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( २७ )
विदितनिखिल भावनिर्जिताऽक्षं, चपित दुरन्तदुराधिकर्मजालम्
स्तुत जिननिकरं तमाप्तमीशं, सुरगण वन्दितपादपद्मयुग्मम् |
विजितरतिपतिप्रकामवेगं,
विधुरित मोहमदाऽभिमान से नम्
स्मरत जिनवरोदितं प्रकामं. प्रवचनमुत्तमतश्ववारिराशिम् ।
सकलजनहिताय शस्तमेतत् -
प्रथिततरं भुवनेषु शुद्धभावाः !
हरतु विविधमानसीं प्रपीडां, कनकविभासमदेहमानसीयम् ।
वरदपविकरा प्रभावयित्री,
शुचिवसनाच मरालवाहनस्था
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॥ ४ ॥
श्रीसंभवनाथजिनस्तुतिः ॥ ३ ॥
( वसन्ततिलकावृत्तम् )
निर्भिन्नशत्रुभव भीतिविशेषशान्त ! संसारसागरमहाल व संभवेश ! | म प्रदेहि शशिसोदरशर्म सद्योलोकातिगं प्रथितसर्वजनप्रभाव ! ॥ १ ॥