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( १९७ ) अरूपरूपसंकाशं, सदैव स्थिरवासकम् ।। जितेन्द्रियं जितश्वासं, सर्वभावविबोधिनम् ॥७॥ भनन्तसौख्यपाथोधि, रहसि प्रथितालयम् ।। भवौघवारकं वन्दे, सततं निर्विकारिणम् ॥८॥ अक्षोभितं कषायैश्च, पत्रिंशद्गणधारकम् ।। सुसंपदाऽभिसंपन्नं, नमामि वाचकोत्तमम् ॥६॥ प्रमाणनयसंपन्न, वाणयुग्मगुणैर्युतम् ।। ज्ञानदं सर्वजन्तूना-मुपाध्यायं नमाम्यहम् ॥१०॥ त्यक्तमोहमहाजालं, परप्राणसुरक्षकम् ।। धृतधर्म सुतत्त्वज्ञ, प्रोज्झितापनिदानकम् ॥११॥ न्युच्छिन्नकामलोभारि, रागद्वेषविवर्जितम् ॥ वीतरागाज्ञया युक्तं, नमामि शुद्धमानसम् ॥ १२ ॥ अज्ञानतिमिरोष्णांशुं, सर्वशर्मप्रसाधनम् ॥ नमामि जैनयोगीन्द्रं, हृतमोहभुजङ्गमम् ॥ १३ ॥ छिन्नमिथ्याऽन्धकारं च, विज्ञानाञ्जनदायकम् ॥ नमामि सद्गुरुं सत्यं, प्रमाददुःखहारकम् ॥१४॥ जयन्तु जैनसर्वज्ञा-जयन्तु परमेष्ठिनः ।। जयन्तु गुरवः श्रेष्ठा-यैः सुमार्गः प्रदर्शितः ॥ १५ ॥
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