन्नाः परत्र, . आदीशं तं वरझघडिया - भूषणं नौमि नित्यम् ॥ ७ ॥
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( ७० )
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हृये तवे परिणतमति-स्तावकीने महीने, भव्यो नव्योऽनवरतमसौ संसृतेर्याति पारम् । स्मारं स्मारं हृदि तव पदं ध्यानमग्ना जनास्तदादशं तं वरझघडिया - भूषणं नौमि नित्यम् ॥ ८ ॥ नामेः सूनोर्वरज्ञघडियाभूषणस्य क्रमाब्ज,
नत्वा भूयो रसरसनिधिमामिते (१९६६) वैक्रमान्दे । माघे शुद्धे प्रतिपदि तिथौ स्तोत्रमेतत्ततान, शुद्धस्वान्तोऽजितजलनिधिर्दीव्यलक्ष्म्या निदानम् ॥९॥
श्रीमदिलादुर्गतीर्थस्तोत्रम् ॥ ११ ॥
( शिखरिणीवृत्तम् ) महोत्तुङ्गस्थान-स्थितशशधराऽऽदिग्रहगणैमहापूज्याद्भावात्सविधमनुयातैरिव सदा । निजभ्रान्तिच्दिन्यै, समुपचरिते चित्रविभवे,
इलादुर्गे दुर्गे, जयति जिनतीर्थं जयकरम् प्रकृष्टोच्चैस्तुङ्गो - रामगुणगणा शृङ्गवितति
र्नृणां दूरस्थाना-मपि हरति चेतो गुरुरिव । यदीया धर्मार्थ - प्रकटनपरा भूरिविभवा,
इलादुर्गे दुर्गे, जयति जिनतीर्थं जयकरम्
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॥ १ ॥
॥ २ ॥
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(५)
प्रभावजैः पूज्यै-मुनिवरचयैर्नादितगुहा__ महातत्वज्ञान-प्रथनपटुतामूलगुरवः । विलोक्यन्ते यस्मि-चिरतरमध्या बहुविधा
इलादुर्गे दुर्गे, जयति जिनतीर्थ जयकरम् ॥ ३ ॥ सुसम्यक्त्वोपेता-न्यपरशुभतीर्थानि विपुला
न्यहो राजन्तेऽस्मिन् , विमलमतिदानकनिपुणे । क्रमात्पुंसां नित्यं, गमनपरिपाटी कृतवता
मिलादुर्गे दुर्गे, जयति जिनतीर्थ जयकरम् ॥४॥ ज्वलत्कान्तिवाता-अनवमगुणा औषधिगणा
विकासन्तेऽजसं, शमिततपनाऽऽतापितजनाः । तमस्विन्यां यस्मि-न्मणिमयसुदीपा इव सदा,
इलादुर्गे दुर्गे, जयति जिनतीर्थ जयकरम् ।।५।। सर श्रेणी शश्व-द्विमलजलपूर्णा प्रतिपदम् ,
सुधासारश्च्युत्वा, शशधरसकाशास्थित इव । गरुत्मन्तो यस्मि-न्मधुरस्टनानन्दजनका--
इलादुर्गे दुर्गे, जयति जिनतीर्थ जयकरम् ॥६॥ यदीयां सवृद्धिं, निजपटुतया को न विबुधः,
शिरो धुन्वन्शंसे, जितविबुधराजोपवनिकाम् । मृगेन्द्रा अप्यस्मिन् , बहुसुखतया सन्ति बडुलाइलादुर्गे दुर्गे, जयति जिनतीर्थ जयकरम् ॥ ७॥
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(७२) मृगाः सौम्याकारा-स्तुणजलमतानन्दविभवा
भ्रमन्त्यक्षुब्धास्ते, प्रभुपदप्तमीक्षापटुधियः । यथाकालं सर्वो-निजहितकरः को न भवति, इलादुर्गे दुर्गे, जयति जिनतीर्थ जयकरम् ॥ ८ ॥
(भुजंगप्रयातवृत्तम् ) सदाक्रान्तशान्ति महामारिशान्ति,
प्रजाशान्तिदं शान्तवैरिप्रभावम् । महाक्रोधचण्डारिशान्तिप्रतान
मिलादुर्गसंस्थं स्तुवे शान्तिनाथम् ॥९॥ कलौ शान्तिदानप्रदं शान्तमृत्ति,
सदा देवदेवाधिपैः स्तुत्यकीर्तिम् । गुणान्यस्य वक्तुं न शक्तोऽपि जीव
इलादुर्गसंस्थं स्तुवे शान्तिनाथम् ॥१०॥ शशी तिग्मरश्मिः समेतौ किमत्र, __ यदीयाऽवतंसच्छलेन स्वभावात् । प्रभोर्दर्शनाऽऽकांक्षयोद्भूतमोदा
विलादुर्गसंस्थं स्तुवे शान्तिनाथम् ॥११ ।' विभोर्भालपट्टस्थितं शुद्धरत्न
मनध्य सदोद्योतयद्धाम सर्वम् ।
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(७३) प्रदीपौ प्रकुर्वद्विभावर्जितौ द्रा
गिलादुर्गसंस्थं स्तुवे शान्तिनाथम् ॥ १२ ॥ विशाला विभोः शुद्धपद्मासनस्था,
सुमूर्तिः सुरूपा प्रमाणप्रसिद्धा । मनोहारिणी स्वागतानां नराणामिलादुर्गसंस्थं स्तुवे शान्तिनाथम् ॥ १३ ॥
जना भाविनो भक्तिसंभारवन्तः,
समेत्याऽत्र दुष्कर्मभीतिं त्यजन्ति । सुकर्मार्जयित्वा लभन्तेऽमरत्वमिलादुर्गसंस्थं स्तुवे शान्तिनाथम् ॥१४॥
प्रभो ! शान्तिनाथ ! त्वमेवाऽसि लोक
त्रयाऽधीशिता दुःखहर्ता जनानाम् । भवे त्रायको विद्यते कोऽपि नाऽन्य
इलादुर्गसंस्थं स्तुवे शान्तिनाथम् ॥१५॥
अहं दर्शनाते विभो । जातकृत्यः,
स्मरामि त्वदीयं पदद्वन्द्वमीड्यम् । सदा प्रार्थितार्थप्रदातारमीशमिलादुर्गसंस्थं स्तुवे शान्तिनाथम् ॥ १६ ॥
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( ७४ )
( उपजातिवृत्तम् )
चौलुक्य वंशाऽम्बरभानुमाली, सम्यक्त्वशाली सुकृतैकभागी । न्यायप्रधानो जितमोहमानो-जितेन्द्रियः सर्वत एष मान्यः ॥ १७ ॥
नराऽमरेन्द्रस्पृहणीयशीलः, कुमारपालः चितिपालमुख्यः । शशास भूमण्डलमेकवीरः शचीपतिर्दीव्यभुवं यथैव ॥ १८ ॥ निर्मापितस्तेन वरेण्यवर्णः, श्रीशान्तिनाथस्य महाविहारः ! प्राक्पुण्यभाराऽर्जितशुद्धकीर्त्ति व्रजः स्थितोरम्य इवाऽतिभाति ।।
इयद्दरक्षोणिधरोविभूषां, श्रीशान्तिनाथालयतो विशेषात् । चकास्ति संप्राप्य धराधराणां, राजेव चूडामणितां प्रपन्नः || द्विपञ्चसंख्याप्रमितानि जैन- चैत्यानि रेजुः परितः प्रधानम् । श्री शान्तिगेहं जितना शोभं, तारागणस्था शशिमण्डलीच ॥ कुमारपालेन विनिर्मितः खर तराSSख्य गच्छस्य जिनालयोऽयम् पट्टावलीले खतएव शान्तिदो - निश्चीयते निर्मलतानिदानम् ॥ २२ ॥ श्रीवीर तो बाण वसु द्विवर्षे ( २८५), बभूविवान् संप्रतिभूमिपालः । व्यभूषय द्यो धरणीं जिनालयैः, सहस्रसंख्यैरतुलप्रभाधरैः | २३ | बिम्बानि तेनैव सहस्ररश्मि- तेजोभिभावीनि विधापितानि । विलोकयन्संप्रति भव्य लोक स्तनोति सम्यक् शिवसंपदं स्राक् ॥ इलादिदुर्गेऽत्र विधापितोऽसौ श्री शान्तिवासः चितिपेन तेन ।
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( ७५ ) इत्थं पुरावृत्तविदो बदन्ति, प्रमाणमेतत्सुधिया विलोक्यम् ॥२५॥ इयहरं प्राक्तनमेव पत्तनं, जिनालयश्रेणिविराजमानम् । चकास्ति सम्यक्त्वविमासिचेत:-श्राद्धा वसन्त्यत्र सुनीतिभाजः
( शार्दूलविक्रीडितवृत्तम् ) बोगद्वीपरसोराऽभिकलिते (१९७५) संवत्सरे वैक्रमे, जीर्णोद्धार इलानगेऽस्य विहित-श्चैत्यस्य शान्तिप्रभोः । श्रीसंघेन जिनोक्ततत्त्वपटुना, सर्वद्धिदानादिना,
दुष्कर्मारितणाऽनलः सुखकरः, स्वर्गाऽपवर्गप्रदः ॥ २७ ॥ राष्ट्रोडाऽन्वयवारिजोष्ण किरणः, सन्न्यायनिष्णातधीजीर्णोद्धारविधानकोच्चहृदय-स्तच्चाऽर्थवेदिप्रियः । दीनानुद्धरयनजस्रविभवः, कन्पद्रुकल्पोपमः,
श्रीमत्सिहप्रतापभूमिरमणो-ऽशासीत्प्रजामीडरे !! २८ ।। श्रीमदोलतसिंहभूपतिसहायनान शान्तिप्रभो
श्चैत्योद्धारमचीकरच्छुभमतिः श्रीजैनसंघः समः । वैहिद्वीपनिधिक्षमापरिमिते संवत्सरे वैक्रमे,
नानापत्तनरैव्ययेन महता श्रीहेमचन्द्राऽनुगः ॥ २९ ॥ संबच्छम्भुविलोचनर्षिनिधिभूसंज्ञे शुचौ (१९७३) शोभने, श्रीमच्छान्तिजिनेन्द्रमूर्तिमनपामानम्य शुद्धात्मना।
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(७६ ) चक्रे वाचकपुङ्गवोऽजितसुधासिन्धुस्तवं शान्तिदमेतत्सत्त्वहिताय दुर्गममहादुर्गस्थतीर्थेशितुः ॥ ३० ॥
श्रीपञ्चासरपार्श्वनाथस्तोत्रम् ॥ १२ ॥
( शार्दूलविक्रीडितवृत्तम् ) यद्भासा प्रविभाति तिग्मकिरणो-लासिप्रभाक्षामता,
तायिन्या जगतीतलं तलमिवा-ऽऽदीयकं कम्रया । प्राचीनोर्जितकर्मजातविविध-व्याध्यन्धकाराऽपहं, श्रीपञ्चासरपार्श्वनाथचरणा-ऽम्भोजद्वयं नौम्यहम् ॥१॥
धर्माऽऽरामकलाकलाधरनिभं भावाऽयवृन्दाऽदरं,
राकेशक्षतिदं सुदन्तसुषमोल्लासवदीयाऽऽननम् । लक्ष्यीकृत्य दिगन्तकीर्तिममला संयाति दीव्यप्रभं,
श्रीपञ्चासरपार्श्वनाथचरणा-ऽम्भोजद्वयं नौम्यहम् ॥ २॥ संसारोतिरन्तिमा गुणजुषा, यद् ध्यानतो जायते, दुष्टान्यष्ट लयं व्रजन्ति सुधियां, रौद्राणि कर्माणि च ।
संपत्तिः सुलभा नराऽमरगण-श्लाघ्या स्वना नृणां, श्रीपञ्चासरपार्श्वनाथचरणा-ऽम्भोजड्यं नौम्यहम् ॥३॥
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(७७) पापं वारयति क्षमा जनयति, क्षेमं करोत्यञ्जसा,
दारियं दलयत्यलं वितनुते, कीर्ति परां शाश्वतीम् । सन्तोष वितरत्यथाऽपि यदनु-ध्यानं विधत्तेऽक्षयं, श्रीपश्चासरपार्श्वनाथचरणा-ऽम्भोजद्वयं नौम्यहम् । ४॥ यक्षेत्रप्रवलप्रभा शमयति, क्षोभं कुवादोद्भवं.
नैरुज्यं नितरां तनोति, सुमदं, संपादयत्यात्मनि । दुवोरां दल यत्यनङ्गसुभट-प्रोद्दामभीति सदा,
श्रीपश्चासरपार्श्वनाथचरणा-ऽम्भोजद्वयं नौम्यहम् ॥ ५ ॥ यत्पुण्योपचितं नराऽमरगणाऽधीशै-मुंदा वन्दितं, मिथ्यामोहतमोनुवासितधियां, तथ्यस्वरूपोष्णगुम् । सीरं सारतरं दुरन्तविषमा-पत्तिक्षमादारणे,
श्रीपश्वासरयाश्वनाथचरणा-ऽम्भोजद्वयं नौम्यहम् ॥ ६ ॥ भीतिर्भूतगताऽन्यचक्रजनिता, लुप्ताऽऽस्पदा लक्ष्यते,
क्षत्रातङ्कगणान्तकारिविभुना, स्नात्राऽम्बुना चारुणा । यस्याऽमन्दसुभक्तिभासुरसुर-क्षोणीन्द्रसंपूजितं,
श्रीपश्वासरपाश्वनाथचरणा-ऽम्भोजद्वयं नौम्यहम् ॥ ७॥ दुराः कमठादिमिविरचिता-नैकोपसर्गाः क्षयं,
भेजुर्यस्य तमोऽपहारितपसा, ताम्यजनाऽऽतायिना । दीच्यौर्वादिकतापतापितजनाऽऽ-नन्दप्रदानोचितं, श्रीपश्चासरपार्श्वनाथचरणा-ऽम्भोजद्वयं नौम्यहम् ॥८॥
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(७४) श्रीमत्पदृणपत्तनेऽधिवसति, सौभाग्यसाराऽऽस्पदं,
यः पार्थाऽधिपतिः करोति जनता-भावोन्नतिप्रापकः। तस्येदं भवभीतिहारि मनुजो-या कीर्तयेदष्टकं, निर्वृत्तिं समुपैति सोऽतिरभसा, निर्मानमारार्तिकः ॥ ९ ॥ श्रीपञ्चासरपार्श्वनाथनमनं प्रीत्या प्रकुर्वन्मुहु
राकाशर्षिनिधिक्षपाकरमिते ( १९७० ) संवत्सरे वैकमे । मासे फान्गुनके सिते प्रतिपदि स्तोत्रं तिथावेतक, दीव्याभोऽजितसागरः श्रुतधरो वाचंयमो निर्ममे ॥१०॥
श्रीयुगादीश्वरजिनस्तवनम् ॥ १३ ॥
(शार्दूलविक्रीडितवृत्तम् ) आत्मानन्दविलासमनमनसं शुद्धस्वरूपात्मकं,
संसाराऽम्बुधिलङ्घने प्रवहणं कल्याणमालाऽङ्कितम् । दुष्कर्मेद्रमपावकं शुभमति-प्रोद्दीपने दीपकं,
वन्देऽहं प्रभुमादिनाथमनिशं त्रैलोक्यरचाकरम् ।। १ ॥ गार्हस्थ्ये सकलाः कलाश्च विशदं शिल्पं बभाषे समं,
कैवल्यं प्रतिपद्य यः क्रमतया 'विस्तारयामासिवान् । तच्चानि प्रथितानि दीव्यमहिमा धणि धर्मिप्रियो
वन्दे तं प्रभुमादिनाथमनिशं त्रैलोक्यरचाकरम् ॥ २॥
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(७१) लोकानामुपकारकर्मनिरतो ज्ञानेन नैर्मन्यमान,
सिद्धान्तेषु महत्सु लब्धमहिमा सर्वेषु सिद्धक्रियः । वेदेषु प्रथितश्च चित्रचरितः ख्यातः पुराणेष्वपि, __ श्रीमानादिजिनेश्वरो दिशतु वःश्रेयस्ततिं शोमनाम ॥३॥ भक्तानामभयङ्करं जितभयं नाऽन्तादिमध्यक्रियं,
हर्तारं दुरितस्य शान्तिकलितं लीलागृहं संपदाम् । नाभिक्षमापतिवंशमस्तकमणिं सम्यग् रमाराजितं,
वन्देऽहं प्रभुमादिनाथमनिशं त्रैलोक्यरचाकरम् ॥ ४ ॥ सर्वोपद्रवपनगप्रमथने नागान्तकोऽनन्तकः,
सौवर्णोपमवर्णका शुभमहोक्षाऽङ्कन विभाजितः । श्रेयः सन्ततिगुल्मिनीजलधरो धर्मापगाधिरः,
श्रीमानादिजिनेश्वरोऽजितनतः पायादपायाजनान्॥५॥
श्रीसंखेश्वरपार्श्वनाथचैत्यवन्दनम् ॥१४॥
( शार्दूलवि० वृ० ) कीर्तिर्यस्य विराजतेऽतिविमला गौडीपुरे पूर्वरे,
तीर्थस्तम्भनके च लोद्रवपुरे वाराणसीपत्तने । जीरावल्यमिधानके सुविदिते तीर्थेऽतिरम्यद्धिके,
श्रीसंखेश्वरपार्श्वनाथमनिशं वन्दे तमिष्टप्रदम् ॥१॥
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( ८० )
इष्टार्थप्रतिपादनेऽमरतरुं सिद्धान्ततच्चाऽऽलयं,
श्री वामातनुजं सुरासुरगणैर्वन्द्यं सदा भावतः । स्वर्गे भूमितले च नागवसतौ ख्यातप्रभावं प्रभुं
श्रीसंखेश्वर पार्श्वनाथमनिशं वन्देऽक्षयार्थप्रदम् ॥ २ ॥ दुर्भेद्यानि विभिद्य बोधपविना कर्माणि यो मूलतः,
प्राप्याऽनन्तफलं चिरत्नमतुलं ज्ञानाऽऽख्यरत्नं विभुः । लेभे निर्वृतिसौख्यमात्महितदं स्वानन्दिताऽऽत्मा स्वयं, श्री संखेश्वर पार्श्वनाथमनिशं वन्दे तमिष्टप्रदम् ॥ ३॥ त्रैलोक्याऽधिपतिं पवित्रवपुषं लोकत्रयोद्धारकं,
पापानामविलोकनीयमनिशं मुक्तिप्रियाऽऽलिङ्गितम् । श्रम्भोजाक्षियुगं प्रसन्नवदनं स्वच्छद्विजालिप्रभं,
श्रीसंखेश्वर पार्श्वनाथमनिशं वन्देऽक्षयाऽर्थप्रदम् ॥ ४ ॥ अधिदीप भुजेङ्गभू (१९७४) परिमिते संवत्सरे वैक्रमे,
मासे माधव उत्तमेऽसितदले यद्दर्शनं पावनम् । प्राप्तं पुण्यवतां सदैव सुलभं दुष्प्रापमन्याङ्गिनां, श्रीसंखेश्वरपार्श्वनाथ मजिताऽऽनन्दप्रदं नौम्यहम् ॥५
श्रीसिद्धचक्र चैत्यवन्दनम् ॥ १५ ॥
( शार्दूलवि० वृ० )
आराध्यं जिनपुङ्गवं गतमदं शक्रादिसंपूजितं, सज्ज्ञानादिगुणैक रत्न निलयं निर्दोषसन्मानसम्
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( ८१ )
ज्ञानाऽसिक्षत कर्मजालममलं मुक्तिप्रियाऽऽलिङ्गितं, सम्पूर्णार्थमहं नमामि शिवदं सिद्धं च बुद्धं सदा ॥ १ ॥ गच्छाऽधीश मनेक सद्गुणमयं सौम्यं गणानां पतिं, वन्देऽहं वरवाचकं श्रुतधरं चान्त्यादिधर्मप्रियम् । मित्राऽमित्रसमान दृष्टिमखिलां चारित्रिणां मालिकां, निर्वाणाssस्पदसाधनोद्यतमतिं भूमण्डले चाऽन्वहम् ॥ २
श्रीसर्वज्ञ गणप्रदिष्टमनघं ज्ञानं पवित्रं परं,
तत्वार्थप्रतिपादने च कुशलं सद्दर्शनं सौख्यदम् । विच्छिन्नाऽऽस्रवकर्म गुप्तिसमिति क्षेमं च चारित्रकं, दुष्कर्मेन्धनदाहदक्षमतुलं प्रीत्याऽऽश्रये सत्तपः ॥ ३ ॥
पापौघप्रलये हुताशनसमं माङ्गन्यमालाप्रदं,
त्रैलोक्ये परमोपकारकरणे तच्त्रं परं सद्गुरुम् । भावाssपत्तिविदारकं गुणवतां शुद्धेः परं कारणं, वन्दे मोचसुखस्य कारणमिमं जन्मादिदुःखाऽपहम् ॥४॥
भव्याऽब्जप्रतिबोधने दिनमा संसार सिन्धुप्लवं, चिन्तारत्नसुरद्रुमादधिगुणं सद्भाव संवर्द्धकम् । श्राराध्यं नवकाररूपमनघं तच्वत्रयोद्दीपकं, वन्देऽहं नितरां सुखैकसदनं श्रीसिद्धचक्रं मुदा ॥ ५॥
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( ८२ )
श्रीपर्युषणपर्वस्तुतिः । पर्वण्युत्तमसिद्धिधामनि जनाः ? पूजां प्रभोर्भावतः, संप्राप्तेष्टविधां शुभां रचयत स्नात्रोत्सवं सोत्सवम् । श्रीमद्वारजिनेश्वरस्य कृतिनः सत्पुण्यसम्पत्तिदां, येनैवाऽत्र परत्र शर्म निखिलं संप्राप्यते निर्भयम् ॥१॥ आराध्याऽतिविशुद्धिदं क्षतिकरं भव्यं तपःकर्मणां, सर्वज्ञाः सकला वराम्बुजचयैः पूज्याः प्रमोदाऽऽस्पदाः । श्रोतव्यं चरितं तदीयमतुलं दीव्यप्रभावं जनरस्मिन् पर्वणि येन ते जनिमतां कल्याणमालाप्रदाः ॥२॥ कृत्वा शर्मनिधानकं भविजनैः षष्ठाटमाऽऽख्यं तपोऽ
मारीघोषणकं विधेयमिह वै पर्वण्यमुष्मिन् शुभे । ध्यातव्यानि शुभं च पञ्च सुधिया कल्याणकानि व्रतं,
बाध्यः श्रीयुतगौतमादिगणभृद्वादस्तथाऽईदिर ।। ३॥ कम्पाख्यं मुनिभिः प्रवाचितमिह श्राव्यं त्रिधा देहिनः,
सूत्रं मूलमनर्थहारि सकलाः क्षाम्यास्त्रिरत्नान्वितम् । पूजा संघजनस्य चैत्यनिकरे यात्रा च कार्या मुदा, सङ्के त्वं सकले शुभे ! वितनुतात् सिद्धायिके ! सम्पदम् ॥४
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(१) श्रीऋषभदेवजिनस्तुतिः।
( वसन्ततिलकावृत्तम् ) भक्ताऽमरप्रणतमौलिमणिप्रभाणा___ मुद्दीपकं जिन ! पदाम्बुजयामलं ते । स्तोष्ये मुदाऽहमनिशं किल मारुदेव !
दुष्टाऽष्टकमरिपुमण्डलभित्सुधीर! ॥१॥ श्रीमजिनेश्वरकलापमहं स्तुवेर
मुद्योतकं दलितपापतमोवितानम् । भव्याऽम्बुजाऽऽलिदिननाथनिभं स्तवीमि,
भक्त्या नमस्कृतममर्यनराधिराजै ॥२॥ वयाँ जिनक्षितिपतेत्रिपदीमवाप्य,
गच्छेश्वरैः प्रकटिता किल वाग मुदा या । सम्यक् प्रणम्य जिनपादयुगं युगादा
वेवं शुमार्थनिकरैर्भुवि साऽस्तु लक्ष्म्यै ।।३॥ यश्वरस्तव जिनेश्वर ! गोमुखाह्वः,
सेवा व्यवत्त कुशलक्षितिभृत्पयोदः । त्वत्पादपङ्कजमधुव्रततां दधान
मालम्बनं भवजले पततां जनानाम् ॥ ४ ॥
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(८४) श्रीमहावीरजिनस्तुतिः कल्याणमंदिरमुदारमवद्यभेदि,
दुष्कर्मवारणविदारणपश्चवक्त्रम् । यत्पादपद्मयुगलं प्रणमन्ति शकाः
स्तोष्ये मुदा चरमतीर्थकरं जिनेशम् ॥१॥ क्षीणाष्टकर्मनिकरस्य नमामि नित्यं,
भीताऽभयप्रदमनन्दितमहिपाम् । इष्टार्थमण्डलसुसर्जनदेववृक्ष,
नित्योदयं दलिततीव्रकषायवृन्दम् ॥२॥ जैनागमं दिशतु सर्वसुखैकदारं, __ श्रीनन्दनक्षितिजहव्यहतिप्रकारम् । संसारसागरनिमजदशेषजन्तु
बोहित्थसन्निभमभीष्टदमाशु मुग्धम् ॥३॥ मातङ्गायचरमला प्रकरोति सेवां,
पूर्वान्तमारसमभीप्सितदं विशालम् । उत्पत्तिविस्तरनदीशपतञ्जनानां,
पोतायमानमभिनम्य जिनेश्वरस्य ॥४॥
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(८५) श्रीशान्तिनाथजिनस्तुतिः सकलकुशलवन्लीपुष्करावर्त्तमेघो
मदनसदृशरूपा पूर्णराकेन्दुवक्त्रः । प्रथयतु मृगलक्ष्मा शान्तिनाथो जनानां,
प्रसृतभुवनकीर्तिः कामितं कमेकान्तिः ॥१॥
जिनपतिसमुदायो दायकोऽभीप्सितानां,
दुरिततिमिरभानुः कल्पवृक्षोपमानः । रचयतु शिवशान्ति प्रातिहार्याश्रियं यो,-- विकटविषमभूमीजातदत्तिं बिभर्ति ॥२॥
प्रथयतु भविकानां ज्ञानसंपत्समूह,
समय इह जगत्यामाप्तवक्त्रप्रसूतः । भवजलनिधिपोतः सर्वसम्पत्तिहेतुः,
प्रथितघनघटायां सर्प (सूर्य) कान्तप्रकारः॥३॥ जयविजयमनीषामंदिरं ब्रह्मशान्तिः
सुरगिरिसमधीरः पूजितो न्यक्षयः। हरति सकलविघ्नं यो जने चिन्त्यमाना,
स भवतु सततं वः श्रेयसे शान्तिनाथः ॥४॥
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( ८६ )
श्रीपार्श्वनाथजिनस्तुतयः
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श्रेयः श्रियां मङ्गलकेलिसन !
श्रीयुक्त चिन्तामणि पार्श्वनाथ ! दुर्वारसंसारमयाच रक्ष ?
मोक्षस्य मार्गे वरसार्थवाह ! ॥ १ ॥
जिनेश्वराणां निकरे क्षमायां,
नरेन्द्र - देवेन्द्रनहिपद्म ! कुरुष्व निर्वाणसुखं क्षमाभृत् !,
सत्केवलज्ञानरमां दधान ! ॥ २ ॥
कैवल्यवामाहृदयै कहार १ चमासरस्वद्रजनीशतुल्य !
सर्वज्ञ ! सेवाऽतिशयप्रधान !
तनोतु ते वागू जिनराज ! सौख्यम् ॥ ३ ॥
श्री पार्श्वनाथक्रमणाम्बुजातसारङ्गतुन्यः कलधौतकान्तिः । श्रीयतराजो गरुडाभिधान ?, चिरं जय ज्ञानकलानिधान ! ॥ ४ ॥
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(८७) पार्श्वजिनस्तुतिः (१)
नम्राऽखण्डलवृन्दमस्तकमणिवातेन घुष्टक्रम, दिकचक्रं निजतेजसा विलसता प्रोद्दीपयन्तं सदा । निर्वाणप्रियपत्तनाऽध्वनि महासार्थाधिपं पुङ्गवं, वन्दे पार्श्वजिनेश्वरं सुभविना कल्याणमालाप्रदम् ॥ १॥ श्रेयःसन्ततिदायकान् जिनक्रान्सर्वाञ्छुभध्यायिनां, सत्तच्वागमराशिभाषणपरान् दुर्वादिवादक्षतान् । अज्ञानान्धचयप्रणाशनविधी भास्वत्प्रभाभासुरान्, कुर्वेऽहं स्तुतिगोचरान्पटुमतिानस्थितान्सर्वदा ॥२॥ कल्याणं विदधातु वो नयगणद्योत्यागमौषः सदा, श्रीमत्तीर्थकृतां मुखाम्बुजसमुद्भूतोऽविता भूतले । भूतानां हतभूरिसंमृतिभयः सन्मार्गसंदीपकः, सद्यो मोहमहान्धकारहरणे प्रद्योतनो निर्मलः ॥३॥
सर्वोपद्रवनाशिनी जिनमतप्रक्षोभकक्षोभिनी, पद्मावत्यजिता परैरनुदिनं दुदिनां दारिका । देवी शासनरक्षिकाऽङ्कशकरा संघाऽऽपदां वारिका, सर्वत्राऽभयदायिनी विजयताज्जैनेन्द्रमार्गश्रिता ॥४॥
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( ८८ )
श्रीनेमिनाथजिन ( ज्ञानपंचमी) स्तुतिः
शंखच्छद्मधरः शिवातनुभवः श्रीनेमिनाथः शिवसम्पश्यै भवतु क्षमाशमयुतः पञ्चप्रमादोज्झितः । पञ्चाक्षीविजयी जयोद्यतमतिः पञ्चाश्रवाणां सदा, पञ्चम्यास्तपसि प्रसक्तमनसां सत्पञ्चमज्ञानवान् ॥१॥ नामेयत्रिशला सुतादिरनिशं तीर्थङ्करौघः शिवं,
दद्याद्देवनरेन्द्रवन्दितपदो लेभे गतिं पञ्चमीम् । पर्वाssराज्य महाव्रतोत्तमतया तीर्थङ्करैः सेविते, पञ्चम्यास्तपसि स्थिताय विमले भव्यात्मने ज्ञानदे ||२||
निर्वाणाऽमितशर्म भव्यमनुजा आसादयन्ति क्षणाद्,
येषां दृष्टिनिपातनेन करुणादिन्यौकसां सन्ततम् । तेषामागमराशयः कृतधियां तीर्थङ्कराणां वराः,
कल्याणं प्रदिशन्तु पञ्चमतिथावाराधनोत्साहिनाम् ||३||
मत्तेभौघकपोलभेदनमहाप्रो धृतवेगाऽजित
सिंहारूढवपुः करस्थितकजाऽलङ्कारसंभूषिता । देव्यम्बा रुचिराssकृतिर्जिनवरे भक्तिं सदा विभ्रती, पश्चम्यास्तपसि प्ररूढमनसां शान्ति तनोत्वन्वहम् ||४||
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(2) (३) श्री ऋषभजिनस्तुतिः
( वसन्ततिलकावृत्तम् ) कल्याणमन्दिरमुदारमवद्यभेदि,
सत्कर्मकारणमनन्पविभानिधानम् । शक्रा यदीयचरणाम्बुजमानमन्ति,
नाभयमीशमनिशं तमहं स्तवीमि ॥ १॥ देवाधिदेवनिकरस्य नमामि नित्यं,
भीताभयप्रदमनिन्दितमंघ्रिपद्मम् । सर्वार्थसिद्धिनिलयं जनकामितानां,
संपादकं मथितमोहमहाप्रचारम् ॥२॥ जैनेन्द्रवाङमयमशेषसुखैकधाम,
श्रेयांसि वो दिशतु दुःखलतालवित्रम् । संसारसागरनिमजदशेषजन्तु
संतारणे प्रवहणं प्रवरं गरिष्ठम् ॥३॥ चक्रेश्वरी विमलपादसरोजयुग्मं,
सेवां दधात्यजितनाथसुशासनस्य । देवी दुरन्तभववाद्धिपतजनानां, पोतयमानमभिनम्य जिनेश्वरस्य · ॥४॥
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( ९० )
( ४ ) श्रीमहावीरराजनस्तुतिः
भक्तामर प्रणतमौलिमणिप्रभाणा-मुत्तेजयच्चरणपङ्कजयुग्ममीश ! |
तावत्कमुन्नतिकरं शरणं करोमि, सिद्धार्थराजसुत ? सिद्धिसुखप्रदायि ॥ १ ॥
श्रीमज्जिनेन्द्रनिकरं सततं स्तुवेऽहमुद्योतकं दलित पापत मोवितानम् ।
संसारसागरतरण्डसमं निकामं,
देवासुरैः प्रणतपादयुगं स्वभक्त्या
लब्ध्वा जिनेश्वरमुखात् त्रिपदीं प्रशस्तां, सिद्धान्तमक्रियत यद्गुणभृत्समूहैः ।
॥ २ ॥
सम्यक्प्रणम्य जिनपादयुगं युगादाविष्टप्रदं भवतु तद्भुवि मानवानाम् ॥ ३ ॥
सिद्धायिकेति तव वीर ! जिनेश ! देवी,
पादाम्बुजेऽजितनते भजतिस्म नित्यम् । दुष्टाssमयोर्मिकलिते दरविघ्नराशा -
वालम्बनं भवजले पततां जनानाम् ॥ ४ ॥
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( ९१ )
( ५ ) सत्यस्मरणम्. ( रामकलीरागेण गीयते )
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सुधियः । स्मरत सदा सुखवन्तं, सुधियः ! स्मरत सदा सुखवन्तम् ।
शरणाश्रितजनवत्सल निर्भयप्रेमवन्तमवन्तं रे ॥ किश्वन स्थैर्य मनसि विधाय, भजत जिनागमदेशम् !
कुमतरचनाघटितकृतान्तं,
त्यजत दुरन्तमशेषं रे ॥
गुरुर विवेकी परिहर्त्तव्यो,
दूषयति यो मतिहीनम् । सुगुरुवचः परिपीतं किश्चित् ।
कुरुते दीनमदीनं रे ॥
मनसा निर्जित एव मनुष्यो लभते नो स्वात्मरतिम् ।
सुधियः ! ॥ १ ॥
सुधियः ! ॥ २ ॥
सुधियः ! ॥ ३ ॥
मिथ्यातवहतात्मविकासं,
पृच्छत किं सुखवासम् । परमाऽऽनन्दसमीहा स्याच्चे
त्किमु न त्यजत परिहासं रे || सुधियः ! ॥ ४॥
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( ९२ ) येन जितं निजमानसमेत
त्सपदि स याति मुमति रे ।। सुधिया! ॥५॥ भवपाथोधिनिदानमनादि,
कामलोभमदमानम् । परिहर मित्र ! वृषं सुखकारं,
भज कुरु जिनपदध्यानं रे ॥ सुधियः॥६॥ भक्कान्तारगतः किं सहसे ?
दुस्सहदुःखमपारम् । चिन्तय जगदुपकारमनन्यं,
दुर्लभशिवसुखकारं रे॥ सुधियः !॥७॥ श्रयताजितपदकमलमहीनं,
सुरमुनिमधुकरलीनम् । वदत वचनमतिहितदमदीनं,
सत्यसुधारसपीनं रे ॥ सुधियः ॥ ८॥
शत्रुञ्जयमण्डनश्रीऋषभदेवजिनस्तुतिः
( स्रग्धरावृत्तम् ) आनन्दानम्रकम्रत्रिदशपतिशिरःस्फारकोटीरकोटीप्रेङ्खन्माणिक्यमालाशुचिरुचिलहरीधौतपादारविन्दम् ।
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( ९३ ) माधं तीर्थाऽघिराज भुवनभवभृतां कर्ममर्माऽपहार, वन्दे शत्रुञ्जयाख्यचितिघरकमलाकण्ठशृङ्गारहारम् ॥ १॥ माद्यन्मोहद्विपन्द्रस्फुटकरटतटीपाटने पाटकं ये, विभ्राणाः शौर्यसारा रुचिरतररुचां भूषणायोचितानाम् । सद्वत्तानां शुमानां प्रकटनपटवो मौक्तिकानां फलानां, तेऽमी कण्ठीरवाऽऽभा जगति जिनवरा विश्ववन्द्या जयन्ति ॥र सबोधावन्ध्यबीजं सुगतिपथरथः श्रीसमा कृष्टिविद्या, रागद्वेषाऽहिमन्त्रः स्मरदवदवथुः प्रावृषेण्याऽम्बुबाहः। जीयाज्जैनाऽऽगमोऽयं निविडतमतमःस्तोमतिग्मांशुविम्बोद्वीपः संसारसिन्धौ त्रिभुवनभवने ज्ञेयवस्तुप्रदीपः ॥३॥ यः पूर्व तन्तुवायः कृतसुकृतलवै रितैः पूरितोऽपि, प्रत्याख्यानप्रभावादमरमृगदृशामातिथेयं प्रपेदे । सेवाहेवाकशाली प्रथमजिनपदाम्भोजयोस्तीर्थरचादक्षः श्रीयक्षराजः स भवतु भविनां विघ्नमर्दी कपर्दी॥४॥
(२) श्रीशान्तिनाथजिनस्तवनम्.
( गजल कव्वाली रागण गीयते ) सर्वार्थसिद्धिदायिन् ? करुणासुधाब्धिशायिन् ? सर्वार्थश्रीशान्तिनाथ ? शरणं, बजामि ते सुचरणम् । सकलाऽरतिप्रणाशिन् ? भवपाथसां विशोषिन् ? सर्वा-१
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(९४) श्रीविश्वसेनसूनो ? अचिराप्रमोदभानो ?।। अज्ञानमोहहरणे, नमोऽस्तु ते सुचरण ?। सर्वा-२ शान्ति देहि कृपालो ? विधेहि शर्म दयालो । कुरु मे कृपां विशाला, पालय सुभग्यमालाम् सर्वा-३ गुणगौरवं त्वदीयं, गातुं नवै मदीयम् । हृदयं जिनेश ? शक्तं, लोकान्तरे प्रसक्तम् । सर्वा-४ पतितो भवार्णवेऽहं, दुर्व्याधिवारिभरिते । मम पालनं कुरु त्वं, ह्यधुनोज्झितं ममत्वम् । सर्वा-५ अजिताऽन्धिमूरिरीश ! ध्यानेऽस्मि तत्परोऽहम् । भगवंस्तवैव वैरि-व्रजनाशनकदृष्टिः । सर्वार्थ-६
-
-
(३) श्रीमहावीरजिनस्तवनम्.
( कव्वाली रागण गीयते ) सुधासिन्धो ! महावीर ! नमामि त्वत्पदाम्भोजम् जगत्राता त्वमेवासि, जगद्वन्धस्त्वमेवासि । जगत्कल्याणकर्ताऽसि, जगत्पूज्यस्त्वमेवासि । जगद्व्यापी प्रभावस्ते, जगद्भव्याम्वुजोलासी ॥ सुधा-१॥ सहस्रांशुप्रमाभेदी, समन्तात्कान्तिनिस्यन्दी,
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( ९५ )
॥ सुधा -२ ॥
विशुद्धस्तावकोदेहः, सदाऽऽनन्दैकसद् गेहः । मया ध्यातोरहस्येष-, भवान्तं कर्त्तुकामेन सदा शान्ति कृपासिन्धो ! विधेहि प्रेमिणां बन्धो १, दुराचारं महाक्रूरं जनत्रासं विधातारम् ।
निराधारं दयादारं, जगत्त्रातः ! कुरुष्वाऽऽरम् ॥सुधा - ३ || प्रभो ! विघ्नं न मे लोके, विभो ! श्रेयः सदा लोके, त्वदीयध्यानतो नूनं, न लोके जायते न्यूनम् । त्वदीयं ये श्रिताः पादं न ते यान्ति भवोन्मादम् ॥ सुधा - ४॥ जगज्जीवा विमूढास्ते, न जानन्ति प्रभावं ये, महामोहान्धतालीना- यथा वारिस्थिता मीनाः, सदा चारित्रताहीना - भवोदन्वत्यहो मग्नाः ॥ सुधा-५ ॥ अजितसूरिः सदा स्तौति, जगच्छेयःसमीहानः, प्रभो ! पादारविन्दं ते, महामोक्षाऽध्वदीपस्य, सुसंघस्याऽस्तु कल्याणं, क्षयन्तु क्लिष्टकर्माणि ॥ सुधा - ६ ॥
( ४ ) श्रीमद्वीर जिनस्तवनम्.
( धीर समीरे यमुनातीरे वसतो वसे वनमालीरेठुमरी रागेण गीयते )
वन्दे वीर जिनेश्वरदेवं, शाश्वतसुखदातारं रे । त्रातारं जनवल्लभमीशं शिवरमणीभर्तारं रे ॥ बन्दे - १ ॥
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(९१) काम क्रोधं लोमं मोहं, वारय वारं वारं रे। वारय भवपाथोधिमपारं, पालय प्राणिसमृहं रे ॥ वन्दे-२॥ गुरुगुणखानिमनम्पविकास, सुरवरपूज्यमहेशं रे। परमानन्दनिदानमजस्रं, शिवपत्तनसोपानं रे ॥ वन्दे-३॥ मिथ्यामोहतमोहर्तारं, शरणागतपातारं रे । कलिमलदोषकलंकनिवारं, क्रूरकुकर्मकुठारं रे ॥ वन्दे-४॥ सत्यदयाधमैकनिदानं, दानगुणप्रथितारं रे। भव्याम्भोजदिवाकरमेकं, भवकान्तारसहाय रे ॥ वन्दे-५ ॥ त्रिशलानन्दनमनघमनन्पं, शिवशमैककलाप रे। विज्ञानैकनिधानमुदारं, शिवसुखकंदपयोदं रे ॥ वन्दे-६॥ जन्मजराभवभयहर्तारं, स्वल्पीकृतसंसारं रे। अजितमहापदवीदातारं, मोहसुभटजेतारं रे ॥ वन्दे-७॥
(५) श्रीमहावीरजिनस्तवनम्. राग गजल कवाली-(भासक तो हो रहा हुं ) शिवदं त्वदीयचरणं, विमलं करोमि शरणम् ॥ शिवदंमनसा गतैनसाऽहं-कारेण वर्जितोऽहम् । दुरितं निवारयाऽलं, जगदीशपादकमलम् ॥शिवदं-॥१॥ भजतां हि तावकीनं, लघुमोदतो विहीनम् । 'करुणामयस्वभावं, विकसन्महाप्रभावम् ॥ शिवदं-॥ २॥
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( ९७ )
विज्ञानतत्वनिचितं, भव्यात्मनां सुरुचितम् । महावीर ! तावकीनं, जयमेति शासनं वै ॥ शिवदं ॥ ३ ॥
तव शासनं वहन्तः, सुखभागिनो महान्तः पदमुच्चमेव यान्ति, तरंति चाऽघनीरम् ॥ शिवदं ॥ ४ ॥ भगवंस्त्वयाऽतिचण्डो,–भुजगः समुद्धृतोऽभूत् ।
शरणागतस्य रक्षिन् १, कुरु मामपि प्रसन्नम् ॥ शिवदं ॥५॥ त्रायस्व दीनमनसं, तीर्थाधिनाथ ? विषयात् । सुखदं सदैव धेहि, सुकृतं सतां हि रुचिरम् । शित्रदं - || ६ || श्रजितोदधेः कृतेयं भवता स्तुतिर्विधार्या ।
मम भावनेति सिद्धा, भवताद्धि सौख्यबद्धा ॥ शिवदं - ||७||
|| श्रीमहावीरस्तोत्रम् ॥ ललित ( भद्रिका ) छन्दः
सकलसिद्धिदं सिद्धभावनं, वनजलोचनं चारुमूर्त्तिकम् । मतिमतां मतं सन्मतार्थिनां, जिनपतिं महावीरमाश्रये ॥ १ ॥ मुनिगणैः श्रितं देवदानवैर्नरगणैः सदा संस्तुतश्रियम् । परमतत्वदं यस्य दर्शनं, जिनपति महावरिमाश्रये ॥२॥ चरितमुत्तमं चारुदर्शनं, शमितकामनं मानहारकम् । शिवसुखङ्करं योऽचरन्मुदा, जिनपतिं महावीरमाश्रये ॥ ३ ॥
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(६८) बननमृत्युहं पादपङ्कजं, विमलबोधिदं यस्य शोभनम् । जगति देहिनां तारकं स्थितं, जिनपति महावीरमाश्रये ॥४॥ जयति शासनं यस्य निर्मलं, प्रणतदेहिनां मुक्तिसाधनम् । निखिलकर्मणां वारकं वरं, जिनपतिं महावीरमाश्रये ॥५॥ भवभवार्तिहां यस्य वाचना, समयवेदिनः श्रद्धयाऽनिशम् । श्रुतिगतां जनाः कुर्वते रता-जिनपति महावीरमाश्रये ॥६॥ भवति केवलं यद्गुणवजो-क्षयकरो महामोहवैरिणः । अवणगोचरो भव्यभावतो, जिनपतिं महावीरमाश्रये ॥७॥ तिथिरहो सदा स्मर्यते सका, मुनिपतिर्गतो यत्र मोक्षके । भविजनैर्महामोदधारकै-जिनपति महावीरमाश्रये ॥८॥ जिनपतेरिदं स्तोत्रमुत्तमं, पठति यः शृणोत्पन्वहं मुदा । व्रजति संपदं देवदुर्लभां, जितमदः स वै सौम्यदर्शनः ॥९॥ वसुमतीतलं पादपद्मतः, सुरनतः सदा पावयन्विभुः। जनगणोद्धति योऽकरोदरं, जिनपति स्तुवे त्रैशलेयकम् ॥१०॥ विगतवासनं कर्मवैरिणां, हतकमन्वहं बोधदायकम् । जनमनोहरं शान्तमानसं, जिनपाते महावीरमाश्रये ॥ ११ ॥ सुमतिदायिनी शान्तभावना, भवति यद्विभादर्शनक्षणे । तमधिनायकं सर्वदेहिनां, जिनपति महावीरमाश्रये ॥ १२ ॥ कलिमलाऽपहं यत्पदाम्बुजं, सुरगणानतं राजतेऽनघम् । विमलशासनं तं जिनेश्वरं, हृदि विचिन्तये वीरमन्वहम् ॥१३॥
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( ६६ )
विदया स्वया सुप्रकाशिता - Sनवरतं महानर्थहारिणी । तव विभो ? कृपा लोकतायिनी, शरणमस्तु मे केवलं भवान् ॥ १४ भवमहोदधौ मज्जदङ्गिनां, दृढमिहाऽसि वै तारकः प्रभो ? | १ स्वदपरार्थनं मुग्धमानवो - मनसि चिन्तयेत्कर्मयन्त्रितः ॥ १५ ॥
॥ अथाऽऽनन्दमन्दिरनाममङ्गलस्तवनंप्रारभ्यते ॥
श्रीमद्वीरजिनं नमामि नितरां भिन्नान्तरारिवजं,
कृत्वा घातिककर्मणां चयमरं ध्यानेऽथ शुक्ले स्थितम् ॥ कैवल्यं विमलं प्रपद्य परितो नादेन धर्मामृतं,
वर्षन्तं करुणाऽर्णवं भविजन क्षेत्रेषु सर्वप्रियम् ॥ १ ॥ विभाव्य संसारमनित्यमेके, प्रपेदिरे संयमधर्ममाशु | व्रतानि च द्वादशकेऽपि भव्याः, सम्यक्त्वमेकेऽपि विशुद्ध मापुः ॥ तस्मिन्दिने संघमनन्तशोमं, संस्थाप्य पूज्योत्तम मब्धि संख्यम् ॥ भूमण्डले नित्यविहारकारी, भव्यान् जनांस्तारयितुं सुखेन ॥ ३ ॥ नमोऽस्तु ते सर्वजगत्क्षमान्छे ? सिद्धात्मने सर्वविकारहीन ? || अनन्तसिद्धे ? अजरामराय, तीर्थाधिपाऽनन्तगुणार्णवाय ॥ ४ ॥ अकर्मसङ्गाय विरागमूर्त्ते १, अखण्डभावाय जगत्सवित्रे | धर्मप्रणेत्रे नयवर्त्मदेष्ट्रे, नमो नमस्ते प्रभवेऽभवाय ॥ ५ ॥
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(१००) सर्वेषां श्रमणानां त्वं, तारकोऽस्युपदशेतः॥ किंपाकसदृशान् भोगान्, ज्ञात्वा वैराग्यतां गतः ॥६॥ नमोऽस्तु जिनवर्याय, तपसां निधये नमः ॥ ॐ नमो बोधिवीजाय, केवलज्ञानिने नमः ॥७॥ वन्देऽवनोत्कटमति, प्रातिहार्याष्टकाश्रितम् ॥ वैक्रियलब्धिसंपन्न, जङ्घाविद्याचरं पुनः ॥८॥ उग्रेण तपसा दीप्तं, भूरिविक्रमराजितम् ।। अखण्डशीलसौभाग्यं, तुल्यनिन्दास्तुतिक्रियम् ॥९॥ कृतानशनमासेव्य, भैक्ष्यमूनोदरं तपः !! कायक्लेशविधातारं, प्रायश्चित्तकरं मुदा ॥१०॥ सद्ध्यानेषु समालीनं, कायोत्सर्गसमाश्रितम् ।। वैयावृत्त्यकरं प्रेम्णा, समलोष्ठाश्मकाञ्चनम् श्रीजैनधर्मवक्तारं, दुर्गतौ पततां नृणाम् ।। शरणं भवपाथोधौ, नमामि जिनपुङ्गवम् ॥ १२ ॥ दया प्रख्यापिताऽखण्डा. शास्त्रेषु विधिभेदतः ॥ अनुकंपा हृदि प्रोक्ता, त्वया तीर्थपते ? नमः ॥१३ ॥ आत्मतुल्यान्समान् जन्तून , विभाव्य दयया हृदि ॥ वर्तितव्यमतो लोका-स्तरन्तिभववारिधिम् ॥१४॥ हिंसात्मकोधर्म उदारबुद्धया, हेयः सदा मंगलमेव तूर्यम् । जानन्तु विज्ञा इति धर्ममूलं, तदेव नित्यं शरणं विभाष्यम्॥१५
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( १०१ )
घनश्च यौवनं मत्वा, चञ्चलं क्षणभङ्गुरम् । चत्वारि मंगलान्येव, प्रधानानि विजानताम् तत्प्रभावान्महाकष्टं विलयं याति सर्वथा ॥ वैरिस्तेन महाधूर्ता - श्छलयंति नच क्वचित् सिंहसपदियः क्रूरा - जन्तवो यान्ति दूरतः ।। यच्छरणान्महारोगाः, शाम्यन्ति प्राणिनां सदा ज्वरस्तद्ध्यानतो नश्ये- द्विघ्नवल्लीच शुष्यति ॥ भूतप्रेतपिशाचाश्व, विघातं कर्तुमक्षमाः चतुःशरणतो भूपाः, सुरेन्द्रा नागदेवताः || स्वयमेव वशं यान्ति, शुद्धभावेन देहिनाम् चतुःशरणतः पापं, त्वरयैव पलायते || सत्यमेतद्विजानीया - तादर्यनादादिवोरगः
आनन्दमन्दिरभिदं महसां निधानं,
सर्वापदां शमनकं जगति प्रधानम् । त्रस्थितो विनयशानिजनोऽवधानं,
संपद्यते परमस्त्रमयं पिधानम्
आनन्दमन्दिरतुलां वहते न कोऽपि सर्वार्थलब्धिनिचयः सुरमाननीयः । यत्प्राप्तितोऽस्खलित पुण्यवतां जनानामर्थनीयमितरहि किञ्चिदस्ति
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॥ १६ ॥
॥ १७ ॥
॥ १८ ॥
॥ १९ ॥
॥ २० ॥
॥ २१ ॥
॥ २२ ॥
॥ २३ ॥
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( १०२) मानन्दमन्दिरमियत्ति विशुद्धभावः,
___ संपन्नसर्वविभवः सुतरां दयालुः । प्राचीनपुण्यनिचयोदयदीव्यदृष्टिः,
सर्वज्ञमाषितशुभागमतत्ववेदी ॥२४॥ मानन्दमन्दिरमनन्पसमृद्धिगेहं,
देवाऽसुराधिपतयोऽपि निरीचितुं नो । शक्ताः स्वचिन्तितविधानपटुस्वभावा:, . पुण्योज्झितः पदमनुत्तममेति नैव ॥२५॥ मानन्दमन्दिरमिदं स्तवनं स्तवाह,
शान्तात्मनाजितमहोदधिना प्रणीतम् । विश्वात्मनां सुखदमस्तु सदेह लोके,
लोकन्तरेऽप्रमितशर्मनिदानमेतत् ॥२६ ॥ इमं स्तवं यः प्रपठेत्प्रभाते ।
सजीवलोके सुखसंपदाढ्यः ।। सम्यक्त्वशुद्धः समतानिधानः ।
शिवश्रियं गच्छति निर्मलां वै ॥२७॥
इत्यानन्दमन्दिरनाम मङ्गलं समाप्तम् ॥१॥
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( १०३ )
अथ मङ्गलस्तवनं प्रारभ्यते ॥
जय जय जिनदेव क्षेमसंपत्प्रदायिन् । । जय जय सुरराजक्षोगिराजैः सुसेव्य ? || जय जय सुखकंद १ क्लेशसंसर्गहारिन् १ ।
जय जय घनघातिक्रूरकर्मप्रहारिन् ? ॥ १ ॥ यस्याब्धिवह्नयतिशयाः, प्रातिहार्याष्टकं विभोः ॥ विराजते च कैवन्यं, वाक्सुधावृष्टिरुन्नता ॥ २॥ चतुर्विधं संघमथो विधाय ।
मुक्तिश्रियं कामयितारमीड्यम् ॥
जगद्गुरुं विश्वकलानिधानं,
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दयानिधिं नित्यमहं नमामि
॥ ३॥
कायेन मनसा वाचा, ध्यानतः श्रीभवेदुद्ध्रुवम् ॥ विपक्षाः पचतां यान्ति, मङ्गलस्यादिमस्य च 118 11
जयतु जयतु सिद्धः सर्वदा सौख्यकारी, निचितनिबिड कर्मच्छेदकः शान्तमूर्त्तिः ॥
त्रिकरणशुभयोगोद्भेदकः सत्यशीलो
वृत शिवपुर सौख्यः साम्यभावप्रवृत्तः भूरिशम्र्मोपमाशून्य - श्रात्मनिष्ठोऽचलः सदा ॥ निरञ्जनो निराकारो - निर्दुःखो निर्विकारकः
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॥ ५॥
॥ ६ ॥
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( १०४ )
अजरामर संस्थान - ईश्वरः करुणाऽऽलयः, प्रथमो जयति क्षित्यां, सर्वजन्तु शिरोमणिः त्रसनालीको परिष्ठा, पञ्चाब्धिलक्षयोजना || अष्टयोजन संस्थूला, चाग्रतोऽधिकसूक्ष्मका छत्राकृतिर्मुक्तिशिला, राजते शाश्वतप्रभा ॥ तस्यां पञ्चदशविधाः, सिद्धिं याता अनन्तशः ॥ ६ ॥ मङ्गलस्यास्य पाठेन, सिद्धस्य श्रवणेन च ॥ सिद्धिं यान्ति जना भव्या - भावभक्तिविशेषतः ॥ १० ॥ चारित्रशालिनः सर्वे, सदा त्यक्तपरिग्रहाः || तपश्चर्यारिताः शान्ता - जयन्तु मुक्तिवल्लभाः
॥। ११ ॥
संयमैकक्रियाः पञ्च - महाव्रतपरायणाः ।। बैराग्यभावतोऽत्यन्त - क्षीणकामादिवैरिणः युक्तत्रियोगकरणा-जितमृत्युभयाः सदा । ज्ञानदर्शनचारित्र - राजिता विजितेन्द्रियाः
चतुर्दश पूर्वधराः केचिच्च द्वादशाङ्गिनः ॥ अवधिज्ञानिनः कोच - न्मनः पर्यववेदिनः
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॥ ८ ॥
॥ १२ ॥
॥ १३ ॥
॥ १४ ॥
तेजोलेश्याधराः कोच - त्केऽपि वैक्रियलब्धयः ॥ शुक्लध्यानस्थिताः केचिद्-घातिकर्मविघातिनः ।। १५ ।। केवलज्ञानसंपन्नाः, कोटिलच सहस्रशः ॥ उत्कृष्टतो जघन्येन, माननीयाश्च देहिनाम् ॥ १६ ॥
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( १०५ )
भविका भावतो वन्द्याः साधवः साधुकामनाः ॥ तृतीयं मङ्गलं प्रोक्तं, विश्वेषां शिवकारकम् जयता जैनधर्मोऽयं, केवलिप्रथितः शुभः || दयाधर्मप्रधानश्च, सर्वसिद्धान्त पूजितः
॥ १८ ॥
निजप्राणसमाः सर्वे, प्राणिनो येन वर्णिताः ॥ शाश्वतः सर्वकालेषु, जिनेन्द्रः स प्रकीर्तितः ॥ १६ ॥
॥ १७ ॥
धर्मोऽयमिति शुद्धेन मनसा श्रद्धयाऽपि च ।
"
माननीयोऽन्यथा सर्वाः, क्रिया वन्ध्याङ्घ्रिपा इव ॥२०॥
येन जीवदया चित्ते, भाविता भाववेदिना || लघुकर्मा स विज्ञेयो - निर्मलोचितवर्त्तनः
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॥ २१ ॥
अनन्तसंसारिजनाः पृथिव्यां
॥ २२ ॥
सिद्धिं गता जीवदया प्रभावात् ॥ तस्माद्दयां पालयतु प्रकृष्टां, यया ध्रुवा सिद्धिरमुत्र लोके ज्ञानदर्शनचारित्रे, स्थितो धर्मोऽविनिश्चलः ॥ सर्वागमेषु सारो हि, चतुर्थं धर्ममङ्गलम् भर्हत्सिद्धौ सुनिर्धर्मत्वारो लोकविश्रुताः ॥ शरण्याः सर्वथा चैते, मन्तव्या नात्र संशयः ॥ २४ ॥
॥ २३ ॥
अनेन मङ्गलेनैव दुःखदारिद्र्यसंचयः ॥ वैरिरोगविनाशश्च जायते सुखसन्ततिः
।। २५ ।।
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(१०६) गुणवृद्धिश्च भावेन, शुद्धेन कीर्तिविस्तरः ।। शारदां सारदां वन्दे, सुमतिर्जायते यतः ॥२६ ॥ जयतु श्रेष्ठपददः, परमेष्ठी जनाश्रयः ॥ नमस्कारपदं सौख्य-दायकं जयतु क्षितौ ॥२७॥ गुणैादशभिर्याप्ता-अर्हन्तो लोकपूजिताः ॥ निष्कर्माणो गुणाकान्ता-स्त्यक्तमिथ्याभ्रमा वराः ॥२८॥ शुक्लध्यानरता जात-केवलज्ञानसंपदः ।।। समागतेन्द्रपर्षद्भिर्द्वादशभिर्विराजिताः ॥२९॥ वाचं सुधोपमा श्रुत्वा, नरा नार्यश्च भावतः ॥ केचित्संयमिनोऽन्ये च, द्वादशव्रतधारिणः ॥३०॥ कृतकर्मक्षया लोकाः, शिवसंपत्समन्विताः ॥
आदिमस्य पदस्यास्य, महिमा वागगोचरः ॥३१ ।। द्वितीयपदचिन्तायां, सिद्धानां गुणकीर्तनम् ॥ यसिन्गताः पुननँव, विद्यन्ते जन्मधारिणः ॥३२॥ भविनां रञ्जकाः सिद्धा-लक्ष्यातीता निरञ्जनाः ।। शिवशान्तास्त्यक्तकाया-निर्भयाः कर्मभञ्जनाः ॥३३॥ निर्विकारा जितक्रोधा-गुणाष्टकसमाश्रिताः ।। अनन्तसुखधामाना, केवलज्ञानधारिणः ॥३४॥ दर्शयन्तु निजावासं, सम्यक्त्वगुणदर्शिनः ।। भवादृशो न दातारो-दृश्यन्ते भुवनत्रये ॥३५॥
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( १०७ )
पदं तृतीयमाख्यातं प्रवरं गणिसञ्ज्ञकम् ॥ स्तुत्यं सेव्यं सदा सद्भि-वन्दनीयं प्रमोदतः ॥ ३६ ॥
महाव्रतानि पश्चाऽपि, पालयन्तो गणीन्दवः || जितेन्द्रिया जितक्रोधा - हृतदुःखसुखाः सदा
मुनिगुणगणभूषाभूषिताऽऽनन्दसौधाः,
भवभवविपदाभिर्दूरतो हीयमाना
स्मरदरविजितास्ते त्यक्तमानाऽभिलाषाः ।
॥ ३७ ॥
जगति जयनशीला लब्धकामा गणशाः ॥ ३८ ॥
चन्द्रवच्छीतलच्छाया - गिरिराज स्थिरक्रियाः ॥ समुद्र इव गाम्भीर्य, येषु नित्यं विराजते गणाधिपाः श्रुतज्ञाना - न्मिथ्यात्वपरिहारकाः ॥ विनीता ज्ञानदेष्टारो - द्वादशांगीविचक्षणाः
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॥ ३६ ॥
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सत्यवाचस्तपोनिष्ठा - जनसंशयवारकाः ॥ गुरुसेवापरा लोके, राजन्ते गणिनः सदा
उपाध्याय वरस्वामी, शिवार्थी चित्तसाधकः ॥ हितकृद्दुर्गतजनां-स्तारयन् योगशिक्षकः मोहजिद्भगवद्ध्यान-स्त्यक्तसर्वस्वतच्वविद् ।। महाव्रतेषु संलीनो- निःस्नेहो निर्निकेतनः
॥ ४१ ॥
॥ ४२ ॥
॥ ४३ ॥
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(१०८ ) शुद्धक्रियासु निरतः, शोकहारी गतक्लमः ॥ एतत्प्रणामतो मारी-ग्रहपीडाऽऽशु शाम्यति ॥४४॥ ॐ नमो विश्वनाथाय, शिववल्लाघनाय च ।। यशस्विनेऽरिहन्त्रे च, दरितध्वान्तभानवे ॥४५॥ जितक्रोधाभिमानस्त्वं, कल्पवृक्ष इवाऽपरः ॥ चिन्तामणिरिवानन्त-सिद्धिदाने विशारदः ॥४६॥ केवलज्ञानसंपन्नः, शरण्यः संमृतेः परः । सुरासुरनरेन्द्रैश्च, सर्वदा सेवितक्रमः ॥४७॥ सरणेन तवेशान !, काणि यान्ति दूरतः॥ गरुडस्य यथा नादं, श्रुत्वा पनगराशयः ॥४८॥ प्रभूतवरविभूत्या भ्राजितोऽसि क्षमाब्धे ?,
तव शरणमिता येऽनन्यलक्ष्म्या वृतास्ते । विषमविषयचौराधिक्कृता हेलया ते,
शरणमशरणानां त्वं शिवश्रीनिदानम् ।। ४९ ॥ कोटिनार्यः सुताल्लोके, सुवते त्वादृशं न हि || नक्षत्राणि चतुर्दिक्षु, प्राच्यामेव दिवाकरः ॥५०॥ निर्मलानां गुणानां त्व-माधार! शान्तिसागरः ।। धर्मधूर्यो धर्मचक्री, जगदीशो जगद्गुरुः ॥ ११ ॥
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( १०६ )
।। ५२ ।।
अविनाश्यविकारोऽसि, निर्मलो निर्भयः प्रभुः ॥ भवच्छरणतां प्राप्ता - जराजन्मविवर्जिताः अनादिभवरोगो हि, त्वन्नामस्मरणौषधैः ॥ करुणालय तीर्थेश !, विलयं याति सच्चरम् ॥ ५३ ॥ भवदीयगुणग्रामः क्व मेऽल्पविषया च धीः ॥ नैकत्र घटते स्थातुं, सूर्याचन्द्रमसावुभौ
9
11 28 11
"
केचिद्धरिहरध्यानाः केचिद्ध्यायन्ति भारतीम् ॥ केचिद्रणपति गौरी, केचिच्च ग्रहदेवताः ॥ ५५ ॥ केचिच्च शशिनं भानु-मग्नि ध्यायन्ति केचन || कतमे यवनेशञ्च केऽपि भैरव सेवकाः ध्याना बहवो भवन्ति जगति क्षेमप्रदानक्षमाध्यानं योग्यमिहाऽस्ति किन्तु भवतो मोक्षैकहेतुर्विभो ?
॥ ५६ ॥
युक्ताऽयुक्तविचारचारुमतयस्त्वत्तः सुखं सर्वदा,
वाञ्छन्ति क्रमयोरतास्तव दयाधर्मप्रधानाजनाः ॥५७ भवादृशो न संसारे, विद्यते तारकोऽपरः । सर्षपः क्व सुमेरुः क्क, क्व च सिंहो मृगः क्व च ॥ ५८ ॥ क विषं व सुधापानं, क्क कार्पासं क्व कंबलः || क्वार्कदुग्धं क गोक्षीरं, व सुधान्धिः क्व लावणः ॥ ५९ ॥
क्व पुण्यपापसंतानः क्व सत्यासत्यभाषणम् || क्व स्तेनः क्व महेभ्यश्च क्व खद्योतः क्व भानुमान् ॥ ६०॥
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( ११०) कर्माऽकर्मवतोर्मेदः, प्रत्यक्षो भासते तथा ॥ अधिगानां यथा द्वीप-स्तथाऽऽधारस्त्वमन्वहम् ।।६१॥ सुधार्तानां यथा भोज्यं, वृषितानां यथा जलम् ॥ पक्षिणां च यथाकाशो-रोगिणा-मौषधिर्यथा ॥ २ ॥ यथा बालहिता माता, हंसस्य मानसं यथा ।। शून्यारण्यप्रियो हस्ती, पाम्रभोगीव कोकिलः ॥६३॥ सत्याः पतियथा मेघ-श्चातकस्य च जीवनम् ॥ मालती षट्पदस्येव, चकोरस्य यथा शशीः ॥६४॥ लुब्धस्य धनसंपत्ति-स्तथा त्वं मम वल्लभः ॥ त्वमेव भवपाथोधौ, तारकः सर्वदेहिनाम् ॥६५॥ हिंसास्तेयमृषावाद-मानक्रोधपरिग्रहाः ॥ निषेविता मयाऽजस्रं, भ्रान्तेन मूढचेतसा ॥६६ ॥ विराधना सानां च रागद्वेषेण निर्मिता ।। कलङ्कानि प्रदत्तानि, बहूनि भूरिनिन्दया ॥६७ ॥ कषायविषयान्धेन, परवचनकर्मणा ।। निकाचितानि कर्माणि, बद्धानि भवद्भुिना ॥६८॥ चीर्णा मिथ्याक्रिया मोदात् , कारिताऽनुमतापि च ॥ अष्टादश महापाप-स्थानानि सेवितानि वै ॥६९ ॥ एवंविधानि कर्माणि, क्रूराणि विविधानि च ।।। नरकस्थानयोग्यानि, विहितानि पुरा मया ॥७०॥
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( १११) परिणतिमनवेक्ष्य प्रेमतः पापपुलं,
कृतवति मयि मूढे हा विचित्रो विपाकः । स्फुरति कटुफलानां कर्मणां सचितानां,
फलति हि मनुजस्य क्षीणमोहस्य कन्पः ॥७॥ तिर्यक्षु भूरिदुःखानि, जङ्गमस्थावरेषु च ॥ भेदनच्छेदनादीनि, सोढानि परमावतः ॥७२॥ नरजातौ दरिद्राणां, कुलेषु दीनता कृता । प्रत्यहं याचिता लोका-नतु पूर्णो मनोरथः ॥७३ ॥ पापोदयसमुद्भता, पीडां कर्मवशंगतः । भुक्तवान्भवपाथोधौ, निमग्नो भूरिशोऽभवम् ॥ ७४ ॥ अपराधसहस्राणि, कृतानि दुर्गुणाश्रयात् । भवच्छरणहीनेन, दीनता धारिताऽनिशम् ॥७५ ॥ कालो निरर्थको यातो-मोहकर्मवशस्य मे। गृहीता तमसि भ्रान्त्या, रूप्पबुद्ध्या हि शुक्तिका॥७६॥ पिपासाकुलितोऽत्यन्तं, मृगो मरीचिकाधिया । भ्रमन्नाशमवाप्नोत, तथाहं जडचेतसा ॥ ७७॥ प्रबलज्वरसन्तप्तो-यथाऽनं न बुभुक्षति । तथा कर्मोदयेनैव, धर्मध्याने न मे रुचिः ॥७८ ॥ यदा ज्वरोपशान्तिः स्या-तदा भोज्यं प्रियं मतम् । अशुभे कर्मणि चीणे, त्वदीयं शरणं भवेत् ॥ ७९ ॥
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( ११२ )
शुद्धागमाऽनुसारेण, भवन्मार्गप्रदर्शकम् । ज्ञानदर्शनचारित्रं, शुद्धं नो पालितं मया
॥ ८० ॥
॥ ८२ ॥
तथापि चरणस्याऽऽशा, संस्थिता मम चेतसि । निराशा न विधातव्या, सतां संगतिरीदृशी ॥ ८१ ॥ दयालुस्त्वादृशो नान्यः, शरणागतवत्सलः । नापरो भवतो मेऽद्य, सहायो भवकानने भवन्तं जपतो जन्तो- मृगारिर्जायते मृगः । मदोन्मत्तः करीन्द्रोऽपि सन्मुखं न निरीक्षते ॥ ८३ ॥ कल्पान्तकालपवनः, प्रचंडच हुताशनः । तीव्रकष्टसमूहाच, नश्यन्ति तव कीर्त्तनात् ॥ ८४ ॥ क्रोधमातोद्धतो नागः, श्यामाङ्गो रक्तलोचनः । स्मरतस्त्वां न विघ्नाय जायते विघ्नमोचकम् ॥ ८५ ॥
,
संग्रामेषु नरेन्द्राणां भयदेषु समंततः । विजयो जायते शीघ्रं भवतः स्मरणेन वै
7
॥ ८६ ॥
ध्यानतो भवतो याति, भवतोयनिधेर्नरः । क्रोधकल्लोलपूर्णस्य, पारं लोमाश्मधारिणः ॥ ८७ ॥ श्वासज्वरचयग्रंथि - कुष्ठदाह भगन्दराः । महारोगाः प्रणामेन, व्रजन्ति क्षयतां तव
तव चरणरतानां मानवानां दुराधिः, स्मरणविषयमेति नैव दीव्यप्रभाव ? |
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॥ ८८ ॥
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( ११३ )
कलुषितहृदयानां पादपद्मे त्वदीये,
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रतिरचलतया नो जायते सिद्धिहेतौ ॥ ८६ ॥
॥ ६० ॥
काराग्रहस्थितो देही, शृङ्खला किलितक्रमः । समस्ताऽऽपद्विनिर्मुक्तो ध्यानतस्तव राजते विजिगीषुर्जयी सद्यो - बद्धो मुच्येत बंधनात् । जिनेन्द्र ! त्वं त्रिलोक्यां हि, तिलको दीनपालकः ॥ ६१॥ ॐ नमोऽईते सिद्धाय, श्रीसिद्धिवृद्धिदायिने । सुखदः शरणं मेऽस्तु भवान् जन्मनि जन्मनि ||२||
"
गजाश्वरथसैन्यानि प्रबलानि महारिपोः ।
"
11 28 11
पलायन्ते यथा सद्य - स्तथैव क्रियतां विभो ! ॥ ६३ ॥ स्वन्मोहनीय मन्त्रेण, वैरिणो वशगामिनः । यत्र तत्र गतो याति, सत्कारं नैव संशयः जडबुद्धिर्नरो युष्म-च्छरणेन महामतिः । मतिमान् पण्डितः सद्यो - जगत्पूज्यतमो भवेत् ॥ ६५ ॥ पत्रं नभो' मषी वारि, लेखिनी सुरपर्वतः । सरस्वती लिखेत्कोटि-वर्षं यावद्गुणांस्तव
॥ ६६ ॥
१ पत्रं व्योम मषी महाम्बुधिसरित्कुल्यादिकानां जलं, लेखिन्यः सुरभूरुहाः सुरगणास्ते लेखितारः समे । श्रायुः सागरकोटयो बहुतराः स्युश्चेत्तथाऽपि प्रभो !, नैकस्यापि गुणस्य ते जिन ! भवेत्सामस्त्यतो लेखनम् ॥ १
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( ११४ )
तथापि याति नो पारं, स्वल्पबुद्धिरहं कुतः । भवदीयगुणान्वक्तुं प्रभवाम्यस्थिराशयः ॥६७॥ युग्मम् । गुणराशिर्नृपाधीशः, प्राणिनां जीवनं भवान् । याचेऽहमेतदेवात्र, निजस्थानं प्रदर्शय
॥ ६८ ॥
निश्वयेन मया ज्ञातं शासनं भवता कृतम् । त्वदीयं शरणं भूयात्, सदैव सत्यभक्तितः ॥ ६६ ॥ यः पठेच्छृणुयादेतन्मङ्गलं पापनाशनम् । चत्वारि मङ्गलान्येव, वर्त्तन्ते तस्य सद्मनि ॥ १०० ॥ स्तोत्रमेतज्जनानन्दं, पवित्रं पापनाशनम् जयताद्रचितं लोकेऽ - जितसागरसूरिणा ॥ १०१ ॥
1
॥ अथ चतुर्विंशतिजिनस्तोत्रम् ॥
आदिनाथं जगन्नाथ - मजितं शान्तिसागरम् || भजन्तु प्राणिनः शर्म - वल्लीपुष्करवारिदम् ॥ १ ॥ श्रीसंभवं जगद्रक्षं, शिवदं हितकारकम् || नमामि परया भक्त्या, त्रातारमभिनन्दनम् ॥ २ ॥ सुमतिं रिपुहंतारं, शिवशर्मविधायकम् ॥ कायेन मनसा वाचा, वन्देऽहं परमाद्भुतम् पद्मप्रभुं सुपार्श्व च, श्रीचन्द्रं चन्द्रवद्गुणम् || सुविधं सुखदातारं, शीतलस्वामिनं भजे
॥ ३ ॥
॥ ४ ॥
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(११५) श्रेयांस श्रीजिनाधीशं, दयालुं विश्वतारकम् ।। वासुपूज्यश्च विमल-मनन्तं धर्ममिष्टदम् ॥५॥ शान्तिनाथं कृपानाथं, धीरशान्तरसप्रदम् ॥ कुन्थु वन्देऽरनाथं च, जगत्साथै क्षमाधरम् ॥६॥ मल्लीनाथं सत्यसङ्गं, मुनिसुव्रतमीश्वरम् ।। श्रीनमिमात्मदमकं, दुर्मतिच्छेदनोद्यतम् ॥७॥ अरिष्टनेमि श्रीमन्न, विवाहोत्सुकिताङ्गनाम् ॥ परित्यज्य शिववधू-सङ्गिनं प्रणमाम्यहम् श्रीपार्श्व काष्ठसंलीन-नागनागीप्रपालकम् ।। वर्द्धमानजिनं वन्दे, गुणराशिं जगद्रविम् ॥६॥ संसारासारता लोके, ख्यापयन्तो जिनेश्वराः ॥ केवलज्ञानिनोऽधर्म-नाशका धर्मबोधकाः ॥१०॥ कुर्वन्तु मङ्गलं नित्यं, जनानां परिपालकाः ।। पूरयन्तु मनोऽभीष्टं, सुखसन्ततिदायकाः ॥११॥ करुणामयधर्मस्य, प्रणेतारोऽतिनिर्भयाः। जिनेन्द्रा जनतासौख्यं, वितन्वन्तु निरामयम् ।। १२ ॥ येषां स्मरणमात्रेण, कलिकल्मषसंहतिः निवर्त्तते निराधारा, सन्तु ते भूतिदायकाः ॥ १३ ॥ भवोदधिमहापोत-संकाशा जिनपुङ्गवाः ॥ निष्कारणजगत्राण-परिकल्पितमानसाः ॥१४ ।।
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( ११६ )
॥ १५ ॥
येषां दर्शनमात्रेण, नश्यन्ति पापराशयः ॥ पवित्रितधरापीठा-स्ते सदा सुखहेतवे अर्चिता भावतो लोके, जिनेन्द्राः सिद्धिदायकाः ॥ यदाश्रितनरा लोके, नैव पश्यन्ति चाऽऽपदम् ॥ १६ ॥
॥ अथश्रीपञ्चपरमेष्ठिस्तवनम् ॥
"
त्रैलोक्यतिलकं सन्तं नमामि परमेष्ठिनम् ॥ सर्वाङ्गसुन्दरं मार - हारिणं मङ्गलाऽऽलयम् ॥ १ ॥ समस्तशुद्धसाकारं, सहस्राष्टसुलाञ्छनम् || तितिक्षया विराजन्तं, दुष्टकर्मनिवर्त्तकम् तपोऽभिवर्द्धिततनुं, शुभध्यानपरायणम् ॥ अज्ञानमर्महन्तारं, शोभनज्ञानधारिणम् शोभनाष्टप्रतीहारं, भव्यजीवोपजीवनम् ॥ प्रमादवादहर्त्तार - मनन्तगुणमण्डितम्
॥ २ ॥
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॥ ३ ॥
#1 8 11
शुद्धयोगभेत्तारं, नमामि सिद्धपण्डितम् ॥ विशिष्टगुणसंभारं, समस्तरिपुनाशकम् सुभानुकोटिभास्करं भवाब्धितारकं वरं, विकारदृष्टिमोचकं सुजैनधर्ममण्डनम् समस्तपापखण्डकं विशिष्टशर्मदाय कं,
नमामि शान्तलोचनं वरेण्यसंघनायकम् ॥ ६ ॥
॥ ५ ॥
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( १९७ ) अरूपरूपसंकाशं, सदैव स्थिरवासकम् ।। जितेन्द्रियं जितश्वासं, सर्वभावविबोधिनम् ॥७॥ भनन्तसौख्यपाथोधि, रहसि प्रथितालयम् ।। भवौघवारकं वन्दे, सततं निर्विकारिणम् ॥८॥ अक्षोभितं कषायैश्च, पत्रिंशद्गणधारकम् ।। सुसंपदाऽभिसंपन्नं, नमामि वाचकोत्तमम् ॥६॥ प्रमाणनयसंपन्न, वाणयुग्मगुणैर्युतम् ।। ज्ञानदं सर्वजन्तूना-मुपाध्यायं नमाम्यहम् ॥१०॥ त्यक्तमोहमहाजालं, परप्राणसुरक्षकम् ।। धृतधर्म सुतत्त्वज्ञ, प्रोज्झितापनिदानकम् ॥११॥ न्युच्छिन्नकामलोभारि, रागद्वेषविवर्जितम् ॥ वीतरागाज्ञया युक्तं, नमामि शुद्धमानसम् ॥ १२ ॥ अज्ञानतिमिरोष्णांशुं, सर्वशर्मप्रसाधनम् ॥ नमामि जैनयोगीन्द्रं, हृतमोहभुजङ्गमम् ॥ १३ ॥ छिन्नमिथ्याऽन्धकारं च, विज्ञानाञ्जनदायकम् ॥ नमामि सद्गुरुं सत्यं, प्रमाददुःखहारकम् ॥१४॥ जयन्तु जैनसर्वज्ञा-जयन्तु परमेष्ठिनः ।। जयन्तु गुरवः श्रेष्ठा-यैः सुमार्गः प्रदर्शितः ॥ १५ ॥
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( ११८ )
॥ अथजिनस्तवनं प्रारभ्यते ॥
श्री गौतमं नमस्कृत्य, जिनवाणीमहानिधिम् । ततः श्रीगुरुपादाब्जं, कालत्रयसुखावहम् चतुर्विंशतयोऽनन्ता-भूतास्ताः शिवहेतुकाः । प्रणमामि सदा भक्त्या, संसारोदधितारकाः ॥ २ ॥ तासामतीतां वक्ष्यामि, चतुर्विंशतिमुत्सुकः । केवलज्ञानी निर्वाणी, सागरोऽथ महायशाः ॥ ३ ॥ विमलः सर्वानुभूतिः, श्रीधरोदत्ततीर्थकृत् । दामोदरः सुतेजाच, स्वाम्यथो मुनिसुव्रतः ॥ ४ ॥ सुमतिः शिवगतिश्वाऽ-स्तागस्तीर्थकृतांवरः । नमीश्वरो महाधैर्य - वानिलः सुरवन्दितः
।। ५ ।।
॥ १ ॥
॥ ६ ॥
यशोधरकृतार्थी च, तीर्थनाथोजिनेश्वरः । शुद्धमतिः शिवकरः, स्यन्दनोऽघविनाशकः संप्रतिर्भावतः पूज्यो- जनचित्तसुधारकः । अतीत जिननामानि पुण्यान्येतानि भूतले त्रिकालं यः पठेन्नित्यं, नामान्येतानि भावतः ! स पुमाँल्लभते सिद्धिं, मनोभीष्टां सुदुर्लभाम् ॥ ८ ॥ वर्त्तमानाऽधुना ख्याता, चतुर्विंशतिरीर्यते । कामदा सिद्धसंकल्पा, निकटोपकृतिप्रदा
॥ ९ ॥
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|| 6 ||
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( ११६) अथास्सिन्मरतक्षेत्रे, ऋषभाजितसंभवाः । तूर्योऽभिनन्दनस्वामी, सुमतिः छिन्नदुर्मतिः ॥१०॥ पद्मप्रमः सुपार्श्वश्च, श्रीचन्द्रप्रभ ईश्वरः । सुविधिः शीतलः शान्तः, श्रेयांसो धैर्यधूर्वहः ॥११॥ वासुपूज्यश्च विमलोऽ-नन्तः श्रीधर्मतीर्थकृत् । शान्तिकुन्थू-जिनौ ख्याता-वरमल्ली जिनेश्वरौ॥१२॥ मुनिसुव्रततीर्थेशो-नमिनाथ उदारधीः। त्यक्तराजीमतिर्नेमिः, श्रीपार्थवर्द्धमानको ॥ १३ ॥ वर्तमाना तच्चसिन्धु-चतुर्विंशतिरर्हताम् । प्राप्तकैवल्यविज्ञाना, सिद्धास्पदविगाहिनी ॥ १४ ॥ मय्यर्हन्तः कृपावन्तः, सर्वकर्मविघातिनः । शशिसूर्यनिभांस्तांश्च, स्मरामि भावतोऽभयान् ॥ १५ ॥ अनागतजिनेन्द्राणां, नामानि वर्णयाम्यथ । पद्मनाभः शूरदेवः, सुपार्श्वश्च स्वयंप्रभः ॥ १६ ॥ सर्वानुभूतिरीशानो-देवश्रुतजिनेश्वरः । क्षीणकर्मोदयो वीरः, पेढालः पोट्टिलस्तथा ॥१७॥ शतकीर्तिः सुविख्यातः, सुव्रतश्चाऽममोऽमलः । निष्कषायः सुरपार्यो-निष्पुलाकश्चतुर्दशः ॥१८॥ निर्ममश्चित्रगुप्तश्च, समाधिर्जिननायकः । संवरोऽष्टादशः प्रोक्तो-जितेन्द्रिययशोधरः ॥ १९ ॥
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(१२० ) विजयो मल्लदेवश्च, देवस्तीर्थविधायकः । अनन्तवीर्यनामा च, भद्रकृचर्मतीर्थकृत् ॥२०॥ भाविन्येषा महोत्तुङ्गा, चतुर्विंशतिरहताम् । सापि चत्वारि तीर्थानि, स्थापयिष्यति भूतले ॥२१॥ अतीताऽनागता चैषा, वर्तमाना द्विसप्ततिः। जिनेन्द्राणां कृपाशीला, लोकसंस्थितये स्मृता ॥२२॥ जिनस्तोत्रमिदं भव्यं, भव्यानां भवनाशकम् । प्रथ्यतां ग्रथितं लोके-ऽजितसागरमरिणा ॥२३॥
॥ अथार्हजिनस्तोत्रं प्रारभ्यते ॥ प्रणमामि जिनेन्द्र ! त्वां, मुनीन्द्रगणनायकम् । सुराऽसुरनराऽधीशा-नागेन्द्रा यस्य सेवकाः ॥१॥ गृहवासं परित्यज्य, सुमतिक्षेमसंगमः । तपोग्निदग्धकर्माऽऽलिः, शुद्धभावोच्चभस्त्रिकः ॥२॥ चतुस्त्रिंशदतिशयै-राजितो दिव्यदेहभृत् । मुक्तिप्रियो विशेषज्ञो-निर्भयोऽथ निरामयः ॥३॥ आधसंहननः स्वामी, निष्कलङ्कोऽथ निर्मलः । निर्लेपः स्फारदेहामः, पर्वताप्रशिरोद्युतिः ॥४॥ कजलोपममूर्द्धन्यो-दाडिमोपमकेशभूः । अर्धचन्द्रललाटश्च, पूर्णचन्द्रोपमाननः १ प्राणायामविशेषो भस्त्रिका.
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( १२१ )
परमाणूपम श्रोत्रो - भ्रकुटिर्धनुराकृतिः । विकस्वरसरोजाचः, सरलो तुङ्गनासिकः
॥ ६॥
11911
॥ ८ ॥
विद्रुमोष्ठः श्रिया चन्द्र-सङ्काशरदनाssवलिः । रसनाऽमृतसंश्लिष्टा, रम्यश्मश्रुप्रदेशकः सुदीर्घकन्धरः पुष्ट-भुजयुग्मोऽहिबाहुकः । पयोजसमपाणिश्च, संहिताऽङ्गुलिपल्लवः ताम्रवर्णा नखा यस्य तं वन्दे शासनाधिपम् । शशिभानुसमा रेखा - राजन्ते च करस्थिताः ॥ ९॥ गङ्गावर्त्तसमा नाभिः, पञ्चाननकटिः शुभा । कृशोदरश्च शुण्डोरुः, कूर्मपृष्ठसमक्रमः अंघ्रितर्जितपद्माभो - निश्वद्याऽङ्गुलित्रजः । तेजस्तिरस्कृतोष्णांशुः, सुरेन्द्रचित्तहारकः ॥ ११ ॥
॥ १० ॥
केतकीसुरभिश्वासो- गोक्षीरमांसशोणितः । अदृष्टाऽऽहारनीहारः, समर्यादनखाऽलकः ॥ १२ ॥ छत्रत्रयं नभोमध्ये, चलति स्वप्रभावतः । चामराण्यतिशुक्लानि, वीज्यन्ते दीव्यशक्तितः ॥१३॥ सपादपीठकं सिंहा- सनमाकाशसंस्थितम् । शुद्धस्फटिकरत्नैश्च, खचितं मौक्तिकस्तथा ॥ १४ ॥ इन्द्रध्वजः शुभाकारः, सहस्रध्वजमण्डितः । ऋतवः षद् समं यस्य, फलपुष्पप्रदायिनः ॥ १५ ॥
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(१२२) भामण्डलप्रभाभिन्न-तिमिरो यत्र तीर्थपः । प्रयाति समभूस्तत्र, कण्टका अप्यधोमुखार ॥ १६ ।। ऋतवोऽपि भवन्त्याशु, योजनं सुखकारिणः । अनुकूलमरुत्पांसु-वर्जिताऽम्बुप्रदो घनः ॥ १७ ॥ जानुमात्रसुमक्षेपो-जायते विभुसन्मुखम् ।। मुखश्वाससुगंधेन, स्थलं सर्व सुवासितम् ॥१८ ।। मागधी गौरवार्था च, भाषापि लोकरजनी। धर्म दिशति द्वादश-परिषत्सु स्थितः प्रभुः ॥ १९ ॥ गृह्णन्त्यर्थं समे सभ्याः, प्रस्फुटं स्वस्वभाषया । वैरबुद्धिं परित्यज्य, मृगसिंहादयः स्थिताः ॥ २० ॥ विवादं विविधं भव्याः, कुर्वन्ति मोदधारिणः । ईतयो न प्रवर्त्तन्ते, कोशं यावत्प्रभावतः ॥ २१ ॥ मारणादिप्रयोगास्तु, न श्रूयन्ते जनैरहो। शतक्रोशं च दुष्काल-स्थिति व विभाव्यते । २२ ।। न्यूनाधिको न पर्जन्यो-वर्षति क्षेमकारकः । निरातङ्का जनाः सर्वे, मोदन्ते निरुपद्रवाः ॥ २३ ॥ १ "सारणी सिंहशावं स्पृशति सुतधिया नन्दनी व्याघ्रपोतं, मार्जारी हंसबालं प्रणयपरवशा केकिकान्ता भुजङ्गम् । वैराण्याजन्मजातान्यपि गलितमदा जन्तवो ऽन्ये त्यजेयु:, दृष्ट्वा साम्यैकरूढं प्रशमितकलुषं योगिनं क्षीणमोहम् ॥१॥"
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( १२३) चतुस्त्रिंशदतिशयै-र्गीमघ इव गर्जति । चतुष्षष्टिः सुरेन्द्राश्च, सेवन्ते भूमिपा विभुम् ॥२४॥ पाखण्डा यत्र खण्ड्यन्ते, मिथ्यामोहविवर्द्धकाः । स्थाप्यन्ते च शुभाधर्मा-लोकसंस्थितिहेतवः ॥२५॥ महिमख्यापकं तत्र, प्राकारत्रयमुनतम् ।। प्रथमो रूप्यसंपन्नो-हिरण्यकपिशीर्षकः ॥२६॥ मणिरत्नमयान्यत्र, राजन्ते तोरणानि वै । सोपानानां सहस्राणि, दश राजन्ति सुप्रभम् ॥२७॥ वप्रो द्वितीयः सौवर्णः, सुरत्नकपिशीर्षकः । तृतीयो रत्नसंपन्नो-माणिक्यजडिताग्रकः ॥२८॥ सहस्रैः पञ्चभिः सुष्टु-सोपानैः परिवारितः। धनुः पञ्चशतोत्तुङ्गा-भित्तयो मानतः शुभाः ।। २९ ॥ पीठिका शोभना तत्र, मणिरत्नविराजिता ।। प्रकाशकारिणी भव्या, सोपानराजिराजिता ॥३०॥ तत्र सिंहासनं दीव्यं, शोभते विपुलप्रभम् । तस्मिन्नेव समासीनो-धर्म दिशति केवली ॥३१ ।। तिष्ठन्तीशानके श्राद्धाः, श्राविकाः कल्पवासिकाः। वैमानिका मुनीन्द्राश्च, श्रमण्योऽग्निदिशि स्मृताः॥३२॥ नैते व्यंतरा देवा-भुवनाधीशदेवताः । देव्यस्त्रयाणां देवानां, वायव्यां तन्वते स्थितिम् ॥३३॥
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( १२४) एवं स्थिता नृदेवाद्याः, शृण्वन्ति धर्मदेशनाम् । श्रेयोबुद्धया महाभावाः, कर्मग्रन्थिविमोचनीम् ॥३४॥ . चतुर्दिनु ग्रहाः सर्वे, सनक्षत्राः मुनिर्मलाः । एकविंशतिसूर्याश्च, प्रकाशन्ते सुखावहाः ॥३५॥ जनयन्ति सुतान्सर्वाः, काचिदेव जिनेश्वरम् । धन्या सा त्रिषु लोकेषु, या सर्वज्ञप्रसूः खलु ।। ३६ ॥ शशी भानुः सुधासिन्धुः, सुमेरुर्नोपमीयते ।। येनाऽहं तस्य मन्दज्ञो-गुणान्वक्तुं कथं क्षमः ।। ३७ ॥ सुरगुरुयदि क्तुमुपक्रमेत् ,
तदपि तीर्थंकृतो गुणसन्ततिम् । सततमुग्रधिया न हि पारतां,
व्रजति भूरितरैरपि हायनैः ॥ ३८॥ स्मरणं देवदेवस्य, यो जनो भावतः क्रियात् । नाऽऽयान्ति सन्मुखं तस्य, गजवैरिमृगारयः : ३९ ॥ ऋद्धिसिद्धिनिधानानि, स्वयं यान्ति वशं सदा । राजरोगा विपमृत्यू, पलायन्ते च दूरतः ॥४०॥ शुद्धभावतया स्तोत्र-मेतद्वै नरयोषितः । पठन्ति भवपाथोधि, तीर्खा यान्ति शुभां गतिम् ।।४१॥
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( १२५ )
काsपिनैवापदः स्थानं, प्राप्यते मानवोत्तमैः । सम्यक्त्वधर्मसद्भाव - भावितात्मभिरन्वहम् ॥ ४२ ॥
अर्हत्स्तोत्रमिदं भूरि-संपत्तेरादिकारणम् । पठनाज्जायते सूरि - अजिताब्धिविनिर्मितम् ॥ ४३ ॥
॥ अथ श्रीमहावरिजिनस्तवनं प्रारभ्ये ॥
( भुजङ्गप्रयातवृत्तम् )
नमामि क्षमाशालिनं शासनेशं, शिवर्द्धिप्रियं सौख्य संपत्सुहेतुम् । गुणाऽऽनन्त्यभाजं प्रजापालनेशं, महावीरमीड्यं सुराधीशवर्गैः
विनीतक्षमानाथसिद्धार्थजातं,
कुलस्यन्दनोच्च ध्वजं राजमानम् ॥ समुत्पन्न कैवल्यमापादयन्तं । स्वकीयापरक्षेमसंसाधनानि
॥ १ ॥
॥ २ ॥
॥ ३ ॥
समागत्य सुराधीशाः, समं कम्पितविष्टराः । नवा जिनं गृहीत्वा च गिरिराजमुपाययुः ॥ महोत्सवं वरं तत्र, विधाय शुभभावतः । पुनः संस्थापयामासु - जिनाम्बासन्निधौ जिनम् ॥ ४ ॥
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(१२६) कृतवन्दनका निद्रां, हृत्वा स्तोत्रं विधाय च । निजावासं ययुः सद्यो-विहितोचितभक्तयः ॥५॥ सूर्योदये धरानाथं, वर्द्धापयति किङ्करी । नृपेणाऽतिप्रमोदेन, चक्रे जन्ममहोत्सवः ॥६॥ दानानि विविधान्याशु, दत्तानि विधिपूर्वकम् । मोदमाला धृता रेजे, दीव्यमालोपमर्दिनी ॥७॥ संपन्नयावनः स्वामी, कृतनारीपरिग्रहः । विज्ञायावसरं दीक्षां. जग्राह शिवसाधिकाम् ॥८॥ ततस्तोत्रं तपस्तेपे, दान्तः शान्तो जितेन्द्रियः। ध्याननिष्ठो जितश्वासः, क्षान्तकष्टः क्षमोदधिः।। ९ ।। ज्ञानोद्योतकरः पाप-प्रणाशी गुणसागरः। शुद्धसंयमवाल्लोक-त्राता दूषणघातकः ॥१०॥ निर्मानमोहलोभश्च, माया दूरगता यतः शुक्लध्यानगतश्छिन्न-कर्मवैरी सुकेवली ॥११ ।। महिमानं जिनेशस्य, निशभ्य समुपागताः । विस्मिता लजिताः सर्वे, गतगर्वाश्च जज्ञिरे ॥ १२ ॥ प्रभुणा बोधिताः सद्यः, संयमस्थिरमानसाः । इन्द्रभूतिर्वभूवाद्यो-गणभृत् पूर्वधारकः ॥ १३ ॥ मध्यब्धिशतसंख्यानः, साई दश गणाधिपाः । प्रवीणास्तत्ववेत्तारो-बभूवुरपरेऽग्रहाः ॥ १४ ॥
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(१२७) स्थापितानि चतीर्थानि, चत्वारि शुभहेतवे । कार्याणि नरनारीणां, सिद्धानि कृपया तव ॥ १५ ॥ शैलेषीध्यानमाश्रित्य, शिवसाम्राज्यमाप्तवान् । निरजनो निराकारो-भवदुःखविनाशनः ॥१६ ॥ शुद्धेन चेतसा ध्याये-यो नरः सुखलीप्सया । भवपारं व्रजत्याशु, स क्रमतीणकल्मषः ॥१७॥ कीर्तयन्तो जनाः सद्यः, शर्मसन्ततिदायकम् । श्रीमदहगणं मुक्ति-सौधमासादयन्ति वै ॥१८॥ सुखदुःखसमा बुद्धि-य॑स्य वै जायते सदा । स विवेकी स तचज्ञो-विन्दते चोत्तमां गतिम् ॥ १९ ॥ विधिव-त्सद्गुरोभक्ति-माचरन्विबुधो जनः । सम्यग्ज्ञानक्रियाधर्म-मासाद्य मोदते सदा ॥२०॥ ज्ञानक्रियारतो जीवो-निरवद्यपथाश्रितः। इहलोकसुखं भुक्त्वा, चान्ते मोचपुरी व्रजेत् ॥ २१ ॥ ज्ञानविज्ञानमूलानि,सुखानि सर्वदा नृणाम् । प्रत्यहं वृद्धिमायान्ति, क्षीयन्ते न कदाचन ॥ २२ ॥ सद्गुरोः सेवया तद्धि, प्राप्यते विशदात्मभिः । मार्दवचेन सर्वाणि, कार्याणि सफलानि वै ॥२३॥ इन्द्रियाणि वशं येन, नीतानि नीतिमानिना। तस्य वश्यं जगत्सर्व, प्रणमन्ति सुरा अपि ॥२४॥
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( १२८ )
॥ २५ ॥
इन्द्रियाश्वा महावेगा - धावन्ति विषयार्थिनः । नीरागतामहामन्त्र - स्तद्वशीकरणे स्मृतः इन्द्रियाणि स्वतन्त्राणि, कमनर्थं न कुर्वते । अतस्तेषां निरोघाय, यतितव्यं मनीषिभिः ॥ २६ ॥ विषयान्स्मरतः पुंसः, कामः संजायते ध्रुवम् । कामेनाऽभिहतो जन्तुः, कार्याकार्यविमूढधीः ॥२७॥ किं कार्यं किमकार्यञ्च, नैव जानन्ति कामिनः । कामार्त्तो दुःखमामोति, परत्रेह च मानवः ॥ २८ ॥ वामः कामः कृतो येन, सत्यशर्मविघातकः । दुरन्तभवपाथोधि-मयत्नेन तरत्यसौ
॥ २९ ॥
कामः कुसुमधन्वाऽपि, हरते बलिनां बलम् । अबला छलिता येन, सनलाऽपि दुरात्मना ॥ ३० ॥ तपस्विनोऽपि कामस्य, मुह्यन्ति नाममात्रतः । श्रतस्तन्नामनिर्देशो - हातव्यः सर्वथा जनैः ॥ ३१ ॥
स्तवनं श्रीमहावीर - स्यैतत्सिद्धिविधायकम् । पठतां पठितं लोके - ऽजित सागरसूरिभिः
Sisfac
॥ ३२ ॥
अथार्हत्स्तोत्रं प्रारभ्यते । त्रैलोक्यस्वामिनः सन्तः, सुवाचस्तश्वबोधकाः । अर्हन्तः शिवदा नित्यं कुर्वन्तु सुखसन्ततिम् ॥ १ ॥
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( १२९)
सुतातमातृकाः सौम्य-भ्रातृकाः सुखशीलिनः । सुजन्मानः सुवक्तारः, कुर्वन्तु सुखसन्ततिम् ॥२॥ विशाल भालसन्तानाः, सहस्राष्टकलाञ्छनाः। दयालवः सुकेशाश्च, कुर्वन्तु सुखसन्ततिम् अखण्डाऽदण्डिनोऽनङ्का-प्रचण्डामण्डनालयाः । असङ्गा गुणवन्तश्च, कुर्वन्तु सुखसन्ततिम् । ॥४॥ महावीरा गभीराभाः, सुस्थिरध्यानधारिणः। रुचिरा अचिरक्षोभ्याः, कुर्वन्तु सुखसन्ततिम् ॥५॥ अक्रोधा विश्वभर्तारः, कर्मवैरिदलच्छिदः। अखिना भेदसंभिन्नाः, कुर्वन्तु सुखसन्ततिम् ॥६॥ तीर्थसंस्थापने दक्षाः, पापसन्तानभेदकाः। व्याप्तप्रतापसौन्दर्याः, कुर्वन्तु सुखसन्ततिम्
॥७॥ अस्नेहाः स्नेहसंपूर्णा-निर्गेहा: सुदृढाऽऽलयाः । अदेहाः सुशरीराश्च, कुर्वन्तु सुखसन्ततिम् ॥८॥ अकर्माणोऽभ्रमाऽगर्वा-अमाया मानवर्जिताः। अभोगशोकरोगाश्च, कुर्वन्तु सुखसन्ततिम् ॥६॥ सुज्ञानाराधका नित्यं, विहरन्तो हिताय गाम् ।। सुरासुरेन्द्रसंसेव्याः, कुर्वन्तु सुखसन्ततिम् ॥१०॥ कीर्तयन्तः सुधाकन्पं, बोधं मिथ्यात्वबाधकम् । भक्तवाञ्छाः सुसन्तानाः, कुर्वन्तु सुखसन्ततिम् ॥ ११ ॥
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( १३० )
रटतां दुरितान्येत - द्यन्ते च यदाश्रयात् । अखिलं वाञ्छितं हस्त - संस्थितं जायते ध्रुवम् ॥ १२ ॥
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अन्तः सर्वदा पूज्याः, श्रेयः सन्ततिदायकाः । ध्यातव्याश्च मनोऽगारे, मनःशुद्धिप्रदायकाः पूजयन्ति महाभावा - येईतो भावतः सदा । ते नरा जगदाधारा - अन्ते दीव्यसंपदा अन्तः सकला लोके, सुरासुरनतक्रमाः । निरामया निरावेशा -निर्मायं ददतां सुखम् गणोऽर्हतां भवभ्रान्तिं निहन्ति पूजितः सताम् । शुद्धिबुद्धिप्रदाता च त्रैलोक्यतिल कोपमः
॥ अथ सिद्धाष्टकं प्रारभ्यते ॥
प्रसिद्ध कीर्तिः शिवयोषिदीशः ।
श्रेष्ठः सतां देवविभावनीयः ॥ कर्माणि येनाssशु विखण्डितानि । तनोतु नित्यं शिवशर्मसिद्ध:
कृपानिधिः सिद्धिवितानदक्षः । स्वरूपवानूपकलाविहीनः ॥
अनन्तविज्ञो घनपापहारी । तनोतु नित्यं शिवशर्मसिद्ध :
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॥ १३ ॥
॥ १४ ॥
।। १५ ।।
॥ १६ ॥
॥ १ ॥
॥ २ ॥
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(१३१) गतप्रमादो गतमानमायः,
कलागुणानां स्वयमादिहेतुः ॥ सुसंवरः शश्वदखण्डभाव
स्तनोतु नित्यं शिवशर्मसिद्धः निर्दोषनिर्लोभनिरीतिभावो । विरागविद्वेषविकाररोगः ।।
अगाधबोधिर्भववारिधौ नौस्तनोतु नित्यं शिवशर्मसिद्धा अलक्ष्यरूपो मलबन्धहीन- ।
आहारसंत्रासविहारशून्यः ॥ अभङ्गविज्ञाननिरन्तराम
स्तनोतु नित्यं शिवशर्मसिद्धः विज्ञावलोकादिविशेषभावा
त्रिलोकनाथो जगदेकबन्धुः विभिन्नभोगारिविचित्रजाल
स्तनोतु नित्यं शिवशर्मसिद्धः भवन्तमाराधयतां जनानां,
नश्यन्ति नागानलसिंहचौराः ॥ दुःखानि बन्धाश्च कषायशोकास्तनोतु नित्यं शिवशर्मसिद्धः
॥ ७
।
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(१३२) निरञ्जनः शान्तिसुधासगोत्रो
मुक्तिप्रियाशश्वदुपासितश्च ॥ निवारिताऽत्यन्तभवानुबन्ध- .
स्तनोतु-नित्यं शिवशर्मसिद्धः पठन्ति ये सिद्धगुणाष्टकं वै ।
भावेन ते मुक्तिरमां ब्रजन्ति । इहाऽपि शर्माणि शुभानि लोके ।
न दुर्लभं किश्चिदपि प्रजानाम्
॥८॥
e
॥ अथाचार्यस्तोत्रं प्रारभ्यते ॥ बहुविदनुगतं यत्सुष्टु सम्यक्त्वधारि ।
विमलचरितसारि श्रेष्ठवृत्तानुसारि ।। भवजलधितटाऽऽप्तं पश्चमारप्रचारि।
जयति जयनिदानं सूरिपादारविन्दम् वरनरयुवतीनां बोधतः पापहारि।।
सफलजननकामि ब्रह्मचर्यानुचारि ॥ विजितविषयरोषः सर्वसावधवैरि __ जयति जयनिदानं सूरिपादारविन्दम् युवतिजनकथायां द्विष्टभावं दधानं ।
वरतनुविषमाहित्यागि योगिप्रधानम् ॥
॥२॥
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॥३॥
॥४॥
( १३३) अधिकविषमभोज्यावर्जकं धीनिधानं,
जयति जयनिदानं मूरिपादारविन्दम् अपगतकलिदोषं प्रोज्झितश्रेष्ठवेष
मनभिमतममत्वं वारितोचैःकषायम् । विषमभवविघाति भेदिताऽशेषदुःखं ।
जयति जयनिदानं सूरिपादारविन्दम् हतसकलविकर्मक्लेशसंहारकारि।
झुचितमशनपानं स्वीकृतं येन नित्यम् ।। विहरणमपि यस्य क्षेमदेयोसमित्या ।
जयति जयनिदानं मूरिपादारविन्दम् मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्ण,
त्रिभुवनमुपकारैः पूर्णयत्पूर्णकामम् ॥ शुभचरणरतानां त्रायकं स्त्रीनराणां,
जयति जयनिदानं सूरिपादारविन्दम् प्रवरतनुविभागं शुद्धवाणीप्रयोग,
विशदशुभनयानां पालकं प्रौढभावात् । गुणगणमणिभूभृत्तच्चविद्यानिधानं,
जयति जयनिदानं सूरिपादारविन्दम् हृतकुमतविपक्ष सर्वपक्षप्रवीणं,
शशिसमतनुदीप्ति च्छिन्नपाखण्डभेदम् ॥
॥५॥
॥६॥
॥७॥
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(१३४ ) जिनमतवितनिष्णु क्षेमयोगामिपचं, __ जयति जयनिदानं सूरिपादारविन्दम् ॥८॥ विबुधमनुजवर्गो योऽष्टकं मूरिसत्कं,
शुभपदगुणखानि पापपुञ्जप्रभेदि ।। पठति समयविज्ञस्तीववैराग्यकारि । जयति जयनिदानं सूरिपादारविन्दम् ॥९॥
Stos ॥ अथोपाध्यायस्तोत्रं प्रारभ्यते ॥ संसारपाथोधिनिदानदुःखं,
निघ्नमनानां व्रतदानदक्षम् । सम्यग् निजाचारविधानविज्ञं, स्मराम्युपाध्यायपदं चतुर्थम्
॥१॥ स्थानाङ्गमुख्यानि शिवप्रदानि,
सूत्राणि सर्वाण्यनुसेवितानि । येन आमासेवधिना सुयोगैः,
स्मराम्युपाध्यायपदं चतुर्थम् मुशीलितव्याकरणानुयोगं,
न्यायागपूर्णाङ्गमनम्पधैर्यम् । गुरुक्रमोपासनयार्थविज्ञ, स्मराम्युपाध्यायपदं चतुर्थम्
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॥४
॥
( १३५) उत्पातदावानलवीर्यधाम ।
तत्वार्थविज्ञानमभेदतत्वम् ।। अध्यात्मवादैकरतं विकर्म ।
स्मराम्युपाध्यायपदं चतुर्थम् निबंधविद्यं कृतकर्मनाशं ,
प्राणक्रियापारगतं सुशीलम् । विशालपूर्व पठितार्थसारं,
स्मराम्युपाध्यायपदं चतुर्थम् सत्यप्रियं तर्जितमानमोहं,
भव्यात्मजिज्ञासितपूर्णकारि । विज्ञानसूक्ष्मादितनुस्वरूप,
स्मराम्युपाध्यायपदं चतुर्थम् ज्ञानप्रदं धर्मविचारदक्षं ।
निर्दोषवादं जगति प्रसिद्धम् । श्रीजैनचूडामणिमीब्यपादं,
स्मराम्युपाध्यायपदं चतुर्थम् महावतैः पञ्चभिरेव नित्यं ।
विराजते कर्मदलप्रभेदि ॥ मनोवचाकायत इष्टधर्म।
स्मराम्युपाध्यायपदं चतुर्थम्
॥६॥
॥८
॥
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( १३६ )
पठन्ति ये ज्ञानवितानहेतो- । निःश्रेयस श्रीप्रथनाष्टकं वै ॥ व्रजन्ति ते शुद्धधियस्त्रिकालं, स्वर्गापवर्गस्य सुखं विशुद्धम्
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॥ ६ ॥
॥ अथ साधुस्तोत्रं प्रारभ्यते ॥
श्रमणाय नमस्तुभ्यं, निर्ग्रन्थाय महात्मने । सुभगाय विषप्राया- न्भोगाज्ज्ञात्वा व्रतार्थिने ॥ १ ॥ अनावृत कषायश्च, व्रतपञ्चकभूषितम् ।
नमामि भावतो नित्यं सम्यक्त्वयोगधारिणम् ॥ २ ॥ क्षमावैराग्यवंतो ये, षद्द्रव्यनवतत्त्वगाः । सज्ज्ञानदर्शनाचारा - धन्यास्ते समदर्शिनः
11 3 11
समदुःखसुखोद्रेका-मृत्युभीतिविवर्जिताः ।
गुणानां सप्तविंशत्या, संयमं शुद्धमाश्रिताः ॥ ४ ॥
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उच्छिन्नमोहकर्माण - स्तापत्रयविभेदकाः । धर्म ध्यानरताः शुक्ल-ध्यान संहृतदुर्नयाः सर्व जीवदयादचाः, क्रियाभेदमदोज्झिताः । अखण्डशीलसंपन्नाः, पालका नवधा वृत्तेः । ॥ ६॥ क्षान्ताः परिषहा यैश्थ, द्वाविंशतिरहर्निशम् । प्राणरक्षाकरा भूमिं पावयन्तो विहारिणः
॥ ५ ॥
॥ ७ ॥
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( १३७ )
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एकभक्तचतुर्भक्त-प्रभृतितपसाऽऽदृताः । प्रतिमा मासिकाद्या च सदा संलेखनाप्रियाः ॥ ८ ॥ ऊनोदरतपःक्षीणाः, प्रियभिक्षाशनाः सदा । कायक्लेशसहाः सर्वे, रसत्यागपरायणाः स्वाध्यायध्यायिनो वैया - नृत्य कर्मपरं गताः । अनगाराः शुभाः षोढा, तपसा चीणकम्मषाः ॥१०॥ चन्द्रवच्छीतलाङ्गामा - स्तपस्तर्जित मानवः ।
समुद्रसम गाम्भीर्या-दस्तिवद् धैर्य धारिणः ॥ ११ ॥ लब्धिमन्तोऽनघाः सौम्य - तपसा कान्तकान्तयः । सर्वसहाः चमाखड्गाः, शीलरत्नस्वलंकृताः । १२ ॥ पदानुसारिणः केचित्केचिच्च बीजबुद्धयः ।
वैक्रियलब्धिमन्तश्च विद्याचारणलब्धयः ॥ १३॥
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"
॥ १४ ॥
विपुलजुधियः केचि देके च हृतसंशयाः । मतिश्रुत्यवधिज्ञान - प्रभृतिज्ञानधारिणः कोटिद्वय मितास्तत्र, केवलज्ञानधारिणः । नवकोटिमितोत्कृष्टा - राजन्ते यतयो वराः जघन्यतः सहस्रद्वि- कोटयो मुनयः स्मृताः । धन्यास्ते श्रीजिनेन्द्राज्ञां पालयन्ति सदैव ये ॥ १६ ॥
॥ १५ ॥
येषां स्मरणतो नूनं भावेन दुरितक्षयः । कर्मवैरिदलच्छेदः, सद्यः सञ्जायते नृणाम् ॥ १७ ॥
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( १३८ ) ॥ अथ चतुर्विंशतिजिनस्तोत्रं समारभ्यते॥ जयत्वादीश्वरो नाथो-जयतादजितः प्रभुः।
श्रीसंभवस्तृतीयश्च, मोक्षस्वाम्यभिनंदनः ॥१॥ सुमतिः शिवदःपया, सुपार्श्वमणिरीश्वरः ।
चन्द्रप्रमः सुविख्याता, पुष्पदन्तश्च शीतलः ॥२॥ श्रेयांसः कर्मसंहारी, वासुपूज्यश्च पापहा ।
श्रीविमलो जगत्त्राता-ऽनन्तो धर्मों जयप्रदः ॥३॥ शान्तिनाथः प्रभुः कुन्थु-ररमल्लिजिनेश्वरौ ।
सुखदौ मुक्तिदाता च, मुनीन्द्रो मुनिसुव्रतः ॥४॥ नमीश्वरो विकर्मा चाऽ-रिष्टनेमिः कृपाऽऽलयः ।
श्री पार्थः पार्थतुल्यश्च, वर्द्धमानजिनेश्वरः ॥५॥ चतुर्विशतिरेषेव, जिनानां करुणानिधिः।
प्रणम्यते सदा सद्भिः, केवळज्ञानधारिणी ॥ ६ ॥ पादितीर्थङ्करैः प्रोक्तः, स्वयमेवाऽऽहंतो वृषः ।
नरोत्तमैः सदा ध्यान-मानसैः शुद्धवृत्तिभिः ॥७॥ यत्र तीर्थकरा यान्ति, तत्र पाखण्डिनां क्षयः।
गन्धहस्तिसमा लोके, जनानामुपकारकाः ॥८॥ भव्यहत्पङ्कजोद्योत-मानवोऽसचमोहराः । निर्भयदानदातारो-धर्मान्धलोचनप्रदाः
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( १३९ )
शुद्धमार्गवियुक्तानां, मोक्षमार्गप्रदायकाः । कर्मशत्रुभयार्त्तानां त्रायका जिनपुङ्गवाः जितसंयमभाराश्च वदान्यास्तत्त्वदर्शिनः । बोधिबीजनिधिप्राया-नमस्तेभ्यः पुनः पुनः ॥ ११ ॥
विजितक्रोधविद्वेषा - धर्मचक्रधरा जिनाः । प्रवरज्ञानचारित्र - दर्शना भवतारकाः
॥ १० ॥
॥ १२ ॥
मुक्तकर्माष्टका बोधि-हेतवो मोक्षदायकाः अचलाऽरोगिणोऽनन्ता- निर्वाधा अक्षयाः सदा ॥ १३ ॥
अजन्मानोऽचलां सिद्धिं, संगता विजिताऽरयः ।
प्रभवो यत्र राजन्ते तत्र सिद्धिपरम्पराः ॥ १४॥
"
सुरासुरभुजङ्गन्द्रा- इन्द्रचन्द्रदिवाकराः ।
सेवन्ते शुभभावेन, नरेन्द्राश्चाईतां गणान् ॥ १५ ॥
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तां नाममालेयं, मङ्गला परमा शुभा । चिन्तामणिसमा लोके, पूरिताऽखिल कामना ॥ १६ ॥ नरकादिगतिर्यश्व, मिनाऽनन्तमहर्द्धिभिः ।
कर्मसिंहभयं नास्ति, तत्पदाम्बुज सेविनाम् ॥ १७ ॥ जिनानां नामधेयानि, निघ्नन्ति दुरितोदयम् ।
वैरिणो वशतां यान्ति, रोगा नश्यन्ति चाऽखिलाः ॥ १८ ॥ धनधान्य समृद्धीनां, भाजनं जायते नरः ।
यः स्मरेदेकभावेन, जिनानां नाममालिकाम् ॥ १९ ॥
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( १४० )
तीर्थ कृत्स्मरणान्नूनं वर्द्धते मतिरन्वहम् । देवानामपि सन्मान्यो - भवत्येव न संशयः ॥ २० ॥ जिनस्तोत्रमिदं नित्यं यः पठेच्छृणुयादपि ।
॥ १ ॥
तस्य सद्मनि चत्वारि, वर्तन्ते मङ्गलानि वै ॥ २१ ॥ आदीश्वरः प्रभुः शश्वदादिमस्तीर्थनायकः । नृपाणामादिमो भूपो - व्यवहारविदादिमः निवर्त्तन्तेऽतिदुःखानि वीक्षमाणे जिनेश्वरे । आयुरन्ते च लभते शिवसंपत्तिमक्षयाम् सम्यग्धर्मसरिच्ळैल-चतुर्विंशतिरर्द्दताम् । सुरासुरनरेन्द्राणां माननीया महीयसी
,
9
॥ २ ॥
113 11
मानवानां मनस्तोषः, सतां संपद्यते यतः ।
सैव श्रेण्यईतां श्रेष्ठा, तनोतु जगतां शिवम् ॥ ४॥ निष्कारण जगद्बन्धु - दयाधर्मधुरन्धरा । सर्वकर्मविनिर्मुक्ता, त्रिकालं राजते शुभा
॥ ५ ॥
येषां हृदि स्थिता चैषा, मानहीना मनीषिणाम् । तेsपि निर्मानतां यान्ति, सर्वलोकसुखावहा ॥ ६॥ विषमं भवपाथोधिं, तीर्त्वा यान्त्यपरं तटम् | अर्हच्छ्रेणिपदाम्भोज - प्रथुप्रवहणाश्रिताः
॥ ७ ॥
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श्रानन्दमन्दिरं लोके, जिनेन्द्रवृन्दमद्भुतम् । दीव्यदृष्ट्या सृजत्यस्मिन्, कुशलं कुशलार्थिनाम् ||८||
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( १४१ )
सर्वधर्मप्रधानाऽसौ सर्वदा सर्वदायिना । सप्रभावाऽर्हतां श्रेणी, कुरुतां जगतां शिवम् ॥ ९ ॥
सर्वमङ्गलसद्धेतुः, सर्वकर्मविदारिका ।
सर्वसौभाग्यजननी, सा भूयाद् भूतिदायिनी ॥ १० ॥
व्यराजद्या सदा शैलेs - ष्टापदाख्येऽर्हतां ततिः । वितनोतु जगच्छ्रेयः, सा भवाऽर्त्तिहरा वरा ॥ ११ ॥
॥ अथश्री जिनवाणीस्तवनं प्रारभ्यते ॥ जयन्तु जैनधर्मस्य, देष्टारो जिनपुङ्गवाः । द्वादशांगी सुधाकल्पा, रचिता यैहितावहा यदा तीर्थंकरा देवाः, केवलज्ञानधारिणः । अवधिज्ञानिनो जङ्घा - विद्याचारिगणान्विताः मनः पर्यवभृत्पूर्व-धारिणश्च नभश्वराः । महाध्यानिक्षमासारा-नो सन्ति वैक्रियर्द्धिकाः || ३ || तदा जिनोक्तया वाचा, सारया पञ्चमारके । तरन्ति मनुजाः सर्वे, सुघोरं भवसागरम् शुद्धसम्यक्त्वदेवद्रु- र्दयाविस्तारिणी सदा । हिंसासंवारिणी वाणी, जिनोक्ता भ्रमनाशिनी ॥ ५ ॥ या चिन्नोच्छेदिनी वाणी, शल्यत्रयविभेदिनी । मायाकन्द कुठारी च भवपाथोधितारिणी
॥ ६ ॥
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॥ १ ॥
॥ २ ॥
॥ ४ ॥
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( १४२) यस्यां नैव विपर्यासः, संशयोऽसंभवस्तथा । दोषत्रयं च नैवास्ति, कुतर्कन्यायकल्पना ॥ ७॥ यां विराज्य जना मृत्वा, नरकाऽऽतङ्कवेदिनः । पुनर्गर्भगता लोके, पच्यन्ते धर्मभीरवः ॥८॥ यां विदित्वा हितां भव्याः, शिवशर्मविभागिनः ।। शुद्धसम्यक्त्वसंपन्ना-नष्टमिथ्यात्वसंभ्रमाः ॥९॥ जिनवाचं समाराध्य, नरनारीव्रजः कलौ । साम्यभावेन शिवदं, धर्म याति न संशयः ॥१०॥ जिनवाणीरसज्ञात्रा-ऽजितसागरसूरिणा। रचितं स्तवनं भक्त्या, जनोपकृतिहेतवे ॥११॥
achmen ॥ अथ श्रीगौतमप्रशस्तिः ॥ श्रीवर्द्धमानं प्रणिपत्य पूज्यं,
गुरुं च मूर्ना शुभतत्त्वहेतुम् । श्रीगौतमस्य प्रवरस्य वक्ष्ये,
गुणान्गुणधीरनिधेः प्रभूतान् ॥ १॥ गोवरग्राम आराम-मण्डितोऽभूत्क्षितौ वरः।। चसुभूतिद्विजस्तत्र, वरेण्यः पृथिवीप्रियः एकदा सुखशय्यायां, निद्राणा सा सुलक्षणा । इन्द्रसौधं सुधागौरं, ददर्श दिग्विभासकम्
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( १४३ )
प्रबुद्धाऽचिन्तयत्स्वान्ते, साकिमेतदितिस्वयम् । स्वप्रस्यास्य प्रभावस्तु, ज्ञातव्यः सकलो मया विचार्येतिप्रगे स्वीयं, भर्त्तारं समुपेत्य सा । प्रमोदमेदुरस्वान्ता, स्वप्नवार्त्ता न्यवेदयत्
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॥ ५ ॥
( अपूर्णम् ).
॥ श्रीमन्महावीराष्टकम् ॥ ( शार्दूलविक्रीडितवृत्तम् ) हिंसा यज्ञनिवारकाय जनतासौख्यप्रबन्धार्थिने, स्याद्वादप्रतिबोधतः प्रकटितक्षेमाऽध्वने तायिने । सर्वेष्वङ्गिषु साम्यदृष्टिमनिशं संभाव्य लोकोत्तमां, पूजाऽय नरामरेन्द्रभविनां वीराय तस्मै नमः ॥ १ ॥ शङ्काऽभूत्रिशुरेष सोढुमनलं शैलेन्द्रसानौ हृदि,
देवेन्द्रस्य तदात्मशक्तिरन घेत्याख्यापनार्थं प्रभुम् । पादाङ्गुष्ठनिघाततो गिरिवरं यः कम्पयामासिवान्,
तं वीरं प्रणमामि शुद्ध मनसा कारुण्यपाथोनिधिम् ॥२॥ दीव्योदारसुचारुकान्तिसुभगं सौभाग्यदिव्याऽऽलयं, प्रचीणप्रबलप्रकामविषयं प्रध्वस्तमोहोदयम् । यं देष्टारमनल्पवैरवशगा आजन्मतः प्राणिनोदृष्ट्वा शान्तिमुपागताः समतया वीराय तस्मै नमः ॥ ३ ॥ ध्यानं वीरजिनेश्वरस्य सकलां दत्तेलसत्सम्पदं, सद्बुद्धिं वितरत्यमेयसुखदां यस्य त्रिलोकेशितुः ।
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(१४४) यच्छत्यैहिकशर्मराशिमपरं स्वर्गाऽपवर्ग प्रभु,
वन्दे तं सततं कृपैकवसतिं शुद्धात्मना निर्मयम् ॥ ४ ॥ यन्मुर्तिः शिवशर्मसेवधिरलं लक्ष्यीकृता भावतो
दारियं दलयत्यनर्थजनकं तस्याऽक्षयाऽथेप्रदा । तं वीरं मनसा स्मरामि शिवदं दंदह्यमानं जनं,
त्रातारं भववारिधौ भयनिधौ दुःखाऽनलज्वालया ॥५॥ यस्मिनेत्रपथं गते भवभयभ्रान्तिप्रणाशक्षमे,
भक्तानामभयप्रदे चितितले नश्यन्ति सर्वाऽऽपदः। - प्रत्यक्षीकृतसर्ववस्तुनिचयं निर्बाधबोधाकरम् , तं श्रीवीरविभुं भजामि नितरां निर्वारिताऽरिव्रजं ॥६॥ पीतं यद्वचनाऽमृतं गमयति स्वर्ग जनानुत्तमान् ,
मोक्षश्चापि शनैः शनैः शुभमतीनैकान्तवादश्रितम् । लोकेऽस्मिन् प्रददाति भूतिमनघां निर्बाधसंपद्गृह, तस्मै श्रीत्रिशलाऽऽत्मजाय जगतां पूज्याय नित्यं नमः॥७॥ यन्मूर्तिः स्फुरति प्रकामविशदा येषां हृदि प्रत्यहं,
ते संसारसमुद्रमुन्नतधियोऽभीतास्तरन्त्यञ्जसा । सर्वारिष्टकषायमीनमकरवाताऽतिभीतिप्रदं,
तं श्रीवीरजिनेश्वरं प्रणमत क्षेमार्थिनः प्राणिनः ॥ ८॥ हेमेन्द्रसागरमुनिर्गुरुभक्तिनुन्नः, स्वाऽऽत्मोन्नतिप्रथनधीधृतिमादधानः।
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( १४५ )
स्तोत्रं जिनेश्वर गुण प्रकटं प्रकाशमानीतवानुभयलोकहितैकधाम
श्रीमहावीर जिनस्तवनम् ।
( अयिमातृभूमितेरे - गजल ताक्ष कव्वाली रागेण गीयते ) भगवन् ! विभो ! कृपालो १ १ १ शरणं तवाऽऽगतोऽहम् । विधुनोतु पापपङ्कं कलिदोषदुष्टमनसाम् ॥ भगवन् ! ॥१॥
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विकराल कालपाशा अनुमोचयाऽऽनिराशान् । त्रिशलाप्रमोददायिन् ?, जगदे कसच्वनायिन् ! ॥ भगवन्! ॥२॥
१०
विशदार्थवादशोभिन् ?, शिवसौध मार्गदर्शिन् ? | शरणागतं सुदीनं, परिपालय प्रभाविन् ? ॥ भगवन् ! ||३|| विनयं करोमि भगवन् ?, विधिना नतोऽस्मि वीर ! | भवसागरं हि सुतरं वितनुष्व मे दयालो १ ॥ भगवन् ? ॥४॥
गुणशालिनं भवन्तं, हृदये स्मरामि नित्यम् । तव दीर्घदृष्टिदृष्टो - विनयोदितप्रभावः ॥ भगवन् ! ॥५॥
श्रजितोदधिर्दयालो १ समभावमादधानः स्तवनं करोति शिवदं शुभभावदं त्वदीयम् ॥ भगवन् ! ॥ ६ ॥
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(१४६)
॥ श्रीसिद्धाचलाष्टकम् ॥ भन्याम्भोजदिवाकरं शशिनिमं संसारतप्तात्मना, सोपानावलिममृताशनपदक्षेमार्थिनां नित्यशः । सन्तानं जनवृन्दकल्पितवरानन्तप्रदाने परं, श्रीसिद्धाचलमानमामि गुणतः सर्वज्ञराजिश्रितम् ॥१॥ शुद्धच्यानविभावितेन मनसा सकृत्कृतं सर्पणं, येनानन्पसुकर्मणा यदि समुद्दिश्योर्जितं यं वरम् । तस्याऽनन्तगुणानि कर्मपटलान्यायान्ति नाशं क्रमात् । तं सिद्धाचलमानमामि गुणतः सर्ववराजिश्रितम् ॥२॥ यत्सौन्दर्यवितानमम्बरजुषः स्वगौकसः शाश्वतं, वीक्ष्य प्रौढसुमोददायि मधुरध्वानं स्तुति कुर्वते । के नो झुत्तमलोकवर्तिविबुधा नन्दन्ति सत्संपदा, श्रीसिद्धाचलमानमामि गुणतः सर्वज्ञराजिश्रितम् ॥३॥ यत्प्रौढप्रगुणप्रतापमनघं श्रुत्वाऽश्रुधाराधरालोकालोकविहारिणं जनगणाः संमार्जनं कर्मणाम् । संसारावपारमेतुमनसः के भान्ति नो भान्विताः, श्रीसिद्धाचलमानमामि गुणतः सर्वज्ञराजिश्रितम् ॥४॥ या कालाऽमलसनिमो भवभवनोहण्डकर्मव्रजकक्षायां प्रबलप्रभजननिमो दुर्धानमेघावले ।
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(१४७) जीमूतः सुकृतोपकारसुलतासंवर्द्धने शर्मदा, भीसिद्धाचलमानमामि गुणतः सर्वज्ञराजिश्रितम् संसाराम्बुनिधिस्खलचनुमतां यो नौप्रमावायते, यो वै भीष्ममवाटवीनिपततामुद्यानकन्पायते, यो नैसर्गिकवरबद्धवपुषां निर्वैरमोदायते, तं सिद्धाचलमानमामि गुणतः सर्वज्ञराजिश्रितम् ॥६॥ धर्मार्थिवजमानसोरुसरसि भ्राजत्पयोजप्रभः, संसेव्यः कलिकालजातमनुजैर्योभूतले मावतः। सद्योयः स्मृतमात्र एव सुखदः कैवन्यदः सर्वदा, श्रीसिद्धाचलमानमामि गुणतः सर्वज्ञराजिश्रितम् ॥७॥ यन्माहात्म्यसमाहृतः समजुषः शान्ताः समे संयताः, साध्व्यः साधुगणाचशर्मकलिताः श्राद्धाः कुटुम्बान्विताः । यत्पद्यां न परित्यजन्ति गुणिनः पादं यथा सद्गुरोस्तं सिद्धाचलमानमामि गुणतः सर्वज्ञराजिश्रितम् ॥ ८॥ श्रीसिद्धाचलसंस्तुति वरतमा यो ना त्रिसन्ध्यं पठेव, शुद्धाचारसमायुतः शिवपथप्रेची सतां शोभन: । सोऽक्लेशेन भवं भयोज्झितमनास्तीर्चा विपदायिनं, मुक्त्वाऽनन्तसुखं क्रमेण शिवगः संजायते धर्मवित् ॥ ९॥
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( १४८ )
॥ श्रीतारङ्गतीर्थाष्टकम् ॥
लोकालोकावभासकं विश्वगुणं भासा जगद्योतकं, शान्ताकारमनन्पवीर्यजलधिं जलजेक्षणं मोचदम् ।
प्रत्यक्षीकृततश्वराशिमनिशं स्वात्मस्वरूपस्थितं, तारङ्गाऽजितनाथदेवमनिशं वन्दे मुदा मोक्षदम् ॥ १ ॥
श्रात्मानन्दनिमग्नमचयसुखोत्पत्तोर्निदानं परं मायातीतमभेद्यभेदक धियं ज्ञानामृतेनाणुना । संसारोदधिसेतुसारमचलं निर्भेदकं कर्मणां, तारङ्गा जितनाथदेवमनिशं वन्दे मुदा मोक्षदम्
संसारोदधिमप्रतापशमकं निर्मायिकोदन्तकं, मध्यादयन्जसहस्ररश्मिमनघं सिख्यास्पदे संस्थितम् । हन्तारं निजपादपद्मनिरतानां कर्मणां सर्वदा, तारङ्गाऽजितनाथदेवमनिशं वन्दे मुदा मोक्षदम् ॥ ३ ॥
केनाऽप्यत्र न जीयतेऽजितविभुर्विज्ञायतेऽसौ ध्रुवमन्वर्थ विदधान एष विमला संज्ञां सदा राजते । तं देवासुरपन्नगेन्द्रमहितांयब्जाशुकं पारगं, तारङ्गाजितनाथदेवमनिशं वन्दे मुदा मोक्षदम्
नानादेशसुपत्तनागत महासङ्घस्य सन्तारकं, संसाराऽनलतप्तभूरिमनुजक्षेमाय शीताम्बुदम् ।
॥ २ ॥
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॥ ४ ॥
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( १४९ )
दारिद्र्यं दलयन्तमिष्टमनसां संपूजकानां सदा, तारङ्गाऽजितनाथदेवमनिशं वन्दे मुदा मोक्षदम् ॥ ५ ॥
द्वात्रिंशत्पृथिवीविमिन्नमतुलप्रोद्दामशृङ्गोच्छ्रितं, दीव्यं धाम समाश्रयन्तमचलं नाकीन्द्रसंपूजितम् । संगीतत्रिजगद्यशोधनमनन्तानन्दसन्दोह कं, तारङ्गाजिवनाथदेवमनिशं वन्दे मुदा मोक्षदम् || ६ ॥ प्रालेयाऽचलवद्विपचिसमये स्थैर्थ परं चेतसि, संभृत्यान्यजनोपकारकरणे निर्व्याजबद्धादरम् । सिद्धान्तोच्चनयार्थतस्व निचयं वक्तारमिद्धास्पदं, तारङ्गा जितनाथदेवमनिशं वन्दे मुदा मोचदम् मानुष्यं सफलं तनोति मनुजो यत्पादपद्माऽचनं, -वाक्कायेन हृदा विधाय नितरां निर्धूतपापव्रजः । संसारोदधितारकं शुभगुणश्रेणीप्रदं तं वरं, तारङ्गा जितनाथदेवमनिशं वन्दे मुदा मोचदम् तारङ्गा जितदेवताष्टकमिदं कर्माष्टकष्टच्छदं संसारार्णवशोषकं गुणगणानुच्चान् ददद्धीमताम् | यो नित्यं प्रपठत्यथो स्मरति वा श्रुत्वाऽप्यवश्यं भुवि, सोऽयं याति परं पदं क्रमतया शुद्धस्वरूपं भजन् ॥ ९ ॥
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॥ ८ ॥
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(१५०)
श्रीमल्लिनाथाष्टकम् । प्रभु प्राणनाथं विहंविश्वनाथं,
सदानन्दभाजं परानन्दपुजम् । भविष्यद्भवद्भूतकालोपसन्न,
सदा मल्लिनाथं जिनेशं नमामि ॥१॥ गलेऽनयरत्नावली सन्दधानं,
सुजात्याङ्गदोद्दीप्तबाहुप्रकाण्डम् । सदा मौकटोद्भासमानोत्तमाङ्ग,
___ सदा मल्लिनाथं जिनेशं नमामि ॥ २ ॥ मुदा माकरं भूषणं भूषयन्तं,
महोमण्डलं मण्डनामण्डिताङ्गम् । अनाधि द्यपारं महामोहमारं,
सदा मल्लिनाथं जिनेशं नमामि ॥३॥ उदीच्याननं पावनं राजमानं,
महापापनाशं सदा सुप्रकाशम् । गताशं मुनीशं सुरेशं महेशं,
सदा मशिनाथं जिनेशं नमामि ॥ ४ ॥ शरचन्द्रगात्रं गुणानन्दपात्रं,
पवित्रं चरित्रं सदा यस्य चित्रम् ।
ताज
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(१५१) बनाः कीर्तयन्त्यत्र सर्वत्र मोदाद ,
सदा मल्लिनाथ जिनेशं नमामि ॥५॥ सुनासं विमासन्ततिक्रान्तवक्त्रं,
कलत्रं खनित्रोपमं दर्शयन्तम् । गुणग्रामसंवर्द्धयित्री भ्रकूटिं,
सदा मशिनाथं जिनेशं नमामि ॥६॥ निरकेष्टकुंमांकमाविभ्रतं तं,
समन्तान्नृवन्दोपरिव्याप्तकान्तिम् । विमानं सदानन्तशान्तस्वभावं, - सदा मशिनाथं जिनेशं नमामि ॥७॥ अखण्डं सखण्डं नतानुद्धरन्तं,
भवारण्यदावानलं भावनाऽलम् । निरीशं निरीहं निधि निर्विकारं,
सदा मलिनाथ जिनेशं नमामि ॥ ८ ॥ स्तवं यः प्रभाते जिनेशस्य मझे,
पठेत्सर्वदा तीर्थभावाऽनुरक्तः । धनं धान्यसंपत्तिमासाद्य विधां,
सुहृद्यां परं मोक्षशर्म प्रयाति
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( १५२) (श्रीपानसर) श्रीमहावीराष्टकम् ।।
( पञ्चचामरच्छन्दः ) समस्तमत्तभूतलं प्रशामितं जराभया
दिदुर्घहैः प्रपीडितं सुतप्तलोहविम्बवत् । निमेषमात्रवीक्षणेन येन मे तथाविधे,
मनोविनोदमद्भुतं बिभर्तु वीरनायके ॥१॥ स्वकीयधामराशिभिः सह प्रगुप्तवमणि,
कृतान्तकालदुष्टकामभीतिहारिणि प्रभो । करालसिंहनिईयप्रजेशवचनेच्छया,
मनोविनोदमद्भुतं बिभर्नु वीरनायके ॥२॥ सदोदितेपि रागमोहजेतरि प्रभाविनि,
कुदृष्टिमोहतामसाभिभूतचेतसां सदा । अलक्ष्यभूतभूतिशालिशान्तमूर्तिके मम,
मनोविनोदमद्भुतं बिभर्तु वीरनायके ॥३॥ न चान्तमध्यसादिभेदभावना प्रकल्प्यते,
विराजमानकर्मशेषजातयत्कलेवरे।। सता मते परोपकारकारिमानसे मम,
मनोविनोदमद्भुतं बिभर्नु वीरनायके ॥४॥ सुपानसेरपत्तने चिरन्तने धनेश्वरी,
समाश्रिते कलानिधानधीधनैश्च भोगिभिः ।
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(१५३) कृपालुना प्रकाशिताऽधुना यकेन सत्यता,
मनोविनोदमद्भुतं बिभत्तु वीरनायके ॥५॥ कलाविहारके महाप्रचण्डपश्चमारके,
विपत्तिमुक्तिमिच्छतामदीर्घजन्मिनां विभो ! । प्रकृष्टपुण्यसंञ्चयेन दर्शनं तवेष्टदं,
मनोविनोदमद्धतं विमर्नु वीरनायके तदेतदद्भुतं विभो ! नवीनमित्तिमाजनं,
गृहीतमाश्रयात्मकं त्वया नृणां महालघु । सुविस्मयं दृढं चिकीर्षितुं कलानिधे ! मम,
मनोविनोदमद्भुतं बिभर्तु वीरनायके ॥७॥ परम्पराश्रुतेन कुष्टमानसा महाजनाः,
स्वकीयसन्ततिव्रजेन सार्द्धमाशुदर्शनम् । प्रभो ! त्वदीयकं सुचिन्तयन्त आव्रजन्ति मे,
मनोविनोदमद्भुतं बिभर्तु वीरनायके ॥८॥ इदं तु दुष्कर्मकष्टनाशकं महाष्टकं,
गुणाऽप्रमेयकीर्तिजातकस्य शस्यतेजसः । प्रवीरतीर्थनायकस्य ये नरा गृणन्ति ते,
भुवि न वै विलोकयन्ति दुर्गति कदाप्यहो! ॥९॥
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॥ श्रीमद्गौतमस्वामिस्तोत्रम् ॥ श्रीगौतमस्तोत्रमुदारभावं, विरच्यते सिद्धिवितानमूलम् । वचस्विनां संसरणीयतत्त्वं, प्रातः सदा शुद्धिविधानदयम् ॥१॥ व्यभूषयद् गोवरपत्तनं यो, माता यदीया पृथिवी सुशीला। पिता यदीयो वसुभूतिविप्र-स्तमिन्द्रभूति गणिनं नमामि॥२॥ श्रीवाडवज्ञातिनभोमणियों, वेदान्तविद्यासु महाप्रवीणः। यज्ञादिकार्येषु सदाऽनुरक्तो-व्यस्तारयदिक्षु गुणान् स्वकीयान्।३। येनात्मवंशोनतिरुनतेन, सतां मतेनोच्चगुणालयेन । तेने महानन्दमयेन शस्त-व्रताऽनुयोगेन दयामयेन ॥४॥ सर्वसहानाथनतक्रमण, क्रमेण लूनाऽखिलविघ्नकेन । येन क्रियाकाण्डरतेन भूति-चक्रे जगद्विस्मयदानदक्षा ॥ ५ ॥ योऽदीनभावः शुमभावनाभि-विद्यावतां पूज्यमहाप्रभावः । विस्तारयामास गुणानुवादी, ग्रन्थाननेकाञ्जिनवम॑गामी॥ ६॥ विभावितात्माऽनुभव: सुयोगी,प्रशस्तलब्धिप्रथितप्रभावः । योऽधारयन्मुख्यगणाऽऽधिपत्यं,जिनेशितुः पादसरोजसभिषौ७ संपादिताऽनेकमहद्धिको यः, संपादयामास मनोऽथितानि । नानाविधान्यचतलब्धियोगा-चारित्रसाम्राज्यविभासितानाम् । वसुन्धरा रत्नवती बभूव, यज्जन्मना शान्तिनिकेतनेन । प्रभाविनाहिप्रभवोऽत्रलोके, लोकोपकाराय बुधैः प्रदिष्टः ॥९॥
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(१५५)
यो भूरिमाग्योपचयेन भूमौ, विभूतिसारे वसुभूतिगेहे । क्रीडाविलासं विमलं विधातु-मियेष धर्मप्रथनाऽभिलाषः॥१०॥ सुराऽसुरेन्द्रस्पृहणीयशील-आजन्मनः श्लाघ्यगुणाऽनुवादः। तत्त्वोपदेशेन समुद्धरन् यो-वृन्दं जनानां प्रबभौ नतानाम् ॥११॥ प्रशासको दुर्नयमानवाना, निवारकोऽधर्ममतोधतानाम् । प्रभावको यो हि बभूव धर्म-तत्वस भेत्ता भवबन्धनस्य ॥१२॥ यः पुण्डरीकाऽध्ययनं ततान, तेनैव संबोधयति म नम्रम् । तिर्यङ्महाजृम्भकलोकपालं, गुणाऽनुरक्तं गणभृद्वरेण्यः॥ १३॥ योऽष्टापदं तीर्थवरं स्वशक्त्या, तपस्विनां विस्मयमादधानः । तीर्थकरध्याननिमनचेता-गत्वा महानंदमियाय योगी ॥१४॥ अष्टापदं दीव्यगिरीन्द्रमेतुं, तपस्विनः केचन बद्धकक्षाः। तथाऽपि तदर्शनमेव तेषां, जातं न पूर्वाऽर्जितकर्मदोषात्॥१५॥ योऽष्टापदं याति धराधरेन्द्र, तस्मिन् भवे मोक्षगति स याति । दीव्योक्तिमित्थं हि निशम्य वीर-गिराऽतिहृष्टः प्रययौ गिरिं तम्।। अष्टापदं निर्जरराजशैल-मासाद्य लोकोत्तरसम्पदाव्यम् । सुराऽसुरेन्द्रप्रथितप्रभावं, स्वतेजसा निर्जितभानुमन्तम् ॥१७॥ माचमुख्यायतनं विभान्तं, दिगन्तविश्रान्तविभावितानम् । तीर्थङ्कराणां प्रणतिं विधाय, स्तुति व्यधत्त प्रगुणांस भक्त्या.
॥१८॥ युग्मम् ॥
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(१५६) विधाय प्रीत्योत्कटचैत्यवन्दनं, प्रदक्षिणीकृत्य जिनेन्द्रराजिम् मेने निजं जन्म कृतार्थमिन्द्र-भूतिः समुन्मूलितकर्मराशि:१९ अथाऽऽससर्वस्व हवाऽतिहृष्टः, पूर्णात्मकामश्च विभुप्रभावात् । स्मरन्गुणास्तीर्थकृतां स भव्या-नवातरद् भूरिमुदागिरीन्द्राद तीर्थप्रभावेण पवित्रिताऽऽत्मा, ज्ञानप्रभाभासुरदीव्यदेहः । भक्षीणलब्धिप्रथितप्रभावो, निवर्चमानः स महानुभाव॥२१॥ वन्यभ्रवाणेन्दमितांस्तपस्विनः,प्रपेदिवान् ध्याननिमग्नचेतसः। मार्गस्थितान् गन्तुमशक्तदेहा-नष्टापदं तीर्थ कृतां दिदृवया२२ तपःप्रभावेण विराजमाना-स्त्यक्ताऽशना निर्मलचित्तभावाः । स्थिराशयास्तत्र थियासवस्ते, सर्वे हि वाञ्छन्त्यनुकूललामम्२३ समीक्ष्य तत्तापसवृन्दमारा-द्वतीन्द्र इष्टार्थविधानदचः । सभाजितस्तैर्निजदृष्टिलक्ष-स्तस्थौ क्षणं तत्र परोपकृत्यै ॥२४॥ महामहिम्नां वरमास्पदं यो, निदानमेकं सुखसम्पदानाम् । नानाऽर्थलब्धिप्रमत्रो बभूव-प्रत्यक्षमर्तिः शुभभावनानाम् २५ योऽपूरयत्कामितमङ्गभाजां, चिन्तामणिश्चिन्तयताभिवाशु । विघ्नौधकाराङ्गण सेविनश्च, निजप्रभावेण चकार मुक्तान्।।२३।। यो दीव्यलब्धिप्रथितः पृथिव्यां, समुहधारेह दयाद्रचेताः । धर्मक्रियादीनमतीनतीता-अतिप्रवीणान् भवतापतप्तान्॥२७॥
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( १५७ )
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योऽक्षीयल विधप्रचितस्वभावः, श्रियाऽक्षयाऽऽनन्दविभू
षिताङ्गया । नित्यं समासेवितपादपद्मः, सम्यक्प्रभाभावितमानसो हि ॥ २८ ॥ यनामाक्षरकीर्त्तनेन मनुजाः प्रातर्मनोवातिं,
सेवन्ते निखिलापदो विषसमा व्यावर्त्तयन्ति क्षणात् । प्रत्यक्षं कलयन्ति दुर्लभतरं वस्तुप्रकाण्डं परं,
दुष्टग्राहसमाकुलं जलनिधिं पश्यन्ति कासारवत् । २९ । यदीयनामस्मरणेन नूनं, नश्यन्ति भूतादिमहोपसर्गाः । रुजार्जिताः स्वर्गसमान देहा- दुःस्वप्नभाजोऽपि शुभान्विताः स्युः। यदीयनाम्नि स्मृतिगोचरं गते, व्यालः करालः सुममालिकायते विरोधिवर्गः शुभकिङ्करायते, पश्चाननौघः स्वयमाविकायते ३१ स्मरन्ति यन्नाम विभातकाले, महाशया ये शिव भूतिकामाः । तेषां न दारिद्र्यपिशाच ईशः, पराजयं कर्तुमनर्थमूलः ॥ ३२ ॥ मेधाविनो ये स्मृतिमानयन्ति यन्नाम सद्भूतिविधानदक्षम् । व्रजन्ति ते मङ्गलमालिकाच परत्र संपत्तिमखण्डितां वै ॥ ३३ ॥ अजितसागरसूरिविनिर्मितां प्रथितपुण्यमयीं सुखशेवधिम् । पठति यः स्तुतिमाद्यगणेशितुः, स लभते शिवशर्म निरामयः ३४
गौतमस्वामिनः प्रातः स्मरणं मङ्गलप्रदम् । सोपानं स्वर्गसम्पत्ते - मोक्षशर्मनिकेतनम् || ३५ ॥
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( १५८) । गुरुगुणगीतम् ।
। कव्वाली। महानन्दं निरानन्दं, निराकारं निराबाधम् ।
सुखाकारं चिदानन्दं, पदं शुद्धं सदाऽभीष्टम् ॥ क्रियाकाण्डं समभ्यस्तं, तपस्तप्तं त्रिधा गुप्तम् ।
नरामरनाथसंभुक्तं, पदं मनसाऽपि नो क्लृप्तम् ॥ प्रभो ! बुद्ध्यधिसूरीश ! स्मरामि त्वत्पदाम्भोजम् ॥ १॥
भजनमैकान्तिकं कान्तं, निरारम्भं जनानन्दम् । विशालं लालितं तावत्, कृपासिन्धुव्रतीशेन ।। __ सदा सूरीन्द्रतातायिन्! महायोगीन्द्रपदधारिन्! प्रभो! ॥२॥ कुवोधारे ! विमोहारे ! भवभ्रान्तिक्रमच्छिन्न !
रचिततवाकरग्रन्थ ! सदागमसारनिर्मन्थ ! परापरभदतात्यागिन् ! निरंजनदेवतारागिन् ! । प्रभो!।३॥
क्षमाधारिन् ! गुणाचारिन् ! प्रतापिन् ! बालब्रह्मचारिन् ! महायोगिन् ! पराभासिन् ! सुभाषितसारताधारिन्.! .. धराधीशप्रजापविन् ! विपक्षारिक्षयाकारिन् ? प्रभो! ४ मणीमोतीलन्लुवाडी-समेतो वीरचन्द्रश्च ।
गुणानन्दे रता मोहन,-जीवनमुख्या महाभक्ताः ॥ कृतार्थ मन्वते जन्म, स्वकीयं सर्वदा भक्या प्रभो! ५
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( १५९ )
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जगजीवास्त्वनेकेऽमि, भवद्वाबीसुधासिक्ताः भवापत्तिं चणात्तीर्त्वा महानन्दाऽऽलये रक्ताः । कृताः केऽपि त्वया मुक्ता- महामारी भयाद् भक्ताः ॥ प्रभो ! ॥
मधुपूर्यां जिनाधीश - महासौधान्तिके रम्यम्, सुघण्टाकर्णवीरस्य, निकामं मन्दिरं शुभ्रम् । विभाति त्वत्कृपालेशात्, सदा दीपप्रभादतिम् ||प्रमो !७ । कियन्तो देशवासिनः समासाद्य प्रकटबोधम्, भवच्चरणाम्बुजासन्ना - महासंसारपारीणाः ।
विभान्ति प्रेमसंबद्धाः, स्वपरपक्षात्रिता लोकाः ॥ प्रभो! ||
जननमरणापहो लोके, त्वदन्यो दृश्यते नैव,
इदानीं कं गमिष्यामः ! शरण्यं तत्रजिज्ञासुः । मुनीनां मण्डलं शून्यं, विभाति त्वदूविभाहीनम् ॥ प्रभो ! ॥
सुधासारां भवद्वाणीं, कृष्ण गीतामयीं पीत्वा, सदा शाश्वतसुखागारं प्रयाताः संसृतेः पारम् । विशुद्धं चित्रचारित्रं, त्वदीयं सिद्धमुखमित्रम् || अजितसूरिकृतं स्तोत्रं सदा बुद्धिप्रदं भवतु ।। प्रभो ! ॥ १०॥
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( १६०) । श्रीसद्गुरुस्मरणम् ।
। सन्धरावृत्तम् ।
श्रीमन्तं ज्ञानवन्तं विशदमतिमतां संमतं चारुमूर्ति।
सौभाग्यकप्रधानं प्रवरसुखपदं सर्वशास्त्रप्रवीणम् ।। शुद्धाऽऽनन्दप्रकाशं विबुधजनवरं कर्मभूमीखनित्रं, कुमान्धि सूरिवर्य स्मरस मुवि जनाः ! सद्गुरु
दीव्यरूपम् ॥ १॥ अठयक्तार्थप्रबोधं प्रमथितमदनं धर्मतत्त्वप्रधानं ।
विद्योधानाऽम्बुसेकं समधिगतसुखं साधिताऽर्थप्रमाणम् ॥ सचित्ताऽऽनन्दगेहं जननमृतिहरं मृत्युपारं प्रयातं । बुद्धथन्धिं मूरिवर्य स्मरत मुविजनाः। सद्गुरुं
दीव्यरूपम् ॥ २॥ रेरे! मध्यात्मलोकाः श्रयत पदयुगं यस्य सिद्धान्तमाजो
मोचस्वर्गार्थदाय विविधसुखमयं सर्वसम्पच्छ्रितस्य ॥ बिमाऽनर्थप्रतानं कविकुलतिलकं भूरिलोकप्रगीतं, बुद्धब्धि मूरिवर्य स्मरत भुविजनाः ! सद्गुरूं
दीव्यरूपम् ॥३॥ श्रीमद्विद्यापुरस्था नरयुवतिगणा बोधपीयूषसारं,
पीत्वा पीत्वा निकामं सुखरतिमगमन् दिक्षु लोकाश्च यस्या
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(१६१) लोकालोकप्रभावं सदतुलविभवं सिद्धिशमैकधाम । बुद्धयन्धि मुरिवर्य स्मरत मुविजनाः ! सद्गुरुं
दीव्यरूपम् ॥ ४॥ गीता गीतार्थयुक्ता श्रितनिगमनया येन सा कृष्णगीता।
विद्वद्वर्येण सारा विलसति वसुधामण्डले मोदमाला ॥ योगाङ्गज्ञानवित्ता सुरचितघटना मिनकर्मप्रभावा । बुद्धयन्धि सूरिवर्य स्मरत भुवि जनाः ! सद्गुरुं
दीव्यरूपम् ॥५॥ दर्श दर्श प्रभावं भवदभयहरं यस्य सूरीश्वरस्य । __ श्रावं श्रावं यदीयां भजनविरचना निर्ममत्वार्थबोधाम् ।। स्मारं स्मारं च शैली गुणगणविदितां तुष्टिमन्तः समस्ता, बुद्धयन्धि सूरिवयं स्मरत भुविजनाः ! सद्गुरुं
दीव्यरूपम् ॥ ६॥ सारं सारस्वतं यो मनसि कलितवानक्षतं शुद्धबुद्धया ।
न्यायं नव्याऽनवीनं स्मृतिविषयम(लं)रं चक्रिवानेकभावः॥ वेदान्तं वेदसारं भजनपदतया व्यावृणोदक्षतार्थ । बुद्धयब्धि मूरिवर्य स्मरत मुविजनाः ! सद्गुरुं
दीव्यरूपम् ।। ७॥ भूतानां भूरिभाग्याद् गुरुगुण निलयं यं धरन्ती धरित्री। रत्नाव्या कीर्तितेयं जनहृदयहरं कल्पवल्लीप्रभावम् ।।
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(१६२) देवं सर्ग प्रपभस्तदखिलजनताऽभाग्यमेवाधुनाऽसौ । बुद्धयन्धि सूरिवर्य स्मरत भुविजनाः ! सद्गुरूं
दीव्यरूपम् ॥८॥
। गुरुविरहाष्टकम् ।
। ललितच्छन्दः। भवभयात्तिह ते पदाम्बुजं, भुवि सुदुर्लभं सूरिपुङ्गव । । गुरुकृपानिधे ! बुद्धिवारिधे !, वितर दर्शनं कामदं वरम् ॥१॥ स्मरणमुत्कटं ते मुनीश्वर !, प्रवरशर्मदं भक्तवल्लभ ।। वरद ! विश्वतस्तारकोत्तम !, वितर दर्शनं कामदं वरम् ॥२॥ कलिमलापहं भद्रकीर्तनं, तव विभो ! क्षितौ क्षीणकर्मणः ।। श्रुतमहोदधेस्तत्ववेदक!, वितर दर्शनं बुद्धिवारिधे ! ॥३॥ तब विभूतयः सर्वतः स्थिता-मतिमतां मनःसमनि प्रभो। कलयितुं न कोऽप्यस्ति ताः क्षमो-वितर दर्शनं बुद्धिवारिधे ।।४। तव समाधिना नाथ ! केवलं, शयनमङ्गिनो दुर्भगाः खलु ॥ विधिवशादिदं जातमक्षम, वितर दर्शनं बुद्धिवारिधे ॥५॥ विशदभूतिमात्रौकिको गण-स्तव गुरो! वचःसंपदा सदा ॥ तदपि ताव दर्शनं वरं, नहि जनः प्रभो ! विस्मरत्यहो॥३॥
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( १६३) मधुमतीजनक्षेमदायक :, विविधतवतोगीतगायक ! विगतमन्युना संघपालक !, तव गुरो ! शुभं दर्शनं सदा! ७ भवति शोभनस्त्वद्रतो जनो-निखिलसिद्धिमाग् दुर्गवस्तथा ।। परममावतः प्रेमभाजन ! वितर दर्शनं बुद्धिवारिधे ! CH
भवारण्ये भ्रान्ता-जननमरणवातविधुरा
अनेके संयाता-ध्रुवपदमखण्डात्मविमवाः । अयं ते सद्भावः, समजनि महामोदजनकइदानीं स्वर्यातः, किमु गुरुवर! चेमसदन !९!
। गुरुस्मरणाऽष्टकम् ।
। वसन्ततिलका। सच्चित्सुखाऽऽस्पदमनन्यगुणानुहारी,
सौराष्ट्रराष्ट्रजनतापरिपुप्रहारी । निर्मानमोहभवभीतिरघापहारी,
सूरीशबुद्धिजलधि-भूवि तापहारी दीव्यात्मशक्तिरविणा हृदयावरूद,
गाढांधकारमखिलं भवता निरस्तम् । विज्ञानवास ! कुमताऽध्वनिवारकस्त्वं,
रिक्ता त्वयाद्य वसुधाधिविराजते नो ॥ २ ॥
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सर्वागमार्थविदखण्डितबोधगेहं,
विद्यापुरस्थजनमङ्गलहेतुराद्यः। प्रधाऽमरेन्द्रपुरवासमनुप्रपन्ना,
शून्यं विभाति जगदिष्टगुरो ! समस्तम् ॥३॥ श्रीमरिपुङ्गव ! विमो ! जनसंशयानां,
छेत्ताऽधुना न सुलभः समतानिधानः ॥ कं ज्ञानिनं समधिगम्य मनोऽभिलाषं,
पूर्णीकरिष्यति वचःसुधया जनोऽयम् ॥ ४॥ विद्यावतां व्रतजुषां स्पृहणीयशीला,
शीलाङ्गमारवहनेऽतिधुरन्धरधीः । अध्यात्ममण्डलविभावक आत्मनिष्ठः,
सूरीशबुद्धिजलधिः स्वदशां प्रयातः ॥५॥ आनन्दमूर्तिरखिलागमसारवेदी,
विज्ञातदर्शनमतो मतभेदभिन्नः। संप्राप्तपण्डितपदः कविराजराजः,
सूरीशवुद्धिजलधिःस्वगति प्रपन्नः ॥६॥ श्रीवीरशासनमिदं रुचिरं विभाति,
यद्वाग्विलासविभवेन सुविस्तृतेन । यत्पादपङ्कजरतिः शुभदा नराणां,
सूरीशबुद्धिजलधिः स्वगति प्रयातः ॥७॥
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( १६५ )
श्री सद्गुरो ! मतिसुधाकर ! तावकीनं, पादारविन्दमतुलं सततं स्मरामि ।
नान्यन्मदीयशरणं कलयामि सूरे !
संसारतारक ! विभो ! भवपारगामिन् ? ॥ ८ ॥
दिव्यात्मशक्ति सुरपादप कल्पमेतद्गुर्वष्टकं स्मरति यः कलिदोषदुष्टः ।
निर्मृष्टकर्ममल प्रात्मिकधर्मरक्तः,
स चिप्रमुन्नतमतिः प्रतियाति सिद्धिम् ॥ ९ ॥ सूरीश्वरेण सुधियाऽजितसागरेण, संगीतमेतदनपायसुखप्रदायि ।
गुर्वष्टकं गुरुगुणानुविधानदक्षं,
स्मर्तुः सदा सुखकरं कलिकालमध्ये ॥ १० ॥ समाप्तम्
श्रीमद्- हरिभद्रसूरीश्वरगुणाष्टकम्.
( भाक्रान्ता वृत्तम् )
येन क्षेमं सकलजनताविचिन्तितमाहितं, तत्वार्थेन प्रकटितगुणं विभासितवस्तुना ।
"9
१ "भाराक्रन्ता मभनरसला गुरुः श्रुतिषड्हयैः ||
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सिद्धात्मानं श्रुतमतिनिधि गुरुं हरिमद्रकं. सूरीशं तं शुभगुणयुतं नमामि गुणोदधिम् ॥१॥
( मन्दाक्रान्ता वृत्तम् ) सम्पनार्थ शुभपदगतं शुद्धतत्वाऽवबोधं,
तत्त्वज्ञानां सततसुखदं पूजनीयक्रमाऽब्जम् । सद्भव्यानां भवभयहरं केवलं शान्तमूर्ति,
नन्नम्येऽहं विदितविभवं हारिभद्रं मुनीन्द्रम् ।। २॥ मिथ्यातत्त्वप्रबलतमसा भेदने भानुमन्तं,
मिथ्यामोहनुभितमनसा मोदने यत्नवन्तम् । संसाराऽन्धी विषयविषमे मजतां तारकं तं, __ वन्दे नित्यं सकलसुखदं हारिभद्रं मुनीशम् ॥ ३॥ जैनो धर्मः प्रवचनमयो येन संपादितोऽलं,
शास्ता धर्म सुनयविकलप्राणिनां यो विशुद्धम् । सद्भावानामुचितसरणीमादिशन्तं तमीशं, ___ध्यायामि श्रीविभवनिलयं हारिमद्रं मुनीन्द्रम् ॥४॥ चक्रे येन प्रशममतिना ग्रन्थवारो वरिष्टा,
येनोद्दभ्रे जिनमतिगणो दुर्विपाकादनन्तात् । छिया पाशं मदनविषयं यो विशुद्धाशयोऽभूत् ,
वन्दे भूयः प्रशमविभवं हारिभद्रं यतीन्द्रम् ॥५॥
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(१६७) सुप्रापेयं शिवपदगतिर्येन चक्रे स्वभावाद् , __ दुष्प्रेक्ष्योऽयं प्रवचनमहासागरो येन दृष्टः । दुर्वाश्यं कुमतिवनिता वारिता येन सद्या,
तं सूरीशं भजत सततं हारिभद्राऽभिधेयम् ।। ६ ॥ ज्ञानागारं प्रथितविभवं छिन्नदारिद्यजालं,
लीनं स्वान्तं जिनवरपदे पुण्यसद्भावहेतौ । योगाङ्गानां प्रथनपटुताधारकं सुप्रसिद्धं,
मरीशं तं स्तुतिविषयता हारिभद्रं प्रकुर्वे ।। ७ ।। येनाख्यातः प्रविदितदयाधर्म एषोऽत्रलोके,
येन त्राता सकलजनता दुर्गतौ या पतन्ती । येनाऽऽक्रान्ता जलधिवसना निर्निमित्तोपदेशाद् , ___ वन्दे नित्यं विबुधविनतं हारिभद्रं यतीन्द्रम् । ८॥ मोहाधीनं जगदतिदयः संनिरीक्ष्य क्षमी यः,
तत्क्षमाय क्षपितविकथो बद्धकतः सुलचः। चक्रे ग्रन्थांललितविषयान्माहवैरिप्रणाशान् , - वन्दे नित्यं भविकशरणं हारिभद्रं मुनीन्द्रम् ॥९॥ सूरिस्तोत्रं मुनिगुणयुतेनाऽजितोदन्वतेदं,
जग्रन्थारं हतकलिमलं मोक्षलक्ष्मीनिशान्तम् । श्रोत्राधीनं स्मरणविषयं ये सदा तन्वते तत् , सम्पधन्ते विदितविभवास्ते सुरेन्द्रादिलक्ष्मीम्॥१०॥
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( १६८ )
॥ कलिकाल सर्वज्ञश्रीमद् हेमचन्द्राचार्य -
गुणाष्टकम् ||
|| मन्दाक्रान्तावृत्तम् !
नित्यानन्दं परमसुखदं ध्येयमूर्त्तिप्रभावं, ज्ञानागारं भवभयहरं सौम्यतापन्नभावम् । शुद्धस्वान्तं सकरुणमतं वन्दकानां सुनावं,
सूरिं ध्याया-म्यहमनुदिनं हेमचन्द्रं मुनीन्द्रम् ॥ १ ॥
कृत्याकृत्यं जिनमतवता - माततानातिशुद्धयै, लोकालोक - प्रथितसुमति --र्योऽनवद्यप्रतापः । वैरिव्रातं विमतिसदनं दूरतः संजहार,
सूरीशं तं हृदयकुहरे हेमचन्द्रं स्मरामि
निर्विण्णानां परमशरणं संसृतौ केशराशौ, भव्यारामं कालवनदवोचापितानां नराणाम् । तं देवदुं श्रुतिपथगतं चोणिपानामचिन्त्यं, सूरिं ध्याया-म्यहमनुदिनं हेमचन्द्रं मुनीन्द्रम् ॥ ३ ॥
चोणीपालं जिनमतविदं चत्रिवान्धर्मचक्री, शुद्धज्ञाना- तुभितमनसं वीरकौमारपालम् ।
॥ २ ॥
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१६९) यो विद्यानां सकल सुबने सिद्धिदानां प्रणेता,
तं सूरीशं समुदितमना हेमचन्द्रं स्मरामि ॥४॥ शास्त्रश्रेणी विविधविषयां यो वितेने विशालां,
सञ्चारित्रा-ण्यतिरसमया-न्यद्वितीयानि चक्रे । सिद्धान्तानां जिनततिकृतां पारदृश्वाऽवनौ य
स्तं सूरीशं प्रमदमनसा हेमचन्द्रं भजामि ॥५॥
नक्षत्रेश-प्रमितवदनं वन्दनीयक्रमाज,
विनवात-प्रमथनपटु-स्वच्छमद्रास्वरूपम् । शान्ताशान्तं मनुजपदवी पूर्णतायै प्रयातम्,
वन्दे भूय-स्तमतुलगुणं हेमचन्द्रं यतीन्द्रम् ॥६॥ सिद्धचोणी-पतिमतिदया-दक्षिणं यश्चकार,
योगाङ्गानि चतमलचया-न्याततानातिशुद्धः। पीठारूढोऽम्बरतलगतोऽबोधयत्सभ्यलोकान् ,
तं सूरीशं सकलहितदं हेमचन्द्रं भजेऽहम् ॥७॥ वन्द्यैर्वन्धः प्रचुरदयया वासितान्तःस्वभावो,
योऽनन्तानामतिशयजुषा संपदा मुख्यभूमिः । प्राविश्वके जनमुखकृते सिद्धिमूलश्च सौख्यं, तं पूरीन्द्रं मननविषयं हेमचन्द्र प्रकुत्रे ॥८॥
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( १७०) श्री बप्पभटिसूरिविरचितम्.
शारदा-स्तोत्रम्.
( द्रुतविलम्बितम्.) कमलरालविङ्गमवाहना, सितदुकूलविभूषणलेपना। . प्रणतभूमिरहामृतसारिणी, प्रवरदेहविभाभरधारिणी ॥१॥ अमृतपूर्णकमण्डलुहारिणी, त्रिदशदानवमानवसेविता । भगवती परमैव सरस्वती, मम पुनातु सदा नयनाम्बुजम् ।।२।। जिनपतिप्रथिताखिलवाङ्मयी, गणधराननमण्डपनर्तकी । गुरुमुखाम्बुजखेलनहंसिका, विजयते जगति श्रुतदेवता ॥३॥ अमृतदीधितिविम्बसमानना, त्रिजगतीजननिर्मितमाननाम् । नवरसामृतीचिसरस्वती. प्रमुदितः प्रणमामि सरस्वतीम् ॥४॥ विततकेतकपत्रविलोचने !, विहितसंसृतिदुष्कृतमोचने ! धवलपक्षविहङ्गमलाञ्छिते !, जय सरस्वति ! पूरितवा
छिते ! ॥५॥ भवदनुग्रहलेशतरङ्गिता-स्तदुचितं प्रवदन्ति विपश्चितः । नृपसभासु यतः कमलाबला-कुलकलाललनानि
वितन्वते ॥ ६॥ गतधना अपि हि त्वदनुप्रहात-कलितकोमलवाक्यसुधोर्मयः। चकितबालकुरङ्गविलोचना-जनमनांसि हरन्तितरां नराः।
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(१७१) करसरोरुहखेलनचशला, तव विभाति वरा जपमालिका । श्रुतपयोनिधिमध्यविकस्वरो,-ज्वलतरङ्गकलाग्रहसाग्रहा। द्विरदकेसरिमारिभुजङ्गमा-सहनतस्करराजरूहां भयम्। तव गुणावलिगानतरङ्गिणां, न भविनां भवति श्रुतदेवते।।९। ॐ ह्रीं क्ली ब्लू ततः श्री तदनु हसकलडी मथोएँ नमोऽन्ते । लक्षं साक्षाजपेद् यः करसमत्रिधिना सत्तपा ब्रह्मचारी। निर्यान्ती चन्द्रविम्बात् कलयति मनसा त्वां जगञ्चन्द्रिकामा। सोऽत्यर्थं वह्निकुण्डे विहितघृतहुतिः स्याद् दशांशेन ।
विद्वान् ॥ १० ॥ (स्रग्धरावृत्तम्.) रेरे लक्षण-काव्य-नाटक-कथाचम्पूसमालोकने, क्वायासं वितनोषि बालिश ! मुधा किं नम्रवक्ताम्बुजम् । भक्त्याऽऽराधय मन्त्रराजमहसाऽनेनानिशं भारती, ये न त्वं कवितावितानसविताद्वैतप्रबुद्धायसे ॥११॥ चश्चचन्द्रमुखी प्रसिद्धमहिमा स्वाच्छन्धराज्यप्रदा, नायासेन सुरासुरेश्वरगणै रभ्यर्चिता भक्तितः । देवी संस्तुतवैभवा मलयजालेपाझरङ्गद्युतिः, सा मां पातु सरस्वती भगवती त्रैलोक्यसंजीविनी ॥१२॥. स्तवनमेतदनेकगुणान्वितं, पठति यो भविकामनाःप्रगे। स सहसा मधुरैर्वचनामृत-नृपगणानपि रञ्जयति स्फुटम् ।१३।.
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(१७२) श्रीतारङ्गातीर्थकोटिशिलास्तुतिः। कोटिप्राणिसमुद्धृतौ धृतमहासामर्थ्य सारां वरामुष्णाशुं मिलितुं प्रवृद्धवपुषाऽऽकाशान्तरस्थामिव । विज्ञानकसुगम्यभूरिमहिमानं दूरदृश्यालयां, सिद्धां कोटिशिला स्तवीमि नितरां प्रत्यक्षकामप्रदाम् ॥ १॥ साध्यं लक्ष्यमनर्थसार्थविकलं मंसाधयद्भिः श्रिता, कोटाकोटिसुसाधुभिर्विगतभीयो दीव्यमा अक्षया । संप्राप्ताऽमलकेवलैंगतभयैर्निर्दोषमार्गाश्रितः, सिद्धो कोटिशिलां स्तवीमि नितरां तां सत्यशर्मालयम् ॥ २॥ या दीव्याऽनघसेवनीयकमला विक्षोभसंहारिणी, कामं कर्मकदर्थन कविभवा सिद्धश्रिया भ्राजिता । मव्यानां सुलभाऽऽत्मबोधविदुषां दुर्लक्षणीयाऽसतां, 'सिद्धा कोटिशिला स्तवीमि नितरां तो सत्यशर्मालयम् ॥३॥ यो भन्यामनुप्राप्य नैव विबुधाः संयान्ति जन्मान्तरं, प्रक्षीणाष्टकुकर्मवैरिसुखदा सर्वोपरिस्थायिनीम् । दुर्लक्ष्यां सुरपुङ्गवैरपि सदा क्षेमार्थिनां क्षेमदा, सिद्धां कोटिशिलां स्तवीमि नितरां तां सत्यशालयम् ॥४॥ कर्मक्लेशगणो न याति निकटं यामाश्रितानां पुनः, सिद्धानां समताजुषां भवमहावृद्धिप्रदः केवलम् ।
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( १७३) पूज्याऽपूज्यविचारशून्यमनसामानन्दसत्केतनं. सिद्धां कोटिशिला स्तवीमि नितरां तो सत्यशालयम् ॥५॥ किं कर्तव्यमिति प्रकन्पितमतिर्यत्रास्ति नैव कचित, कर्माणि क्षपितानि नैव सुतरां भूयश्च लक्ष्याण्यहो ! । यस्यां कालगतिः करालभयदा नो वीक्ष्यते संस्थितः, सिद्धा कोटिशिला स्तवीमि नितरां तां सत्यशर्मालयम् ॥६॥ कन्याणं प्रतिपद्य ये श्रितदया निःशेषकर्मक्षयायत्राद्वैतमये समुन्नतरमे सिद्धे शिलायास्तले । राजन्तेऽकलुषात्मसाधितगुणा निर्दोषतोऽलङ्कृताः, सिद्धां कोटिशिला स्तवीमि नितरां तां सत्यशालयम् ॥७॥
श्रीतारङ्गगिरीन्द्रसस्थितमहोत्कृष्टप्रभाभासुरा, सिद्धानां सदनं प्रभावविदिता या दृश्यते ज्ञानिभिः। योगीन्द्रैरधिगम्यमानमहिमाऽऽनन्दप्रदानक्षमा, . सिद्धां कोटिशिला स्तवीमि सततं तां सत्यशर्मप्रदाम् ॥८॥ जुष्टा या मुनिकोटिभिः क्रमतया शश्वत्प्रभावाप्रमा, दीव्या देवगणैः सदा स्तुतयशाः सेव्या च विज्ञानिमिः। या दृष्टा किल देहिनां कलिमलं प्रक्षालयत्यञ्जसा, सिद्धां कोटिशिला स्तवीमि नितरां तां सत्यशालयम् ॥६॥
दुर्वाराणि निरन्तदुःखजनकान्याशु क्षति यान्ति वै, कर्माणि प्रबलानि यस्य पठनात्स्मरणाच्च शुद्धात्मना ।
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(१७४)
सत्सङ्गीतमिदं शिलाष्टकवरं कोटिप्रभावं मुदा, . श्रीमत्सूर्यजिताम्धिना गुणवतां मोदाय निर्मायिना ॥१०॥
॥ श्रीजिनवरस्तोत्रम् ॥ जिनवर ! तव मृतिर्मामके मानसाम्जे,
निरयगतिहरं ते नामधेयं मुखे मे । अनिशमतुलमक्या मस्तकं त्वत्पदान्जे,
भवजलनिधिमग्नं रच मामार्त्तवन्धो! ॥१॥ कुरु कुरु मम शान्ति मावनम्रस्य नाथ !
सृजतु सृजतु लोके शान्तदृष्टिप्रभावम् । भवतु भवतु सर्वेः स्वार्थसिद्धस्त्वदीयो
जयतु जयतु कीर्चिस्त्वत्पदाम्भोजभाजाम् ॥२॥ जिनवर ! तव मूर्तिध्यानतो व्यग्रचेतः,
समुपगतमहो मे शान्तभावं समग्रम् । अतिकरुणकटाक्षः कृतार्थ कुरुष्व,
त्वदभिमतपदाब्जादन्यदेवं न याचे ॥३॥ तपतु तपतु लोकस्तीवभावेन तापैः,
पततु पततु शृङ्गात्पर्वतस्योच्चसंस्थात । चदतु वदतु वादैः श्लिष्टभावैश्च भावै
स्त्वहमसकृदमेयां मृतिमाराधयिष्ये ॥४॥
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( १७५)
गणयति यदि कश्चिद्भूमिपसून्समग्रान्, तरति दृढभुजाभ्यां कोऽपि पाथोनिधिं वा । जलधरगताबिन्दून्कोऽपि संख्याति धीरस्तदपि जिनगुणानां नैव पारं प्रयाति
सुरवरमुनिपूज्यं स्वर्गमोक्षैकहेतुं, सकलदुरितकचावह्निमुत्सर्पिकान्तिम् । गुणगरिममहो भीराजमानं समन्तात्, जिन पतिमनवद्यं संस्तवीमि प्रणम्य
जिनवर तव बोधि प्राप्य भूरिप्रतापां, कृतमपि मतिपूर्वं सन्त्यजाम्यद्य भावात् । निजमनसि नवीनं नैवमन्यत्करिष्ये,
दृढमतिरितिज्ञाता मे त्वदङ्घ्रौ नतस्य
प्रकुपितजनवृन्दस्त्वद्वपूर्वीक्षणेन,
प्रशमरतिमनन्पां सद्यएवाऽभियाति । समवसरण भाजः किं पुनस्ते विशालां, सुजनहृदयकान्तां देशनां कुर्वतो भोः
इदमतुलगुणानां भाजनं स्तोत्रमिष्टं,
पठति परमभक्त्या शुद्ध चेता नरोयः । स भवति गुणिपूज्यः क्षीणकर्मा क्रमेण, शिवपदमभियाति क्षुद्रभावं विहाय
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॥ ५ ॥
11 & 11
॥ ७ ॥
11 2 11
॥ ९ ॥
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( १७६). ॥ श्रीपार्श्वनाथस्तोत्रम् ॥ ॐ नमो भगवते श्रीपार्श्वनाथाय ही जुषे
धरणेन्द्रपमावती-सहिताय सदाश्रिये ॥१॥ अट्टम तथा क्षुद्र-विघटे क्षुद्रमेवहि।
क्षुद्रान् स्तम्भयस्तम्भय, स्वाहान्तैरेभिरक्षरैः ॥२॥ पद्ममष्टदलोपेतं, मायाङ्क जिनलाञ्छितम् ।
पद्ममध्यान्तरालेषु, पत्रोपरियथाक्रमम् ॥३॥ अष्टावष्टौ तथैवाष्टौ, विन्यस्याक्षरमण्डलम् ।
तथाष्टशतजापेन, ज्वरमेकान्तरादिकम् ॥४॥ रिपुचौरमहीपाल-शाकिनीभूतसम्भवाम्
भरण्यपशुजांभीति, हन्ति बद्धं भुजादिषु ॥५॥ पुष्पमाला जपित्वाच, मन्त्रेणाष्टजपेन च ।
प्रक्षिप्ता पात्रकण्ठेषु, भूतादीन् स्तम्भयेध्रुवम् ॥६॥ गुग्गुलस्य गुटीनांच, शतमष्टोत्तरं दुतम् ।
दुष्टमुच्चाटयेत्सद्यः, शान्ति च कुरुते गृहे ॥ ७ ॥ देवस्याऽजितसिंहस्य, नीलवर्णस्यसंस्तवात् ।
लभन्ते श्रेयसी सिद्धि. कवयोवाञ्छितैः सह ॥८॥ श्री अश्वसेनपदपङ्कजभास्करस्य, पद्मावतीधरणराजनिषेवितस्य ।
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(१७७) वामाङ्गजस्य पदसंस्तवनाल्लभन्ते,
भव्याः श्रियं सुभगतामतिवाञ्छितानि ॥९॥
॥ श्रीभद्रबाहुस्वामिप्रणीतं-अनेकमन्त्रगर्मितं
उपसर्गहरस्तोत्रम् ॥ उवसग्गहरं पासं, पास वंदामि कम्मघणमुकं । विसहरविसनिन्नासं, मंगलकल्लाणयावासं ॥१॥ विसहर फुलिंगमंतं, कंठे धारेइ जो सया मणुप्रो । तस्स गहरोगमारी-दुट्टजरा जंति उवसामं ॥२॥ चिट्ठउ दूरे मंतो, तुज्झ पणामो वि बहुफलो होई।। नरतिरिएसु वि जीवा, पावंति न दुक्खदोगचं ॥३॥ ॐ अमरतरुकामधेणु-चिंतामणिकामकुममाईया। सिरिपासनाहसेवा-ग्गहाण सव्वे वि दासत्तं ॥४॥ ॐ ही श्री ऐ ॐ तुह दसणेण सामिय ! पणासेइरोगसो
गदोहग्गं। कप्पतरुमिव जायइ, ॐ तुह दंसणेण सव्वफलहेऊस्वाहा ॥५॥ ॐ ही नमिऊण पिग्यवासय (विपणासय ) मायावीएण
धरणनागिदं । सिरिकामराजकलियं, पासजिवंदं नमसामि ॥६॥
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(१.८) ॐ ही (क्ली ) सिरिपासविसहर-विजामतेण झाणज्झाएजा धरणपउमावइदेवी, ॐ हो चयू वाहा ॥७॥ ॐ जयउ धरणेदपउमावइयनागिणीविजा। विमलज्झाणसहिओ, ॐ ही वायूं स्वाहा । ॐ श्रुणामि पासनाहं, ॐ हा पणमामि परमभत्तीए । अट्ठक्खरधरणेदो, पउमावइपयडियाकित्ती जस्स पयकमलमज्झे, सया वसइ पउमावईय धरणिंदो। तस्स नामेण सयलं, विसहरविसं नासेइ ॥१०॥ तुह सम्मत्ते लद्धे, चिंतामणिकप्पपायवम्महिए। पावंति अविग्घेणं, जीवा अयरामरं ठाणं ॐ नमुट्ठमयहाणे, पणढकम्मट्ठनट्ठसंसारे । परमट्ठनिटिअटे, भट्ठगुणाधीसरं वंदे
॥१२॥ इभ संथुओ महायस ! भत्तिभरनिम्मरेण हियएण । ता देव ! दिल बोहिं, भवे भवे पास ! जिणचंद ? ॥ १३ ॥ तुह नामसुद्धमंतं, सम्म जो जवइ सुद्धभावेण । सो अयरामरठाणं, पावह न य दोग्गई दुक्खं ॥१४॥ ॐ पंडुभगंदरदाह, कासं सासं च सूलमाईणि । पासपहुपभावेणं, नासंति सयलरोगाई ॥१५॥
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(१७९ )
ॐ विसहरदावानल - साइणिवेयालमारियायंका | सिरिनीलकंठपासस्स, समरण मित्ते नासंति पद्मा संगोपीडां कुरग्गददंसणं भयं काये | श्रावी न हुंति एए, तहवि तिसंझं गुणिजासु
"
पीडजंत भगंदर - खाससाससूल तद्दद्द | सिरी सामलपासमहंत नामपऊर पऊलेख | ॐ ह्री पासवरणसंजुत्तं, विसहरविअं जवेइ सुद्धमणेां । पावेई इच्छियसुहं, ॐ ह्रीं श्रीं म्यूँ स्वाहा रोगजलजला विसहर - चोरारिमइंदगयरणभयाई । पास जिणनामसंकित्तयोण पसमंति सव्वाइं
॥ १९ ॥
॥ २० ॥
॥ १६ ॥
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॥ १७ ॥
।। १८ ।।
॥ १ ॥
( १ ) अतः परं गाथाचतुष्टयं पठ्यते । तँ नमह पासनाहं, धरणें दनमंसियं दुहं पणासेइ । तस्स पभावेण सया, नासंति सयलदुरियाई एए समरंताणं, मणे िन दुवाहीनासमाहिदुक्खं । नामंचियमंतसमं, पयडो नत्थित्थ संदेहो जलजलगतहसप्पसीहो, चोरारी संभवेवि खिं जो समरे पास पहु, पहवइ न कयावि किंचितस्स ॥ ३ ॥ इहलो गट्ठी परलो गट्ठी, जो समरेइ पासनाईतु ।
॥ २ ॥
तत्तो सिज्झेइन, कोसह (संति) नाह सुरा भगवंतं । ४ ॥
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( १८० )
श्रीतेजः सागरमुनिप्रणीतंश्रीउपर्सगहरस्तोत्रपादपूर्ति रूपं श्रीपार्श्वस्तोत्रम्
उवसग्गहरं पासं, वंदित्र नंदिश गुणाण आवासं : महसुरसूरि सूरिं, थोर्स दोसं विमुत्तणं जहमहमहिम महग्धं, पासं वंदामि कम्मघणमुक्कं तह महगुरुकमलं, थोसामि सुसामि भिच्चुव्व संसारसारभू, कामं नामं धरंति निश्रहिश्रए । विसहरविसनिन्नासं, धन्ना पुन्ना लहंति सुहं सारयससिसंकासं, वयणं नयणुप्पलेहिं वरभासं । कुणइ कुकम्मविणासं, मंगलकल्ला आवासं विसहरफुलिंगमंतं, कुग्गहगहग हिश्रविहिपुब्वत्तं । कुवलय कुवलयकंतं, मुहं सुहं दिसउ अचंतं गुरुगुरुगुणमणिमालं, कंठे धारेइ जो सया मणुश्रो । सो सुहगो दुहगो गो, सिवं वरह हरइ दुहदाहं गुरुपायं गुरुपायं गयरायगई हु नमइ गयराअं । तस्सगहरोगमारी, - सुदुट्ठकुट्ठा न पहवंति भूवाल भालमउड-द्वियमणिमालामऊहसुइपायं । जो नमइ तस्स निश्चं, दुट्ठजरा जंति उवसामं चिउ दूरे मंतो, तुह संतो मज्झ तुज्झ मतीर | सव्त्रम पुव्वंसिज्झइ, झिज्झर पावं भवारावं
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॥ १ ॥
॥ २ ॥
11 3 11
॥ ४ ॥
॥ ५ ॥
॥ ६ ।
॥ ७ ॥
11 < 11
11 3 11.
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( १८१) अहवा दूरेभत्ती, तुज्य पणामो वि बहुफलो होइ । संसारपारकरणे, सुजाणवत्तु ब्व जाणाहि ॥१०॥ दंसणदसणदं तव, सणयं.लध्धु (लघृण) सुद्धबुद्धीए । नरतिरिएसु वि जीवा, गमणं भमणं व न लहंति ॥११॥ गुरुमाणं गुरुमाणं, गुरुमाणं जेहु दिति सुगुरूणं । ते दुहभवणे भवणे, पावंति न दुक्खदोगचं तुह सम्मत्ते लद्धे, लद्धं सिद्धीइ सुद्ध मुद्धाणं । रयणे रयणे पत्ते, जह सुलहा रिद्धिसंपत्ती सुहवरणे तुहचरणे, चित्तामणिकप्पपायकमाहिए । लढे सिद्धिसमिद्धे, लद्धम मुद्धं तिजयसारं ॥१४॥ सामी ! कामियदायं, नच्चा सुच्चा जिभा तुमं पत्ता । पावति अविग्घेणं, सिग्घमहग्धं कुसलवग्गं तिब्वायरेण भव्वा, तुह मुहकमलाउलेहि असम्मत्ता। पावंति पापहीणा, जीवा भयरामरं ठाणं ॥ १६ ॥ इय संथुमो महायस ! नियजसकरपयरपाविश्रमसोम!। नियमइणो अणुसारा, सारगुणा ते सरंतेण ॥१७॥ तुह सुहपयगयचिचेण, भत्तिम्भरनिम्मरणहिमयेगा । मह देहि मे हिमकरं, सुचरणसरणं निरावरणं ॥१० जुमलं। बहुरम्मधम्मदेसण-सुमाणे धुणणे वि दुलह सम्मचो । ता देव ! दिज बोहि, सोहि कोहिंद भवंमि ॥१६॥
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(१८२ ) एवं सेवंतेणं, तुहमुहगुणकित्तणं मए विहिरं । ता देसु मे सुकुसलं, भवे भवे पास ! जिणचंद ! ॥ २० ॥ इम शुओ सुहमो गुणसंजुमो, ससिगणंवरसुंदरतावणो । स उवसग्गहरस्स दलेहि सो, दिसउ तेअसुसायरसंपयं ॥२१॥
छाया उपसर्गहरं पार्थ, वन्दित्वा नन्दित्वा गुणानामावासम् । मतिसुरसरि सूरि, स्तोष्ये दोषं विमुच्यैव यथा महोमहिममहाघ, पावं वन्दे कर्मधनमुक्तम् । तथा मम गुरुक्रमयुगलं, स्तोष्यामि सुस्वामिनं भृत्य इव ॥२॥ संसारसारभृतं, कामं नाम धरन्ति निजहृदये । विषधरविषनिर्णाशं, धन्याः पुण्याः लभन्ते सुखम् ॥३॥ शारदशाशसङ्काशं, वदनं नयनोत्पलाभ्यां वरमासम् । करोति कुकर्मविनाशं, मङ्गलकल्याणकावासम् ॥४॥ विषधरस्फुलिङ्गमन्त्रं, कुग्रहग्रहगृहीतविहितपूर्ववम् । कुवलयकुवलयकान्तं.मुखं सुखं दिशतु अत्यन्तम् ॥५/युगलम्। गुरुगुरुगुणमणिमालां, कण्ठे धारयति यः सदा मनुजः । स सुभगो दुर्भगो न, शिवं घृणोति हरति दुःखदाहम् ॥ ६॥ गुरूपायं गुरुपाद, गजराजगति खलु नमति गतरागम् । तस्य ग्रहोगमारी-सुदुष्टकुष्ठा न प्रभवन्ति
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( १८३ )
भूपाल मालमुकुट - स्थित मणिमालामयूखशुचिपादम् । यो नमति तस्य नित्यं दुष्टज्वरा यान्त्युपशामम्
"
।। ८ ।।
तिष्ठतु दुरे मन्त्र - स्तव सन् मम तत्र भक्त्या | सर्वमपूर्व सिध्यति, क्षीयते पापं भवारावम् अथवा दूरे भक्ति-स्तव प्रणामोऽपि बहुफलो भवति । संसारपारकर, सुयानपात्रमित्र जानीहि दर्शनदर्शनदं तव, दर्शनकं लब्ध्वा शुद्धबुद्ध्या । नरतिर्यक्ष्वपि जीवा - गमनं भ्रमणं च न लभन्ते
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॥ ९ ॥
॥ ९० ॥
॥ ११ ॥
।। १३ ।।
गुरुमानं गुरुमानं - गुरुमानं ये खलु सुददति सुगुरुभ्यः । ते दुःखभवने भवने, प्राप्नुवन्ति न दुःखदौर्गत्ये ॥ १२ ॥ तब सम्यक्त्वे लब्धे, लब्धः सिद्धेः शुद्धमुर्द्धा नु । रत्ने रत्ने प्राप्ते, यथा सुलभा ऋद्धिसंप्राप्तिः शुभवर्णे तव चरणे, चिन्तामणिकल्पपादपाभ्यधिके । लब्धे सिद्धिसमृद्धे, लब्धममुग्धं त्रिजगत्सारम् ॥ १४ ॥ स्वामिन् ! कामितदयं, नत्वा श्रुत्वा जीवास्त्वां प्राप्ताः । प्राप्नुवन्त्यविघ्नेन, शीघ्रमहार्ष कुशलवर्गम् 1124 11 तीव्रादरेगा मव्यास्तव मुखकमलाकुलैरसमाप्ताः । प्राप्नुवन्ति पापहीना, जीवा अजरामरं स्थानम् ॥ १६ ॥ इति संस्तुतो महायशो ! निजयशस्करप्रकरप्राप्तसुसोम ! निजमतेरनुसारात्, सारगुणांस्तव स्मरता
॥ १७ ॥
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(१८४) तव शुभपदगतचित्तेन, भक्तिभनिर्मरेण हृदयेन । अथ देहि मे हितकरं, सुचरणशरणं निरावरणम् ।।१८।युगलम्। बहुरम्यधर्मदेशन-श्रवणे स्तवनेऽपि दुर्लभं सम्यक्त्वम् । तद्देव ! देया बोधि, शुद्धि कोहिण्डति भवे ? ॥ १९ ॥ एवं सेवमानेन तव, शुभगुणकीर्तन मया विहितम् । तद्ददरा मे सुकुशलं, भवे भने पार्श्व ! जिनचन्द्र ! ॥ २० ॥ इति स्तुत:मुखदोगुणसंयुतः, शशिमणांवरसुन्दरतापनः । सन् उपसर्गहरस्य दलैः स-दिशतु तेजासुसागर:सम्पदम् ।२१॥
पूर्वाचार्यप्रणीतं पद्मावत्यष्टकम् ।
(स्रग्धरावृत्तम् ) श्रीमद्गीर्वाणचक्रस्फुटमुकुटतटीदिव्यमाणिक्यमालाज्योतिवालाकरालस्फुरितमुकुरिकाघृष्टपादारविन्दे ।। व्याघ्रोसन्कासहस्रज्वलदनलशिखालोलपाशाङ्कुशान्ये , ॐ को हो मन्त्ररूपे ! वपितकलिमले ! रक्षमा देवि ! पचे ११ भिवा पातालमूलं चल चल चलिते ? व्याललीलाकराले !, विद्युदण्डप्रचण्डप्रहरणसहिते ! सद्भुजैस्तजयन्ती । दैत्येन्द्र क्रूरदंष्ट्राकटकटघटितस्पष्टमीमाट्टहासे !, मायाजीमतमालाकुहरितगमने ! रच मां देवि ! पचे ॥२॥
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( १८५) कूजत्कोदण्डकाण्डेोडुमरविधुरितक्रूरघोरोपसर्ग,
दिव्यं वज्रातपत्रं प्रगुणमणिरयत्किङ्किणीक्वायरम्यम् । भास्वद् वैडूर्यदण्डं मदनविजयिनो विभ्रती पार्श्वभर्तुः, सा देवी पद्महस्ता विघटयतु महाडामरं मामकीनम् ॥ ३ ॥ भृङ्गी काली करा ली परिजन सहिते ! चण्डि ! चामुण्डि ! नित्ये !, चाँ चाँ चूँ चाँ क्षणार्द्धचतरिपुनिवहे ! हाँमहामन्त्रवश्ये ! ॐ ह्वाँ ह्रीं घूँ भङ्गसङ्गभ्रकुटिपुटतटत्रासितोद्दामदैत्ये !,
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ँ
झ झी झैँ झौ प्रचण्डे ! स्तुतिशतमुखरे ! रक्ष मां देवि ! पद्मे ॥४ चञ्चत्काञ्चीकलापे ! स्वनतटविलुठत्तारहारावलीके !, प्रोत्फुल्लत्पारिजातद्रुमकुसुम महामञ्जरी पूज्यपादे ! | ड्राँ ह्री क्ली ब्लूँ समेतैर्भुवनवशकरी चोभिणी द्राविणी त्वं, ॐ हूँ यो पद्महस्ते ! कुरु कुरु घटने रच मां देवि ! पद्मे ! ५ लीलाव्यालोलनीलोत्पलदलनयने ! प्रज्वलद्वाडवाग्नित्रुट्यज्ज्वाला स्फुलिङ्गस्फुरदरुण कणोदग्रवज्जा ग्रहस्ते ! | हाँ ड्राँ हूँ ह्रौं हरन्ती हर हर हर इंकारभीमैकनादे 1, पद्मे ! पद्मासनस्थे ! अपनय दुरितं देवि ! देवेन्द्रबन्धे ! ॥ ६ ॥ कोपं वं झं सहसः कुवलयकलितोद्दामलीलाप्रबन्धे 1,
ह्री हृ' पचवीजैः शशिकरधवले ! प्रचरत्वीरगौरे 2, ब्यालन्याबद्धकुटे ? प्रबलबल महाकालकूटं इरन्ती, हाहा हुंकारनादे ! कृतकर मुकुलं रच मां देवि ! पद्मे ! ॥७॥
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(१८६) प्रातर्बालार्करश्मिच्छुरितधनमहासान्द्रसिन्दूरधूलीसन्ध्यारागारुणाङ्गी त्रिदशवरवधूवन्धपादारविन्दे ! । चश्चचण्डासिधारा-प्रहतरिपुकुले । कुण्डलोद्घृष्टगल्ले ?, श्री श्री श्री स्मरन्ती मदगजगमने ! रच मां देवि ! पो !८ दिव्यं स्तोत्रं पवित्रं पटुतरपठतां भक्तिपूर्व त्रिसन्ध्यं, लक्ष्मीसौभाग्यरूपं दलितकलिमलं मङ्गलं मङ्गलानाम् । पूज्यं कल्याणमान्यं जनयति सततं पार्श्वनाथप्रसादात् , देवी पद्मावतीतः प्रहसितवदना या स्तुता दानवेन्द्रैः ॥९॥
॥र्द० ॥ घटाकर्णमहावीरमूलमहामंत्रः । ॐ आँ की ही द्राँ दीक्षा क्षौ दो क्षः घण्टाकर्णमहावीरक्षेत्रपालाय नमः । ममोपरिप्रसनो भव, प्रत्यक्ष दर्शनं देहि वाञ्छितं पूरय २ स्वाहा । मन्त्रन्यासाः ॐ ही घण्टाकर्णमहावीर मे सर्वाङ्ग रक्ष, ही हृदयं रक्ष, क्ली हस्तं रक्ष, ब्लू मूलाधारं रक्ष, हाँ हस्तं रक्ष, क्ली उदरं रच, वाँ पादौ रच, श्री नामि रक्ष, झौ बुद्धि रक्ष, ॐ घण्टाकर्णमहावीर नमोऽस्तुते ॐ स्वाहा । पाहानमन्त्रम् । ॐ ही घण्टाकर्णमहावीर अस्यां मृया पागच्छ आगच्छ तिष्ठ.२ सर्वविश्वलोकहितं कुरु २ पूजा बलिं गृहाण २ धूपं नैवेद्यं पुष्पं दीपं नैवेद्यं गृहाण २ स्वाहा ।
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(१८७)
श्री घण्टाकर्णमन्त्रः। ॐघण्टाकर्ण महावीर ! सर्वव्याधिविनाशक !। विस्फोटकभयं घोरं, रच रक्ष महाबल ! यत्र त्वं तिष्ठसि देव ! लिखितोऽक्षरपंक्तिभिः ।। रोगास्तत्र प्रणश्यन्ति, वातपित्तकफोद्भवाः ॥२॥ तत्र राजभयं नास्ति, याति कर्णेजपात् क्षयम् ।। शाकिनीभूतवैताला-राक्षसाः प्रभवन्ति न ॥३॥ नाऽकाले मरणं तस्य, न च सर्पण दश्यते । अग्निचोरभयं नास्ति, ही घण्टाकर्णनमोऽस्तुते उन्ठाठः
स्वाहा ॥४॥
ॐ घण्टाकर्णमहावीरमूलमन्त्रः । ॐ को ही श्री महावीर घण्टाकर्ण ! महाबली । महारोगान् भयान् घोरान् , नाशय नाशय द्रुतम् १॥ सादिकं विषं शीघ्र, जहि जहि विनाशय । शाकिनीभूतवैतालान् , राक्षसांश्च निवारय ॥२॥ स्वनाममन्त्रजापेन, त्वन्मन्त्रश्रवणेन च । भूपभीतिमहामारी, शीघ्रं नश्यतु मे ध्रुवम् ॥३॥ यन्त्रस्थमन्त्ररूपेण, यत्र त्वं तिष्ठसि ध्रुवम् । तत्र शान्तिं च तुष्टिं च, पुष्टि कुरुष्व मङ्गलम् ॥४॥
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२८)
मन्त्रः । ॐ ही श्री क्ली महावीर, घण्टाकर्ण ! महावल ! । सर्वोपद्रवतो रक्ष, दुष्टान् शत्रून् निवारय ॥१॥ शांति तुष्टिं च पुष्टिं च, धनवृद्धिं जयं कुरु । दर्शनं देहि प्रत्यक्षं, संरक्ष सर्वसंकटात् ॥२॥ रणे वने समुद्रे च, रक्ष संरक्ष मे द्रुतम् ।। अग्निचोरादितो रच, त्वन्नाममन्त्रजापतः स्वन्नामयन्त्रमन्त्रेण, स्वेष्टसिद्धिः प्रजायताम् । सर्वरोगविनाशं च, कुरु मे देहरक्षणम् ॥४॥ ॐ क्रौ ब्लू ही महावीरघण्टाकर्णनमोऽस्तु ते उठाठः
स्वाहा ।
घण्टाकर्णमहावीरमूलमन्त्रः । ॐ घण्टाकरणमहावीर ! सर्वव्याधि विनाशय । अकालमृत्युतो रच, संरक्ष मे महाबल ! ॥ १ ॥ स्वेष्टसिद्धिं कुरु व्यक्ती, साहाय्यं मे सदा कुरु । शान्ति तुष्टिं च पुष्टिं च, जयं मे विजयं कुरु ॥ २॥ प्रत्यक्षीभूय ममच्या, दर्शनं देहि मे द्रुतम् । सर्वदुःखविनाशेन, मुखं कुरु हि मे सदा ॥३॥
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( १८९ )
घोरविपतितो रच, धर्मबुद्धिं प्रकाशय । सिद्धमंत्रस्य सिद्धिर्हि, ॐ ही घण्टाकर्णनमोऽस्तु ते
v
ठः ठः ठः स्वाहा || ४ ||
श्रीघण्टाकर्ण महावीरमन्त्रस्तोत्रः ।
ँ
ॐ ह्रीं श्री को महावीर, घण्टाकर्ण महावल ! | आधिं व्याधिं विपत्तिं च, महाभीतिं विनाशय ॥ १ ॥ नाममन्त्रोऽस्ति ते सिद्धः, सर्वमङ्गलकारकः । इष्टसिद्धिं महासिद्धि, जयं लक्ष्मीं विवर्द्धय ॥ २ ॥ त्वच्छ्रद्धाभक्तियोगेन भवन्तु सर्वशक्तयः । पराभवन्तु दुष्टाश्च, शत्रवो वैरिदुर्जनाः ॥ ३ ॥ श्रापत्कालेषु मां रक्ष, मम बुद्धिं प्रकाशय । सर्वोपद्रवतो' रक्ष, घोररोगान् विनाशय ॥ ४ ॥ इष्टकार्याणि सिद्ध्यन्तु, तव भक्तिप्रतापतः । राज्यं रक्ष धनं रक्ष रक्ष देहं बलादिकम् ॥ ५ ॥
"
9
घोरोपसर्गतो रक्ष रक्ष वह्निभयादितः । वने रणे गृहे ग्रामे, रक्ष राज्यसभादिषु ॥ ६ ॥ दुष्टभूपादितो रक्ष, रच सिंहारिसर्पतः । दैवी संकटतो रच, चाकस्मिक विपत्तितः । ॥ ७ ॥
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( १९०) शाकिनीभूतवैतालान्, राक्षसांश्च निवारय । नवग्रहादिजां पीडा, शीघ्रं नाशय नाशय ॥८॥ चतुर्थादिज्वरं मारी, द्रुतं सर्पविषं हर । मलकेश्वविषं शीघ्र, शगालविषमाहर ॥९॥ वृश्चिकादिविषं तीवं, जहि जहि निवारय । प्राकस्मिकविपत्तौ च, साहाय्यं कुरु सर्वदा ॥ १० ॥ प्रत्यक्षं दर्शनं देहि, मच्छ्रद्धा प्रीतिभक्तितः। विद्यां देहि धनं देहि, देहि पुत्रश्च पुत्रिकाम् ॥ ११ ॥ कीर्ति देहि यशो देहि, प्रतिष्ठां देहि च स्त्रियम् । सर्व मे वाञ्छितं देहि, सुखशान्ति प्रदेहि मे ॥१२॥ देहाऽऽरोग्यं च मे देहि, दुष्टशत्रून् पराजय । अन्थिज्वरं महामारी, शमय शमय द्रुतम् ॥ १३ ॥ घण्टाकर्ण महावीर, सर्ववीरशिरोमणे ! । घातकेभ्यश्च मां रक्ष, रात्री दिवा च सर्वदा ॥ १४ ॥ अपमृत्युं प्रयोगाणां, नाशतो रक्ष मे सदा । मुष्टितो रक्ष देवेश :, कुरु वीरं महाबल !॥ १५ ॥ घण्टाकर्ण महावीर, सर्वशक्ति प्रदेहि मे। आपत्कालेषु रक्षा मे, कुरुष्व कीर्तिरचणम् ।। १६ ।। कुरुष्व मम सानिध्यं, सर्वदा सर्वशक्तितः । चतुर्विधस्य संघस्य, रक्षणं कुरु सर्वथा ॥१७॥
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( १९१ )
ॐ ह्रीं श्री की महावीर !, घण्टाकर्ण महाबल । शान्तितुष्टिं च पुष्टिं च कुरु स्वाहा महाश्रियम् ॥ १८ ॥ घण्टाकर्ण महावीर ! सर्वसंघहितं कुरु ।
।
देशे राज्ये च खण्डेषु, सुखं शान्ति कुरु द्रुतम् ॥। १९ ।।
त्वन्नामाक्षरमन्त्रस्य यन्त्ररूपेण तिष्ठसि ।
तत्र शान्तिर्महातुष्टिः पुष्टिश्च जायते ध्रुवम् ॥ २० ॥ देशे राज्ये पुरे संघे, सर्वजातिप्रजागणे | पशुपक्षिगणे शान्ति, कुरु मारीं हर द्रुतम् ॥ २१ ॥ सूरिवाचकसाधूनां ब्राह्मणानां शिवं कुरु | क्षत्रियाणां च शूद्राणां शान्ति कुरुष्व सत्वरम् ॥२२॥
"
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•
ॐ क्रीं द्रोद्री महावीर, घण्टाकर्ण शिवं कुरु । स्फोटकादिमहारोगान्, नाशय भक्तदेहिनाम् ॥२३॥
aisi महावीर, घण्टाकर्ण महाबल: ।
विद्यां देहि बलं देहि, शुद्धबुद्धिं प्रदेहि मे ॥ २४ ॥ ग्रथित्वं च चित्तस्थं, दूरं कुरुष्व शक्तिमन् । शुद्धज्ञानप्रदानेन, मोक्षमार्ग प्रदर्शय ॥ २५ ॥
asi महावीर, घण्टाकर्ण महाबल । ! भूतादिदोषनाशेन, शुद्धबुद्धिं विवर्द्धय ॥ २६ ॥
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( १९२) वातपित्तकफोद्भूतान् , सर्वरोगान् विनाशय । साविकप्रकृतिं कुर्या-ॐ ही स्वाहा नमोऽस्तु ते ॥२७॥ योगिनीवीरवैतालपिशाचभूतमुद्गलाः। त्वन्मन्त्रजापतो दूरी-भवन्तु मे सुखं कुरु ।। २८ ।। ॐ हाँ ही ब्लू महावीर, घण्टाकर्णनमोऽस्तु ते । पादोरुहस्तशीर्षाणि, रक्ष स्वाहा शुभं कुरु ॥ २९ ॥ कुरुब्ध मे हितं सर्व, स्थित्वा मे हृदि भक्तितः । गुर्वादिदत्तशापानां, नाशं कुरु नमोऽस्तु ते ॥ ३० ॥ ॐ ह्रीं श्रीं क्ली महावीर, घण्टाकर्ण नमोऽस्तु ते । प्रत्यक्षं दर्शनं दत्वा, वाञ्छितं मे प्रसाधय ॥ ३१ ॥ सत्यं दर्शय मे शीघ्र, वीर्यशक्ति प्रवर्द्धय । स्वन्मन्त्रसिद्धयः स्युमें, ध्रुवं सत्यं हितं कुरु ॥ ३२ ।। मनोवाकाययोगाना,-मारोग्यश्च प्रवर्द्धय । प्रसनःस्या मयि प्रीत्या, शुभं कुरुष्व मे सदा ॥३३॥ प्रतिष्ठा रच कीति मे, मम पार्थे स्थिति कुरु। घण्टाकणे महावीर, वश्यान् कुरुष्व मानवान् ॥३४॥ घण्टाकर्ण महावीर, वचासिद्धिं प्रदेहि मे। संरक्ष सर्वतो देव!, स्यास्त्वं सहायको महान् ॥३॥
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( १९३ )
सर्वस्थानेषु मां रच, भव धर्मे सहायकः । वादे विवादे युद्धे च, जयं मे कुरु सर्वतः मङ्गलानि कुरु स्पष्टं, सर्वकर्मसु मे ध्रुवम् । मां रक्ष शत्रुलोकेम्पो - दुष्टान् वारस वेगतः श्रात्मनः शुद्धिकार्यार्थ साहाय्यं मे कुरु द्रुतम् । चिदानन्दस्वरूपं मे, कृपां कृत्वा विकासय विश्वजीव हितार्थ मे, सर्वशक्तिप्रकाशने । धर्मकार्ये सहायत्वं देहि मंतु कृपापरः क्षेत्रपालमहावीर ! घण्टाकर्ण महाबल ! | शत्रून् स्तंभय वेगेन, त्रासय भापय द्रुतम् घण्टाकर्ण महावीर, क्षेत्रपाल महाबल । क्षेत्रं ग्रामं पुरं रक्ष, रक्ष संघ च मे द्रुतम्
↑
॥ ४१ ॥
ँ
ु
॥ ४३ ॥
ॐ क्षाँक्षी धुँ महावीर, चै चौ क्षः सर्वशक्तिमान् । घण्टाकर्ण धृर्तिकीर्त्ति, कान्ति ज्ञानं प्रदेहि मे ॥ ४२ ॥ ग्रन्थिज्वरं महामारी, शामय त्वं बलाद् ध्रुवम् । ग्रामपुरस्थलोकानां पशूनां रचणं कुरु श्राकर्षय प्रियान् शीघ्रं मत्प्रियाणां कुरु प्रियम् । सर्व कार्यसहायौ त्वं भय शत्रूंश्च दण्डय स्वच्छक्त्या रक्ष मे शीघ्र - मारोग्यं देहिसच्चरम् । स्वेष्टाश्च सिद्धयः सन्तु लक्ष्मीवृद्धिं कुरुष्व मे ॥ ४५ ॥
>
।। ४४ ।।
१३
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॥ ३६ ॥
॥ ३७ ॥
1136 11
1139 11
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( १३४ )
।। ४६ ।।
ॐ घण्टाकर्ण महावीर !, धनमृद्धि प्रवर्द्धय । राज्यं च राज्यमानं च, बलं बुद्धि प्रवर्द्धय जयं च विजयं देहि, देहि मे सर्वमङ्गलम् । शान्ति तुष्टिं तथा पुष्टि-मारोग्यं देहि वैभवम् सर्वथोन्नतिकारोsस्तु, मद्रां कुरु सर्वदा । यत्र तत्र स्थितं रक्ष, मम सर्व प्रियं कुरु सहायं कुरु सर्वत्र वाञ्छितं देहि संपदम् । शिवं क्षेमं च योगं च रक्ष यंत्रस्थितो द्रुतम् ॥ ४९ ॥ ॐ घण्टाकर्ण महावीर !, सर्ववीरमहाबल गर्भस्थं बालकं रक्ष, रोगेभ्यो रक्ष बालकान् पुत्रं च पुत्रिकां देहि, देहि वित्तं बलं स्त्रियम् । दीर्घायुर्जीवनं देहि देहि मे वाञ्छितं फलम्
,
।
॥ ५० ॥
॥ ५१ ॥
|| 89 ||
॥ ५२ ॥
धीश्री शान्तिश्रियं देहि देहि ब्रह्मबलं महत् । सर्वोन्नतिपदं देहि, मत्प्रियं कुरु सर्वदा स्वच्छक्त्या मे धुवं सिद्धि-भूयान्मद्भक्तिशक्तितः । ॐ ह्री श्री क्ली महावीर, साहाय्यं मे कुरु द्रुतम् ॥ ५३ ॥
घण्टाकर्ण महावीर, मन्त्रयन्त्रप्रभावतः । वाच्छितं सर्वलोकानां भवत्येव न संशयः
1182 11
ॐ श्रौं ह्रीँ महावीर, घण्टाकर्ण महाबल ! । वाञ्छितं देहि मे शीघ्रं सर्वशक्तीः प्रदेहि मे
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।। ५५ ।।
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( १९५ )
"
॥ ५९ ॥
पुत्रार्थी लभते पुत्रं धनार्थी लभते धनम् । विद्यार्थी लभते विद्यां, दारार्थी लभते स्त्रियम् यादृशी यस्य वान्छाsस्ति, तस्य तादृक् फलं घण्टाकर्ण महावीर - मन्त्राराधनतो ध्रुवम् पञ्चामृतस्य होमेन, गुग्गुलाद्यैश्व होमतः । गुर्वाज्ञानुभवेनैव मन्त्रसिद्धिर्भवेद्ध्रुवम् जैनशासन वीरोऽस्ति, सम्यग्दृष्टिर्महाबलः । चतुर्विधस्य संघस्य वृद्धिकर्त्ता शुभङ्करः घण्टाकर्ण महावीरो - जयताज्जगतीतले । अधिष्ठायकदेवोऽस्ति, जैनधर्मस्य धर्मिणाम् स्वन्मन्त्रयन्त्रयोगेन, कलौ सर्वत्र देहिनाम् । भविष्यति सदा स्वेष्ट- कार्यसिद्धिफलं ध्रुवम् कलौ जाग्रत्प्रभावस्त्वं, संघरक्षां करिष्यसि । घण्टाकर्ण महावीर, कुरुष्व सुखमङ्गलम् घण्टाकर्ण महावीर, मन्त्रश्रवणपाठतः । शान्ति तुष्टिं च पुष्टिं सत् - सुखं कुरुष्व मङ्गलम् ॥ ६३ ॥ घण्टाकर्ण महावीर, मन्त्रयन्त्रप्रभावतः ।
।। ६० ।।
। ६१ ॥
॥ ६२ ॥
श्रोतॄणां वाचकानां च गृहे भवतु मङ्गलम् ॥ ६४ ॥ घण्टाकर्ण महावीर - मन्त्रमष्टोत्तरंशतम् । यः पठेच्छुद्धया नित्यं तस्येष्टं मङ्गलं भवेत्
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॥ ५६ ॥
भवेत् ।
।। ५७ ।।
॥ ५८ ॥
।। ६५ ।।
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( १९६ )
मन्त्ररहस्यं पात्रेभ्यो, ध्रुवं देयं परीक्षया । गुर्वाशिषा हि भक्तानां मन्त्रसिद्धिश्व मङ्गलम् ॥ ६६ ॥ हरिभद्रभूरेः शिष्यो, जैनधर्माऽभिवृद्धये । घण्टाकर्ण महावीर - मुपास्त गुरुबोधतः
॥ ६७ ॥
॥ ६९ ॥
ततः प्रवृत्तिस्तस्यासी-त्सम्यक्त्वधारिणो जने । प्रतिष्ठाकल्प श्रचख्ये, गणिना सकलेन्दुना ॥ ६८ ॥ ततो विमलचन्द्रेण कल्पोयं ख्यातिभाक्कृतः । स्मरणात्पठनाच्चास्य, भवन्तु सुखिनो जनाः श्रावाहनं न जानामि, न जानामि विसर्जनम् । केवलं जपतः सिद्धि - जयतां मे तवोत्तमा मात्राहीनं क्रियाहीनं, वर्णहीनं विलोमतः । पठितं ज्ञानहीनं यत्, तत्क्षमस्व सुरोत्तम !
॥ ७० ॥
॥ ७१ ॥ ॐ शान्तिः ३
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(१९७) श्रीअर्बुदाचलवर्णनम् । नानागहरराजिराजितवपुर्विश्रामभूमिः सतां,
निर्मानप्रथिताम्बुपानविलसद्वीनां गणैर्नादितः । वितोभक्षुभितात्मनामपि सदाऽऽनन्दप्रदानक्षमः,
श्रीमानबुंद भूघरो गिरिवरो राजत्यखण्डप्रभः ॥ दरादर्शनतां गतो जनिमतां जीमूतशङ्काप्रदः,
सान्निध्यं भजतां गिरीन्द्रतुलनां विस्तारयत्यञ्जसा । आरूढोपरिभूमिभासुरधियां धात्रीभ्रमोद्दीपकः,
श्रीमानर्बुदभूधरो गिरिवरो राजत्यखण्डप्रभः ॥२॥ योग्यो योगिगणस्य निष्ठितमतेः सेव्यः सदा धीमतां,
तप्तानां सुखशान्तिसन्ततिकरः सन्तापतो देहिनाम् । काम्यः कर्मजुषां विशिष्टमनसां सिद्धिप्रयोगार्थिनां,
श्रीमानवंदभूधरो गिरिवरो राजत्पखण्डप्रमः ॥ ३ ॥ विश्रामस्थलमद्भुतं वनलतावृन्दस्य रुग्भेदिनो,
दीर्घाऽऽरोग्यविधानविश्रुतयशा दीप्तौषधीनां गणः । सौरभ्यं कलयन्मनोहरमहोद्यानव्रजो यत्र स
श्रीमानर्बुदभूधरो गिरिवरो राजत्यखण्डप्रभः ॥ ४ ॥ यस्मिनक्षयशान्तिदानरुचिराऽमन्दप्रभाभास्वरा,
श्रीमन्नाभिमहीपसूनुरनघो मोक्षार्थिनां मोक्षदः ।
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( १९८) भव्यानां भवविघ्नवारदलनः सद्भक्तिभाजां तृणा___ माद्यस्तीर्थकृतां सदा विजयते विज्ञातनैकान्तकः ॥५॥ केचिद्यत्र निजश्रियाऽनुकलितां प्रख्यापयन्तः शुभां,
संपत्ति विततोष्णकालसमये तिष्ठन्ति शान्तिप्रियाः । तूष्णीं भावजुषोऽन्य आत्मविभवाः सञ्चिन्तयन्ति प्रभु, ___ सर्वेषां हितदायकः स विबुधश्रेणिश्रिया राजितः ॥६॥ तीर्थानि प्रचुराणि यत्र विदितान्यन्यानि राजत्लभा
ण्यक्षोभ्याणि सुराऽसुरेन्द्रमहितान्यभ्रस्पृशत्सानुनि । सोऽयं दीव्यविभाप्रसारितशिरा विभ्राजते भारते,
श्रीमानर्बुदभूधरो गिरिवरः संसेवनीयो बुधैः ॥७॥ दीव्यानन्दमयः सदा सुखमयः सर्वत्र शान्तिप्रदो
भव्याकारतया सुभावितरमोभव्यात्मनां भावतः । कल्पद्रुपमितप्रभावकलितोऽन्यत्किं ब्रुवेऽस्याऽधिकं,
श्रीमानबुंदभूघरोऽस्ति विदिता सर्वोपमो भारते ॥८॥
श्रीआदिजिनस्तवनम्। शान्ताकारतया मुखाम्बुजविभा विभ्राजते भासुरा,
भव्यानां शमदायिनी शशिनिभा यस्याऽक्षयार्थप्रदा । तं भक्ताऽभयदायकाऽमरतरं देवाऽसुरैः संस्तुतं,
भूभूषाऽर्बुदभूषणं भवभिदं नौम्यादिनाथं मुदा ॥१॥
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( १९९) तीर्थानां प्रथमप्रवृत्तिजनकं भूभामिनीस्वामिना
माद्यं विश्वविकासकारणधुरां वोढारमादिक्षणे । दीव्याऽऽनन्दविभाविभावितधराधापानमुच्चश्रियं,
भूभूषाऽर्बुदभूषणं भवभिदं नौम्यादिनाथं मुदा ॥२॥ धन्योऽयं गिरिरर्बुदो गिरिगणे यत्पादपङ्केरुह
द्वन्द्वेनाहितसानुरुत्तमजनध्यानाधिरूढश्रिया । तं तीर्थीकृतभूतलं भुवि नृणामुद्धारकं भाविनां,
भूभूषाऽर्बुदभूषणं भवभिदं नौम्यादिनाथं मुदा ॥ ३ ॥ विभ्राजन्मुकुटप्रभाभरनमन्नाकीश्वरमार्थितं,
भव्यद्धिप्रमिते सुधाधवलिते धाम्नि स्वयं संस्थितम् । वन्दारुपथुकर्मकन्ददलने दत्तैकदृष्टिक्षणं,
भूभूषाऽर्बुदभूषणं भवभिदं नौम्यादिनाथं मुदा ॥४॥ निर्मायं निरयक्षितिक्षयकर निर्माननिर्मत्सरं,
निष्कामं कमनीयकान्तिकलितं निर्धतकर्मावलिम् । निदोष निररिप्रकाण्डममलं निर्मथनाथोपमं,
भूभूषाऽबुदभूषणं भवभिदं नौम्यादिनाथं मुदा ॥५॥ यो ध्यानं शुभमानसौकसि शुभं विस्तारयत्यञ्जसा, ___ दासत्वं दलयत्यनल्पभयदं शान्ति सदा यच्छति । तं भूरि श्रियमातनोति विपदं निर्मूलयत्यङ्गिनां,
भूभूषाऽर्बुदभूषणं भवभिदं नौम्यादिनाथं मुदा ॥ ६ ॥
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(200)
यं देवासुरमानवेन्द्र निकरा भक्त्योल्लसन्मानसा,esनन्तकृपामयं शिवसुखं संसाधयाञ्चक्रिरे । द्वन्द्वातीतमहर्निशं समतया तं तस्थिवांसं प्रभुं भूभूषाऽर्बुदभूषणं भवभिदं नौम्यादिनाथं मुदा ॥ ७ ॥
नित्यप्रसन्नाननपङ्कजश्रियं,
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यः सन्ध्याभ्रसमं निरीक्ष्य विभवं सांसारिकं सत्वरं, जग्राहाऽशिवशान्तये शिवपथप्रख्यापनेऽदुर्बलाम् । दीक्षां भागवतीं तमद्भुतयशोराशि कृपावैभवं, भूभूषाऽर्बुदभूषणं भवमिदं नौम्यादिनार्थं मुदा ॥ -
"
श्री अर्बुदाचलश्रीशान्तिनाथस्तवनम्
समानभावं विमलप्रभावम् ।
निरामयं सामयशान्तिदायकं, श्री शान्तिनाथं प्रणमामि नित्यम्
निशान्तमारोग्यसुसंपदानां,
सुधागृहं संसृतितप्तचेतसाम् |
भानुप्रभं मोहतमः स्थितानां,
विशुद्धधर्मार्थजुषां नतानां,
शान्तिप्रियं शान्तिजिन स्मराम्यहम्
And
निस्तारकं तारकर राजसुप्रभम् ।
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॥ १ ॥
॥ २ ।।
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॥४
॥
(२०१) तत्वार्थिनां तत्त्वनिधानभूतं,
मोक्षार्थिनां मोक्षनिकेतनप्रदम् विद्वेषकारागृहसंस्थितानां,
दुर्दर्शनीय स्फुटचक्षुषामपि । सल्यानतो मीलितलोचनानां,
श्रीशान्तिनाथं सुलभं नमाम्यहम् विस्तारिणा सर्वत एव तेजसा,
तमस्तति मोहमयीं जनानाम् । विभेदयन्तं सदयं गतान्तकं,
जिनेश्वरं शान्तिमहं नमामि प्रभो ! न ते पादसरोजयोः पुरा,
नतस्ततोऽहं भवदुःखमापम् । नाऽहं पुनस्त्वचरणप्रसादतो
भवाटवीं संप्रति दृष्टुमर्हः अवाप्य ये मानवतां सदाशया,
लब्ध्याऽग्रगा मानवतां त्वदीयम् । पादारविन्दं प्रणमन्ति मोक्षदं
पुनर्भवं यान्ति न ते कृपालो! प्रभो ! त्वदीयस्मरणाद्विमुखा
भवोदधिं तर्तुमिमे कथं तमाः ।
॥ ७॥
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( २०२) वख्याननौकां प्रतिपद्य तेऽञ्जसा,
तरन्ति तं शुद्धविचारचारका
॥८॥
अर्बुदाचलश्रीनेमिजिनस्तवनम् । विकासमाज भजतां सुरद्रुमं, ___ सुरेन्द्रवृन्दै रचितप्रभावम् । विकारहीनं विजितारिभावनं,
श्रीनेमिनाथं प्रणमामि नित्यम् ॥१॥ कायेन वाचा मनसाऽपि नित्यशो
निषेवितो यः प्रददात्यमेयाम् । सुसंपदं देवगणैरतर्कितां,
तं नेमिनाथं प्रणमामि नित्यम् ॥२॥ विदेशमाजोऽपि समीपगामिना,
स्मृतेशाद्यस्य फलं लभन्ते । स्वर्गाऽपवर्गीयमशेषमहत
स्तं नेमिनाथं प्रणमामि नित्यम् ॥३॥ राजीमती यं चकमे वरीतुं,
दीव्यप्रभाभूषितचारुरूपा । संत्यज्य तां मुक्तिरमामियेष,
तं नेमिनाथं प्रणमामि नित्यम् ॥ ४ ॥
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( २०३ )
यो मन्यमानः करुणां प्रधानां, विवाहसंभारमवेक्षमाणः । दारग्रहं बन्धनमेव मेने,
तं नेमिनाथं प्रणमामि नित्यम् ॥ ५ ॥
यनाममात्रस्मरणाज्जनानां, पलायते पापतमोवितानम् । तं नीलभासं भुवि भासमानं.
श्री नेमिनाथं प्रणमामि नित्यम् || ६ || यदपि प्रणतिं दधानोभावान्नरः कर्मरजो जहाति ।
विकासतामेति तथैव लोके,
तं नेमिनाथं प्रणमामि नित्यम् ॥ ७ ॥ कुलं यदोरुचतमं विधाय, स्वजन्मना केवल बोधिलुब्धः । यो मोक्षमार्ग श्रितवान् विधिज्ञ
स्तं नेमिनाथं प्रणमामि नित्यम् ॥ ८ ॥
अबुर्दस्थाविशेषवर्णनम् ।
पूर्णः पुण्यजलाशयः सुसलिलैर्यस्मिन् समीनत्रजोलोलच्चित्तहरस्तरङ्गरचनाविभ्राजमानोऽर्बुदे । धत्ते नख्यभिधेयमुन्नतरम श्रीरामसमाश्रितोयोऽजस्त्र जनताप्रमोदजनने साम्राज्यकीर्त्ति वहन् ॥ १ ॥
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( २०४ ) तेपुर्यत्र तपस्विनोऽपलमनासमन्यपूर्वी शुभां,
ध्यायन्तस्तपनोज्ज्वलां शिवपयस्यानन्दसन्दोहिनः मूर्ति शान्तगुणां प्रभोः प्रभुतयाप्रख्यातभावपदां,
सायुज्यं प्रभुपादचिन्तनमहो! दत्तेत्र कः संशयः ? ॥२॥ यात्रार्थ प्रभुतायुता जनगणाः श्रीराघवे मन्दिरे,
विश्रम्यैव यथेष्टकालमुचितं पूजादिसेवाविधिम् । निर्मायोत्सवभासुरा विधितया देवर्षिवृन्दाचिते,
लब्धस्वास्थ्यपरम्पराः स्फुटयशोराशिश्रिता यान्ति वै ॥३॥ श्रीमन्नेमिजिनेश्वरो विजयते दीव्यप्रभे मन्दिरे,
दीध्यानन्दमये कलाकुशलताशिल्पक्रियाकर्मठः। यस्मिन्नद्भुतनीलकांतिविलसन्मूर्तिगिरौ निर्मिते,
भव्यानां भवभेदकः सकृदपि प्राप्तोऽक्षिणी भावतः ॥४॥ शान्त्यागारमनर्थदण्डशमनः शान्तस्वरूपः श्रिया,
राजद्भव्यललाटकांन्तिरतुलक्षेमप्रदः पावनः । देवेन्द्रः स्तुतपादपीठ उचितस्तोत्रैरमन्दोत्सवै
स्त्रैलोक्यं कलयन् करामलकवच्छान्तिर्जिनोऽस्त्वङ्गिनाम् ५ सिद्धानन्दविनोदनैकरसिकः सिद्धार्थवादस्पृहां,
सन्त्यज्य क्षणतः प्रकामविलसन्मुक्तिप्रियाऽपेक्षिता । दुर्भेद्यानि विभिद्य दुष्कृतमहाकर्माणि बोधासिना,
श्रीशान्तिर्जिनपुङ्गवोर्बुदगिगै विभ्राजते शान्तिभाक् ॥६॥
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( २०५ ) दुर्दान्ताक्षगणो विचारपटुना येन क्षणानिर्जितः, __ संत्रस्ताः प्रविलोक्य यं बुधगणा अन्ये क्रियादिनः । तं भुवनत्रयपूजनीयमतुलनेमङ्करं शाश्वतं,
लिप्सुर्धर्ममहं स्तवीमि नितरां शान्तिप्रभु शान्तिदम् ।।७।। पारुष्यं प्रपलायते विकलता नश्यत्यनर्थप्रदा, ___ मायामोहकरी करोति विकृति न क्रोध उज्जृम्भते । मानःस्तम्भनतां भजत्यनुदिनं यद्ध्यानसक्तात्मनां,
स श्रीशान्तिजिनेश्वरो भवतु मे संसारसंतारकः ॥ ८ ॥ कारुण्यं वितनोति दैन्यमपहन्त्यारोग्यमापादय
त्यौन्नत्यं च ददाति सम्पदमहो विस्तारयत्यञ्जसा । बुद्धिं शुद्धतरां करोति विपुलां कीर्ति दिगन्तश्रितां, ___ यद्ध्यानं विमलं नमामि सततं तं शान्तिनाथं प्रभुम् ।।९।। यच्छान्ताननपङ्कजं जनयते दृष्टं प्रगे प्रोल्लस
च्छान्तिं शान्तमनस्विनां प्रकटयत्यानन्दवल्ल्यकुरान् । कामान् सान्त्वयते मनोऽभिलषितान् निर्वारयत्यापदं,
तं श्रीशान्तिजिनोत्तमं सुखकरं वन्देऽर्बुदेशं मुदा ॥१०॥ मायाऽपायकरण्डिकावशमतो मोमुखाते बन्धतः,
क्रोधाऽग्नेःशिखया ज्वलन् नरगण: पापच्यते तापतः । मानाऽरेः प्रवलैः शरैर्विनिहतो दोयते दुःखतः,
श्रीशान्तिप्रभुदर्शनेन विकलोऽतस्तं भजे भावतः ॥ ११ ॥
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( २०६) यः श्रीशान्तिजिनेश्वरं सकृदहो नन्तुं समुत्कण्ठते,
भव्यो भावतया न संमृतिपथं पश्यत्यसौ पुण्यभाक् । साक्षाद् ध्यानविधानतत्परधियां वाच्यं किमत्राधिकं, तधात्राप्रविधानतोऽर्बुदगिरेः कुर्वन्तु पुण्यार्जनम् ।।१२।।
वाशिष्ठाश्रम औचितो मुनिवरैर्ध्यानाऽधिवढात्मभि
यस्मिन्ननुभितैस्तपोऽधिकतरं तेपे विशुद्धाशयैः । केऽपि ज्ञानसुधाभुजोगतभया निष्कामभक्तिप्रियाः, ___ सत्प्रेमाविर्भावभावितधियः कुर्वन्ति सत्सङ्गतिम् ॥१॥ अन्येऽप्याश्रमवासिनो गुणिगणाः सत्सेवनासक्तया,
सिद्धान्तागमबोधमुन्नतिकरं बोधुं यतन्तेऽन्वहम् । केचित्कर्मरजोविशुद्धमनसः प्रक्षालयन्तस्तथा,
चारित्रेण यथोचितेन नितरां राजन्ति दीव्यर्द्धयः॥२॥ राजत्यर्बुदभूधरोगिरिगणे मूर्धन्यतामुद्वहन् ,
दीप्यद्दीव्यमहोविराजितमहादेवालयोद्भासितः । संवीक्ष्योन्नतसानुमण्डलमहालक्ष्मी यदीयां जनाः,
शङ्कन्ते किमु नाकिवासभवनं संप्राप्तमुत्साहतः ॥३॥ सानुन्यम्बरगामिनि प्रथुशिलापट्टेऽन्तरिक्षस्थिता,
देवी दीव्यविभाऽर्बुदा विजयिनी धत्ते सदा मङ्गलम् । यस्यो/भृत आम्रवृन्दनिकरेऽलक्ष्योष्णरश्मिप्रभे,
श्योतन्निर्झरवारिणि प्रतिपदं योगिप्रकाण्डाश्रिते ॥ ४ ॥
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(२०७ ) यस्मिन् कल्पलतालतौषधिगणैरङ्गीकृतेऽहनिशं,
दुर्गोदुर्गतिदारको गुरुशिखः पूज्योऽचलः श्रद्धया । कैलासश्चलितो दशाननबलानायं चलो विश्रुत
स्तस्मादेव यथार्थनाम वहते दुर्गाधिपत्याश्रितः ॥५॥ यत्रास्ते जिनराजराजिरनघा प्रोत्तुङ्गकान्त्यालयः,
सन्तप्ताऽर्जुनकान्तकान्तिमनिशं धिक्कारयन्ती वरा । मुख्यस्तत्रचतुर्मुखो जिनवरः प्राच्यादिदिक्षु स्थितः,
श्रेयः सन्ततिमातनोति जगता साम्यश्रिया राजितः ॥६॥ संप्राप्तानचलेश्वरः सुखयते धाम स्वकीयं शिवो,
नन्दीशेन रिरीमयेन बृहता साक्षात्समाराधितः । रूपं गन्मयं दधगिरिजया संवीक्षितं सादरं,
दग्ध्वा पञ्चशरं निवृत्तिमभनद्यस्मिन् गिरावर्बुदे ॥७॥ गोपीचन्द्रनरेशसेवितगुहा तत्राऽस्ति भव्याऽनघा,
केचिद्भिक्षुवरा वसन्ति विरता अद्यापि यत्राऽभया: । भाद्रश्रावणनामधेयसरसी खच्छाम्बुनी सेवते,
तत्रस्थे जनता गता तदुपरि श्रीदेविका मन्दिरम् ॥८॥
कामं रम्यं गिरीन्द्रं प्रकृतिसुभगतां धारयन्तं विशालां,
सर्वत्राऽखण्डधारां जनगणसुखदां निर्झरद्वारिधाराम् । मुक्तामालां वहन्तं समुचितहृदयेनाऽव॒दं योगिवासं,
दृष्ट्वा केषां न चेतो विविधसुखरतिं प्राप्नुयात् पुण्यमाजाम् । १
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( २०८)
भूपालानां निवासाः प्रतिशिखरगता यदिरेदर्शनीया
दृश्यन्ते दृष्टिचोरा वरतरुलतिकामण्डपम्राजिदेशाः । काले ग्रीष्मे कराले रविकिरणवशाच्छान्तिदानेपटिष्ठा
भव्या वैमानवारा इव समधिगता यच्छ्रियः प्रेक्षणाय ॥२॥ पालेयाने सुरूपः प्रतिनिधिरचलोऽयं विभाति क्षमायां,
शैत्याधानात्मकामं तुहिनततिवशादुच्चतातिप्रमाणात् । नानारत्नौषधीनां प्रचुरनिधितया दीपदीव्यालयैश्च,
भिन्नस्रोतःप्रवाहैवरगगनसरिभ्रान्तिदानकदक्षैः ॥३॥ पीत्वा पीत्वा पयांसि प्रतिपदममलान्युद्धतश्रीणि जीवाः,
पश्चाद्याः प्रीतिमन्तः सुविहितमनसः स्वस्त्रमार्गप्रवृत्ताः । वैरायन्ते मिथो नो गिरिकुहरगता योगिनां सत्प्रभावाद् ,
यस्मिन् गुप्तस्थितीनां रहसि गुणवतामबुंदे भासमाने ॥४॥ यस्मिन्नद्रौ धरित्री सुरभयति भृशं चम्पकौघः प्रसून, __ स्थाने स्थाने चकासदरकनकविभैर्देवपूजोचितैश्च । अन्ये पुष्पप्रधाना विकसिततरवो यत्रतत्रोल्लसन्तः,
चित्तोत्साहं जनानां सुरभिरतधियां वर्द्धयन्ति त्रिकालम् ।५। आम्राणामुन्नतानां नवविटपलतामञ्जरीभ्राजितानां,
वृन्दान्येकत्रभागे विजितसुरतरुश्रीप्रकाण्डानि यस्मिन् । राजन्ते राजिमन्ति क्षुभितजनमनोमोदमापादयन्ते, किं किं कत्तुं न शक्ताः समुचितविभवा मानवा: स्थावरावा।।
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( २०९)
यस्मिन्नस्ति वराम्बुराशिकलितो मन्दाकिनीकुण्डको
यत्तीरे महिषत्रिकान्तिकगतः सज्यं धनुर्धारयन् । धारावर्षमहीपतियविदां संमाननीयः सदा,
राजत्यद्भुतशक्तिस्मतवपुर्दाव्यालयभूषिते ॥७॥ श्रीमानादिजिनेश्वरोत्र भरताधीशेन निर्मापिते,
सौभाग्येन समन्वितेन विबुधैर्दीव्यालये संस्तुते । तस्मादक्षयसिद्धिसाधनमसौ श्रीरैवताद्रेस्तथा,
श्रीसिद्धाचलतोऽपि नेमिजिनराट् पादाम्बुजेनाऽङ्किते ॥८॥ यच्छृङ्गे परमारवंशविततिर्भव्ये वशिष्टाश्रमे,
सञ्जाता ज्वलदग्निकुण्डत इति श्रेयस्करः प्रीतिदः । नानाकारनदीनदैः सुललितो हंसावलीनादितो
भव्याऽऽनन्दमयः सुधाशनगणैः स प्रार्थनीयः श्रिया ॥९॥
-
अम्बिकादेवीस्तोत्रम्।
वैतालीयवृत्तम् जय जैनमताऽनुरक्षिके ! जय दीव्याम्बरधारिणि ! तितौ। जय दीर्ण कलिप्रभाविके ! जय संपत्तिनिधानकेऽम्बिके ! ॥१॥
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(२१०) स्वदरं विनिपातसंक्षयो-जिनराजप्रभया प्रभाविनि!। करुणालयवासिनि ! प्रियं, कुरु सर्वत्रशरीरिणां सदा ॥ २ ॥ विदितो ललिताम्बिके ! तव, महिमाऽमेयगुणः शुभात्मिके ।। विनिवारय मङ्गलेतरं, प्रविधेहि प्रचुरश्रियं नृणाम् ॥ ३ ॥ नरदेवनताघ्रिकेऽम्बिके ! तव दाक्षिण्यमनल्पशर्मदम् । शरणं क्रियते त्वदीयकं, चरण विघ्नविघातकारणम् ॥ ४ ॥ विफलं तब सेवनं न वै, श्रुतदृष्टं च मयाम्बिके ! जने । जनतारिणि ! मानहारिणि ! हर संकष्टपरम्परां सदा ।। ५ ॥ जिनशासनसेविनां नृणां, विकृति व कदापि जायते । विपदां पदमर्थहारकं, त्वयि गोप्च्यां कुत एव संभवेत् ॥ ६ ॥ जय नेमिजिनेन्द्रशासनाऽवननिष्ठे ! वरसिंहवाहने ?।। करसंस्थितचूतलुम्बिके ! सुतयुगलेन विराजितेऽम्बिके ? ॥७॥ विमलार्थपतेः सहायिका, शुभधर्माऽभिरतस्य गीयसे । अचलाऽर्बुदरक्षिकाम्बिके ! श्रुतसम्यक्त्वधरा प्रभाविनी ॥ ८॥ गुरुभक्तिरतात्मना सदा, मुनिहेमेन्द्रसुधाब्धिना कृतम् । समभावयुजाऽम्बिकाऽष्टकं, जनताप्राणविधानहेतुकम् ॥९॥
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(२११) योगनिष्ठश्रीमद्-बुद्धिसागरसूरीश्वरगुणाष्टकम्
(पञ्चचामरच्छन्दः ) अशेषकर्मदारकं विशेषशर्मदायक,
विषादकोटिहारकं प्रभूतसम्पदाकरम् । सुबुद्धिसिद्धियोजकं सुभक्तिनम्रचेतसां, ___ नमामि मूरिपुङ्गवं मुनीशबुद्धिसागरम् ॥ १ ॥ कलौ मलौघनाशनकबद्धलक्षलक्षितं,
क्षितीन्द्रलक्षसन्नतप्रफुलरादपङ्कनम् । जनेषु जैनतत्त्वबीजरोपणैकमानसं,
नमामि मुरिपुङ्गवं मुनीशबुद्धिसागरम् ।। २ ।। युगादिनाथसाधितार्थसार्थकत्वसाधक,
परात्मभेदकाऽऽत्मभेदभिन्नताविकासकम् । सुयोगमार्गमार्गणोद्यतप्रचण्डतेजसं,
नमामि मूरिपुङ्गवं मुनीशबुद्धिसागर ॥ ३ ॥ समस्तलोकसंस्तुतं मुनीन्द्रवृन्दलालितं,
गुणिवजैः सुचिन्तितं स्वकीयमानसाम्बुजे । सुभव्यमानवा भजन्ति यत्क्रपाम्बुजं सदा,
नमामि मुग्पुिङ्गवं मुनीशबुद्धिसागरम् ॥४॥
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( २१२)
जिनाऽऽगमं प्रमाण तः प्रमाण यन्तमुन्नतं, . . सदोन्नति विवर्द्धयन्तमाईती जनोचिताम् । कुमार्गसन्तति विनाशयन्तमङ्गिनां समां, नमामि मूरिपुङ्गवं मुनीशबुद्धिसागरम् ॥५॥ समस्तमानमत्तमानवव्रज निजश्रिया, सुबुद्धिवृद्धिजातया नितान्तमोदमूलया । पवित्रयन्तमन्वहं. कलङ्कहीनताजुषं, नमामि मूरिपुङ्गवं मुनीशबुद्धिसागरम् ॥ ६ ॥ विवेक के किनादनादितोत्तमात्मधारणं, धराधरेन्द्रसन्ततिप्रपूजितक्रमाम्बुजम् । निरस्तहिंस्रहिंसनप्रथं प्रकृष्टबोधतोनमामि सूरिपुङ्गवं मुनीशधुद्धिसागरम् ॥७॥ विचिन्त्य चिन्तनीयमात्मतत्त्वमात्ममन्दिरे, नितान्तशर्मसम्पदा समाश्रितं श्रितोदयम् । विशिष्टशिष्टमानवा नमन्ति यत्पदाम्बुजं, नमामि सूरिपुङ्ग मुनीन्द्रबुद्धिसागरम् ॥८॥ प्रसिद्धसिद्धिदायकं महासमृद्धिसेवधि, नरामरेन्द्रशुद्धिदानदक्षतायुतं सदा । हेमदेवताधिपाऽब्धिगुम्फित मनोहरं, पठन्ति ये जनासुखाऽधिमाप्नुवन्ति शाश्वतम् ॥९॥
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(२१३) (स्रग्विणीवृत्तम् ) (२) बुद्धिमान् सागरः मूरिरीशः कृपासागरो बुद्धिरित्याख्यया ख्यातिभाग् । शुद्धशास्त्रप्रवक्ता प्रतापोज्ज्वलः, सद्गुरुः सर्वदा वन्दनीयो जनैः ॥१॥
( शार्दूलविक्रीडितवृत्तम् ) अध्यात्मैकरसप्रियः प्रियगुणः सन्मार्गगामिप्रियः,
सध्यानस्थितिकप्रियः प्रियदयाधर्मः प्रियो योगिनाम् । शुद्धज्ञानविभाविभासिततनुः सिद्धान्ततत्वोदधिः,
सूरिः श्रीयुतबुद्धिसागरविभुः कुर्यात्मता मङ्गलम् ॥ १॥ अध्यात्मैकरसाम्बुधिश्रिततटा लब्धज्ञरत्नालयो
योगाङ्गीयसुतत्वनिष्ठितधियः सिद्धान्तसाराऽऽलयाः । सर्वत्राऽस्खलितोक्तयः सुललितश्रद्धेयमूर्तिप्रभाः,
श्रीमद्बुद्धिपयोधिमूरिचरणाः कुर्वन्तु नो मङ्गलम् ॥ २॥ यत्स्याद्वादवचःसुधासुतिमयोद्गारेण भूमण्डले,
तृप्ता भव्यजनाः प्रसत्रमनसा धर्म्यक्रियां कुर्वते । यः सम्यग्गुणगौरवैः क्षितितले ख्याति परां लब्धवान् ,
बुद्धयब्धिः सततं क्षितौ विजयतां श्रीपूज्यमूरीश्वरः ॥३॥ यत्स्वाध्यात्मिकवाक्सुधाश्रवणतः प्रीता न के भूतले,
यत्स्यादादरहस्य रक्षण विधेः के नाऽनुमोदे पराः।
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( २१४ )
यो ज्ञानाधिकारिणे प्रतिपलं सज्ज्ञानदानं ददौ, श्रीसूरीश्वर बुद्धिसागर गुरुर्भूमण्डले राजताम् ॥ ४ ॥ यो वादिप्रतिबोधकः शुभविधिः स्याद्वादविद्यानिधि - नानाशास्त्रविशारदः परिषदो यः शुद्धबोधप्रदः । यः सम्यग्विधिबोधको गुणगणैः ख्यातो घरामण्डले, श्रीसूरीश्वर बुद्धिसागर गुरुर्भूमण्डले राजताम् ॥ ५ ॥ वादीन्द्रं दलयन् स्वयुक्तिवचनैर्भव्यांस्तथा रञ्जयन्,
ग्रन्थान्संकलयंस्ततो जिनमतं सद्धेतुभिः साधयन् । सभ्यानां पुरतः स्वशास्त्रविषयं सद्युक्तिभिः स्थापयन्,
पूज्य श्रीयुतबुद्धिसागरगुरुः सूरीश्वरो राजताम् || ६ ॥ सुश्रामण्यविराजितो गुणनिधिः सच्छास्त्र शिक्षाप्रद,
आत्मज्ञानपरायणो जितमना यो योगिनामुत्तमः । ख्यातः संप्रति भारतादिविषये सर्वत्र यः सद्गुणैः, मूरीशो गुरुबुद्धिसागरविर्भूमण्डले राजताम् ॥ ७ ॥
पञ्चाssचारपरायणां जनततिं विस्तारयन्वस्तुतः,
सम्यक्तान्स्वयमाचरन्विशदधी : पञ्चेषुजिद्धेलया । जैनेन्द्रोत्तमधर्मपादपमसौ सिञ्चन्वचोवारिणा, पूज्यश्रीयुतबुद्धिसागरगुरुः सूरीश्वरो राजताम् ॥ ८ ॥
T
योगीन्द्रो युगधर्मधारा विधौ यो नित्ययत्नश्रितः, श्राद्धानस्खलिते सदाईतमते संस्थापयामासिवान् ।
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( २१५) हेयाहेयविचारचारुधिषणो यो भारतोद्धारकः, पूज्यश्रीयुतबुद्धिसागरगुरुः सूरीश्वरो राजताम् ॥९॥
स्रग्धरावृत्तम् सम्यज्ज्ञानप्रदाता सकलगुणनिधियोगिनां यो वरिष्ठआत्मज्ञानाऽवगाही जिनमतविदितः शुभ्रलेश्यानुयुक्तः । नानाऽनर्थप्रभेत्ता विमलपतिगुणैर्भव्यभक्तिप्रियाणां, बुद्धयब्धि मूरिवर्य प्रणमत सुधियो मानवा ! मानहीनम् ॥१०॥
श्रीमअजितसागरसूरिगुणाष्टकम् ॥ यः सर्वत्र पवित्रपादयुगलाच्छुद्धीकृतोतिलो__ यो दीनानपि दुःखकूपपतितान्सत्तत्त्वरज्ज्वोदरन् । यो वक्ता पविभाति भव्यवचनक्षीरोदधी रम्यधीः,
सूरीशोऽजितसागरो विजयतां सौभाग्यशर्मप्रदः ॥१॥ यः प्रीणाति सदा बुधानिजवचःपीयुषपूरैः परं, __ बाढं बुद्धिबलेन दुर्गमगुरुग्रन्थावगाही च यः । योऽनेकान्तमतप्रचारमा विधौ वक्ता प्रसिद्धोऽभवत् ,
सूरीशोऽजितसागरो विजयतां व्याख्यानवाचस्पतिः॥ २ ॥ यो मोहादिकमुख्यशत्रुदलने प्राप्तप्रतापोच्चयः,
या क्षान्त्यादिकसद्गुणगुरुगणे लब्धप्रतिष्ठो महान् ।
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( २१६ )
श्रीसूरीश्वरबुद्धिसागरगुरोः सेवापरो यः सदा, सूरीशोऽजित सागरो विजयतां चारित्रचूडामणिः ॥ ३ ॥ यः श्रीसूरिगुणान्वितो गुणभवत्पूर्णप्रतापान्वितः श्रीस्याद्वादरहस्यरक्षण पर स्तैस्तैः प्रतापैः पुनः । रक्षातो जिनशासनस्य भुवने कल्याणकर्ताऽस्ति यः, सूरिः सोऽजितसागरो विजयतां सर्वार्थविद्यानिधिः || ४ || शान्तः सर्वमतो नतो गुणिगणैस्तत्त्वाऽर्जने यो रतः,
चेतः संयमतः सदात्मनिरतो गीतोऽस्ति यः सज्जनैः । प्रीतः प्रेमजनेऽन्वितोमुनिजनैः शस्त्रेषु यः पण्डितः, सूरीन्द्रोऽजितसागरो विजयतां स्याद्वादविद्यानिधिः॥ ५ ॥ यो गूढार्थ जिनो शासन रहस्यार्थस्य विद्योतकः,
शास्त्राम्भोध्यवगाहनैकर सिको यो वाचनावाक्पतिः । नानादर्शन दर्शको सुवि सतां सम्यक्पथाऽऽदर्शकः, सूरीन्द्रोऽजितसागरो विजयतां काव्येषु काव्योपपः ॥ ६ ॥ गम्भीरार्थ गरिष्ठत गहनग्रन्थावलीभाष्यकृत् नानातर्क विचारणेऽतिनिपुणो विद्यावतामुत्तमः । यः सर्वाssगमगौरवप्रयनताप्रत्यक्षकर्ता धियासूरीन्द्रोऽजितसागरो विजयतां विद्वन्मनोमोदकः ॥ ७ ॥
-
सम्यग्ज्ञानगुणादिभूषणभरैर्यः सर्वदा भूषितः,
विद्वन्पण्डलमण्डनं जितमनाः पञ्चवताराधकः ।
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( २१७ )
धर्माराधनतत्परो बुधवरः कल्याणमालाकरः, सूरीन्द्रोऽजितसागरो विजयतां बुद्धिमभाभासुरः ॥ ८ ॥
आत्माऽऽनन्दविधायकं रतिपदं शश्वद्विशुद्धिपदं, कर्माssaीक्षयकारकं कलिपलक्षोभप्रदानोचितम् । आतङ्कोन्मथनैकदैवतमिदं गुर्वष्टकं भावतो,
हेमेन्द्रप्रथितं पठन्ति शिवशं ये पानत्रा यान्ति ते ॥ ९ ॥
( मन्दाक्रान्तावृत्तम् ) ( २ )
कामं कामं भविजनपनःशान्तिदं शान्तमूर्ति, ग्रामं ग्रामं कृतविहरणं बोधिबीजं वपन्तम् । रामं रामं जिनमतमहाम्भोधिपारं प्रयातं,
सूरिं वन्देऽजितजलनिधि निर्मलाऽऽत्मप्रबोधम् ॥ १ ॥
ध्यायं ध्यायं मुनिगुणगणं शुद्धतश्वप्रकाशं, गेयं गेयं विपुलसुखदं शुद्ध सिद्धान्ततत्रम् ।
हेयं यं विषममतिदं कुत्सितानां प्रवादं,
सूरि वन्देऽजित जलनिधि निर्मलाऽऽत्मप्रबोधम् ॥ २ ॥
पेयं पेयं गुरुगुणमयीं वाचनां पावयित्रीं, स्मारं स्मारं जिनपदयुगं स्वर्गमोक्षैकहेतुम् ।
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( २१८ )
कारं कारं विमलहृदयं प्रेमपीयूषपूर्ण, सूरि वन्देऽजितजलनिधिं निर्मलाssत्मप्रबोधम् ॥ ३॥
नामं नामं परमशिवदं सद्गुरोः पादपद्मं, लाभं लाभं गुरुतरगुणं तत्त्वबोधं प्रकाशम् । ग्राहं ग्राहं भवजलनिधेस्तारणीं चित्तशुद्धि, सूरिं वन्देऽजितजलनिधि निर्मलाऽऽत्मप्रबोधम् ॥ ४ ॥
वामं वामं विषयविरसं ज्ञानतन्त्रप्रवीणं, श्रामं श्रामं भवगमनतो लब्धदीव्यप्रदेशम् ।
क्षायं क्षायं व्यसनमनिशं श्रेष्ठचारित्ररत्नं,
सूरि वन्देऽजितजलनिधिं निर्मलाऽऽत्मप्रबोधम् ॥ ५ ॥
दाहं दाहं विषमभयदं कर्मवृन्दं जयन्तं, गाहं गाडं कलिमलहरं जैनतश्वाऽम्बुराशिम् । साई साहं परिषहचमूं स्वात्मरूपकनिष्ठ, सूरि वन्देऽजितजलनिधिं निर्मलात्मप्रबोधम्
भ्रामं भ्रामं भववनपथे भूरिभाग्यप्रभावाद्, धारं घारं जिनवरपदं तावकं मानसाब्जे । वारं वारं शिवसुखगतं भव्यबोधप्रवीणं,
सूरि वंदेऽजितजलनिधिं निर्मलाऽऽत्मप्रबोधम् ॥ ७ ॥
सारं सारं विशदमतितस्तान्त्रिकं दर्शयन्तं, पारं पारं भवजलनिधेर्देहिनः प्रापयन्तम् ।
॥ ६ ॥
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( २१९)
द्वारं द्वारं विषमयगतेः संततं रोधयन्तं,
मूरिं वन्देऽजितजलनिधि निर्मलाऽऽत्मप्रबोधम् ॥८॥ हेमेन्द्रेण ग्रथितममलं स्तोत्रमेतत्प्रभावं,
शिष्येणेहश्रमणगुणताभ्राजिना जातभावाः । भव्यात्मानः शिवमुखमयं दीव्यधाम प्रयान्ति,
पापठ्यन्ते क्षतलिमलं तेऽश्रमेण क्रमेण ॥९॥
( त्रोटक वृत्तम् ) (३)
प्रणमामि गुणाक ग्मातिहरं. शुभशान्तिकर गुरुधामधरम् । अजिताऽम्बुनिधि गुणवृन्दयुतं, हृदयस्थतमोहरणैकरविम् ॥१॥ कलिदोषहरं नतसौख्यकरं, परमाऽमृतपानरतं भजत । अजिताऽब्धिममेययशोभरितं, जनतारकमुन्नतिदं भवतः ॥२॥ विपुलर्द्धिकरं गतरोषभयं, वरकीर्तिकरं शुभबोधगृहम् । स्तुतिगोचरमातनुत प्रवरं, प्रवराऽऽशयमाश्रमिणां सुखदम् ॥३॥ सुखकारकमूर्तिधरं दमिनां, दमिताऽऽरिचयं निचयं सुपदाम् । मदमोहजितं जितलोकभयं, भजताऽजितमूरिमखण्डधियम् ॥४॥ जिनशासनवृद्धिकरं विमलं, विमलाचलभक्तिरतं सततम् । गुरुपादरतिं दधतं विपदं, प्रणमन्तु सदाऽजितमूरिवरम् ॥ ५॥
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( २२०) गुरुधैर्यधरं धृतधर्मधुरं, मधुरोक्तिसुधाऽशनवृन्दनतम् । विधिवादरतं समयज्ञवरं, नमताऽजितमूरिमनल्पगुणम् ।। ६ ।। परमोत्तम ! संहर मोह तमो-मम मानसगोचरमाशु विभो । तव पादसरोजरतिं दधतोऽ-जितसागरमूरिवरप्रवर ! ।। ७॥ परलोकभयं सततं हरता-मनवद्यसुखैकनिधे ? जगति । जनतापहर! प्रभया शुभयाऽ-जितसागरमबिर ! प्रबलम् ।।८।।
. (द्रुतविलंबितवृत्तम् ) अजितसागरमूरिगुणाऽष्टक, स्मरति यो मनुजः शिवशर्मदम् । दमयिताऽक्षगणस्य मदोज्झित:, स लभते लमनीयसुखाऽs
स्पदम् ॥ ९ ॥ ( वसन्ततिलकावृत्तम् ) हेमेन्द्रसागरमुनिप्रथितं स्वभक्त्या, __गुर्वष्टकं निजगुरोः प्रथितप्रमोदम् । मेधाविनः प्रतिदिनं प्रपठन्ति येऽत्र,
तेऽमुत्र यान्ति सुखसम्पदमद्वितीयाम् ॥१०॥
( शार्दूलविक्रीडितवृत्तम् ) (४) कान्ताकारमनल्पकल्पनकथाव्याख्यानवाचस्पति
श्वेतोरञ्जकभव्यभावविशदक्षेपार्थवाणीगृहम् ।
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( २२१ ) संगुप्तार्थविशेषकाव्यरचनाचातुर्यमुख्याऽऽस्पदं,
भव्यं भारतभास्करं मुनिवरं ध्यायन्ति सूरीश्वरम् ॥ १ । सव्याऽसव्यगुणानुवादवचनं संशोध्य शङ्कामयं,
भव्यानामुपकारकारणतया व्यक्तीचकार स्वयम् । कर्माणि क्रमतश्च यः परिहरन धर्मक्रियाकर्मठः,
सूरिः सोऽयमचिन्त्यरत्ननिलयो वर्षर्ति सर्वोपरि ॥ २ ॥ काम्यानामभिलाषमुन्नतिभिदं यो वर्जयन् कर्मणां
वाक्यानां कटुतां त्यजन् क्षयकरी सर्वात्मना शर्मणाम् । बोध्यानां सुखदायिनी प्रविदधत्संसद्तो वाचनां,
मुरीणां धुरि पूज्यपादकमलः संराजते संयतः ॥ ३ ॥ दुर्धर्षः परवादिनां निजमते लब्धप्रतिष्ठः सदा,
निर्माता करुणामयं जिनमतं व्याख्यानतो निश्चलम् । उद्धा स्वमताऽङ्कुराऽनलमहादुष्टान्वचोवारिणा,
सोऽयं राजति सूरिशेखरगतश्चारित्रचूडामणिः ॥ ४ ॥ विज्ञानं विमलं यदीयमनिशं विद्योतते भारते, __लोकाऽलोकविकाशकं विजयते चारित्ररत्नं वरम् । हेयाऽहेयविचारचारुमननं चोज्जृम्भते मानसं,
सोऽयं मूरिवरोऽजिताब्धिरनघः सौम्याकृती राजते ॥ ५॥ दुर्थ्यानाऽद्रिसमूहपक्षपविना येनोन्नतिः साधिता,
अध्यात्मैकरसायनेन कविना व्यावर्णितश्चाऽऽगमः ।
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( २२२ ) स्वाध्यायप्रथनेऽतिपाटवभृता विस्तारित शासनं,
सोऽयं सूरिवराऽर्णवाऽजितमुनिर्विद्यावतां भूषणम् ॥ ६ ।। भव्यानां भववारिशितरणे भव्यं तरण्डं दृढं,
भक्तानां विविधाऽभिलाषशमने दीव्यप्रभावो मणिः । भद्राणां वितनोति राजिमचलां यो नित्यमुत्कण्ठितः,
सूरीशः स सतां मतो विजयते पूज्योऽजितःसागरः ।।७।। श्रीसिद्धान्तमहोदधि गुणधिया निर्मथ्य तत्वाऽमृतं,
लब्या योऽभयतामवाप्य निजकानुद्भर्तमुत्कण्ठते । स्यावादी स्वयमेव नीतिनिपुणः सद्धर्मचक्री विभुः
सूरिः सोऽजितसागरो विजयते क्षोणीन्द्रवन्धक्रमः ॥ ८ ॥ सद्गुर्वष्टकमेतदिष्टजनकं गीतं प्रसादाद् गुरो
हेमेन्द्रेण विनेयकेन मुनिना श्रेयस्ततिमापकम् । सबुद्धिर्गुरुभक्तिमनहृदयो यः श्रद्धया संस्मरेत् ,
सोऽयं संमृतिमापणां सुखतया तीर्चा व्रजेत्स्वःश्रियम् ॥९॥
सुधासिन्धुस्मरणम्।
(शिखरिणीवृत्तम् ) सुधासिन्धुः सौम्यो निरूपमरसास्वादननको
महारत्नौघानां गुणसमुदयानां निधिवः । बतानेकाद्रीणां पटुतरपहो शस्तशरणं,
भवेऽस्मिन् केषां नो जनयति वियोगात्कलुषताम् ॥१॥
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(२२३ ) मनः पात्रातः परिभवपदं याति कृपणः,
सुधास्रावं चन्द्रं सुखदमनुकूलं सितरुचिः। अनालोक्यैव स्राग् धृतमृतकचेष्टो मदकला,
सतां तामिस्त्रायां निहतगुणसम्पद्भुवि सदा ॥२॥ सुधाम्मोधिं सर्वे नृजनुरनघं कर्तुमचलाः, ___ मतेः प्रादुर्भावादनुभवमनुप्राप्य सुधियः । विचिन्त्यैतच्चित्रं शिव विभवतृष्णौकतरलाः,
प्रपद्यन्ते शान्त्यै भवदहनसन्तप्तमनसः ॥३॥ सुधासिन्धुः कुत्रः ? स्थित इति महामोहविधुरा
भ्रमन्तो नैवास्मिल्लवण जलधिच्छन्नवसुधे । असारे संसारे विषमविषयातिप्रतिहता
न गच्छन्ति स्वास्थ्यं तदधिगमनावाप्तिविषयम् ॥४॥ सुधाम्भोधिं सम्यक् परिणतमनोरत्नसुभृतं,
सदा चित्रोत्फुल्लं मुनिगुणमहाकम्बुकलितम् । जनैः कीर्ण सेवाविमलमतिभिः शान्तिजनकं,
न कः सिद्धिं यातः स्वमतिसुखदांप्रेक्ष्य विपुलाम् ॥५॥ धरेयं रत्नानां निधिरनुमता मानकलिता, __इदं व्योपाक्रान्तं हरिचरणमात्रेण समलम् । सुमेरुः स्वर्यातस्तदपि परिमाणाङ्कितवपुः, परं राशिराममृतमय एषोऽप्रमितिभाक्
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( २२४ ) सुधासिन्धुलॊके वहति समसिद्धिर्निजतया,
समेषां वस्तूनां निरूपमगुणौघं सुरतिदम् । कलावन्तो येऽन्ये यदनुकरणं नैव दधते,
शशाङ्कायाः सौम्याः पम्गुणविधानकपटवः ॥७॥ अहो धैर्य कीहग् निरवधिविशालं मतियुताः,
सुधाम्भोधेः सम्यक् परिचयतया दृष्टिविषयम् । तदेतत्कुर्वन्तु क्षपितपरपक्षोद्भवभया
गुणाः सर्वस्मिन्वै पदमभिदधत्यात्मवशगाः ॥८॥ सदाऽऽहलादं लोके प्रशमितनिजोमिक्रमगणो
वितन्वन्पीयूषोदधिस्तुलभावोपजनकम् । स्वकण्ठाऽभिप्राप्तान्नरवरझषादीन्विदधति,
प्रमोदावल्यान्यान्परिहतपरापेक्षहृदयान् अहो लीनामीनाः कृपणमनुजाः शीतविमले, ___ अगाधज्ञानोदे सुखमनुपमं यस्य दधते । तदीयां को दध्याद्गुरुगुणसमुत्पनपदवी, । न शोभां सैहीं श्वा धृतकनकमालो हि लभते ॥१०॥ सुधासिन्धुं शुक्ल प्रथितगुणरत्नालिविततं,
निजोन्नत्यै काले सततसुखदं मानसमपि । सदा हंसश्रेणी स्फुटमतिधराः स्नेहबहुलाः,
सुधाभं तस्यक्त्वा हतभवभयागन्तुमनसः ॥११॥
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( २२५ )
विना तं पीड्यन्ते दितिजवसुदेवा अपि बुधाः, समुत्कण्ठन्ते ये भिनव महालब्धिवशगाः । न तच्चित्रं तस्मिन्नमृत जलधौ विस्मयपदं,
सतामृद्धिः शस्या त्रिभुवनतले शुद्धिजनका ॥ १२ ॥
सुधासिन्धुः पूर्णोऽमितविमलज्ञानमणिभिस्तथाऽप्युन्नत्यै यो निजहृदय संभूतसुमुदा ।
सदा मानुष्याणामनवरतलासं जनयते,
परेषां कृत्येषु भजति हि महान्को विमुखताम् ॥ १३ ॥ सुधासिन्धुः क्षीणो भवति हि देति प्रमितितां, व्रजत्येषोऽस्मिन्नो जगति विदधन् धैर्यमनधम् । विजेतॄणां सिद्ध्य शिवसुखसमाच्छादितधियां,
लघु भावं त्यक्त्वा गुणगण इहैवातिरसिकः ॥ १४ ॥ सुधासिन्धुः कामं जनयति कमप्यत्र विशदं,
प्रमोदं जन्तूनां निकटमधिकं वासं हि जुषताम् । सतां संभूतानां शमितभुवनाऽनेक विपदां, समासाद्येतामनघपदवीं को भुवि जनः
।। १५ ।।
न चादिर्मध्यान्तो न पुनरनघस्यास्य विहितो - दकज्ञानस्य प्रमितविषयोऽन्तः सुकविभिः । तथाऽप्येतद्भेदं समुपगतवानेष सकलोमहान्तोऽप्येतस्मिन्विधिजनिततन्त्रार्थसुमुखाः ॥ १६ ॥
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( २२६ ) सुगासिन्धौ मनः परिभवपदं नैति कृपणो__ भवोद्भूनोद्घाताः प्रशमितमहाशान्तिनिचयाः। जनानां चेतांसि न विभव इदं क्रान्तमनसां,
समाहर्तुं स्पष्ट विषयगमनोत्पण्ठितधियाम् ॥ १७ ॥ सुधासिन्धौ सारे करणनिचयातीतमहसि,
कुलीना: संलीनाः सुमतिसमताशालिमतयः । दृशां पारे याते शिवसुखसमभ्यर्थनपरा
न नैराश्य यान्ति भ्रमकुमतवांछाविरहिताः ।। १८ ।। सुधासिन्धुश्चन्द्रोदयविपुलमोदं जनयते, ___ तदुत्पन्नप्रेमाऽतिभरवहनोन्नामित वपुः । स्वकीय कौशल्यं प्रकटयति जीवाति सुखदं,
स कुर्वन्त्यस्मिन्वै विभवसहिताः के न विजयम् ॥१९॥ सुधान्यो भोक्तारस्त्रिदशपतयः प्राप्य विपुलं,
प्रमोदं पीयूषं तदभिमतमीलादिभुवने । समाङ्गीकुर्वन्तामृतिपथमतीत्यैव विभवो
विराजते नित्यं गतपरसुखाशाः स्ववसतौ ॥२०॥ तदेतत्पीयूषं समवगतमासीद्विधिवशा
जनानां पुण्यौघैस्ततसुगुणवृन्दैरिव फलम् । समाकृष्टं पूर्व सितकिरणवंशं समगम
न्महद्भाग्यं लोके भवति हि फलोद्रेककलितम् ॥ २१ ॥
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(२२७) ततः सम्यक् श्रेयो विभवपददानैकरसिकः,
समस्त्यत्राम्भोधिगुरुगुणनिधिर्भावविमलः । समाकर्पोत्थं सै-तमधिगतवानन्यमनसा,
सतां सिद्धे कार्ये हृदयशुभशान्तिर्हि भवति ॥ २२ ॥ कियत्कालं प्राप्यै-तदनुमतयोगं भवमिदं, __सकार्य संसाध्य प्रमितसमयेनेष्टजनकम् । पुनः स्त्रीयस्थाने गमनमकरोचैतदनपं,
न तिष्ठन्त्यक्षीणा-विहितपरकार्याः क्षणमहो ॥ २३ ॥ दिवं याते तस्मिन् विधुरितजनाः संशयजुषो
वितर्क कुन्तिो-विधुफणिमुखाम्भोधिविषयम् । समासाद्यैतद्वै विलसति समुद्भुतकरुणं,
तथालापानमूहावितथमनुकुर्वन्ति विशाः ॥२४॥ तयोर्योगाभावं, समनुगतसम्यक्त्तवचनाः, __ सहन्ते के विज्ञाः परिचितमहाऽनय॑मणिवत् । सतां मैत्री सौम्या किमपि नवनीतार्थजनकमखण्डं सौभाग्यं जनयति हि पुग्यौघसुलभम् ॥ २५ ॥
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