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राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला
.. प्रधान सम्पादक-पुरातत्त्वाचार्य जिनविजय मुनि . [सामान्य सञ्चालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर ]
सकलागमाचार्यचक्रवर्तिश्रीपृथ्वीधराचार्यविरचितं श्रीभुवनेश्वरीमहास्तोत्रम्
-
कविपद्मनाभविरचितयालप्रबोधिनीसधुक्तिदीपिकावृतिविभूषितम्
तथा
रुद्रयामलीयभुवनेश्वरीपञ्चाङ्ग-भकरादिसहस्रनाम-अनन्तदेवकृतभुवनेश्वरीक्रमचन्द्रिका-पृथ्वीधराचार्यकृतलघुसप्तशतीस्तोत्रप्रभृतिभिरनुसङ्कलितम्
মার
राजस्थान राज्य संस्थापित
राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान RAJASTHAN ORIENTAL RESEARCH INSTITUTE, JODAPUR
जोधपुर (राजस्थान) .
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राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला
राजस्थान राज्य द्वारा प्रकाशित सामान्यतः अखिल भारतीय विशेषतः राजस्थानदेशीय पुरातनकालीन संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, राजस्थानी, हिन्दी आदि भापानिबद्ध
विविध वाङ्मयप्रकाशिनी विशिष्ट ग्रन्थावलि
प्रधान सम्पादक
पुरातत्त्वाचार्य जिनविजय मुनि [ ऑनरेरी मेम्वर श्रॉफ जर्मन श्रोरिएन्टल सोसाइटी, जर्मनी )
सम्मान्य सदस्य भाण्डारकर प्राच्यविद्या संशोधन मन्दिर, पूना; गुजरात साहित्य-सभा, अहमदाबाद विश्वेश्वरानन्द वैदिक शोध-संस्थान, होशियारपुर निवृत्त सम्मान्य नियामक--
. (आनरेरी डायरेक्टर ) भारतीय विद्याभवन, बम्बई.. ..
..
ग्रन्थाङ्क ५४ - . सकलागमाचार्यचक्रवर्तिश्रीपृथ्वीधराचार्यविरचितं
श्रीभुवनेश्वरीमहास्तोत्रम्
कविपद्मनाभविरचितवालप्रवोधिनीसद्यक्तिदीपिकावृत्तिविभूपितम्
रुद्रयामलीयभुवनेश्वरीपञ्चाङ्ग-भकारादिसहस्रनाम--अनन्तदेवकृतभुवनेश्वरी
क्रमचन्द्रिका--पृथ्वीधराचार्यकृतलघुसप्तशतीस्तोत्रप्रभृतिभिरनुसङ्कलितम्
प्रकाशक - ...
राजस्थान राज्याज्ञानुसार सञ्चालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान
जोधपुर ( राजस्थान)
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ग्रन्थाङ्क ५४ सकलागमाचार्यचक्रवर्तिश्रीपृथ्वीधराचार्यविरचितं
श्रीभुवनेश्वरीमहास्तोत्रम्
कविपद्मनाभविरचितबालप्रबोधिनीसाक्तिदीपिकावृत्तिविभूषितम्
.: तच्च . रुद्रयामलीयंभुवनेश्वरीपञ्चाङ्ग-भकारादिसहस्रनाम-अनन्तदेवकृतभुवनेश्वरी- क्रमचन्द्रिका पृथ्वीधराचार्यकृतलघुसप्तशतीस्तोत्रप्रभृतिभिरनुसङ्कलितम् ...
... सम्पादक, श्रीगोशलनारायणं बहुरा, एम० ए०. :
उपसञ्चालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर
- प्रकाशनकर्ता
__राजस्थान राज्याज्ञानुसार सञ्चालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान
जोधपुर ( राजस्थान)
विक्रमाब्द २०१७) ...
...... (निस्वान्द १६६०
भारतराष्ट्रीय शकाव्द १८८२ प्रथमावृत्ति १०००
मूल्य ३७५ न०१० ... ...मुद्रक-चैदिक यन्त्रालय, अजमेर (राजस्थान ) ..
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राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला
प्रधान सम्पादक
पुरातवाचार्य मुनि जिनविजय द्वारा सम्पादित कतिपय ग्रन्थ
१ - त्रिपुराभारती लघुस्तव - महाकवि लघुपण्डितकृत २ - शकुनप्रदीप - पं० लावण्यशर्मकृत
३ - करुणामृतप्रपा - कवि सोमेश्वरठक्करकृत
४ - बालशिक्षा व्याकरण-ठक्कुरसंग्रामसिंहकृत
५- पदार्थरत्नमंजुषा - पं० कृष्ण मिश्रकृत
६ - मुग्धावबोधादि श्रौक्तिक संग्रह - अनेक विद्वत्कृतिरूप ७ - प्राकृतानन्द - पं० रघुनाथकृत
८--ठक्करफेरुरचित ग्रन्थावली ( प्राकृत ) ६ - उक्तिरत्नाकर - पं० साधुसुन्दरगणिकृत
१० - राठोड़ारी वंशावली - राजस्थानी भाषा ऐतिहासिक रचना
११ - राजस्थानी सुभाषित-संग्रह
१२ - हमीर महाकाव्य - नयचन्द्रसूरिकृत --
१३ - मणिरत्नादि परीक्षा ग्रन्थ संग्रह
3।
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... सञ्चालकीय वक्तव्य - प्रस्तुत श्रीभुवनेश्वरी महास्तोत्र सकलागमाचार्यचक्रवर्ती श्रीपृथ्वीधराचार्यकृत मन्त्रगर्भित स्तोत्र है और प्रोजःपूर्ण पदावली एवं स्वयं स्तोत्रकर्ता द्वारा व्याहृत फलश्रुति से इसके महत्त्वशील होने का पर्याप्त परिचय मिलता है । इस स्तोत्र का साङ्गोपाङ्ग प्रकाशन अद्यावधि कहीं नहीं हुआ था इसीलिए जब इस विभाग के उपसञ्चालक श्रीवहुराजी ने प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रकाशन-सम्पादन के लिए अपना मनोरथ प्रकट किया तो मैंने उत्साह के साथ इसकी स्वीकृति दे कार्य आरम्भ करने की प्रेरणा की।
श्रीवहुराजी ने इस ग्रन्थ का सम्पादन अत्यन्त लगन और परिश्रम के साथ किया है। विषय से सम्बद्ध अध्ययनात्मक विस्तृत भूमिका से पुस्तक और भी उपयोगी वन गई है । आरम्भ में मुझे पुस्तक के इतने बड़े कलेवर की आशा नहीं थी परन्तु जैसे जैसे सम्बद्ध उपादेय सामग्री मिलती गई इसका आकार प्रकार बढ़ता गया और यह उचित ही हुआ कि भगवती भुवनेश्वरीविषयक इस प्रकार की विपुल सामग्री का एकत्र सङ्कलन कर दिया गया । जैसा कि सम्पादकीय से व्यक्त - है इसके पूर्व इस स्तोत्र का सभाष्य अथवा इतना प्रौढ़ संस्करण कहीं नहीं निकला
है । इस प्रकार के अप्रकाशित और महत्त्व-शील प्राचीन ग्रन्थरतों को प्रकाश में लाना ही प्रस्तुत ग्रन्थमाला का मुख्य ध्येय है। मैं आशा करता हूं कि ग्रन्थमाला के अनेकानेक पूर्व प्रकाशित ग्रन्थरत्नों की तरह प्रस्तुत रत्न भी विद्वानों को समादरणीय होगा।
. निष्ठा एवं विद्वत्तापूर्ण सम्पादन के लिए मैं श्रीबहुराजी का 'अभिनन्दन करता हूं और आशा करता हूं कि इन का परिश्रम पाठकों की रुचि और एतद्विषयक उत्साह को बढ़ाएगा।
१४ दिसम्बर, १९६० ।
जोधपुर।
· · मुनि जिनविजय .
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________________
1.
२.
३.
४.
५.
विषय
सचालकीय वक्तव्य
प्रास्ताविक परिचय
८.
६.
१०.
19.
१२.
11.
विषयानुक्रम
सन्दर्भ-ग्रन्थ-सूची
श्रीभुवनेश्वरीमहास्तोत्रम् कविपद्मनाभकृतभाष्यान्वितम्
श्री भुवनेश्वरीपचाङ्गम्
क. पटल:
ख. पूजापद्धतिः
ग. भुवनेश्वरीकवचम्
घ. भुवनेश्वरीसहस्रनाम रुद्रयामलान्तर्गतम् .
ड. भुवनेश्वर्यष्टोत्तरशतनामस्तो श्रम्
६.
७.
भुवनेश्वर्यष्टकम् रुद्रयामलान्तर्गतम्
भुवनेश्वरीभकारादिसहस्त्रनामस्तोत्रम् महातन्त्राणवान्तर्गतम् भुवनेश्वरीहृदयस्तोत्रम् नीलसरस्वतीतन्त्रान्तर्गतम् भुवनेश्वरीस्तोत्रम् रुद्रयामलान्तर्गतम् - भुवनेश्वरी क्रमचन्द्रिका अनन्तदेवकृता
लघुसप्तशती स्तोत्रम् पृथ्वीधराचार्य विरचितम्
संकेता राय
अनुक्रमणिका
पृष्ठाङ्क
9
२०
१- ३०
૧૨
३१- ४३
४४- ६०
६८- ७१
७२ ८१
८२- ८३
८४- ८१
८६- १००
१०१ - १०२
१०३ - १०४
१०५-१५३
१५४ - १२८
१५३
१६० - १६६
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राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला ]
[श्रीभुवनेश्वरीमहास्तोत्रम्
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पान प्राच्यविद्याप्रतिष्ठान, जोधपुर के हस्तलिखितग्रन्थसंग्रहान्तर्गत चित्र की प्रतिकृति
.. श्रीभुवनेश्वर्यै नमः
चञ्चन्मौक्तिकहेममण्डनयुता मातातिरक्ताम्बरा तन्वङ्गी . नयनत्रयातिरुचिरा बालार्कवद्भासुरा । या दिव्याङ्कशपाशभूषितकरा देवी सदा भीतिहा चित्तस्था भुवनेश्वरी भवतु नः सेयं मुदे सर्वदा ॥
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॥ श्रीः ॥ प्रास्ताविक परिचय श्रीभुवनेश्वरी' महास्तोत्र भगवती आद्याशक्ति का स्तवन है। यह समस्त विश्वप्रपंच भुवनों से व्याप्त है। भुवनों की अधिष्ठात्री श्राद्याशक्ति ही भुवनेश्वरी है जो अव्यय, अक्षर और क्षर के त्रिपुर की आधारशक्ति है। त्रिपुर में ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, अग्नि और सोम इन पांचों की समष्टि होने के कारण इसे पञ्चपत्नी सी कहते हैं।
शब्दावच्छिन्न ज्ञान का नाम वेद है और विषयावच्छिन्न ज्ञान ब्रह्म कहलाता है। शब्द और विषय दोनों सामान्य ज्ञान करा कर लीन हो जाते हैं। यही सामान्य ज्ञान अनुभूति द्वारा विशेष भाव को प्राप्त होता है और आत्मा में खचित हो जाता है। वैज्ञानिक परिभाषा से इस ज्ञान को विद्या कहते हैं। इस अनुभवजन्य ज्ञान की सम्प्राप्ति और विकास की आधारसूत शक्ति ही भुवनेश्वरी महाविद्या है।
भवनेश्वरी ही सरस्वती हैं। सरस्वती को वाणी और वाक कहते हैं।' वाक्तत्व से प्रादुर्भूत शब्दप्रपञ्च से कोई भी स्थान खाली नहीं है। इसीलिए ये सब भुवन और त्रिलोकी वाड्मय कहलाते हैं।
वाक का अर्थ प्रायः बोली अथवा वाणी होता है। परन्तु यह शब्द, आवाज़ अथवा ध्वनि का भी द्योतक है। अचेतन पदार्थों से उत्पन्न होने वाला शब्द भी इसी के अन्तर्गत ग्रहण किया जाता है। अर्थ विषय अथवा वस्तु को कहेंगे, समके हुए अर्थ को प्रत्यय कहते हैं।
१. शिवाविनाभूतशक्तिः स्वतन्त्रा निरुपलवा । समस्तं व्याप्य भुवनमीष्टे तेनेश्वरी मता ।। २. भवतीति भुवनं चराचरं जगत् । अथवा, भवत्यस्मादिति भुवनम् । ... ३. वाग वै सरस्वती। शतपथ ब्रा० २।१४।६, ३।६।११७ ४. क. अथो वागेवेदं सर्वम् । ऐतरेय श्रारण्यक ३११६ । ख. वाचं देवा उपजीवन्ति विश्वे .
वाचं गन्धर्चाः पशवो मनुष्याः । वाचीमा विश्वा भुवनान्यर्पिता
सा नो हवं जुपतामिन्द्रपत्नी ॥ तैत्ति० ब्रा० २।८ ।। ग. अनादिनिधना नित्या वागुत्सृष्टा स्वयम्भुवा । . . आदौ वेदमयी दिव्या यतः सर्वाः प्रवृत्तयः ।। सहा. भा०शा० प० ३१वाँ अध्याय ।
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बाक के चार भेद है।' वैदिकों के मत से भू, भुवः, स्व और ओंकाररूप (प्रणव) इन चारों के अन्तर्गत समस्त वाङ्मय परिमित है। वैयाकरणों का कहना है कि नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपात इन चारों से समस्त शब्दजाल परिच्छिन्न है। नाम द्रव्यप्रधान है, आख्यात क्रियाप्रधान है, आख्यात पद से पूर्व प्रयुक्त होने वाला पद उपसर्गसंज्ञक है और ऊंचे नीचे अर्थो में पतनशील शब्द निपात कहलाते हैं। इस प्रकार अखण्ड ( समस्त ) वाक् की व्याकृति होने से उसके चार प्रकार हुए।
पहले वाक् अथवा वाणी का स्वरूप अव्याकृत था। इन्द्र ने बीच में अवक्रमण कर इसे व्याकृत किया । इसीलिए इले व्याकृतवाक् कहते हैं । ज्ञानमूर्ति प्रकाशात्मक तत्व ही इन्द्र है जिसके आलोक में शब्द के तत्तदर्थ भासित होते हैं। इसीलिए इन्द्र को वाक भी कहते हैं। वाक् का व्याकरण ही जगत् का विकास है।
यह समस्त शब्दप्रपञ्च वाक्तत्वात्मक है। इन्द्र इस तत्व का संग्राहक है। अाकाश अथवा शून्य से जब संचरणशील वायु का आघट्टन अथवा संघर्षण होता है तव . शब्द उत्पन्न होता है। आरम्भ में इस शब्द की अव्याकृत अवस्था ही रहती है। ज्ञानमूर्ति इन्द्र के आलोक में इसका विभक्तीकरण होता है। .. याज्ञिकों का मत है कि मन्त्र, कल्प, ब्राह्मण और लौकिकी नाम से दान के चार भेद हैं। अनुष्ठेय अर्थ का प्रकाशक वेदाग मन्त्र कहलाता है, अर्थात् हमारे इष्ट को प्रकाश में लाने वाली वैदिक ऋचाएं मन्त्र हैं। मन्त्रविधान के प्रति
१. क. चत्वारि वाक्परिमिता पदानि तानि विदुर्ब्राह्मणा ये मनीषिणः ।
गुहा त्रीणि निहिता नेगयन्ति तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति ।। ऋग्वेदः ।। ... ख. वैखरी शब्दनिष्पत्तिमध्यमा श्रुतिगोचरा । उद्यतार्था च पश्यन्ती सूक्ष्मा वागनपायिनी ।। सैवोरः कण्ठतालुस्था शिरोबाणहृदि स्थिता । ... जिह्वामूलोष्टनित्यूता सर्ववर्ण परिग्रहा ॥
शब्दप्रपञ्चजननी श्रोत्रग्राह्या तु वैखरी ।। वाचस्पत्यम् ।। .. २. क. वाग वै पराची अव्याकृतावदत । तामिन्द्रो मध्यतोऽवक्रम्य व्याकरोत् ।
तस्मादियं व्याकृता वागुच्यते ॥ . . . . ख. अन्याकृता हि परमा प्रकृतिस्त्वमाद्या । मार्कण्डेय पु० । ३. क. इन्द्रो वागित्याहुः । शतपथ ब्रा० शट'
ख, अथ य इन्द्रस्सा वाक् । जैमिनीय उप० ११३३१२
ग. वाग वा इन्द्रः । कौपी. उप० २१७११३१५ ४. व्याकरणं शास्त्रभेदे, नामरूपे, जगतो विकासने च । वाचस्पत्यम्, पृष्ठ ४६८६ ।
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(३)
पादक वेदभाग को कल्प कहते हैं। मन्त्रों के तात्पर्यार्थ को प्रकाशित करने वाला वेदभाग ब्राह्मण है और व्यवहार में अथवा लोक में प्रयुक्त होने वाली वाक लौकिकी है। ..
. इसी प्रकार ऋग्, यजुः, साम और व्यावहारिकी नाम से नरुक्त नियमानुसार समस्त वाङ्मय नियमित है।
ऐतिहासिकों का कहना है कि सो, पक्षियों, छोटे छोटे रेंगने वाले जानवरों और व्यावहारिकी वाणी के भेद ले वाक् चतुर्धा विभक्त है।
आत्मवादी कहते हैं कि यह वाक् पशु, तूणव, मृग और आत्मा में निहित होने से चार प्रकार की है।
मातृकाविज्ञान के आचार्यों का मत इनसे भिन्न है। वे परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी नाम से चार प्रकार की वाक् का प्रतिपादन करते हैं।
मूलाधार से उदित होने वाली, एकमात्र प्राण और अपान के अन्तराल में रहने वाली वाक् सूक्ष्म और दुर्निरूप्य होने से परा कहलाती है। वह सामान्य जन के ज्ञान से परे है, आविर्भाव और तिरोभाव से रहित है तथा सम्यक् मनन एवं प्रयोग परिशीलन से ही गम्य है। यह अमृतकला' के नाम से भी अभिहित होती है। वही वाक् जब हृदयगामिनी होती है अर्थात् नाभि-सूल से उद्गत होती है तब योगियों द्वारा द्रष्टव्य होने से पश्यन्ती कहलाती है। अथवा ब्रह्म की अनादि अविद्या से जो परिणाम उपस्थित होता है वह पश्यन्ती वाक् है। इसका कोई वर्णविभागादि क्रम नहीं है यह खयंप्रकाश है। यह अपने पूर्व और अपर अर्थात् परा और मध्यमा को देखती है इसलिए भी:पश्यन्ती वाक् कहलाती है।
___ जव पश्यन्ती वाक् का बुद्धि से संयोग हो जाता है तव विवक्षा की दशा में पहुंच कर हृदय अथवा मध्य से उदित होने के कारण यह वाक् मध्यमा कहलाती है। श्रोत्रग्राह्य वर्णों की अभिव्यक्ति से रहित यह वाक अन्तःसङ्कल्पक्रम से युक्त होती है। यह वाक् का तीसरा रूप है। इसके पश्चात् वही वाक् सुख में आकर तालु, ओष्ठ, जिह्वा, दन्त आदि के व्यापार से बाहर निकलती है, बिखर जाती है, तव वैखरी हो जाती है। विशिष्ट रूप से ख अर्थात् आकाश में यह रम जाती है अथवा फैल जाती
१.
सेयमाकीर्यमाणापि नित्यमागन्तुकैर्मलैः । अन्त्या कला हि सोमस्य नात्यन्तमभिभूयते ।। तस्यां विज्ञातमात्रायामधिकारो निवर्तते ।।"
पुरुपे पोडशकले तामाहुरमृतां कलाम् ॥ सर० कण्ठा० रत्नेश्वरव्याख्यायाम् ।। २. सा प्रसूते कुण्डलिनी शब्दब्रह्ममयी विभुः।।
शक्ति ततो ध्वनिस्तस्मान्नादस्तस्मान्निरोधिका ।। ततोऽर्द्वन्दुस्ततो बिन्दुस्तस्मादासीत् परा ततः ॥ पश्यन्ती मध्यमा वाचि वैखरी शब्दजन्मभूः । शा० तिलकम् प्र० ५०
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(2)
है । आकाश की शब्दगुणकसंज्ञा इसी कारण है । परा, पश्यन्ती और मध्यमा ये नित्या और अतीन्द्रिया वाक् हैं । वैखरी इन्द्रियग्राह्या और श्रनित्या है । '
परमशान्त ब्रह्म ( परमात्मा अथवा परमशिव ) में न शब्द है, न अर्थ है और न प्रत्यय है । अर्थात् वह अशब्द, निर्विषय और निष्प्रत्यय है, अवनगोचर है । उस में नाम रूप भी नहीं हैं । यह पारमार्थिकी सत्ता आत्यन्तिक साम्यस्वरूप है । उसी परमशान्त परब्रह्म में क्रमानुसार विश्वप्रादुर्भाव के लिए साम्यावस्था का भङ्ग हो करविन्दुरूपा घनीभूत शक्ति का उद्धव होता है और वही विभिन्न रूपों में प्रसार करती है ।" यही शक्ति जगत् में द्वैतानुभव का कारण बनती है । शक्ति का यह विलास चिदाकाश में घटित होता है । परन्तु इससे परम शिव परमात्मा में कोई विकार उत्पन्न नहीं होता । वह साक्षी रूप में स्थित रहता है ।" उसमें कोई परिणाम उपस्थित नहीं होता क्योंकि वह तो निरपेक्ष द्रष्टामात्र है । केन्द्रस्थ साक्षी एवं
१. स्थानेषु विवृते वायौ कृतवर्णपरिग्रहा । वैखरी वाक् प्रयोक्तणां प्रावृत्तिनिबन्धना । केवलं बुद्ध्युपादानक्रमरूपानुपातिनी । प्राणवृत्तिमतिक्रम्य मध्यमा चाकू प्रवर्तते ॥ विभागास्तु पश्यन्ती सर्वतः संहृतक्रमा | स्वरूपज्योतिरेवान्तः सूच्या सा चानपायिनी ॥
सर - कष्ठा० रत्नदर्पणाख्यव्याख्यायाम् ।
२. क. सच्चिदानन्दविभवात् सकलात् परमेश्वरात् ।
प्रासीच्छक्तित्ततो नादो नादाद् बिन्दुसमुद्भवः || शा० ति० ११७ ॥
ख. "John Woodroffe" ने अपनी 'The Garland of Letters' नामक पुस्तक के पृ० १२२ पर एक अज्ञातकर्तृ के तान्त्रिक ग्रन्थ का उद्धरण दिया है । यह ग्रन्थ ‘French Protestants of the Desert ' ने 'Le Îlystere de la croix' नाम से १८वीं शताब्दी में प्रकाशित किया गया था । इसके 8 वें पृष्ठ पर लिखा है "Ante Omnia Punctum exstitit; non to atomon, aut Mathematicum sed diffusivum. Monas eart explicite; inplicite Myrias. Lux erat, erant et Tenebrae Principrium et Finis Principii. Omnia et nihil; Est et non . '
"सब वस्तुओं ( सृष्टि ) से पूर्व एक बिन्दु ( Punctam ) था जो अणु अथवा Mathematical ( गणितीय कल्पित ) बिन्दु से भी सूक्ष्म था । विस्तार अथवा माप न होने पर भी उसकी स्थिति अवश्य थी । उस एक में अनेक (Myrias ) की स्थिति थी । उसमें प्रकाश था, श्रन्धकार था, श्रादि था, अन्त था, सत् था, असत् था, सब कुछ था, कुछ नहीं था ।"
३.
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिपप्वजाते ।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वृत्ति श्रनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति ।। मुण्डकोप० ३।१ ॥
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( ५ )
मूलशक्ति एक भावापन्न होकर रहते हैं । किन्तु, परिणामस्वरूपा शक्ति भिन्न भिन्न स्तरों में प्रसृत होती है । उस का प्रसार और संकोच ही सृजन और संहार है । यह, प्रसार और संकोच इस सृष्टि का अनपायी धर्म है ।
शब्दब्रह्म का उद्भव शक्तिसमन्वित शिव के उल्लासरूप में होता है और जलाशय में प्रस्तर निक्षेप के परिणामस्वरूप उत्पन्न हुई गोलाकार लहरों के समान उसका प्रसार एवं लय होता है । इसी ब्रह्म से वाक् का प्रादुर्भाव होता है। श्रुति भगवती कहती है कि " प्रजापतिर्वै इदमासीत्" आदि में ब्रह्म ही था । " तस्य वागू द्वितीया श्रासीत्" वाक् उसकी द्वितीया थी । अर्थात् वह पहले उसमें एकभावापन्न थी और फिर शक्तिरूप में उसी से प्रादुभूत हुई । “वाग् वै परमं ब्रह्म" वाक् ही परसब्रह्म है । इस प्रकार वाक् ब्रह्म की शक्ति है जिसका उसके साथ ऐक्यभाव है । इस शक्ति के द्वारा ही ब्रह्म जगत् का स्थूल कारण बनता है । परन्तु यह नहीं भूलना चाहिए कि सूलशक्ति तो ब्रह्म के साथ अथवा ब्रह्म में एकभाव से विद्यमान रहती है । उसका मूर्ति ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र में भी पृथक् स्वरूप नहीं है । वह इस त्रिमूर्ति की जनती है । '
श्रादिपुरुष की इच्छा हुई कि मैं अकेला हूं, अनेक हो जाऊं, मैं सृजन करू । तब उसने श्रम किया, तप किया और सर्वप्रथम उससे उसी की बाकू ( यह वाणी ) उत्पन्न हुईं ' । वाक् का प्रादुर्भाव होने पर उसके साथ उस आदिपुरुष का मानस संयोग हुआ और वह उससे सगर्भा हुई । कठोपनिषत् में भी इसी प्रकरण को इसी प्रकार कहा है । ताराज्य - महाब्राह्मण में लिखा है कि बाकू ने प्रजापति से गर्भ धारण किया । वह उससे पृथक् हुई और उसने प्रजाओं को उत्पन्न किया । वह पुनः प्रजापति में ही प्रविष्ट हो गई । "
१. क. शब्दानां जननी त्वमत्र भुवने वाग्वादिनीत्युच्य से
त्वत्तः केशववासवप्रभृतयोऽप्याविर्भवन्ति स्फुटम् ।
लीयन्ते खलु यत्र कल्पविरतौ ब्रह्मादयस्तेऽप्यमी
सा त्वं काचिदचिन्त्यरूपमहिमा शक्तिः परा गीयसे || त्रि० भा० ल० स्तवः १५ ॥ ख. सगुण ब्रह्म का नाम ही काम है, जिसकी त्रिगुणात्मिका शक्ति से त्रिदेव का श्राविर्भाव होता है । क + अ + म = काम | क= ब्रह्मा, श्र= विष्णु, म=महादेव ।
ग. सृष्टिस्थित्यन्तकरिणीं ब्रह्मविष्णुशिवात्मिकाम् ।
स संज्ञां याति भगवानेक एव जनार्दनः || वि० पु० १|२|६६ ॥
२. क. पंचविंश ब्राह्मण | २०|१४|२ |
ख. सोऽश्राम्यत । सोऽतप्यत । वागेवास्य सासृज्यत । सा गर्मी अभवत् । प्रजापति इदमासीत् । तस्य वाक् द्वितीयासीत् । तया स मिथुनमभवत् । सा गर्भमधत्त । सा अस्मादपाक्रामत् । सा इमाः प्रजा सृजत । सा प्रजापतिमेव पुनः प्राविशत् । ताराढ्य ब्रा० २०|१४|२ |
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( ६ )
पहले यह विश्व प्रजापति ही था । उसकी बाकू ही उसकी द्वितीया थी । प्रजापति ने सोचा मैं इस वाक् का प्रसार करूं । अर्थात् ब्रह्म अथवा शिव ने एक से अनेक होने की इच्छा की और उसकी शक्ति जो उसी में विद्यमान थी, वाक् रूप मैं आविर्भूत हुई। यह इच्छा और शब्दब्रह्म का संयोग ही जगत् की जननी शक्तिरूपा अम्बिका की महायोनि में पृथक् रूप में पुंजीभूत दृश्यजगत् की सृष्टि का सबल कारण है । यही महाशक्ति पुनः उस चित्रह्म में प्रविष्ट हो जाती है, लीन हो जाती है । यही विश्व का संहार है, प्रतय है। सृष्टि और संहार के मध्यवर्ती काल मॅ शक्ति का विश्वात्मक रूप प्रसुत होता है। जड़ और चेतन उसके ऐहिक रूप है। वैदिक परिभाषा में इन्हें रयि और प्राण कहते हैं । उसी बाकू और आत्मा के संयोग से वह सभी वस्तुओं, वेदों, यों. छन्दों, प्रजाओं और पशुओं का सृजन करता है ।'
वाकू का प्रादुर्भाव जीवरूप से किसी एक ही महापुरुष में नहीं हुआ अपितु वह्न तो सभी मनुष्यों, प्राणियों और स्थूल वस्तुओं में श्राविर्भूत हुई और होती रहती है । सभी प्राणी इस बाकू से ब्रह्मसायुज्य प्राप्त कर सकते हैं। बाकू का प्रादुर्भाव प्रत्येक मनुष्य में होता है अत एव वह उसके स्वरूप को जान सकता है, उसका अनुभव कर सकता हैं । वाक् का ब्रह्म के साथ ऐक्यभाव: है, अतः वागनुभूति द्वारा ही ब्रह्मानुभूति भी सुलभ है ।
A
यह विश्व विश्वम्भर की इच्छा अथवा काम का परिणाम है। भौतिक स्तर पर काम का अन्य अर्थों के साथ साथ यौन संसर्गेच्छा अर्थ भी है। मूलरूप में यह परसपुरुष की आदिम सिखक्षा ( सृजनेच्छा ) है । प्राणिमात्र में व्याप्त यह भौतिकसिक्षा उसी आदिम इच्छा का परिणाम है । और यह ईश्वरीय काम ही जगत् का मूल कारण है । वाक् काम की पुत्री है। काम ही सब देवताओं में प्रमुख है, शक्तिशाली है। काम की पुत्री का नाम गौ है । जिसको ऋषियों ने वाग्विराट्र कहा है।
२.
स तया वाचा तेन श्रात्मना इदं सर्वमसृनत |
यत् इदं किञ्च ऋचो यजूंषि सामानि छन्दांसि यज्ञं प्रजाः पशुम् । बृहदारण्यकोपनिषत् ।
क. अथर्ववेद ३१ ।
ख. शतपथ ब्राह्मण ६|३|११८, ६३१२
ग. कठोपनिषद् १५\११, २०११
घ. चतुर्मुखी जगद्योनिः प्रकृतिगः प्रकीर्तिता । वायु० पु० २३|१४
३. चाग व विराट् । शतपथ ब्रा० ३।५।११३४ ॥
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... शब्दब्रह्म से सर्वप्रथम वैदिकविज्ञान की सृष्टि हुई ।' सरस्वती ही वेदों की जननी
है। उसी में सब भुवन निवास करते हैं। अच्युत ने सरस्वती और वेदों को अपने मन से उत्पन्न किया। गायत्री ही वेदमाता कही जाती है। वाक् वेदों और समस्त शब्दजाल की जननी है इसीलिए वह वेदात्मिका कहलाती है। शब्दप्रभव (शब्दब्रह्म से प्रादुर्भूत ) होने के कारण यह विश्व भी वाड्मय है।
... वाक् जिस पर प्रसन्न होती है वह महान हो जाता है, ब्राह्मण हो जाता है, ऋषि बन जाता है।
वाक् ऋषियों में प्रविष्ट हो कर मनुष्यों में प्रकट हुई। यज्ञ के द्वारा मनुष्यों ने ऋषियों में प्रविष्ट वाक् के दर्शन किये। ऋषियों ने अपनी ऋचाओं को वाक् भी कहा है क्योंकि वे वाक् से प्रकट हुई हैं। वाक् से ब्रह्म का ज्ञान होता है, वाक् ही परब्रह्म है। वेदों की माता सरस्वती परब्रह्म में निवास करती हैं। इस प्रकार यह महाशक्ति और महेश्वर एक ही हैं। वेद महेश्वर के निःश्वसित हैं। वेदों से ही उसने अखिल जगत् का निर्माण किया है। वाक् अक्षर (नष्ट न होने वाली) है। ऋत ले सर्वप्रथम उसकी उत्पत्ति हुई है और वह अमृत का केन्द्रविन्दु है। वाक् से प्रजापति ने समस्त प्रजाओं को उत्पन्न किया है।
वाक् समुद्र है, मोद की जननी है, क्षयरहित है। लौकिक अर्थ में न वाक् का क्षय होता है न समुद्र का।"
. शतपथ ब्रा० ६०१1१1८ २. महाभारत शान्तिपर्व ११२।१२० - तैत्तिरीय ब्राह्मण २०८५ ३. भीष्म पर्व ३०१६ वां पद्य ।। ४. ऋग्वेद १०।१२२५, १०९७११८
ऋषि शब्द का अर्थ प्राण भी है । प्राणा वा ऋषयः । ते यत् पुरा अस्मात् सर्वस्मादिदमिच्छन्तःश्रमेण तपसारिपस्तस्माद् ऋषयः । श० ब्रा० ऋषीत्येष गतौ धातुःश्र तौ सत्ये तपस्यथ ।
एतत् संनियतस्तस्माद् ब्रह्मणा स ऋपिःस्मृतः । वायु० पु० ५६ अध्याये ८० श्लो. ५. वाचैव सम्राड् ब्रह्मा ज्ञायते वाग नै परमं ब्रह्म । बृ. पार. उपनिषत
६. वेदानां मातरं मत्स्थां पश्य देवी सरस्वतीम् । महा भा० शा० पर्व । . ७. यस्य निःश्वसितं वेदा यो वेदेभ्योऽखिलं जगत् ।
निर्ममे तमहं वन्दे विद्यातीर्थम् महेश्वरम् । ऋक्संहिता, सायणभाष्य । ८. वागक्षरं प्रथमजा ऋतस्य वेदानां माता अमृतस्य नाभिः । ते० प्रा० ३।३६।१। ___ • ६. वाग वै अजो वाचो वै प्रजा विश्वकर्मा जजान । शत० ब्रा० ७ ।२१ । - १०. वाग वै समुद्रो । ऋक् ४५।१
. न वाक्क्षीयते न समुद्रः क्षीयते । ऐतरेय० ५।१६ ।
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शब्द का (वाक् का ) प्रादुर्भाव सृष्टि से पूर्व हुआ और उसी के साथ मानस संयोग करके ब्रह्मा ने समस्त देवताओं और चराचर जगत् का सृजन किया।
जब हम किसी विषय में प्रवृत्त होते हैं तो पहले उस विषय के बोधक शब्दों की मानसिक सृष्टि करते हैं और फिर कर्म में प्रवृत्त होते हैं। इसी उदाहरण को लेकर कहा जाता है कि पहले ब्रह्म-मानस में वेदवाक् का उद्भव हुआ और फिर उसके परिणामस्वरूप पदार्थों की सृष्टि हुई । “भूरलि" वाक्य कह कर भू को (पृथ्वी को) उत्पन्न किया और इसी प्रकार जगत् के समस्त पदार्थों का सृजन हुआ।
परन्तु, यह पूर्व और पर के भेद व्यावहारिक हैं। मानव ईश्वर के समक्ष सदैव अपूर्ण है। वास्तव में प्रत्यय, शब्द और अर्थमय ईश्वर का कारणविग्रह एक है। वह अभिन्न है, किन्तु भिन्न भी प्रतीत होता है। हम केवल समझने-समझाने के लिये कहते हैं कि उसकी सृष्टिकल्पना प्रत्ययरूपी आनन्दमय कारणवित्रह का अंशमात्र है और उसी में स्थूल एवं सूक्ष्म सभी पदार्थों की स्थिति है। उसके 'पर' शब्द से ही परिणाम में समस्त 'अपर' शब्दों की सापेक्ष सत्ता स्वयंसिद्ध है और उसके अर्थों से ही जो प्राकृत शक्ति का प्रथमोदभूत स्वरूप है, समस्त विकृति और तजन्य पदार्थों की अनुभूति होती है। इन्हीं तीनों से ईश्वर के हिरण्यगर्भ और विराटशरीर जाने जाते हैं। प्रत्यय और अर्थ ले हिरण्यगर्भ और शब्द से विराट । इसलिए परा वाक् ही उसका पर शब्द है और मध्यमा एवं वैखरी केवल शब्द अथवा चाल् । मातृका और वर्ण वाक के सूक्ष्म एवं स्थूल रूप है।
अतः वाक् और विश्व के समस्त पदार्थों का एक ही कारण है और वह है प्रत्यय अर्थात् पदार्थ की ओर मानस की गति । . .
सरस्वती वेदों और नामरूपात्मक विश्व की जननी है। वहीं सर्वोपरि शक्ति है। उसी से उद्भूत वाल् शक्ति के द्वारा सरस्वती नाम से उस का चिन्तन और स्तवन किया जाता है। वीणा उसका प्रिय वाद्य है जो नाद अथवा शब्द का सूचक है। उसके श्वेत वस्त्र शब्दगुणप्रधान आकाश और निर्मल बुद्धि के प्रतीक हैं। उसका नाम "सरस्" गति अथवा प्रवाह का सूचक है। वह निस्पन्द शिव अथवा ब्रह्म की एरात्मिका शक्ति है और व्यक्त जगत् में क्रियात्मिका रूप से सृष्टिकाल में "ह": इस गर्जन शब्द के द्वारा उद्भूत होती है और फिर शान्त हो जाती है। यही गति अथवा प्रवाह सदा चलता है। इसी का नाम "सरस्" है और इसी से वह शक्ति सरस्वती है।
वैज्ञानिकों का मत है कि परमाकाश में जड़ पदार्थों के समान जीर्णता और नाशसपी विकार अथवा परिवर्तन नहीं होते। यह अपरिवर्तनीय दृढ़ और शाश्वत परम
1. मनसस्तु समुद्भूता महाभूता नराधिप । महा भा० शा० पर्व । ३१०११६ ।
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व्योम ही वज्र':कहलाता है जो शाश्वत त्रिवृत् ब्रह्म का प्रतीक है। इसी का - क्रियात्मक रूप प्रजापति है जिसकी शक्ति सरस्वतीनाम से गतिशालिनी हो कर सृष्टिक्रम में प्रवाहित हो रही है।
सरस्वती हंसवाहिनी है। वह पार्थिव हंस पर नहीं, अपितु प्राणिमात्र में श्वास अर्थात् प्राणवीज के अन्तर्वहिर्गमनक्रियारूप " हं" और "स" पर विराजमान है।
वेदों की जननी होने के कारण वाक् अथवा सरस्वती विद्या और बुद्धि की देवता है। बुद्धि अथवा प्रज्ञा ही मनुष्य में सर्वोपरि है । ज्ञान, बल, क्रिया ये तीनों परमात्मा की विशिष्ट शक्तियां हैं। यों तो भौतिक शक्ति (वल ) और कर्म (क्रिया) का भी बहुत महत्व है परन्तु बुद्धि अथवा ज्ञानशक्ति इन सव में विशिष्ट है। इस शक्ति का मन अथवा मानस से सम्बन्ध है और मन ही मनुष्य है । जितने मनुष्य हैं, उतने ही मन हैं । उतने ही बुद्धि के भेद भी हैं । परन्तु उन सब का मूल ब्रह्ममानस में है। वही ब्रह्मसर है और उसी ब्रह्मसर में उत्पन्न होनेवाली वाक् का नाम सरस्वती है जो मानव
मात्र की बुद्धि की अधिष्ठात्री है। उसी के प्रसादरूप में प्रत्येक मानस उस मानस . सरोवर में से अपना अपना मानसपात्र भरता है और अपनी भौतिक शक्ति एवं क्रिया का विकास करता है।
अपने मानसपात्र में आये हुए ज्ञान अथवा बुद्धिरूपी सहज स्वच्छ जल (प्रकाश) को निर्मल बनाये रखना प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है। अविद्याजन्य रागद्वेषादि इसको आविलःकरते रहते हैं । उस समष्टिभूत अनन्त ज्ञान-भण्डार एवं विद्या की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती का निरन्तर चिन्तन और स्तवन करके ही वह अपने निर्मल ज्ञान को सुरक्षित रख सकता है। अत एव भगवती सरस्वती का आराधन और स्तवन अकारण नहीं है। . श्रीभुवनेस्वरी-महास्तोत्र मन्त्रगर्भित स्तोत्रपाठ है। मन्त्रजाप और स्तोत्रपाठ से अभीष्टसम्प्राप्ति होती है। मन्त्र द्वारा जीव त्रिविध तापों का शमन करने में समर्थ होता है। वह इस से स्वर्गसुखों को पा सकता है। चतुरशीति-लक्ष जीवयोनियों के भवचंक्रमण से मुक्ति भी वह इसी मन्त्र-साधना के बल पर प्राप्त कर सकता है।
. १. क ऋग्वेद में सरस्वती को “पावीरवी" अर्थात वज्र की पुत्री बताया गया है । । . . यहाँ वज्र से अपरिवर्तनीय ब्रह्म और उसकी पुत्री से वाकशक्ति समझना ... . चाहिए।
ख. वाग वै सरस्वती पावीरवी । ऐतरेय० ३।३७ । २. . वज्रो वै त्रिवृत् । पड्विंश ब्राह्मण । ३।३३४ ।।
ब्रह्म वै त्रिवृत् । ताण्ड्यब्राह्मण २।१६।४। ३. हकारेण बहिर्यान्तं विशन्तं च सकारतः। .. .
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(१०) मन्त्र' शब्द का पूर्वार्द्ध मन अथवा मनन से सम्बद्ध है और उत्तरार्द्ध "" .. का अर्थ है त्राण । तात्पर्य यह है कि मन्त्र मनन के . द्वारा संसार अथवा भौतिक जगत् से जीव की रक्षा करता है, उसे मुक्त करता है और जीवन के समस्त सिद्धिभूत चतुर्वर्ग का आमन्त्रण करता है।
मन्त्र अक्षरों से बनते हैं। अक्षर, उनके तत्तत् समुदाय और शब्द सभी ब्रह्म के व्यक्त रूप हैं, क्रियात्मिका शक्ति के विविध स्वरूप हैं। मुख से उच्चारित, कानों से श्रत और मस्तिष्क से समझे हुए सभी शब्द इसके रूप हैं। परन्तु जो मन्त्र पूजा और साधना में प्रयुक्त होते हैं, वे विशिष्ट ध्वनियाँ हैं जो सम्बद्ध देवता के स्वरूप को व्यक्त
क, मनन विश्वविज्ञान त्राणं संसारबन्धनात् । ___ यतः करोति संसिद्धो मन्त्र इत्युच्यते ततः ॥ पिङ्गलामते ॥
ख. मननात् त्राणनाच्चैव मद्रूपस्यावबोधनात् । ___मन्त्र इत्युच्यते सग्यङ् मदधिष्टानतः प्रिये ।। रुद्रयामले ।।
ग. वर्णात्मकाः शब्दा नित्याः । मन्त्राणामचिन्त्यशक्तिता । तन्त्रमते ।। घ, मननात तत्वरूपस्य देवस्यामिततेजसः ।
त्रायते सर्वभयतः तस्मान् मन्त्र इतीरितः ।। कुलार्णवतन्त्रे १७ ॥ ङ. मन्नि गुप्तभापणे घज अच वा । वेदभेदः । “प्रनून ब्रह्मणस्पतिर्मन्त्रं ___ वदत्युक्थम् ।" ऋग्वेदः ६७१४७४ । । च, गायत्रीतन्त्रे । 7. “Words are not mere sounds as they ordinarily
seem to be. They have a subtle and intellectual form within. The internal source from which they evolve is calm and serene, eternal and imperishable. The real form of Vak, as opposed to external sound, lies far beyond the range of ordinary perception. It requires a great deal of साधना to have a glimpse of the purest form of speech. The ऋक् to which पतञ्जलि has refered bears strong evidence to this fact. 779 is said to reveal her divine self only to those who are so trained as to.. undestand the real nature............" Spiritual Outlook of Sanskrit Grammar by P.C. Chakravarti. ( Journal of the Department of Letters, Calcutta, 1934.):
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(११)
करते हैं और मन्त्रगत अक्षरावलि के मात्रा, विन्दु, विसर्ग, पद और पदांश एवं वाक्य सम्बद्ध होकर मन्त्ररूप में विविध देवताओं के स्वरूप को अभिहित करते हैं। विभिन्न वर्गों में विभिन्न देवताओं की विभूतिमत्ता सन्निहित होती है । अमुक देवता का मन्त्र वह अक्षर अथवा अक्षरों का समूह है जो साधनशक्ति के द्वारा उसको (अभिधेय को) साधक की चेतना में अवतीर्ण करता है। यों मन्त्रविशेष के द्वारा उस के अधिष्ठातृदेवता का साक्षात्कार होता है। मन्त्र में खर, वर्ण और नादविशेष का एक क्रमिक रूद संगठन होता है। अत: उसका अनुवाद अथवा व्युत्क्रम नहीं हो सकता । क्योंकि उस अनुवाद में उस स्वर, वर्ण, नाद और पदसंघटना की आवृत्ति नहीं होती जो उस मन्त्र अथवा देवता के अक्यवीभूत हैं। नित्यप्रति के व्यवहार में भी देखा जाता है कि जिस व्यक्ति का जो नाम रख दिया जाता है वह उन्हीं अक्षरों, वर्णों
और स्वरों का उच्चारण होने पर हमारे अभिमुख होता है, नाम में आये हुए शब्दों के अनुवाद में अथवा विपर्यास में वह अभिव्यक्ति नहीं हो सकती। यथा-किसी का नाम राम नाल है तो वह इन्हीं चार अक्षरों के क्रमोबारित होने पर ही बोलेगा, अनुवाद करके 'दाशरथिरक्त' कहने पर नहीं। अतः मन्त्र किसी व्यक्तिविशेष की विचार-सामग्री नहीं है, प्रत्युत वह चैतन्य का ध्वनिविग्रह है।
यद्यपि सभी शब्दसमूह शक्ति के विभिन्न स्वरूप हैं परन्तु मन्त्र और वीजाक्षर सम्बद्ध देवता के स्वरूप हैं, स्वयं देवता हैं, साधक के लिए प्रकाशमान तेज:पुञ्ज हैं। उस से अलौकिक शक्ति जागृत होती है। साधारण शब्दों का जीव के समान उत्पत्ति और लय होता है परन्तु मन्त्र शाश्वत और अपरिवर्तनशील ब्रह्म है। ...मन्त्र ही देवता हैं अर्थात् परा चित्शक्ति मन्त्ररूप में व्यक्त होती है। मन्त्री साधनशक्ति द्वारा मन्त्र को जागृत करता है । मूल में साधनशक्ति ही मन्त्र शक्ति के रूप में अधिक शक्तिशालिनी होकर व्यक्त होती है। साधना के द्वारा साधक का निर्मल और प्रकाशयुक्त चित्त मन्त्र के साथ एकाकार हो जाता है और इस प्रकार मन्त्र के अर्थस्वरूप देवता का उसको साक्षात्कार होता है। साधक की जीवशक्ति मन्त्रशक्ति के प्रभाव से उसी प्रकार उद्दीप्त होती है जैसे वायुलहरियों के सम्पर्क से अग्नि प्रज्वलित होती है । मन्त्रशक्ति से उपचित हुई जीवशक्ति के द्वारा ऐसे कार्य भी सम्पन्न किये जा सकते हैं जो प्रत्यक्ष में असम्भव प्रतीत होते हैं। या, यों कहें कि मन्त्रशक्ति के द्वारा जीवशक्ति को दैवी शक्ति प्राप्त हो जाती है और उस शक्ति के द्वारा दैवीकार्य सम्पन्न होते हैं, साधक दैवीसम्पत् प्राप्त करता है।। १. क, मन्त्री हीनः स्वरतो वर्णतो वा
मिथ्याप्रयुक्तो न तसर्थमाह ।। स वाग्वनो यजमानं हिनस्ति, .
यथेन्द्रशत्रु : स्वरतोऽपराधात् ।। . ख. एकःशब्दः सम्यग ज्ञातः सुप्रयुक्तः स्वर्गे लोके च कामधुम् भवति । महाभाष्ये ।
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(१२)
आधुनिक मनोविज्ञान का भी यह स्वीकृत सिद्धान्त है कि विचार, चिन्तन । अथवा मनन ही शक्ति है और इसके द्वारा बाह्य भौतिक साधनों के बिना भी दूसरों के विचारों को प्रभावित किया जा सकता है तथा परिस्थितियों में परिवर्तन लाया जा सकता है। इसी प्रकार मनन अथवा मन्त्र के सम्प्रयोग द्वारा देवसाक्षात्कार, चतुवर्गसम्प्राप्ति एवं ब्रह्मसायुज्य भी साध्य हैं।
__ मन का अर्थ है चिन्तन । जिसके द्वारा मनन होता है वही मन है। मननशील ही मनु है । मन ही मन्त्र है। मनन एवं मन्त्रसाधन ही मानव की इतरजीवों से विशिष्टता है।
स्तोत्र में देवता का गुणानुवाद, आत्मनिवेदन और वाञ्छासम्प्राप्ति के लिए प्रार्थना होती है। वह प्रार्थी की अपनी भाषा में हो सकती है। उसका अनुवाद भी अन्यान्य भाषाओं में किया जा सकता है। परन्तु, विशिष्ट प्रतिभावान विद्ववरिष्ठोंने कतिपय ऐले स्तोत्रों की रचनाएं की हैं जिन में प्रार्थना के साथ साथ तत्तद् देवतासम्बन्धी वीजाक्षरमन्त्र भी निगुस्फित रहते हैं और वारंवार स्तोत्रपाठ के साथ उन उन मन्त्रों का भी जाप होता रहता है। इस सरस प्रक्रिया के द्वारा सामान्य साधकों को भी इटसम्प्राप्ति सुलभ हो जाती है।
स्तोत्रपाठ से श्रद्धा जागृत होती है और आत्मविश्वास में दृढ़ता आती है।' जब श्रद्धा को आत्मविश्वास पर आधारित बुद्धि और विनिश्चय का बल मिलता है तब मानसिक शक्ति का अपूर्व विकास होता है और एतद्द्वारा अन्यथा असम्भव कार्यों का भी साधन सम्भव हो जाता है। श्रद्धावान् के अन्तर में यह विश्वास दृढ़सूल हो जाता है कि दूसरे लोग यद्यपि उसकी अपेक्षा अधिक योग्यता एवं बुद्धि रखते हैं तथापि उसे देवप्रसाद का ऐसा अलौकिक वल सम्प्राप्त है जिस से वह उन से पीछे नहीं है। उन्हें जो कुछ प्राप्त होने वाला है वह और उस से भी अधिक उसे मिल सकता है। श्रद्धावान् में हीनभावना को अवसर नहीं है। श्रद्धा और विश्वास का समन्वय ही विशुद्ध विज्ञान की प्राप्ति का साधन है और उसकी सम्पादिका कुक्षी देवस्तुति ही है।
१. क; श्रद्धादेवो वै मनुः । ऋग्वेद
ख. यो यच्छद्धः स एव सः । ग, यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयाचितुमिच्छति ।
तत्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम् ।। गीता ।। त्वदन्यस्मादिच्छाविषयफललाभे न नियमः . त्वमर्थानामिच्छाधिकमपि समर्था वितरणे ।। इति प्राहुः प्राञ्चः कमलभवनाद्यास्त्वयि मन-. ... . त्वदासक नक्तन्दिवमुचितमीशानि, कुरु तत् ।। अानन्दलहरी ।।
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(१३), ... सकलागमाचार्यचक्रवर्ती श्री पृथ्वीधराचार्य कृत प्रस्तुत स्तोत्र भी ऐसा ही मन्त्रगर्भित स्तोत्र है। इस में सब मिला कर ४६ पद्य हैं जिनमें से पूर्व ३६ शार्दूलविक्रीडित पद्यों में आद्याशक्ति भगवती भुवनेश्वरी की स्तुति की गई है और ३७वें तथा ३८वें पद्यों में स्तोत्रकर्ता ने अपने गुरु परमकारुणिक श्रीसिद्धिनाथ अपरनाम श्रीशम्भुनाथ का स्मरण करते हुए उनके कृपाबाहुल्य का वर्णन किया है। ३६वें पद्य में भगवती से प्रार्थना की गई है कि वाग्विमुखों (जड़ों) से उनका सम्पर्क न हो । ४८वें पद्य में पुनः गुरु की अभ्यर्थना की गई है और ४१ वें में इष्टदेवतासाक्षात्कार और उसके स्वहृदयपीठाधिष्ठान का वर्णन किया गया है। पद्य ४२वें में गुरुप्रसादसम्प्राप्ति का उल्लेख है। ४३ और ४४वें पद्यों में पूजा और जपविधान के साथ साथ अचिन्त्यप्रभावा फलश्रुति का निर्देश किया गया है। स्तोत्र के अन्तिम श्लोक में इस स्तोत्र की रचना में भगवान् शम्भुनाथ की आज्ञाप्राप्ति का निर्देश करते हुए इसे अलौकिक, प्रभविष्णु और सम्पूर्ण सिद्धियों का अधिष्ठान बताया गया है ।
मोह और महाभ्रम की उद्दामलहरियों से अभिभूत इस संसारमहोदधि से परपार उतरने के लिए दृढ़पोत के रूप में इस महास्तोत्र की रचना करते हुए आचार्य ने सन्मात्रबिन्दुसमुद्भवा परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी से प्रारम्भ कर वाग्भवमहिमा, बीजान्तरध्यान, मन्त्रोद्धाय, देवताखरूप, यजनविधान, आराधन और आराधनफल, अक्षरमातृकानिर्मित भुवनेश्वरीविग्रह, अन्तर्बहिर्यजन, कुंडलिनीजागरण और षट्चक्रभेदन प्रभृति का वर्णन करते हुए आत्मशरणागतिनिवेदन किया है।
श्रीपृथ्वीधराचार्य भगवत्पाद शंकराचार्य के शिष्य और तन्त्र, मन्त्र एवं समस्त शास्त्रों के प्रकाण्ड पंडित थे । बाम्बे ब्रांच आफ दी रायल एसियाटिक सोसायटी के सूचीपत्र में ८५१ संख्या पर अंकित बालाचनविधि के विवरण में श्रृंगेरीमठ की गुरुपरम्परा इस प्रकार दी हुई है :- "गौडपाद, गोविन्द, शंकराचार्य, पृथ्वीधराचार्य, ब्रह्मचैतन्य और आनन्दचैतन्य
आदि ।"
... आफ्रेट ने लिपजिग कैटलाग संख्या १३७४-७७ पर पृथ्वीधराचार्यकृत सात कृतियों का विवरण दिया है, जो इस प्रकार है :
...१ भुवनेश्वरीस्तोत्र २ लघुसप्तशतीस्तोत्र' ३ सरस्वतीस्तोत्र ४ कातन्त्रविस्तरविवरण ५ मृच्छकटिक की व्याख्या ६ वैशेषिक रत्नकोष और ७ भुवनेश्वर्यचनपद्धति ।
लघुसप्तशतीस्तोत्र की दो हस्तलिखित प्रतियां श्री रूपनारायणजी “साधक" शास्त्री द्वारा महास्तोत्र के प्रायः मुद्रित हो जाने पर मुझे प्राप्त हुई हैं, अतः इसे भी छपवा दिया गया है। श्री साधकजी इसके लिए धन्यवादाह हैं। ... ....: - .:..
(सम्पादक)
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(१४) श्री शंकराचार्य का समय ईसा की ८ वीं शताब्दी और विक्रम की ६वीं शताब्दी माना गया है और पृथ्वीधराचार्य श्रीपीठ की गुरुपरम्परा में इनले दूसरे स्थान पर आते है अत: इनका समय,इसी के लगभग होना चाहिए। गहन दार्शनिक ग्रन्थों की रचना करने के अतिरिक्त सरस स्तोत्र-रचना करके पारमार्थिक एवं व्यावहारिक पक्षों का समन्वय करते हुए लोककल्याण का सदुद्देश्य भगवान शंकर ने अपनी परम्परा में निहित किया था। इसी परम्परा का पालन करते हुए श्रीपृथ्वीधराचार्य भी स्तोत्रकार के रूप में हमारे सामने आते हैं।
श्रीपृथ्वीधराचार्य ने अपने गुरु का परिचय स्तोत्र के ३७ पद्य में इस प्रकार दिया है:
श्रीसिद्धिनाथ इति कोऽपि युगे चतुर्थे प्रादुर्वभूब . करुणावरुणालयेऽस्मिन् । श्रीशम्सुरित्यभिधया स मयि प्रसन्न
चेतश्चकार लकलागमचक्रवर्ती ॥ उक्त पद्य की व्याख्या करते हुए भाष्यकार पद्मनाभ ने 'करुणया युक्ने वरुणालये ग्रामविशेषे नर्मदातटनिकटवर्तिनि' ऐसा. स्थानोल्लेख किया है परन्तु श्रीशंकर भगवत्पाद का जन्मस्थान कालपी बताया जाता है।
श्रीपृथ्वीधराचार्यकृत भुवनेश्वरीमहास्तोत्र एक प्रसिद्ध एवं प्राचीन स्तोत्र है और इसकी हस्तलिखित प्रतियाँ अनेक ग्रन्थ भण्डारों में प्राप्त हैं। इसका निरन्तर पाठ करके श्रेयःसम्प्राप्ति की कथाएं भी सुनी गई है। परन्तु इस स्तोत्र का मुद्रण वहुत पूर्व हुआ हो, ऐसा ज्ञात नहीं होता | निर्णयसागर प्रेस, बम्बई से भवानीसहस्रनाम .. एक छोटी सी नित्यपाठ पुस्तक, के अन्त में यह स्तोत्र प्रकाशित हुआ था। इसके पश्चात् रसशाला, गोंडल से प्रकाशित आयुर्वेदरहस्य में भी कुछ वर्षों पूर्व यह देखने में आया परन्तु इस का सभाष्य संस्करणं स्वतन्त्ररूप में कहीं छपा हो, ऐसा देखने... में नहीं आया। . ..........
............. ... ..... ... राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर के संग्रह में संख्या ८२६ पर पद्मनाभकृत भाष्यसहित श्रीभुवनेश्वरीस्तोत्र की प्रति जब मेरे देखने में आई, तब मैंने विभाग के सम्मान्य सञ्चालक मुनि श्रीजिनविजयजी महाराज को वह प्रति दिखाई और इसके प्रकाशन की प्रर्थना की। उन्हों ने इसे सहर्ष स्वीकार किया और इस के सम्पादन करने की आक्षा मुझे प्रदान की । जव पुस्तक की प्रतिलिपि हो गई तब इस के पाठ एवं स्थल
शङ्कराचार्यप्रादुर्भावस्तु विक्रमार्कसमयादतीते ८४५ पञ्चचत्वारिंशदधिकाष्टशतीमिते
संवत्सरे केरलदेशे कालपीग्रामे शिशुलार्मयों भार्यायां समभक्त-। आयविद्या- सुधाकरे चतुर्थः प्रकाशः पृ० २२६, २२७ । केटलाम्स कैटनागरम भाग : ३५५ ।
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(१५)
कुछ संदिग्ध प्रतीत हुए, अतः अन्य प्रतियों का अन्वेषण आवश्यक हुआ। परन्तु वे सहज ही कहीं उपलब्ध नहीं हुई । प्रतिष्ठान में हस्तलिखित ग्रन्थों के जो इतरसंग्रहालयों के सूचीपत्र उपलब्ध थे उन में देखने पर भी ऐसी सभाष्य प्रति का उल्लेख नहीं मिला। अन्ततो गत्वा यथोपलब्ध सामग्री पर संतोष कर प्रकाशन का निश्चय करना पड़ा। तभी एक अप्रत्याशित उपलब्धि ने मुझे सूचित कर दिया कि यह प्रकाशन भगवती भुवनेश्वरी को अभीष्ट है और दो प्रतियाँ मुझे प्राप्त हो गई । इन में से एक प्रति मेरे सुहृत् पण्डित गंगाधरजी द्विवेदी, साहित्याचार्य और दूसरी स्वर्गीय ज्योतिर्वित् पण्डित केदारनाथजी (काव्यमाला-सम्पादक ) के संग्रह से प्राप्त हुई। ये दोनों ही प्रतियाँ यद्यपि आदर्शप्रति से अर्वाचीन हैं परन्तु अधिक शुद्ध और प्रामाणिक हैं। प्रथम प्रति पण्डित गंगाधरजी के प्रपितामह श्रीसरयूप्रसादजी द्विवेदी (ख० महामहोपाध्याय पं० दुर्गाप्रसादजी द्विवेदी के पिता) द्वारा लेखित एवं दूसरी प्रति स्वयं केदारनाथजी के हस्ताक्षरों में लिखित है। इन दोनों प्रतियों का उल्लेख प्रस्तुत पुस्तक में ख. और. ग. प्रति के रूप में किया गया है।
जब सम्पादित प्रति प्रेस में दे दी गई और मूल पुस्तक का मुद्रण समाप्त होने को आया तव स्तोत्र के ४३,४४ये पद्यों पर विचार करते हुए मुझे ध्यान आया कि यदि भुवनेश्वरी की पञ्चांगपद्धति भी इसके साथ लगा दी जाए तो इसकी उपादेयता बढ़ जाएगी, क्योंकि पूजा और पाठ दोनों शब्दों का नित्यसम्बन्ध है और इनसे सम्बन्धित क्रियाएं भारतीय जीवनपद्धति के मनोरम पक्ष हैं।
पञ्चांग में पटल, कवच, पूजापद्धति, सहस्त्रनाम और स्तोत्र सम्मिलित हैं । पटल देवता का गात्र, पद्धति शिर, कवच नेत्र, मुख सहस्त्रार (सहस्रनाम) और स्तोत्र देवी की रसना है।' __ यथा वृक्ष में मूल से शिखापर्यन्त एक ही रस व्याप्त रहता है, परन्तु पत्र, शाखा और पुष्पादि नानारूपों में व्यक्त होता है, उसी प्रकार विश्व में एक ही शक्ति नाना वस्तुओं के रूप में प्रकट होती है उसी को महाशक्ति कहते हैं । हम जिन वस्तुओं को देखते हैं और जो हमारे चारों ओर फैली हुई हैं वे सब ही इसी सर्वोच्च शक्ति के विभिन्न रूप हैं । जन्म, विकास और विनाश ये सब उसी महाशक्ति के प्रत्यक्ष विलास हैं । एकमात्र सर्वोच्च सत्ता ने अनेक रूपों में अपने को विभक्त करने की इच्छा की और ऐसा ही किया भी। ये विभक्त वस्तुएं मूल में एक होने के कारण पुनः एक होने
१. क. पटलं देवतागात्रं पद्धतिर्देवताशिरः ।
कवचं देवतानेत्रे सहस्रारं मुखं स्मृतम् । स्तोत्रं देवीरसा प्रोक्ता पञ्चांगमिदसीरितम् । प्राचाम् । ख. पूर्वजन्मानुशमनादपमृत्युनिवारणात् ।
सम्पूर्णफलदानाच्च पूजेति कथिता प्रिये ॥ कुलार्णवतन्त्रे १७ उल्लासे ॥
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(१६)
का प्रयास करती हैं । वस्तुओं के पारस्परिक भौतिक और मानसिक विघटन - संघटन में यही एक से अनेक और अनेक से एक हो जाने की इच्छा मूलकारण है । इसी इच्छा का नाम शक्ति है । एक से अनेक और फिर अनेक से एक होने की इच्छा जिस सर्वोच्च सत्ता की है, उसी के आधार पर यह विश्वव्यापार चल रहा है । उसी सत्ता का सहस्त्रों नामों से बड़े ज्ञानी, ध्यानी और पण्डित स्तवन करते आये हैं । ऐसे स्तवन से मन धीरे धीरे निर्मल होता है और उस में मूलशक्ति के प्रति प्रीति (कर्पण) उत्पन्न होती है जिसके द्वारा इस संसार से निस्तार अथवा पुनः उसी सर्वोच्च सत्ता में लय सम्भव है । '
पृथक् तत्वों का पारस्परिक सम्बन्ध एवं आकर्षण शक्ति के अनेक रूपों में से कामशक्ति पर आधारित है । इस प्राकृतिक शक्ति का समस्त जीवित प्राणियों में निवास है । इसके द्वारा असीम सुख एवं अधिक से अधिक पीड़ा दोनों ही उत्पन्न हो सकते हैं । प्राचीन महान ऋषि मुनियों ने इसे पशु प्रकृति कहा है और इस पर नियन्त्रण रखते हुए संयमित जीवन पर वल दिया है । यही इस शक्ति के द्वारा लाभान्वित होने का उपाय बताया गया है । प्रत्येक सामने आने वाले शक्ति के स्वरूप में मनुष्य सर्वसत्तात्मिका देवी का दर्शन करे और उसमें पूज्यभाव को विकसित करे । इस से स्वात्मशक्ति और प्रतिभा दोनों का ही विकास होता है । नारीमात्र में देवीभावना का ग्रहण ही कुत्सित भावनाओं और अनिष्टकारी परिणामों से सुरक्षा प्राप्त करने के लिए दुर्भेद्य कवच है । कवच का यही रहस्य है । ""
पटल में पूजा, विधि, मन्त्र और वीजाक्षर के समस्त समूहों का रहस्य ग्रथित रहता है, उस के अध्ययन से सभी गूढ़ रहस्य स्वयं प्रकाशित होकर साधक के सामने जाते हैं।
पूजापद्धति से मानसिक व्यापार (क्रियाकलाप ) में एकाग्रता एवं तन्मयता के साथ साथ एक शुचि व्यवस्थाभाव का उदय होता है जिससे निर्मल हुए मन में देवतानुशासन के साथ आत्मानुशासन की भावना का विकास होता है। इस आत्मशासन की प्रतिष्ठा से जीवनचर्या में एक अलौकिक सफलता की कुञ्जी साधक को प्राप्त होती है । अपमृत्युनिवारण और ऐहिक आमुष्मिक दुरितक्षय तो देवता के सम्प्रसाद से स्वयंसिद्ध हैं ही ।
9.
२.
३.
2.
स्तोकस्तोकेन मनसः परमप्रीतिकारणात् ।
स्तोत्र संतरणाद्देवि स्तोत्रमित्यभिधीयते ॥ कुलार्णवतन्त्रे १७ उ० ॥.
कत्र ग्रहण इत्यस्माद्धातोः कवचसम्भवः । कालीतन्त्रटीकायाम् पृ० ११ |
पाटयति दीप्यते यः सः पटलः ग्रन्थः । पट् कलच् । हलायुधे ।
पूर्वजन्मातुशमनादपमृत्युनिवारणात् । .
• सम्पूर्ण फलदानाच्च पूजेति कथिता प्रिये ! कुलार्णवतन्त्रे १७ उ०
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( १७ ) . अस्तु, भुवनेश्वरीपञ्चाङ्ग की एक प्रति मेरे मित्र श्री लक्ष्मीनारायणजी गोस्वामी के पास मिल गई। यद्यपि प्रतिष्ठान के संग्रहालय में भी संख्या ७०५६ पर अङ्कित भुवनेश्वरीपद्धति की एक और प्रति मिल गई थी, परन्तु वह अपूर्ण थी । इन दोनों प्रतियों के आधार पर तथा गोस्वामी श्रीशिवानन्दभट्टरचित सिहसिद्धान्तसिन्धु से आवश्यक सन्दर्भ उधृत कर 'प्रेस कापी मुद्रणार्थ प्रेषित कर दी गई। इसी बीच में अलवर संग्रहालय, अलवर से भी एक प्रति प्राप्त हो गई और उस में से भी आवश्यक पाठान्तर टिप्पणी में दे दिये गये। पञ्चाङ्गभाग में प्रतिष्ठान की प्रति को ख. प्रति तथा अलवर वाली प्रति को ग. प्रति के नाम से अभिहित किया गया है और गोस्वामीजी की प्रति को आदर्श क. प्रति माना गया है।
पञ्चाङ्ग भाग का मुद्रण समाप्त हो ही रहा था कि छापरनिवासी श्री लाधूरामजी दूधोडिया के पास भुवनेश्वरीक्रमचन्द्रिका' की प्रति मेरे देखने में आई। यह प्रति श्रीपृथ्वीधराचार्य-पद्धति पर आधारित थी । मिलान करने पर यह पद्धति रुद्रयामलान्तर्गत पूर्वपद्धति से भिन्न पाई गई । अतः मैंने इस को भी संलग्न करना आवश्यक समझा । यह प्रति मात्पुरस्थित दाईदेवसम्प्रदायी अनन्तदेवविरचित है। इस पद्धति की भी किसी अन्य प्रति का उल्लेख अन्यत्र नहीं मिला । प्रस्तुत पद्धति के दूसरे कल्प . में दो पत्र (तीसरा और चौथा ) किसी अन्य कृति के संलग्न हैं परन्तु सौभाग्य से इन्हीं अनन्तदेवविरचित 'दक्षिणकालीपद्धति' प्रतिष्ठान के संग्रह में संख्या २७३५ पर उपलब्ध हो गई जिस के आधार पर यह दो पत्रों का त्रुटित अंश पूर्ण कर लिया गया।' इस प्रकार इस पुस्तक को प्रस्तुत रूप प्रात हुआ है।
भुवनेश्वरी महास्तोत्र सिद्ध पारस्वत स्तोत्र है। श्री पृथ्वीधराचार्य ने फलश्रुति में कहा है कि उनके अश्रुप्लावित नेत्रों के समक्ष स्वयं सरस्वती प्रकट हुई और उन्हें वरदान दिया । भगवती सरस्वती ने उनके हृदयपीठ को आसन के रूप में अलंकृत किया और वह नव नव शास्त्रों की शावतारणा के रूप में उन के मुख में अवतीर्ण हुई। भगवती के कृपाप्रसाद से ही आचार्य को वाक् सिद्धि की प्राप्ति हुई।
पूजा और साधना का विधान बताते हुए आचार्य ने कहा है कि साधक व्रतस्थ होकर यदि तीन मास पर्यन्त भगवती आद्याशक्ति भुवनेश्वरी की आराधना करता हुआ स्तोत्रपाठ करे तो समस्त विद्याएं गुरुप्रसाद से उसे प्राप्त होती हैं। व्रतादिबन्धन में न रहते हुए भी यदि साधारणतया इस स्तोत्र का नित्य पाठ किया जाए तो एक वर्ष की अवधि में ही उसे कवित्वपूर्ण पाण्डित्य की सम्प्राप्ति होती है, ऐसा इस महास्तोत्र का अचिन्त्य प्रभाव स्वीकार किया गया है।
....... १. देखिये टिप्पणी पृ० १३३.. . . . . इत्थं प्रतिक्षणमुदश्रुविलोचनस्य
पृथ्वीधरस्य पुरतः स्फुटमाविरासीत् । ..
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(१८) महास्तोत्र के भाष्यकार कवि पदानाम' का परिचय कहीं उपलब्ध नहीं हुआ। कृति के अन्तःसाक्ष्य से भी सूत्रानुसन्धान प्राप्त नहीं होता। यद्यपि संस्कृतसाहित्यकारों में कितने ही पद्मनाम नाम के ग्रंथकर्ता और कवियों का उल्लेख प्राप्त है परन्तु उन में से किसी के साथ भी इन पद्मनाम की संगति नहीं बैठती । अतः इनके विषय में निश्चयपूर्वक कोई मत व्यक्त नहीं किया जा सकता। अनुसन्धित्सु विद्वानों से पततिषयक अभिशा की आशा करता हूं।'
दत्वा वरं भगवती हृदयं प्रविष्टा . शास्त्रैःस्वयं नवनवैश्च मुखेऽवतीर्णा ॥ ४ ॥ वासिदिमेवमतुलामवलोक्ल नाथ: श्रीशम्भुरस्य महतीमपि तां प्रतिष्ठाम् । स्वस्मिन् पदे त्रिभुवनागमवन्धविधासिंहासनैकरुचिरे सुचिरं चकार ॥ ४२ ॥ इत्थं मासत्रयमविकलं यो व्रतस्थः प्रभाते मध्याहे वास्तसनसमये कीर्तयेदेकचित्तः ।। तस्योल्लासैः सकलभुवनाश्चर्यभूतैः प्रभूतैः विद्याः सर्वाः सपदि वदने शम्भुनाथप्रसादात ॥ ४४ ॥ .... . व्रतेन हीनोऽप्यनवाप्तमन्त्रः श्रद्धाविशुद्धोऽनुदिनं पठेद् यः। ...... तस्यापि वर्षादनवासद्यः कवित्वहृयाः प्रभवन्ति विद्याः ॥ ४५ ॥ कोऽप्यचिन्त्यप्रभावोऽस्य स्तोत्रस्य प्रत्ययावहः । श्रीशम्भोराज्ञया सर्वाः सिद्धयोऽस्मिन् प्रतिष्टिताः ॥ ४६ ॥ पद्मनाभ नामक निन्नलिखित ग्रन्थकारों का परिचय मिलता है :क. रामखेटक काव्य के कर्ता पमनाभ, लक्ष्मीनाथ शिष्य । रचनासम्वत् १८३६ 1 ___ एसियाटिक सोसायटी बंगाल का सूचीपत्र । कैटलागस कैटलोगरम् 1. ५२० ख. चन्द्रिका जनमेजय के कर्ता पमनाम । __मद्रास लायब्रेरी कैटलाग सं०:५५७० ग. मदनलीलादर्पण भाण के कर्ता पद्मनाभ लक्ष्मण और वेणकमाग्बापुत्र ।
मद्रास लायरी:कैटलग भाग ३. ३१७५ नोट :-इनके द्वारा रचित त्रिपुरविजयच्यायोग भी संख्या ३४७ पर अतित है । इनका
समय १६वीं शताब्दी है। घ. रुक्माङ्गदीय काव्य के कर्ता पमनाभ ।।
कैटलागस कैटलोगरम् भाग।। १३२ १. वीरभद्रदेवचम्पू के कर्ता पानाभ बलभद्रसुत ।
सरस्वतीभवन पुस्तकालय, उदयपुर का सूचीपत्र । सं० ८६०, १५०८ नोट:-ये दोनों प्रतियां क्रमशः सं. १६४८ और १६६१ में लिखित हैं। पीटरसन ने "बम्बई
प्रान्त में संस्कृत हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज" . नामक विवरण में भी इनका उल्लेख किया है। ... . : ...
१
.
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(१६) पुस्तक में यद्यपि उपलब्ध प्रतियों के आधार पर शुद्ध पाठ ग्रहण किये गये हैं तथापि इस की मन्त्रशास्त्रीयता पर ध्यान रखते हुए अधिक साहस से काम नहीं लिया गया है। इस पुस्तक का सम्पादन कार्य मुझे मुनि श्रीजिनविजयजी महाराज ने सौंपा है और समय समय पर आवश्यक निदर्शन भी किये हैं। पुस्तक का यह स्वरूप उन्हीं की कृपा से बन सका है अत एव उन के प्रति हार्दिक कृतनभाव शापित करता हूँ। पण्डित भी गंगाधरजी द्विवेदी और श्री लाधूरामजी दूधोडिया ने अपनी हस्तलिखित प्रतियां देकर मुझे उपकृत किया है, एतदर्थ उन का भाभार मानता हूं । सन्दर्भसंकलन, प्रेसकापीलेखन एवं प्राग्रूप संशोधन में मेरे सुहद् श्रीमल्लक्ष्मीनारायणजी गोस्वामी और श्रीमदन शर्मा "सुधाकर" ने यथेष्ट सहयोग दिया है तदर्थ इन दोनों बन्धुत्रों को अकृत्रिम धन्यवाद अर्पित करता है।
आशा है, यह पुस्तक भवालुओं एवं साहित्यान्वेषणरसिकों के कुछ काम आएगी।
ऋषिपञ्चमी, २०१७ वि. राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान,
जोधपुर।
प्रगतिपरायण
गोपालनारायण
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सन्दर्भ-ग्रन्थ लामावली
संख्या नाम
१. अग्निपुराणम् २. अथर्ववेदः ३. अमरकोपः ४. प्रायविद्यासुधाकरः ५. अाहिककर्मसूत्रावलिः ६. ऋग्वेदः ७. एशियाटिक सोसायटी, बङ्गाल का सूचीपत्र ८. ऐतरेय श्रारण्यकम् ६. कठोपनिपत १०. कालौतन्त्रम् ११. कुलार्णवतन्त्रम् १२. कूर्मपुराणम् १३. कैटलागस् कैटलागरम्, भाग १. १४. कौपीतकी उपनिपत् १५. गायत्रीतन्त्रम् १६. जैमिनीय उपनिपत् १७. ताण्ड्यब्राह्मणम् १८. तैत्तिरीयब्राह्मणम् १६. दक्षिणामूर्तिसंहिता २०. निघण्टुमातृका २१. नीलसरस्वतीतन्त्रम् २२. पञ्चविंशब्राह्मणम् २३. पिङ्गलामतम्
संख्या नाम २४. बृहदारण्यकोपनिषत् .. २५. भगवद्गीता २६. मद्रास लायग्रेरी कैटलाग भाग ३ २७. महाभारतम् २८. महातन्त्राव: २६. मार्कण्डेयपुराणम् ३०. रुद्रयामलतन्त्रम् ३१. लघुसप्तशतीस्तोत्रम् ३२. व्याकरणमहाभाष्यम् ३३. वाचस्पत्यम् ३४. वायुपुराणम् .... ३५. विष्णुपुराणम् ३६. शतपथब्राह्मणम् ३७. शारदातिलकम् ३८. षड्विंशब्राह्मणम् ३६. सरस्वतीकण्ठाभरणम् रत्नदर्पणव्याख्यायुतम् ४०. सरस्वतीभवन पुस्तकालय, उदयपुर का सूचीपन ४१. सारसंग्रहः ४२. सिंहसिद्धान्तसिन्धुः ४३. सौन्दर्यलहरी ४४. हलायुधकोपः ४५. त्रिपुराभारतीलघुस्तवः
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राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला
... ग्रन्थाङ्क ५४.
श्रीगणेशायनमः तिवन्मौक्तिकदेमममनातामातातिरिक्तांबरातन्गानटान वयातिस। विराबालाविलासरा यादिवानापानाधितकलादेवी सदानीतिदा चित्रस्थालुवनेश्वरीनव
उनासेामुदासर्वदा र कएस्लिमविलोलऊंडलधरामापीनकोसदा मुक्कादारविघाए । भमिसन परिलसलसन्मतिका लीलालालितलोचनाजानिमुरवीनाबचकांचीबडो दिव्यतीत
वनेश्वरीनुदिनंदरामदेमात २ अयस्तामुनदम्पादितमहोमिनिला कविलासका शियमकारकलनिरगास्पाइस्पानवरलप-मूतानचन्हमहात्रम[संहारवालिया पत्ता सत्यमित कालगदापास्यदेवासपटारा गदिनिरिवलनिगमागमोदितावविद्यासुद्योकदयचकालांशोजनाशिशिवसलावतो द्योतोकल्यवामिनानिमितफलदानददारुधिरजकमतःकास्नगटावसुंधरा - जिसनाथायंतीशिव रणनगमणिमटामसिनातररानीसदिपिकलकाका
लतांपिछलांनावास्थितोदकविदवलासमानामलमुताफलपकरहावितशितपानी।
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'क' प्रतिका आदि पृष्ठ
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ग्रन्थाङ्क ५४
. राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला
ਝਾਤਰ ਦੇ ਝਬਰ ਤੇ ਫੜ:1!੪੫) ਰੂ ਬ ਰ ਭਰੇਰਵਸ਼ਿਕਕਰgo ਹੈ ਤੇ ਹਰੂ ਤੇ ਵਰੋ ਕ
ਉ ਰੌਲਤ ਨੇ ਰਲ ਕੇ ਕੂ ਕੂੜ ਦੀ ਵਰਤੋਂ = ਚ ਉ ਉ ਉ ਤਹ ਕਉ ਰਲੇਵੇ ਕਰ ਰਹੇ
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'क' प्रतिका अन्तिम पृष्ठ
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राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला
ग्रन्थाङ्क ५४
श्रीः ॥ कर्णल ऐविलोल कुंडलएमा पनि नदी मुक्त विष परिमित्र सम्म लिकी सीता 4. ललितलोचनांशी मुली मानकांची राजदी होती नुवनेश्वरी मनुदिनं नंदामात २ पक्षामुत्पादिमहोर्मिमालाकु वितत्यक्षक द्रियमकरकुंडलवत् स्वगाहस्पानवस्त प्रबन्सोमरा संसारवां निषेः प्रवणत्यात मित्र सकलसेमदकापटं गायाः प्रसाद्मासाद्य चतुराननेोपिसर्गादिनिखिल लिमाजादितास्तु देश विद्याः समेकुत सोचकर जननीमिवाद्यतां कल्पवली मिवात्तिमत फलानां रुचिश्व रण संक्रम एतः करुणपान भरोसे नाथन भाना-पिनपाएनाएिमय मंत्री एटिक सकल चराचरए मंडितांवरशनोस कि किसी कनकाएकलितषिद्ध लत्ततावपितोदक जिंदवन्वजासमाना मल मुक्ताफल प्रकार विभूषित पीनो बत्तपयोधाः नचनंश्ककु सुमसुम सातिरस्करीरीक लव कमलप्रतिदेिवितवानामी करकुंडला चचंद्रकलावतं तदेशांम सिमाधियविराजमानानुवनेशानी विद्यतकलागमाचार्यचक्रवर्तिएवीधराचार्यविरचित्त मात्र य पापरिवारंवाल प्रबोधिनीय- कलविमल पट्ट्ीपिकांवित्वया मीतिप्रतिज्ञानीतेषुभनामपण्डितुष्टीकाकारः ॥
'ख' प्रतिका आदिपृष्ठ
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राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला
कष्णवित्यः प्रभानोपतनमययावतः श्रीवचण्यापकः सिद्धमिन्प्रतिशिताः ४६ कोपीति-संपा स्तोत्रायकोग्पचिप प्रभावः मत्समाः नहोवर्त्तते प्रतीतिज्ञनको नवति यत: कारणात् श्रीमतियन्त्रया सर्वोच पिलायाः सिद्ध्योऽस्मिन् तोत्रे प्रतिष्ठिताः न्यात्। पिता चतएव चिंल तोत्रमित्यर्थः यचावेत कवितावि गुलामिलाका एवीधतातसुवृतिः सयुकिरीपिका ६ इतिश्री पातविरचितं तरभवतीय व
श्रीमान सिंह राज्येनपुरे
कमिदमायोध्यकस राद्विदनः शिद
'ख' प्रतिका अन्तिम पृष्ठ
ग्रन्थाङ्क ५४
गंगासहायोलिपि
श्र
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श्रीः
सकलागमाचार्यचक्रवर्त्तिश्री पृथ्वीधराचार्यविरचितम्
भुवनेश्वरीमहास्तोत्रम् कविपद्मनाभविरचितभाष्यविभूषितम्
श्रीगणेशाय नमः
ॐ चञ्चन्मौक्तिक हेममण्डनयुता माताऽतिरक्ताम्बरा तन्वङ्गी नयनत्रयातिरुचिरा बालार्कवद्भासुरा । या दिव्याङ्कुशपाशभूषितकरा देवी सदा भीतिहा
चित्तस्था युवनेश्वरी भवतु नः संयं मुदः (दे ) सर्वदा ।। १ ।।
कर्ण स्वर्ण विलोल कुण्डलधरामापी नवक्षोरुहां. मुक्ताहारविभूषणां परिलसद्धम्मिल्लसन्मल्लिकाम् ।
लीलालोलितलोचनां शशिमुखीमाबद्धकाली स्रजं
दीन्यन्तीं भुवनेश्वरीमनुदिनं वन्दामहे मातरम् ॥ २ ॥
अथ सतामुदन्यादि महोर्मिवेलाकुलितस्य सकलेन्द्रियमकरकुण्डलवत् दुरवगाह'स्यानवरतप्रभूतीभवन्मोहमहाभ्रमस्य संसारवारांनिधेः प्रतरणाय सत्पतमिव सकलसम्पदामास्पदमिव यस्याः प्रसादमासाद्य चतुरचतुराननोऽपि सर्गादौ निखिलनिगमागमोदिताच विद्याः" सद्योऽ' कुरयाञ्चकाराम्भोजनाभिमिव सम्भावनोद्यतां कल्पवल्लीमिवाभिमतफलदानदक्षां रुचिरचरणसङ्क्रमणतः करुणया वसुन्धराम
१. पद्यस्यास्य ख. ग. प्रत्योनोपलब्धिः ।
२. ग. सतां देन्यादिमोहोर्मिमालाकुलितस्य । ३. गं. मण्डलचटुलदुरवगाहनस्य । ४. ग. महामोहभ्रमस्य । ५. ख. चतुर्दशविद्याः । ग. निखिल निगमादिविद्याः । ख. ग. तां जननीमिव । ८. ग. संक्रमणया ।
६. ग. समङ्कुरयाञ्चकार ।
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२]
भुवनेश्वरीमहास्तोत्रम् भिसनाथयन्तीमिव' चरणरणन्मणिमयमञ्जीरा बररशनोल्लसत्किङ्किणीकुलक्काणकलितां पिच्छलां नावस्थितोदकविम्बवदवभासमाना ममलमुक्ताफलप्रकरहारविभूपितपीनोन्नतपयोधरां नवमधुककुसुमसुषमातिरस्कारकारिकरचरणकपोलयुगलप्रतिविम्बितचारुचामीकरकुण्डला चञ्चच्चन्द्रकलाक्तसितशिरोदेशां स्फुरन्महामौलिमाणिक्यविराजमानां भुवनेशामभिवन्द्य सकलागमाचार्यचक्रवर्तिपृथ्वीधराचार्यविरचितमहास्तोत्रस्य यथाचाई वालप्रबोधिनी सकल विमलपददीपिका टीकां विरचयामीति" ।। ऐंदव्या कलयावतंसितशिरो विस्तारि नादात्मकं
तद्रूपं जननि स्मरामि परमं सन्मानमेकं तव। यत्रोदेति पराभिधा भगवती भासां हि तासां पदं
पश्यन्तीमनुमध्यमा विहरति खैरं च सा वैखरी ॥१॥ ऐंदव्येति-हे जननि तव तत् रूपं स्मरामि अहरहो ध्यायामि, किम्भूतं तव तद्रूपं अवतसितशिरः अवतसितं शेखरीकृतं शिरो सूर्दा यस्य तत् तथा । कया इन्दोरियं ऐंदवी तया ऐंदव्या कलया । पुनः किम्भूतं तव रूपं, विस्तारि विस्तारोऽ- . स्यास्तीति विस्तारि सर्वव्यापकमित्यर्थः । पुनः किम्भूतं नादात्मकं नादस्वरूप, उच्चारणकाले नादवत् । पुनः किम्भूतं परमं परा उत्कृष्टा मा शोभा यस्य तत् परमं । प्रकृष्टमित्यर्थः । पुनः किम्भूतं सन्मानं सदभावरूपमिति यावत् । अपरं किम्भूतं ... एक अद्वितीयम् । हे विश्वेश्वरि यत्र यस्मिन् तव रूपे पराभिधा परासंज्ञा वाणी.. उदेति उदयं प्रामोति किम्भूता वाणी" भगवती षडैश्वर्यज्ञानवती भगोर्कज्ञानमाहात्म्य
१. ख. संनाथयमानामिव । २. ख. चरणरणन्मणिमयमञ्जीरादिकसकलचरणाभरण___ मण्डितां । ग. रणन्मणिमयमञ्जीरादिचरणाभरणमण्डितां । .... ३. ख. पिप्पलदलान्तावस्थितोदकबिन्दुवदवभासमानां । ग. पिच्छिल.... भासमानां। ४. ख. नववन्धूककुसुमसुपमातिरस्करी कलरवकपोतयुगलप्रतिविम्बितचारुचामीकरकुण्डलां। ....
ग. नववन्धूककुसुमनिकुरम्वतिरस्कारकारिवरकपोलयुगलप्रतिविम्बितचारुचामीकरकुण्डलां। ५. ख. ग. भुवनेशानीमभिवन्द्य । ६. ख. यथामति । ७. ख. प्रतिजानीते पदानाभपण्डितष्टीकाकारः । ८. ग. चिन्मानं । १. ख. श्रहं रहो। १०. ग. इन्दुसम्बन्धिन्या । : ... ११. ग. सन्मानं सत्तामात्रं नादात्मकं उच्चारणकाले नादवत् । १२. ग, परममुस्कृष्टमित्यर्थः । १३. ख. हे जननि । १४. ग. तत संज्ञा । १५. १६. ग. भगोर्कः भगो ज्ञानमित्यनेकार्थदर्शनात् ।
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प्रबोधिनीटीकासहितम् इति चानेकार्थश्रवणात् । पुनः किंविधा पराभिधा भासां हि तासां पदं, हि निश्चितं तत् तासां प्रसिद्धानां भासां दीप्तीनां पदं स्थानं ततः पराभिधायाः पश्यंती वाक् विहरति पुनः पश्यंतीमनु पश्चान्मध्यमा वाग् विहरति ततः स्वैरं स्वेच्छया चाष्ट स्थानविशदीकृता सेति' सर्वप्रसिद्धा वैखरी वाग विहरति । अथ च मनोःपक्षे ऐंदव्या कलयावतंसितशिरो इति चन्द्रार्धानुकारि लक्ष्यते । ततः विस्तारि प्रपञ्चो माया यस्याऽस्तीति ततः विस्तारि मायावीजमिति निष्कृष्टार्थः । तदनु नादात्मकं 'नादशब्देनात्र विन्दुरनुस्वारोऽभिधीयते तेन सहितमिति सानुस्वारं हीमिति यावत् ।
अथ वैखर्याः सातिशयं महिमानमुन्मीलयन् अपरवृत्तमाहआदिक्षान्तविलासलालसतया तासां तुरीया तु या
क्रोडीकृत्य जगत्त्रयं विजयते वेदादिविद्यामयी ।
तां वाचं मयि संमसादय सुधाकल्लोलकोलाहल..... क्रीडाकर्णनवर्णनीयकवितासाम्राज्यसिद्धिप्रदाम् ॥ २ ॥
आदीति-हे मातः सकलेश्वरि, तु इति व्यवच्छेदे तासां पूर्वोक्तानां परापश्यन्ती:: मध्यमावैखरीलक्षणानां वाचां मध्ये तुरीया चतुर्थी वाक् वैखरीलक्षणा सा जगत्
त्रयं भुवनत्रितयं क्रोडीकृत्य अभिव्याप्य विजयते सर्वोत्कर्षेण वर्त्तते । कया
कृत्वा आदिक्षान्तविलासलालसतया आदयः अकारादयः क्षान्ताः क्षकारान्ताः ... ये वर्णास्तेषां यो विलासो विलसनं तस्य या लालसता उच्चारणविशेषः तया
आदिक्षांतविलासलालसतया विश्वमखिलमभिव्याप्य वर्तत इत्यर्थः । किम्भूता सा तुरीया ( वैख ) री, वेदादिविद्यामयी वेदादयो या विद्याः ताः स्वरूपं यस्याः सा तथा, हे जननि तां तुरीयां वैखरीं' वाचं मयि विषये सम्प्रसादय सम्यक् प्रसाद विधाय उत्पादय । किम्भूतां वाचं सुधाकल्लोलकोलाहलक्रीडाकर्ण नवर्णनीयकवितासाम्राज्यसिद्धिप्रदां सुधायाः पीयूषस्य ये कल्लोला लहर्यस्तेषां यः कोलाहलः कलरवः तस्य या क्रीडा खेलनं तस्याः यदाकर्णनं तद्वद्वर्णनीया स्तुत्या या कविता तस्याः या साम्राज्यसिद्धिः स्वच्छन्दविहारिणी सिद्धिस्तां प्रकर्षण ददातीति तथा ताम् ॥२॥
१. ख. सती, ग. चेति । २. ख. ग. चन्द्रानुकारि चालिख्यते । ३, ग, च । ४. ख. भुवनत्रयं । ५. ख. वैखरीलक्षणां । ६. ग. स्वच्छन्दा विहारिणां सिद्धिः ।
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४]
भुवनेश्वरीमहास्तोत्रम्
अथेदानीं विशिष्टवाग्भवस्य महिमानमाहकल्पादौ कमलासनोऽपि कलया विद्वः कयाचित् किल
त्वां ध्यात्वाऽङ्कुरयाञ्चकार चतुरो वेदाच विद्याथ ताः । तन्मातर्ललिते प्रसीद सरलं सारस्वतं देहि में
यस्यामोदमुदीरयन्ति पुलकैरन्तर्गता देवताः ॥ ३ ॥
कल्पादाविति - हे मातः जननि किल इति सत्ये' कल्पादौ सृष्टेरादों कमलासनोपि ब्रह्मापि त्वां ध्यात्वा चतुरो वेदान् पुनश्च ताः विद्याचतुर्दश कुरयाञ्चकार प्रकटीकृतवान् किम्भूतः कमलासनोपि निश्चयेन कयाचित् कलया विद्धः स्यूतः पुनः किम्भूतः वा चतुर इति ब्रह्मणो विशेषणम् । हे मातः ततः कारणात् त्वं प्रसीद प्रसादं कुरु मे मह्यं सरलं सारस्वतं देहि, सश्च रच लक्ष सर्वो द्वन्द्वो विभाषयैकवदिति एतैर्वणैः सहितमिति यावत् अथवा सरलमिति प्राञ्जलं केवलं वाग्भवमेव ऍकाररूपमित्यर्थः । हे ललिते एतन्महिमानं वाग्भवरूपं मनुं मयि प्रसारयेति प्रार्थना | परं हे विश्वेश्वरि यस्य वाग्भवामोदं यस्यामोदमुदीरयन्ति पुल कैरन्तर्गता देवता यस्य वाग्भवस्य आमोदं महिमान अन्तर्मध्ये स्थिता देवता आत्माप्रभृतय उदीरयन्ति कैः पुलकैः रोमाचैरिति यावत् ।। ३ ।।
२
थ भगवत्या बीजांतरध्याने फलमाह
मातर्देहभृतामहो धृतिमयी नादैकरेखामयी
सा त्वं प्राणमयी हुताशनमयी बिन्दुप्रतिष्ठामयी । तेन त्वां भुवनेश्वरी विजयिनीं ध्यायामि जायां विभोः स्त्वत्कारुण्यविकाश (सि) पुण्यमतयः खेलन्तु मे सूक्तयः |४|
मातरिति - हों इति सम्बोधने' हे मातः सा त्वं देहभृतां शरीरिणां एवं विधा वक्ष्यमाणलक्षणा वर्त्तसे तेन कारणेन विभोर्महादेवस्य जायां कुटुम्बिनीं भुवनेश्वरीं ध्यायामि । किम्भूतां त्वां विजयिनीं विजयनशीलां श्रत एव मे मम सूक्तयः शोभना वाचःखेलन्तु नवनवगद्यपद्यकरणोद्यमे दोव्यन्तु । किम्भूताः सूक्तयः त्वत्कारुण्य
१ ख सत्यं । २. ख. मे मह्यं' सरलं सारस्वतं देहि सरलं अर्थावगममाधुर्यादिगुणविशिष्टं न तु वैपम्याद्युपहतं । ३. ख. सम्बोधनं । ४ ख विभोः श्रीमहादेवस्य । २. ख. नवनवाः गद्यपद्यमय्यः मे सूक्तयः खेलन्तु विलसन्त्वित्यर्थः, नवनंवगद्यपद्यसद्यःकरणोद्यमा ।
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प्रबोधिनीटीकासहितम् विकासिपुण्यमतयः त्वत्कारुण्येन त्वत्करुणया विकाशिनी' प्रकाशशीला
उन्मीलयन्ती पुण्या पवित्रा मतिर्यासां तास्तथा । किम्भूता त्वं धृतिमयी धृतिरेकार. स्तन्मयी', अपरं किम्भूता त्वं नादैकरेखामयी नादशब्देनात्र उकारो गृह्यते तस्य
एका रेखा चन्द्रकला तन्मयी, पुनः किम्भूता प्राणमयी प्राणो हकारस्तन्मयी, पुनः
किम्भूता हुताशनमयी हुताशनो रेफस्तन्मयी, पुनः किम्भूता विन्दुप्रतिष्ठामयी विन्दु... - रनुस्वारस्तस्य प्रतिष्ठा प्रारोपणं तन्मयी ह्रीं इति भवति मनुः । इह धृतिमयीत्यादिषु सर्वविशेषणेषु स्वरूपार्थे मयड्विधार्थाभिधानम् ।। ४ ।।
. अथेदानी यन्त्रोद्धारमाहत्वामश्वत्थदलानुकारमधुरामाधारबद्धोदरा .. संसेवे भुवनेश्वरीमनुदिनं वाग्देवतामेव ताम् । तन्मे शारदकौमुदीपरिचयामोदं सुधासागर
स्वरोजागरवीचिविश्नमजितो दीव्यन्तुं दिव्या गिरः ॥ ५॥
त्वामिति-हेजननि ! अनुदिनं दिन दिन अनुलक्ष्यीकृत्य तां त्वां वाग्देवतामेव - भुवनेश्वरी संसेवे सम्यगाराधयामि । ततःकारणात् मे मम दिव्या गिरो वाण्यः
दीव्यन्तु क्रीडन्तु । किम्भूता गिरः शारदकौमुदीपरिचरामोदं ( परिचयोदश्चत् ) सुधासागरस्वैरोज्जागरवीचिविभ्रमजितः शरदि भवा शारदी, शारदी चासौ कौमुदी च
शारदकौमुदी इत्यत्र स्त्रियाः पुचद्भाषितपुंस्कादिति पुंबद्भावे पूर्वपदस्य लोपः' - तस्यायं परिचयः परिदर्शनं१ तेन उदञ्चदुद्वेलीभवत् १२ सुधासागरः पीयूषवारि
धिस्तस्य स्वैरं स्वेच्छया या उज्जागराः शब्दायमाना वीचयो लहर्यस्तासां . . यो विभ्रमो विलासस्तं जयन्तीति तथा किम्भूतां त्वां अश्वत्थदलानुकारमधुरां
अश्वत्थदलानुकारेण पिप्पलदलसदृशतया मधुरां त्रिकोणमधुरा मित्यर्थः । आधार. बद्धोदगं आधारे" षट्कोणेन बद्धोदरां रचितनिलयां एतावता पूर्व त्रिकोणमालिख्य
१. ख. विकाशी। २. ग. उन्मीलन्ती। ३. ख. तिर्धारणावतीबुद्धिस्तन्मयी । १. ग. तिरीकारस्तन्मयी। ५. ख. नादशब्देन अनुस्वारो विधीयते, ग. ओंकारो विधीयते । ६. ख. तिमय्यादिविशेषणेषु मयविधानं तत्तन्मयत्त्वज्ञापनार्थम् । ७. ख. यन्त्रोद्धारणमाह । ८. ग. बद्धोदरीं । ६. ख. ग. परिचयोदञ्चत्सुधासागर । १०. ख. दिनंदिनमदुर्लभीकृत्य । ११: ख. तस्या यः परिचयो दर्शनम् । १२. ख. यः । १३. ख. मनोहरा; ... ग. त्रिकोणेन मनोहरामित्यर्थः । १४. ख. ग. प्राधारेण ।
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६ ]
भुवनेश्वरीमहास्तोत्रम्
ततः पट्कोणं विधाय तस्यानु पश्चादिनं अष्टप्रहरमानतया' अष्टदल कमलमिति संकेतितं भवति ततो वाङ्मयं वीजं चन्द्रकलानुस्वारसहितं तन्मध्ये विलिखेदिति यन्त्रोद्धारविधिः || ५ ॥
अथेदानीं परमेश्वर्या ध्यानमाहलेख प्रस्तुतवेद्यवस्तुसुरभिश्रीपुस्तकोत्तंसितो
मातः स्वस्तिकृदस्तु मे तब करो वामोऽभिरामः श्रिया । सद्यो विद्रुमकन्दली सरलतासन्दोहसान्द्राऽङ्गुलि- '
मुद्रां बोधमयीं दधत् तदपरोप्यास्तामपास्तभ्रमः ॥ ६ ॥
लेखेति - हे मातः तव वामकरो मे मम स्वस्तिकृदस्तु शुभकरो" भवतु । किम्भूतो चामकरः लेखप्रस्तुतवेद्यवस्तुसुरभिश्रीपुस्तकोत्तंसितः लेखेन यत्प्रस्तुतवेद्यं प्रस्तुतज्ञाप्यं वस्तु तत्प्रतिपादकं सुरभिश्रिया मनोहरकान्त्या सहितं यत्पुस्तकं तेनोत्तंसितों मण्डितः । पुनः किम्भूतः श्रिया अभिरामः शोभया मनोहरः तदपरो दक्षिणकरः सद्यस्तत्कालमेव मे मम अपास्तभ्रमः आस्तां निराकृतभ्रान्तिर्भवतु । किं कुर्वन् बोधमय मुद्रां दधत् । पुनः किम्भूतः विद्रुमकन्दलीसन्दोहसान्द्रांगुलिः विद्रुमकंन्दल्याः प्रवाललतायाः सरलतासंदोहः प्राञ्जलता विलासस्तद्वत् सान्द्रा मनोहरा" गुलयो यस्य सः तथा इति द्वयोरपि विशेषणम् || ६ ||
99
अथ भगवत्याः कृपाभववीक्षणेन प्रार्थन्नाह"
मातः पातकजालमूलदलनक्रीडाकठोरा दृशः
कारुण्या मृत कोमलास्तव मयि स्फूर्जन्तु सिद्ध्यूर्जिताः । श्रभिः स्वाभिमतप्रबन्धलहरीसाकूत कौतूहला
भ्रान्तखान्तचतुर्मुखोचितगुणोद्गारां करिष्ये गिरम् ||७||
मातरिति - हे मातः तव दृशो दृष्टयो मयि (मम) विषये स्फूर्जन्तु उल्लसन्तु । किम्भूताःदृशः पातकजालमूलदलनक्रीडा कठोराः पातकानां जालं समूहः तस्य मूलं कन्दः
१. ग. श्रष्टप्रहरमापाततया । २. ख, संभवति ।
३. ख. वाग्भवं ।
४. ख.
सान्द्राऽगुली । ५. ग. शुभकारको । ६. ख. यत्प्रस्तुतं वेद्य ज्ञाप्यं । ७. ख तेन यत्तुरभिः सौगन्ध्यं तद्रूपा या श्रीस्तया । ८. ग. सहितः ।
६. ख. शोभामनोहरः । १०. ख. प्राञ्जलिविलासरतेन सान्द्राः संहता अंगुलयो । ११. ख, ग, कृपाभरवीक्षणं संप्रार्थयन्नाह । १२. ग. कौतूहलाऽक्रान्तः ।
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'प्रबोधिनीटीकासहितम्
[७ .. तस्य दहने विदारणे क्रीडया लीलया कठोराः, पुनः किम्भूताः कारुण्यामृतकोमलाः
। कारुण्यं करुणा तदेवाऽमृतं तेन कोमलाः । पुनः सिध्यूर्जिताः सिद्ध्या ऊर्जिताः - प्रेरिताः, किम्भूतां गिरं स्वाभिमतप्रवन्धलहरीसाकूतकौतूहलाभ्रान्तस्वान्तचतुर्मुखो..चितगुणोद्गारां स्वस्य आत्मन अभिमत अभिलषितो यः प्रवन्धो गद्यपद्यादिः
तस्य या लहरी स्फुरणा तस्याः यत् साकूतकौतूहलं साभिप्रायकौतुकं तत्र आभ्रान्तं श्लिष्टं शुचि यत् स्वान्तं मनः तेन चतुर्मुखस्येव ब्रह्मण इव उचितः सदृशो गुणानामुद्गारो यस्याः सा तथा ताम् ।। ७ ।।
इदानीं भगवत्याः यजलविधानमाहत्वामाधारचतुर्द लाम्बुजगतां वाग्बीजगर्भे यजे
प्रत्यावृत्तिभिरादिभिः कुसुमितां मायाललामुन्नताम् । चूडामूलपवित्रपत्रकमलप्रेढोलखेलत्सुधा
कल्लोलाकुलचक्रचङ्क्रमचमत्कारैकलोकोत्तराम् ।। ८ ॥ त्वामिति-हे जननि ! त्वां वाग्बीजगर्भे ऐंकारमध्ये मायालतां ह्रींकारवल्ली यजे पूजयामि किम्भूतां मायालतां आधारचतुर्दलाम्बुजगतां आधारचक्रमेव चतुर्दलाम्बुजं चतुर्दलकमलं तत्रगतां स्थितां', पुनः किम्भूतां उन्नता पुनः किम्भूतां श्रादिभिरकारादिभिर्वणः कुसुमितां पुष्पिता अन्यापि लता उन्नता सती पुष्पिता भवति । किम्भूतैः आदिभिः प्रत्यावृत्तिभिः एक एक प्रति आसमन्ताद भावेन वृत्तिवर्त्तनं येषां ते प्रत्यावृत्तयस्तैस्तथा । अथवा प्रादिभिरकारादिभिः क्षपर्यन्तैः प्रत्यावृत्तिभिः लोमप्रतिलोमभिर्वणः कुसुमितां परमशोभान्वितामित्यर्थः । यथा ह्रीं अं ह्रीं श्रां इत्येवमादयः क्षपर्यन्ता'" वर्णाः स्वयमूहनीयाः । प्रतिलोमतो यथा ह्रीं क्षं ही लं ही सं इत्यादि, पुनः किम्भूतां मायालतां चूडामूलपवित्रपत्रकमलप्रेढोलखेलत्सुधाकल्लोलाकुलचक्रचक्रसचमत्कारैकलोकोत्तरां चूडामूले ब्रह्मरन्ध्रे यत् पवित्रपत्रकमलं विमलसहस्रदलपङ्कजं तत्र यः प्रेढोलखेलसुधाकल्लोलः चपलतरं खेलन्ती
.१. ख. पीयूपं । . २. ख, ग, मृदुलाः । ३. ख. ग. तव अाराधनेन । ४. स: ग. हे सुरेश्वरि श्राभि ग्भिरहं गिरं वाणी करिष्ये वाचं प्रकटयिष्यामि । ५. ख. ग. गद्यपधादिमयः। ६. ग. श्राकान्तं । ७. ग. उद्वमनं धनप्रकटनं यन्न ८. ख: ग. संस्थितां । ..ख. ग. उच्चैर्गतां। १०. ख. सपर्यन्ताः ।
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८]
भुवनेश्वरीमहास्तोत्रम्
पीयूषलहरी तेनाकुलं यत् चक्राकारत्वात् चक्रं पत्रसमूहः तस्य यः चक्रमचमत्कारी विलोकन चमत्करणं तेन लोकोत्तरां अनिर्वचनीयाम् ॥ ८ ॥
इदानीं परमेश्वर्या आराधनेन फलमाह -
सोऽहं त्वत्करुणाकटाक्षशरणः पञ्चाध्वसंचारतः प्रत्याहृत्य मनो वसामि रसना रङ्गं समालिङ्गतु । श्रीसर्वज्ञविभूषणीकृतकलानिष्यन्दमानामृत
स्वच्छन्दस्फटिकाद्रिसान्द्रितपयः शोभावती भारती ॥ ६ ॥
सोऽहमिति - हे मातः सोऽहं तब सेवकः त्वत्करुणाकटाक्षशरणः सन् तब दयापाङ्ग वीक्षणशरणः सन् वसामि तिष्ठामि किं कृत्वा मनः चित्तं प्रत्याहृत्य ( निर्वर्त्य ) कस्मात् पञ्चाध्वसंचारतः प्राणादीनां पञ्चानामपि वायूनां पञ्चाध्वसंचारणात् पञ्चमार्गसंक्रमणात् । यत्र च वातसंचरणं तत्र तत्र मनः संचरणमपि श्रूयते अथवा पश्चानां raati मार्गाणां गाणपत्य 'वैष्णवसौरशाक्तिक 'शाम्भवानां संचारतः संचरणात् मनो निर्वर्त्य यतः त्वयि एव वसामि श्रतः कारणात् भारती अमररसना रङ्ग आलिङ्गतु श्राश्रयतु । किम्भूता भारती श्रीसर्वज्ञविभृपणीकृतकलानिष्यन्दमानामृतस्वच्छन्दस्फटिकाद्रिसान्द्रितपयः शोभावती सकलदेवतावरिष्टत्त्वात् श्रीशब्दस्य प्राक् प्रयोगः । श्रीसर्वज्ञो महेशः तस्य या विभूषणीकृतकला ततो निष्यन्दमानं निस्सरत् यदमृतं पीयूषं च स्वच्छन्दो निराश्रयो निर्मलो यः स्फटिकाद्रिः स च ताभ्यां सान्द्रितं बहुलीकृतं यत्पयो दुग्धं एतेपामेकत्र करणे यादृशी शोभा भा भवति तादृश्येव विद्यते यस्याः सा तथा अथवा श्रीसर्वज्ञस्य महेश्वरस्य विभूषणीकृत कलायाः चन्द्रकलायाः निष्यन्दमानामृतेन स्वच्छन्दस्फटिकाद्रेः निर्मलस्फटिकपर्वतस्य सान्द्रितं बहुलीकृतं यत्पयो नीरं तद्वत् शोभा यस्याः सा तथा युक्तोऽयमर्थः । यतश्चन्द्रकिरणाः पीयूपं वर्षन्ति" तदर्शनेन च स्फटिकाद्रिद्रवति तदुभयमेकीभूय तद्वत् शोभते तवत् सेति पिण्डितार्थः ॥ ६ ॥
9
१०
१. ख. चिलोमजं चमत्करणं; ग. विलोपनचमरकरणं । २. ख. ग. दयालुता ! ३. ग. श्रात्मनां । ४. ख. तस्मात् । २. ख. गणपति | ७. ख. मनोनिष्ठवायुः । ८. ख, ग, सरस्वती सम रसना । १०. रा. चन्द्रकला । ११. यतश्चन्द्रकिरणानां पीयूषं वर्तते ।
६. ख. शाक्त 1
६. ख. महेश्वरः
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प्रबोधिनीटीकासहितम्
इदानीं भगवत्या बीजजपस्य प्रकारान्तरमाह
मातर्मातृकया विदर्भितमिदं गंभीकृतानाहतस्वच्छन्दध्वनि पेय मध्वनि रतं चन्द्रार्कनिद्रागिरी । संसेवे विपरीत रीतिरचनोच्चारादकारावधि
स्वाधीनामृतसिन्धुबन्धुरमहो मायामयं ते महः ॥ १० ॥
3
मातरिति - अहो इति सम्बोधने हे मातः ते तव इदं मायामयं महो ज्योतिः संसेवे सम्यगाराधयामि । किम्भूतं मायामयं महः गर्मीकृतानाहतस्वच्छन्दध्वनिपेयं गर्भीकृत इति श्रगर्भो गर्भः कृतः इति गर्मीकृतः यः अनाहतध्वनिः अनाहतः स्वेच्छयोत्पन्नोऽनाहतः तेन पेयं, दृश्यं पुनः किम्भूतं मायामयं चन्द्रार्कनिद्रागिरौ अध्वनि रतं चन्द्रार्कयोः श्वासोच्छ्वास योर्निद्राविगतव्यापारः तस्यागिरिरिव गिरिः तस्मिन् चन्द्रार्कनिद्रागिरौ एव अध्वनि स्वाधिष्ठान चक्रे रतं श्राश्रितं पुनः किम्भूतं मायामयं महः मातृकया विदर्भितं मातृकया च गुम्फित यथा ऐं ह्रीं श्रं ऐं ह्रीं श्र इत्यादि" क्षपर्यन्तं ज्ञेयं, अपरं किम्भूतं मायामयं महः स्वाधीनामृतसिंधुबंधुरं स्वाधीनः स्वस्य वश्यः यः अमृतसिन्धुः सागरः तद्वत् बन्धुरं मनोहरं अभिमतफलदमित्यर्थः । पुनः किंविशिष्टं विपरीतरीतिरचनोच्चार दकारवधि विपरीते रीतिरचनाया मातृकाया उच्चारणात् अकारावधि यथा ऐं ह्रीं क्षं ऐं ह्रीं हूं ऐं ह्रीं यं इत्यकारावधि स्वयमूहनीयम् ||१०||
अदानी परमेश्वर्या बीजाराधनेन यत्फलं भवति तदाहतस्मान्नन्दनचारुचन्दन तरुच्छायासु पुष्पासवखैरास्वादन मोदमानमनसा मुद्दामवामभ्रुवाम् | वीणा भङ्गितरङ्गितस्वरचमत्कारोपि सारोज्झितो
[ &
२
येन स्पादिह देहि मे तदभितः संचारि सारस्वतम् ॥ ११ ॥ : तस्मादिति - हे मातः तस्मात् तव महसः' सेवनात् ' इह अस्मिन् लोके मह्यं सारस्वतं " देह समर्पय । किम्भूतं अभितः संचारि सर्वतः प्रसरणशीलं अपि निश्चितं
1
ग. ध्यायामि । २. ख. ग. स्वच्छन्दध्वनिः । ३. ख. ग. अनाहतः स्वेच्छयोत्पन्नो नादः । ४. ग. मातृकयाऽवगुम्फितं | ५. ख. ऐं ह्रीं हूं ऐं ह्रीं ई इत्यादि ।
६. ख. विपरीतरीतिरचनायाम्, ग, विपरीतिरिति रचनाया मातृकायाः ।
ख. ऐं ह्रीं क्षं ऐं ह्रीं हं ऐं ह्रीं सं ऐं ह्रीं पं ऐं ह्रीं शं इत्यकारावधि स्वयमूहनीयम् ।
खः महः । ६. ख. संसेवनात्; ग. सेवनाविहारि सल्लोके । १०. ख. महासारस्वतम् ।
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१०]
भुवनेश्वरीमहास्तोत्रम् येन सारस्वतेन सारोज्झितः स्यात् गतसत्त्वो भवेत् नीरसः स्यात्, कोऽसौ, वीणा-:भङ्गितरङ्गितस्वरचमत्कारः वीणा प्रसिद्धा तस्याः या भङ्गिः तन्त्रीरचनाविशेषः तया . . तरङ्गितः उन्नादितोऽभित उत्पादितो' यः स्वराणां निषादादीनां चमत्कारः चमत्करणं स नीरस इति सम्बन्धः, कासां उद्दामवामध्रुवां अमरवरसुन्दरीणां किल्लक्षणानां वामझुवां नन्दनचारुचन्दनतरुच्छायासु पुष्पासवस्वैरास्वादनमोदमानमनसां नन्दने बने ये चारुचन्दनतरवः मनोहरचन्दनवृक्षाः तेषां छायासु विषये पुष्पाणामासवस्य' .. मकरन्दस्य स्वैरं स्वेच्छया यदास्वादनं तेन मोदमानानि सहर्षाणि मनांसि यासां. तास्तथा तासाम् ॥ ११ ॥
इदानीं भगवत्या वक्ष्यमाणश्लोकेन वीजत्रयस्य स्थानान्याहआधारे हृदये शिखापरिसरे संधाय मेधामयीं
_त्रेधा बीजतनूमनूनकरुणापीयूषकल्लोलिनीम् । त्वां मातर्जपतो निरङ्कुशनिजातामृतास्वादन
प्रज्ञाम्भश्चुलुकैः स्फुरन्तु पुलकैरङ्गानि तुङ्गानि मे ॥ १२ ॥ आधार इति-हे मातःलांवीजतत्त्वं जपतो मे मम अङ्गानि शरीरावयवाः तुङ्गानि उच्छ्वसितानि स्फुरन्तु उल्लसन्तु कैः पुलकैः रोमहर्पणैः किं कृत्वा उत्तरश्लोके वक्ष्यमाणं बीजत्रयं एषु त्रिषु स्थानेषु वेधा संधाय त्रिप्रकारमनुवध्य अनुवधनं विधाय, केषु केषु स्थानेषु आधारे आधारचक्रे, हृदये मानसे, शिखापरिसरे ब्रह्मरन् । किम्भूतैः पुलकैः निरंकुशनिजादै तामृतास्वादनप्रज्ञाम्भश्चुलुकैः निरंकुशं मर्यादारहितं निजस्य स्वस्य यत् अद्वैतामृतास्वादनं तत्र यत् प्रज्ञाम्भो ज्ञानजलं तस्य चुलुकैः । किम्भूतां त्वां मेधामयी. मेधास्वरूपां पुनः किम्भूतां अनूनकरुणापीयूषकल्लोलिनी .. अनूनमनवरतं यत् करुणापीयूषं दयाऽमृतं तस्य कल्लोला लहयों विद्यन्ते यस्यां सा .. तथा ताम् ॥ १२ ॥
अथेदानी वीजत्रयस्य ध्यानफलमाहवाणीबीजमिदं जपामि परमं तत्कामराजाभिधं
मातः सान्तपरं विसर्गसहितौकारोत्तरं तेन मे। १. ख. उत्थापितो। २. ख. श्रासवस्तस्य । ३. ख, ध्यानमाह; ग. वीजत्रयध्यानस्य .
स्थानान्याह। ४. ख. ग. बीजतनू । ५. 'संधाय सन्निधीकृत्य' इति 'ख' पुस्तके विशेषः । ६. ख. ग. अनूनं घनतरं । ७. ख. यत् करणापीयूपं तेन कल्लोलिनी तरङ्गवतीमित्यर्थः ।
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प्रबोधिनीटीकासहितम्
दीर्घान्दोलित मौलिकीलितमणिप्रारब्धनीराजनै
धीरैः पीतरसा निरन्तरमसौ वारजृम्भतामद्भुता ।। १३ ।।
वाणीति-हे मातः सर्वेश्वरि' तेन कारणेन मे मम सौ अद्भुता वाक् निरन्तरं सततं उज्जृम्भतां प्रसरतु, कथं येन कारणेन इदं वाणीबीजं ऐंकाररूपं श्राधारचक्र अहं जपामि । ततोऽपि कामराजं क्लींकाररूपं हृदये जपामि । ततः सान्तपरं स एव अन्तः अन्तभूतः पर उत्कृष्टो यस्य तत् सान्तपरं । पुनः किम्भूतं विसर्गसहितौ कारोत्तरं विसर्गेण सहितं कारोत्तरो यस्य तत विसर्गसहितौकारोत्तरं सौं इति शक्तिवीजं ब्रह्मरन्ध्रेणैव जपामि अथवा सान्तपरमित्यत्र वीजविशेषाधाने क्रियमाणे हि एवं * समासघटना | अन्तःशब्देनात्र हकारो लभ्यते सकारानुषङ्गित्वात् अत्र तावत् इकारात् परः सकारः अन्तात् हकारान्तात् परोऽग्रे यस्य वीजस्य तत्सान्तपरं विसर्गसहितौ - कारोत्तरं । ह्सौरिति रूपं शक्तिबीजं वा । किं विशिष्टा वाक् धीरैः पीतरसा बुधैरास्वादितरसा किम्भूतैः धीरैः दीर्घान्दोलितमौलि कीलितमणिप्रारब्ध नीराजनैः दीर्घं यथा भवति तथा आन्दोलितेषु मौलिषु कीलिताः आरोपिताः मणयः तैरेव आधा नीराजनायैः ते तथा तैः । किम्भूतं वीजत्रयं परमं उत्कृष्टा मा शोभा यस्य तत्परमं अथवा परायाः पराभिधायाः वाण्याः मा शोभा यस्य तत्परममिति वाणीवीजविशेषणमेव ॥ १३ ॥
अथ भगवत्याः सफलं दक्षिणभुजध्यानमाह
[११
चूडाचन्द्रकलानिरन्तरग लत्पीयूषविन्दुश्रिया
सन्देहोचितमच सूत्रवलयं या विभ्रती निर्भरम् | अन्तर्मन्त्रमयं स्वमेव जपसि प्रत्यक्षवृत्त्यक्षरं
सा त्वं दक्षिणपाणिनाम्ब वितर श्रेयांसि भूयांसि मे || १४ |
चूडेति - हे श्रम्ब ! सा त्वं उक्तरूपा दक्षिणपाणिना भूयांसि श्रेयांसि वितर उत्पादय । या त्वं निर्भरं सुन्दरं स्फटिकमणिसंभूतं सूत्रवलयं विभ्रती सती अन्तर्मध्ये स्वमेव आत्मीयमेव मन्त्रमयं अक्षरं जपसि, किं लक्षणमक्षरं प्रत्यक्षवृत्ति अक्षं क्षं प्रति
१. ग. सकलेश्वरि । २. ख यथा सौरिति । ३. ग. ४. ख. सा. एवं समासंघटना | ५. ख. ग. परोत्कृष्टा । ख. देहीत्यर्थः । ८. ख. स्फटिकमणिसदृशं धृतं ।
बीजविशेषोपधाने ।
६. ख. मे मह्यं इति विशेषः ।
६. ख. किम्भूतमक्षरं ।
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१२ ]
भुवनेश्वरीमहास्तोत्रम् वृत्तिर्वर्त्तनं यस्य तत् तथा । अथवा प्रत्यक्षा वृत्तिर्यस्य तत् प्रत्यक्षवृत्ति' किम्भूतमक्षसूत्रवलयं चूडाचन्द्रकलानिरन्तरगलत्पीयूपविन्दुश्रिया सन्देहोचितं चूडाचन्द्रकला शेखरीभूता या चन्द्रकला तस्याः सकाशात् निरन्तरं अविच्छिन्नं यथा भवति तथा गलन्तो ये पीयूषविन्दवः तेषां या श्रीः शोभा तया सन्देहोचितं अतिशुभ्रत्त्वात् तदनुरूपं तत्सदृशाकारमित्यर्थः ॥ १४ ॥
अथेदानी भगवत्या वामभुजध्यानमाहबद्ध्वा स्वस्तिकमासनं सितरुचिच्छेदावदातच्छवि
श्रेणीश्रीसुभगं भविष्णु सततं व्याजम्भमाणेऽम्बुजे । दीव्यन्तीमधिवासजानुरुचिरं न्यस्तेन हस्तेन तां
नित्यं पुस्तकधारणप्रणयिनों मेवे गिरामीश्वरीम् ॥ १५ ॥ वध्वेति-अहं नित्यं निरंतरं गिरामीश्वरी सेवे समाराधयामि', किम्भूतां गिरामीश्वरी हस्तेल पुस्तकधारणप्रणयिनी हस्तेन पाणिना पुस्तकधारणे प्रणयः स्नेहो यस्याः सा.. तथा ताम् । किम्भूतेन हस्तेन (अधि) वामजानु रुचिरं न्यस्तेन आरोपितेन किं कृत्वा ... स्वस्तिकं स्वस्तिकसंज्ञं आसनं वद्ध्वा, किम्भृतमासनं सितरुचिच्छेदावदातच्छविश्रीसुभगं .. सितरुचेः स्फटिकादेः यः छेदः भङ्गः तस्य या अवदातच्छविः उज्ज्वलता, तस्याः या श्रेणी तस्याः या श्रीः शोभा तया सुभगं मनोहरं, पुनः किम्भूतं भविष्णु भवनशीलं पुनः किम्भूतां गिरामीश्वरी सततं व्याजृम्भमाणेऽम्बुजे अधिदीव्यन्ती अधिकशोभायुक्ताम् ॥ १५ ।।
अथेदानी भगवत्या ध्यानस्य विशिष्टफलमाहतन्मे विश्वपथीनपीनविलसन्निःसीमसारस्वत
स्रोतोवीचिविचित्रभङ्गिसुभगा विभ्राजतां भारती। यामाकर्ण्य विघूर्णमानमनसः प्रेढोलितैौलिभि
मौलद्भिनयनाञ्चलैः सुमनसो निन्देयुरिन्दोकलाम् ॥१६॥ १. ख. तत् तथा। २. ल. तत् सशमित्यर्थः। ३. ख. व्याजृम्भमाणे भुजे । ४. ग. वाचामधिदेवतां वागीश्वरी । ५. स. सम्यक् आराधयामि । ६. ख. श्रेणी । ७. ख. उज्ज्वलतरकान्तिः ग. उज्ज्वलतरकान्तिपंक्तिः। ८. ख. दीव्यंतीं। ६. ख. तद् युक्तां। १०. ख. ग. परमेश्वर्याः । ११. ग. कलाः ।
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[ १३
- प्रबोधिनीटीकासहितम् तन्म इति-हे मातः तत् एवंविधात् तब ध्यानात्' मे मम भारती विभ्राजतां शोभतां, किम्भूता भारती विश्वपथीनपीनविलसन्निस्सीमसारस्वतस्रोतोवीचिविचित्रभङ्गिसुभगा विश्वपथं व्याप्नोतीति विश्वपथीनं यत् सर्वव्यापकं पीनं प्रौढ़ विलसत् क्रीडायुक्तं निस्सीमं सीमारहितं यत् सरस्वत्याः इदं सारस्वतं स्रोत: प्रवाहः तस्य वीचीनां याश्चित्रा भङ्गयः शोभाः तद्वत् सुभगा मनोहरा । यां भारतीमाकर्ण्य सुमनसो देवाः विद्वांसों वा इन्दोश्चन्द्रस्य कलां निन्देयुः । किम्भूताः सुमनसः विघूर्णमानमनसः विपूर्णमानानि मनांसि येषां ते तथा, कैः' नयनाश्चलैः मीलद्भिः अपरं कैः कृत्वा मौलिभिर्मस्तकैः किम्भूतैः तैःप्रेडखोलितैः चापलितैः अवधूनितरित्यर्थः ।। १६ ।।
__ अथेदानी परमेश्वर्या बीजत्रयस्य प्रकारान्तरेण जपविधानमाहआदौ वाग्भवमिन्दुबिन्दुमधुरं झान्ते च कामात्मकं
__ योगान्ते कषयोस्तृतीयमितिं ते बीजत्रयं ध्यायता। साई मातकया विलोमविषम संधाय बन्धच्छिदा
वाचान्तर्गतया महेश्वरि मयां मात्राशतं जप्यते ।। १७ ।। आदाविति-हे जननि ! हे महेश्वरि ! अन्तर्गतया वाचा मया मात्राशतं जप्यते । किम्भूतेन मया इति अमुना प्रकारेण वीजत्रयं विलोमविषम यथा भवति तथा मातृकया सह सन्धाय अनुवध्य ध्यायता चिन्तयता, इतीति किं आदौ अकारादौ इन्दुविन्दुमधुरं
इन्दुश्चन्द्रकला बिन्दुरनुस्वारस्ताभ्यां मनोहरं ताभ्यां सहितं वाग्भवं बीजं ऐं इत्यर्थः, .: च पुनः झान्ते झकारान्ते कामात्मकं क्लींकारं तदनु कषयोर्योगान्ते क्षकारस्यान्ते
तृतीयं शक्तिबीजं सौरिति तद्यथा ऐं अं अां ई ई ऊ ऋ ऋ लं लूं ए ऐ ओं औं अं अः क ख ग घ ङ च छ ज झ क्लीं बंट ठ ड ढ णं तं थं दं धं नं पं फं बंभ मं यं रं लं वं शं पं हं हं हं सौंः । प्रतिलोमतो यथा सौंः क्षं ळं हं सं पं शं वं लं रं
यं मं भं फंपंनं धंदं थं तं णं ढंड टं टं क्लीं मंजं छंचं डंधं गं खं कं . अंः अं औं ओं ऐं एं लंलं ऋ ऋ ऊ उं ई ई आं अं ऐं । पुनः किं भूतेन मया
बन्धच्छिदा वन्धः संसारः तं छिनत्तीति बन्धच्छित तेन तत् तथा ॥ १७ ॥
..... १. ख. एवं विधोत्तमध्यानात् । २. ख. विचित्रा। ३. 'खौं पुस्तके नास्ति ।
१. पाल्हादकराणि हर्षकराणि इति 'ग' पुस्तके विशेषः । ५. ख. तैः । ६. ग. चालितः, ७. ख. ग. भगवत्याः । ८. ख. ग, विषयं । ६. ख. विषयं । १०. ख. लींकाररूपं ।
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१४ ]
भुवनेश्वरीमहास्तोत्रम्
इदानीं भगवत्याराधनफलमाहतत्सारखतसार्वभौमपदवी सद्यो मम द्योततां
यत्राज्ञाविहितैर्महाकविशतैः स्फीतां गिरं चुम्यताम् । चैत्रोन्मीलित केलिकोकिल कुहूकारावताराश्चित
श्लाघासिञ्चित 'पञ्चमश्रुतिसमाहारोपि भारोपमः ॥ १८ ॥
तदिति-हे जननि ! तत् कारणात् सद्यः तत्कालं मम सारस्वत सार्वभौमपदवी द्योततां अपीति निश्चितं यत्र यस्यां सार्वभौमपदव्यां गिरं चुम्बतां वाणीं शृण्वतां पुरुषाणां एवं विधः श्रुतिसमाहारोपि भारोपमः स्यात्, एवमिति किं चैत्रोन्मीलितकेलिकोकिलकुहूकारावताराचितश्लाघासिश्चित पञ्चमश्रतिसमाहारः चैत्रे वसन्ते उन्मीलित केलयो ये कोकिलाः तेषां ये कुहूकारावताराः तैः श्विता प्राप्ता या श्लाघा स्तुतिः तया सिंचितो" वर्द्धितो यः पञ्चमश्रतिसमाहारः सोपि भाररूपो भवति । किम्भूतां गिरं महाकविशतैः स्फीतां प्रौढीकृतां किम्भूतैर्महाकविशतैः श्राज्ञाविहितैः महाप्रबन्धे आर्यादिच्छन्दसि यत्र गुरुर्विलोक्यते तत्र गुरुरेव यत्र लघुर्विलोक्यते तत्र लघुरेवेति या आज्ञा तया विहिताः प्रेरिताः तैः ॥ १८ ॥
७
इदानीं भगवत्या मन्त्रगर्भितं 'ध्यानान्तरमाहवाग्बीजं भुवनेश्वरीं वद वदेत्युच्चार्य वाग्वादिनी'
स्वाहा वर्णविशीर्णपातकभरां ध्यायामि नित्यां गिरम् । पुस्तक मत सूत्रवलयं व्याजृम्भमम्भोरुहं विभ्राणामरुणांशुभिः करतलैराविर्भवद्विभ्रमाम् ॥ १६ ॥
१३
वागिति–अहं नित्यां'' बागीश्वरीं ध्यायामि किं कृत्वा इति उच्चार्य इतीति किं. वाग्बीजं ऐंकारं भुवनेश्वरीं" हीकारं वद वद वाग्वादिनि स्वाहा इति । किम्भूतां गिरं वर्णविशीर्णपातकभरां वर्णैरिति मन्त्राक्षरैर्विशीर्णो दूरीकृतः पातकभरो यया सा तथा ताम् । पुनः किम्भूतां गिरं करतलैश्चतुर्भिः पाणितलैः बीणां पुस्तकं अक्षमूत्रवलयं
१. ख, ग, सञ्चित । ४. ग. पुंस्कोकिलाः । ७. ख. विहितैः प्रेरितैः । ११, ख. नित्यां गिरं । १२.
२. ग. सारस्वतसार्वभौमपदव्यां । ३. खतां । ५. ख. ग. सचितो ।
६. ख. भारोपमो ।
ग मन्त्रान्तर्गर्भितं । ६ ख वाग्वादिनि । १० ख. वीणां । 'मायावीज' इति 'ख' प्रतौ विशेषः | १३ ख चान्वादिनि ।
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प्रबोधिनीटीकासहितम्
[ १५
श्रम्भोरुहं च विभ्राणां दक्षिणाधः करक्रमेणात्र मन्तव्यम् | अधोदक्षिणकरेण वीणां वामाधः करेण पुस्तकं दक्षिणोदकरेण सूत्रं वामोर्ध्वरेणाम्भोरुहं दधानां, किम्भूतमम्भोरुहं व्याजृम्भं उत्फुल्लमित्यर्थः । किं विशिष्टैः करतलैः अरुणांशुभिः रक्तकान्तिभिः पुनः किम्भूतां गिरं आविर्भवद्विभ्रमां अविर्भवन् प्रकटीभवन् विभ्रमो . विलासो यस्याः सा तथा ताम् । सुकरतया मन्त्रो यथा ऐं ह्रीं वंद वद वाग्वादिनी' स्वाहा ।। १६ ।।
3
इदानीं भगवत्या जपध्यानतः फलमाहतन्मातः कृपया तरङ्गयतरां विद्याधिपत्यं मयि
ज्योत्स्ना सौरभ चौरकी र्तिकविता से व्यैक सिंहासनम् | कालाज्ञादि शिवावसानभवन" प्राग्भारकुक्षिं भरि
प्रज्ञाम्भः परिपाकपीवर परांऽनन्दप्रतिष्ठास्पदम् ॥ २० ॥ तन्मातरिति - हे मातः तत् तस्मात् कारणात् त्वज्जपध्यानतः मयि विषये विद्यानामाधिपत्यं तरङ्गयतरां अत्यर्थं प्रकटय कया कृपया अनुकम्पया किम्भूतं विद्याधिपत्यं ज्योत्स्नासौरभचौरकीर्त्तिकविता से व्यैकसिंहासनं ज्योत्स्ना चन्द्रिका तस्याः यत्सौरभं मनोहरत्त्वं तस्य या चौरवत् कीर्तिरेवंविधा या कविता एतावता चन्द्रिका सौन्दर्यसदृशा ' या कविता तया सेव्यं एक सिंहासनं यस्य तत् तथा पुनः किम्भूतं विद्याधिपत्यं कालाज्ञादिशिवावसानभवनप्राग्भार कुक्षिंभ रिप्रज्ञाम्भः परिपाकपीवरपराऽनन्दप्रतिष्ठास्पदं " कालस्य ईश्वरस्य यदाज्ञाप्रारम्भः अभ्यासः ज्ञानं चेति श्रादिशब्देनोपलभ्यते, शिवावसानमिति तत्त्वज्ञानप्राप्तिः कालाज्ञादि तदेव शिवावसानं तस्य यद्भवनं उत्पत्तिः" तस्य यः प्राग्भारः पूर्वस्थितिः तस्य यत् कुक्षिंभरिप्रज्ञाम्भः प्रज्ञाबहुलतरं ज्ञानोदकं तस्य यः परिपाकः परिणामः तस्य यः पीवरपराऽनन्दः पीनपराऽनन्दः तस्य या प्रतिष्ठा संस्था तस्या: आस्पदं स्थानम् ॥ २० ॥
१ 'ख' पुस्तके श्रयं न ।
.
२. ख वाग्वादिनि । ३. ख, ग, मन्त्रजपध्यानतः । ४. ख, कालाग्न्यादि । ५. ख भुवन । ६. ख, ग, विद्यानामधिपतित्वं ।
७. ग. घटय ८. ख. ग. सदृशी । ६. यद्वा कीर्तिकवितयोर्द्वन्द्वः इति 'ग' पुस्तके विशेषः । १०, ख, कालाग्निः प्रलयरुद्रः स श्रादिर्यस्य तथा शिवः श्रवसानं विरामस्थानं यस्य भुवनस्य अनेन शिवस्य पञ्चकृत्यता कथिता एवंविधस्य भुवनस्य यः प्राग्भारः भरणरूपा या प्रास्थितिः विष्णुधर्मः पालनतेत्यर्थः तस्य प्राग्भतुः विष्णोर्या कुभिरिता प्रज्ञा सैवाम्भः उदकं तस्य यः परिपाकः परिणामावस्था तस्य यः पीवरानन्दः तस्य या प्रतिष्ठा तस्याः "श्रास्पदं स्थानम् । ११. ग. उपपत्तिः ।
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[ १६
भुवनेश्वरीमहास्तोत्रम्
इदानीं भगवत्या बोजस्थानान्तर फलञ्च' वृत्तयुगले नाह— लेखाभिस्तु हिनद्युतेरिव कृतं वाग्बीजमुच्चैः स्फुरत् ताराकारकरालविन्दुपरितो माया त्रिधा वेष्टितम् । पूर्णेन्दोरुदरे तदेतदखिलं पीयूष गौराक्षरं
स्रोतः संभ्रमसंभृतं स्मरतिं यो जिह्वाञ्चले निश्चलः ॥ २१ ॥
तस्य त्वत्करुणाकटाक्षकणिकासंक्रान्तिमात्रादपि
स्वान्ते शान्तिमुपैति दीर्घजडता जाग्रद्विकाराग्रणीः । तस्मादाशु जगत्त्रयाद्भुतर साद्वैत प्रतीतिप्रदं
सौरभ्यं परमभ्युदेति वदनाम्भोजे गिरां विभ्रमैः ॥ २२ ॥
लेखेति-हे मातः यः पुमान् वाग्बीजं ऐंकारं तुहिनद्युतेश्चन्द्रमसो लेखाभिः कृतमिव पुनः उच्चैरुपरि स्फुरत् यः तारायाः आकारवत् करालो मनोहरो यो बिन्दुः अनुखारों यस्य तत् तथा ततः परितो मायात्रिधावेष्टितं परितः समन्ताद्भावेन मायया मायावीजेन लोमप्रतिलोमतो हि त्रिधा त्रिप्रकारं वेष्टितं ततस्तदेतत् अखिलं समग्र पूर्णेन्दोरुदरे सम्पूर्णचन्द्रमध्ये पीयूपगौराक्षरं अमृतधवलवर्ण अपरं स्रोतः संभ्रमसंभृतं स्रोतः प्रवाहः तस्य संभ्रमो विलासः तेन संभृतं व्याप्तं स्तिमितो निश्चलः सन् जिह्वाश्वले रसनाग्रे स्मरति ध्यायति तस्य पुरुषस्य अपि निश्चितं स्वान्ते मानसे दीर्घजडता शान्ति नाशं उपैति कस्मात् तस्य त्वत्करुणाकटाक्षकणिकासंक्रांतिमात्रात् त्वत्करुणाकटाक्षवीक्षणमात्रात्, किंम्भूता दीर्घजडता जाग्रद्विकाराग्रणी : जाग्रतोऽपि उद्बोधरूपा ये विकाराः विकृतयः " तेषां मध्ये अग्रणीः अग्रेसरः इत्यर्थः । तस्मादित्युपसंहारे । आशु शीघ्र बदनाम्भोजे मुखकमले परं उत्कृष्टं सौरभ्यं अभ्युदेति उदयं प्राप्नोति । किं गिरां विभ्रमैः वाचां विलासः किम्भूतं सौरभ्यं जगत्त्रयाद्भुतरसाद्वै तप्रतीतिप्रदं जगत्त्रयस्य श्रद्भुतरसः तस्य अद्वैतप्रतीतिः अद्वितीयज्ञानं तां प्रददातीति तत् तथा अथवा जगत्त्रयाद्भुतरसाद्वै तप्रतीतिप्रदैरिति वा पाठान्तरे गिरां विभ्रमैरित्यस्य पदस्य विशेषणं भवितुमर्हति ॥ २२ ॥
५
१. ख. बीजस्थानं तत् फलं च । २. ग. प्रदेः । ३. ख. त्रिःप्रकारेण ।
४. ख, ग पूर्णचन्द्रमध्ये | २. अनाचाराः, इति 'ग' प्रतौ विशेषः ।
६. सुन्दरत्वमिति ग. प्रतौ विशेषः । ७. ख. ग. कैः । ८. ख. तत् । ६, ख, विशेषणी ।
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प्रबोधिनी टीकासहितम्
अथेदानी भगवत्या वृत्तयेन मातृकामयं शरीरावयवमाह'आयो मौलिरथापरो मुखमिई नेत्रे च कर्णावुक
नासा वंशपुढे ऋऋ तदनुजौ वर्णौ कपोलद्वयम् । दन्ताचोर्ध्व मधस्तथैौष्ठयुगलं सन्ध्यक्षराणि क्रमात् जिह्वामूलमुदग्रबिन्दुरपि च ग्रीवा विसर्गी खरः ॥ २३ ॥ कादिर्दक्षिणतो भुजस्तदितरो वर्गश्च वामो भुजष्टादिस्तादिरनुक्रमेण चरणौ कुक्षिद्वयं ते पफौ । वंशः पृष्ठभवोऽथ नाभिहृदये बादित्रयं धातवो
२
3
याद्याः सप्तसमीरणश्च सपरः क्षः क्रोध इत्यम्बिके ।। २४ ।। इति-अम्बिके ! ते तव आद्यः प्रकारः मौलिः शिरः अथ अपर : आकारः मुखम् । च पुनः इई नेत्रे नेत्रद्वयम् । उऊ कर्णौ ऋऋ नासावंशपुटे इति नासावंशपुटद्वयम् । तदनुजौ तयोरनुजौ लृकारतृकारौ कपोलद्वयम् । ऊर्ध्वमथो दन्तास्तंयोर्ध्वाधोष्ठयुगलं क्रमात् सन्ध्यक्षराणि एकारादीनि एऐ ऊर्ध्वाधो दन्ताः उऊ ऊर्ध्वाधः ष्टयुगलं तदग्रविन्दुः " अंकारः जिह्वामूलम् । अपरः विसर्गी स्वरः ' तवं ग्रीवा ।। २३ ।
१०
कादिः क ख ग घ ङ इत्येवं रूपं तव दक्षिणो भुजः दक्षिणत इत्यत्र तसः' सार्वविभक्तिकत्वात् प्रथमायां निर्देशः । तदितरो वर्गः चवर्गः च छ ज झ न इत्येवंरूपो वामो भुजः, टादिष्टवर्गः तादिस्तवर्गः इत्यनुक्रमेण ते तव दक्षिणवामचरणौ ट ठ ड ढ ण इत्येवंरूपो दक्षिणः चरणः त थ द ध न इत्येवंरूपो वामचरणः । हे मातः ते तव कुंचिद्वयं पफौ पकारफकारी दक्षिण कुक्षिः पकारः वामकुक्षिः फकारः । अथ वादित्रयं व भ स इतित्रयं पृष्ठभवो वंशः नाभिहृदये वंशः पृष्ठभवः वकारः नाभिर्भकारः हृदयं मकारः, धातवो याद्याः सप्त याद्या इति य र ल व श ष स इत्येवंरूपास्तव सप्तधातवो भवन्ति । त्वगसृङ्मांसमेदास्थिमज्जाशुक्राणि । आधारलिङ्गनाभिहृदयमुखभ्रूमध्य शिरः इति सप्त च पुनः सपरो हकारः समीरणः प्राणः तालुः । हे जननि तः तकारः तव क्रोधो ब्रह्मरन्ध्रमिति ॥ २४ ॥
१२
2
[ १७
१ ख शरीरमाह । - २. ख वर्गस्तु । ५. ख. लृलुकारौ । ६. ख. श्रोथौ । ६. ख. 'दक्षिणतो । १०. ख. तस् । १३. ख. तालु च ।
३. याद्यः । ४. ख. तयोरनुजातौ । ७. ग. उदग्रविन्दुः ।
८. ख. अः । ११. क रस । १२. ख. याद्याः ।
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१८]
भुवनेश्वरीमहास्तोत्रम् .... अथ' भगवत्या वर्णमयशरीरस्य भजनफलमाह - एवं वर्णमयं वपुस्तव शिवे लोकत्रय व्यापकं
योऽहंभावनया भजत्यवयवेष्वारोपितैरक्षरैः। सूर्तीभूय दिवावसान कमलाकारैः शिरः शायिभि
स्तं विद्याः समुपासते करतलैष्टिप्रसादोत्सुकाः ॥ २५ ॥ एवमिति-हे शिवे ! एवं अमुना प्रकारेण यः पुमान् तब वर्णमयं वपुलॊकत्रयव्यापकं .. भजति आश्रयति कया कृत्त्वा अवयवेषु शरीरावयवेषु आरोपितैः अक्षरैः अहंभावनया अहमेव वर्णमय इति मत्वा तं पुरुषं विद्याश्चतुर्दश विद्याः मूर्तीभूय मूर्तिरूपा भूत्वा करतलैः समुपासते, किम्भूताः विद्याः दृष्टिप्रसादोत्सुका: इयमस्मासु दृष्टया प्रसाद करिष्यतीत्युत्सुकाः । शिरःशायिभिः शिरःसन्निविष्टैः, पुनः किम्भूतैः दिवावसानकमलाकारैः दिवावसाने सायं समये कमलाकारा इव आकाराः प्राकृतयो येषां ते तथा तैः मुकुलाकृतरित्यर्थः ॥ २५ ॥ ... ...
. अथ भगवत्या ध्याने फलान्तरमाह-- ......... ये जानन्ति जपन्ति सन्ततममिध्यायन्ति गायन्ति वा . तेषामास्यमुपास्यते मृदुपदन्यासर्विलासैनिराम् । किं च क्रीडति भूर्भुवःस्वरभितः श्रीचन्दनस्यन्दिनी
कीर्तिः कार्तिकरात्रिकैरवसभासौभाग्यशोभाकरी ॥२६॥ य इति-हे जननि ये पुरुषाः एवं विधं ते तव वर्णमयं वपुर्जानन्ति अथवा यजन्ति' सततमभिध्यायन्ति वा अथवा गायन्ति वा तेषामास्यं तेषां पुरुषाणां प्रास्यं मुखं गिरा ... विलासैः वाचां विलसनैः उपास्यते किम्भूतैः गिरां विलासैः मृदुपदन्यासैः कोमलपद-... विरचनैः न केवलं तदेव भवति किं च तेषां पुरुषाणां भूर्भुवः स्वरभितः भूर्लोक "मभिव्याप्य कीर्तिः क्रीडति किम्भूता कीर्तिः कार्तिकरात्रिकैरवसभासौभाग्यशोभाकरी : कार्तिकस्य रात्रौ यः कैरवसमुदायः तस्य सौभाग्यशोभा सुन्दरकान्तिः तां करोतीति. तथा, पुनः किम्भूता श्रीचन्दनस्यन्दिनी श्रीचन्दनं अमृतं इव स्यंदनमिति'२ ॥ २६ ॥
१. ख. इति । २ ख. भजनमाह । ३. ग. लोकत्रये । . ४. ग. दिनावसान । ५. ग. स्थायिभिः । ६. ख. अयमस्मासु । ७. ख. मुकुलाकृतिमिरित्यर्थः । ८. ख. इदानीं । ६. ख. ध्यानेन । १०. ख, जपन्ति । .... ११. ख. भूर्लोकादि; ग. भूलोकं भुवलॊकं स्वलोकमभिव्याप्य । १२. ख: स्यंदत इति;
ग. श्रीचन्दनममृतद्रवं स्यन्दते स्रवति सा तथा ।
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प्रबोधिनीटीकासहितम्
इदानीं ' विशिष्टवर्णमयवपु र्ध्यानान्तरेण फलान्तरमाह
मायाबीजविदर्भितं पुनरिदं श्रीकूर्मचक्रोदितं दीपाम्नायविदो जपन्ति खलु ये तेषां नरेन्द्राः सदा । सेवन्ते चरणौ किरीटवल भीविश्रान्तरत्नाङ्कुर
ज्योत्स्ना मेदुरमेदिनीतल रजोमिश्राङ्गरागश्रियः ॥ २७ ॥
मायेति - हे जननि ! पुनरिदं तव वर्णमयं वपुः मायाबीजविदर्भितं मायावीजेन गुम्फितं तत् पुनश्च श्रीकूर्मचक्रोदितं ये जनाः दीपाम्नायविदः सततं जपन्ति खलु निश्चयेन तेषां पुरुषाणां सदा नित्यं नरेन्द्राः राजानः चरणौ सेवन्ते, किम्भूताः नरेन्द्राः किरीटवलभी विश्रान्तरत्नाङ्कुरज्योत्स्नामे दुरमेदिनीतल रजोमिश्राङ्गरागश्रियः किरीटानां मुकुटानां वलभ्यः किञ्चिदुच्चैरं कुराकृतयः तत्र विश्रान्तानि निविष्टानि यानि रत्नानि तेषां अंकुरा: ज्योत्स्नाकिरण कान्तिः तथा मेदुरं सुस्निग्धं दीप्तिसंयुक्तं यत् मेदिनीतलरजः महीतल रेणुः तेन मिश्रा अङ्गरागश्रीर्येषां ते तथा । दीपाम्नाय इति अष्टकोष्ठानालिख्य सृष्टिक्रमेणैव कोष्ठे कोष्ठे खराणां अकारादीनां द्वन्द्वमालिख्य ततः कादीन् समुदायरूपान् वर्णानालिख्य च यत्र कोष्ठे स्थानाधिपतेर्ग्रामाधिष्ठातृदेवतायाः नाम्नः प्रथमाक्षरं यत्र भवति तत्र तत्र देशे भूत्वा मायाबीजविदर्भितं मायाबीजेन ह्रींकारेण गुम्फितं मातृकामयं " वपुः शरीरं जपन्ति ते दीपानायविद उच्यन्ते तथा चोक्तम्
१०
[ १६
द्वन्द्व' स्वराणां विलिखेच्च पूर्व, कादींस्तथा वर्णसमूहरूपान् । स्थानाधिपस्याक्षरमस्ति यत्र, तं दीपदेशं मुनयो वदन्ति ॥
इदानीं भगवत्याः पुनर्वर्णमयशरीरस्य प्रकारान्तरतो ध्यानान्तरेण फलान्तरमाह
श्रीबीजं सकलाक्षरादिषु पुनः क्रोधातरान्ते भवे
१२
देवं यो भजते च ते तनुमिमां तस्याऽग्रतो जाग्रती ।
१ ख श्रथ । २. ख, वपुपो । ३. ख. सत् । ४. ख. ग. श्रीकूर्मचक्रे उदितं । ५. ख, सन्तो । ६, ख सन्निविष्टानि । ७ ख कोष्टेषु । ८ ख स्वरानकारादीनालिख्य । ६. ख. ग. ग्रामाधिष्ठान देवतायाः । १०. ख. विदर्भ क्रमेण युतं । ११. ख, मायामयं । १२. ख, ग, भजतेऽम्ब ! ते ।
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२०]
भुवनेश्वरीमहास्तोत्रम् लक्ष्मीः सिन्धुरदानगन्धलहरीलोभान्धपुष्पन्धय
श्रेणीबन्धुरश्रृङ्खलानियमितेवापैति नैव क्वचित् ।। २८ ।। श्रीवीजमिति-हे अम्ब ! सकलाक्षराणां अकारादीनां वर्णानामादिषु प्रथमं श्रीवीजं श्री इति रूपं पुनश्च क्रोधाक्षरान्ते' श्रीवीजं भवेत् एवं अमुना प्रकारेण यः पुमान् ते तव - इमां तनुं श्रीं अं श्रीं श्रीं इं श्री ई श्रीं इति क्षपर्यन्तं श्रीबीजेन गुम्फितं मातृकामयं शरीरं यो भजते तस्य पुरुषस्याग्रतः लक्ष्मीः पद्मालया जाग्रती विनिद्रा सती ... क्वचिदपि अन्यप्रदेशे नैवापयाति । किम्भूता लक्ष्मीः उत्प्रेक्ष्यते सिन्धुरदानगन्धलहरी नियमिता इव परिमलस्फुरणं तत्र यो लोभो ग्रहणमतिः तेन अन्धाः व्याकुलाः विलोला या पुष्पन्धयश्रेणी भ्रमरपंक्तिः सैव वन्धुरा मनोहरा शृङ्खला तया नियमिता इव वद्धा इव ।। २८ ।।
अथेदानी भगवत्या ध्यानान्तरेण पुनश्च फलान्तरमाह-- यस्त्वां विदुरुमपल्लवद्रवमयी लेखामिवालोहिता
मात्मानं परितः स्फुरत्नवलयां मायामभिध्यायति । तस्मै निन्दितचन्दनेन्दुकदलीकान्तारहारस्रजो
निश्वासभ्रमवाष्पदाहगहना मूर्च्छन्ति तास्तास्त्रियः ॥२६॥
य इति-हे जननि ! आत्मानं परितः आत्मनः समीपे त्वां विद्रुमपल्लवद्रवमयीं। प्रबालाङ्कुरप्रसरणस्वरूपां श्रासमन्तात् लोहितां रक्तां लेखामिव स्फुरत्त्रिवलयां मायां..... ह्रींकाररूपां उल्लसत्रिकोणगतां अभिध्यायति तस्मै तस्य पुरुषस्यार्थे तास्ताः सकलगुणलक्षणसम्पन्नाः स्त्रियो मूर्च्छन्ति मोहं प्राप्नुवन्ति, किम्भूताः स्त्रियः ..
१. ख, ग, क्षकारान्ते । २. श्री अं श्रीं श्रां श्रीं इं श्री ई श्रीं श्रीं ऊं श्री ऋ श्री ऋ" ...
श्री लु श्री श्री एं श्रीं ऐं श्रीं श्रों श्रीं श्रौं श्री अं श्रीं श्रः श्रीं कं श्री खं श्रीं गं श्रीं धं..... श्री ढं श्री चं श्री छं श्रीं श्रीं ॐ श्रीं श्रीं टं श्री ठं श्री डं श्रीं श्रीं णं श्रीं तं श्री थं ... 'श्री दं श्रीं धं श्री नं श्रीं पं श्रीं फं श्रीं वं श्रीं भं श्रीं मं श्रीं यं श्री रं श्री लं श्रीं वं श्रीं शं : ...
श्री पं श्रीं सं श्री हं श्रीं ॐ श्रीं क्षं श्रीं । ३. ख. प्रदेशं । ४. ख. नैवापैति । ....." ५. ख. उप्रेक्षते । . ६. ख. सिन्धुराणां गनेन्द्राणां यहानं मदं तत्य या गन्धलहरी । . . : .. ७. ख. ग्रहणमिति । ८. यथा अन्योऽपि कश्चित् बद्धः सन् नान्यत्र अपैति तद्वत् इति
'ग' पुस्तके विशेषः । . यद्वा प्रवालाङ्कुराणां द्रवो रसः तन्निर्मितमिति 'ग' पुस्तके विशेषः। १०. ख. त्रिकोणमध्यगां यः । ।
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. [ २१
..... प्रबोधिनीटीकासहितम् - निन्दितचन्दनेन्दुकदलीकान्तारहारस्रजः' निन्दिताः चन्दनेन्दुकदलीकान्तारहारस्रजो . . याभिस्ताः तथा । अपरं किम्भूताः स्त्रियः निश्वासभ्रमबाष्पदाहगहनाः निश्वासभ्रमेण निश्वासचलनेन मोचनेन यो वाष्पः ऊष्मा स एव दाहः तेन गहनाः व्याकुलाः ॥२६॥
इदानीं भगवत्याः पुनानान्तरेण फलान्तरमाहमातः श्रीभगमालिनीत्यभिधया दिव्यागमोत्तंसितां - त्वामानन्दमयीमनुस्मरति यस्तं नाम वामभ्रवः । बाहुस्वस्तिकपीडितै स्तनतटैर्दैन्याञ्चितैश्चाटुभि
नीरन्धैः पुलकांकुलै मुकुलितैयायन्ति नेत्राञ्चलैः ॥ ३० ॥
मातरिति-नाम इति सम्बोधने हे मातः ! यः पुमान् भगमालिनी त्यभिधयाऐं ह्रीं ... आनन्दमयी भगमालिनि स्वाहेति त्वां दिव्यागमोत्तंसितां दिव्यागमें उत्तंसितां ... शेखरीकृतां त्वां आनन्दमयीमानन्दस्वरूपां अनुस्मरति अनुचिन्तयति तं पुरुष
वामभ्रुवो वरवर्णिन्यः ध्यायन्ति, कैः स्तनतटैः किम्भूतैः बाहुस्वस्तिकपीडितैः बाहुस्वस्तिकेन दोर्दण्डमण्डलेन पीडितैः, पुनः किम्भूतैः स्तनतटैः पुलकांकुरैः, अपरं कैः चाटुभिः प्रियवचनैः किम्भूतैश्चाटुभिः दैन्याञ्चितैः अहं तव दासी भवामीति दैन्यसहितः,
पुनः कैः नेत्राञ्चलैः१० नियमितैः तदवलोकनादि[ना न्यनिरीक्षणे'' विषयीकृतैः१२ ... तदवलोकनतत्परित्यर्थः ।। ३० ।।
अथ पुनरिदानीं ध्यानान्तरेण फलान्तरमाह वृत्तयुगलेन
यस्त्वां ध्यायति रागसागरतरत्सिन्दूरनौकान्तर.... स्वैरोजागरपद्मरागनलिनीपुष्पासनाध्यासिनीम् । बालादित्यसपत्नरत्नरुचिर प्रत्याभूषारुचि
श्रेणीसम्मिलिताङ्ग"रागवसनास्तस्य स्मरन्त्यङ्गनाः ॥३१॥ १. चन्दनश्च इन्दुश्च कदलीकान्तारं कदलीवनञ्च हारस्रजश्च, इति 'ग' प्रती विशेषः । २. यद् वा निश्वासानां भ्रम श्रावतः बाप्पान्यभूणि दाहोन्तर्बहिस्सन्तापश्च तैर्गहनाः व्याकुलाः
इति 'ग' प्रतौ विशेषः। ३. ख, ग, पुलकांकुरैः। ४. ख. प्रसिद्वौ।। ५. ख. श्रीभगमालिनी। ६. ख. आनन्दमयि । . ७. ग. शेवागमे रुद्रयामलादी। ८. ख. स्वस्तिकाकृतिबाहुमण्डलेन । ६. ख. रोमाञ्चितैः । १०. ग, नयनप्रान्तः ___ कटाक्ष रित्यर्थः किम्भूतैः नीरंधेः निश्चलैः चलनक्रियारहितैः पुनः। ११. ख. ग. तदवलोकनादन्यनिरीक्षणे । १२. ख. निविपयीकृतैः; ग. अविषयीकृतैः । १३. 'ख' पुस्तके पद्य इमे पार्थक्येन व्याख्याते स्तः। १४. ख, रचित । १५. स. ग. संवलिताङ्ग ।
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२२]
भुवनेश्वरीमहास्तोत्रम् करं कुमुदाकरं कमलिनीपत्रं कलाकौशलं.
कूजत्कोकिलकामिनीकुलकुहूकल्लोलकोलाहलम् । शङ्कन्ते प्रलयानलस्मरमहापस्मारवेगातुराः .
कम्पन्ते निपतन्ति हन्त न गिरं मुञ्चन्ति शोचन्ति च ॥३२॥ य इति-हे अम्ब ! यः पुमान् त्वां रागसागरतरत्सिन्दूरनौकान्तरस्वैरोज्जागरपद्मरागनलिनीपुष्पासनाध्यासिनी रागसागरे शोणसमुद्रे तरन्ती या सिन्दूरनौका तस्याः अन्तरे मध्ये स्वैरं स्वेच्छया उज्जागरं विकसितं यत्पद्मरागसदृशं नलिनीपुष्पं कमलिनीकुसुमं तदेवासनं अध्यास्ते इति तथा तां एवंविधां त्वां यो ध्यायति तस्य पुरुषस्य अङ्गनाः सुन्दर्यः स्मरन्त्यः सत्यः' कर्पूरं शङ्कन्ते न केवलं. कर्पूरमेव निन्दन्ति किं च कुमुदाकरं कुमुदश्रेणी किं तदेव कमलिनीपत्रं पुनः किं कलाकौशलं कलानां नैपुण्यं न केवलमिदमेव किं च कूजत्कोकिलकामिनीकुलकुहूकल्लोलकोलाहलं कूजत् अव्यक्तशब्दायमानं यत्कोकिलकामिनीकुलं कलकण्ठीवृन्दं तस्य यः कुहूकल्लोलकोलाहलः, कुहूशब्दोचारेण भवत्पुनः पुनः पुनारायः तं अङ्गनाः पुनः किं कुर्वन्ति ..... प्रलयानलस्मरमहापस्मारवेगाकुलाः' कम्पन्ते प्रलयकालीनो यः अनलो वैश्वानरः । स एव स्मरः तस्य यो महापस्मारसदृशो वेगः तेन आतुराः पीडिताः सत्यो वेपथु कुर्वन्ति, हन्त इति खेदे निपतन्ति च निःशेषेण वसुन्धरायां पतन्ति पुनर्गिरं वाचं न मुश्चन्ति नोंदीरयन्ति च पुनर्लब्धसंज्ञाः सत्यः शोचन्ति स न मिलित इति कारणात् अन्योपि योपस्मारवेगातुरो भवति सः कम्पते निपतति गिरं न मुञ्चति पुनश्च लब्धसंज्ञो भूत्वा किमिदमेनो मया कृतमिति येन ममापस्मारसदृशो व्याधिरुत्पन्न इति । किम्भूताः अङ्गनाः बालादित्यसपत्नरतरुचिरप्रत्यङ्गभूषारुचिश्रेणीसम्मिलिताङ्गरागव-- . .. सनाः बालादित्यसपत्नानि तेनारुण किरणांकुरनिकरैः वालादित्यं प्रथममुदयंकुर्वाणं ..... रविं सपत्नयन्ति' द्विपन्ति इति वालादित्यसपत्नानि यानि रत्नानि तैः रचिताः निर्मिताः याः प्रत्यङ्गभूपाः सकलाङ्गनाः १ तासां या रुचयः श्रेण्यः१२ कान्तिपंक्तयः ताभिः सम्मिलितानि मिश्राणि अङ्गरागवसनानि" यासां ताः तथा ॥ ३२॥ .....
१. ख, कमलिनीपुप्पं । २. तं प्राप्नुवन्तीत्यर्थः 'किम्भूताः अङ्गानाः बालादित्य "वसनाः...' __ तदनेऽवलोकनीयम् । ३. ख. निन्दन्ति । ४. ख. कुहूशब्दोच्चारणेन । ... ५. ख. वेगातुराः। ६. ग. अग्निः । ७. ख. ग. वसुधां यान्ति । ८. ख. शोचति । १. ग. निजारुण । १०. ख. सपन्ति । ११. ख. ग. सकलाङ्गशोभाः । ५२. ख. ग. रुचिश्रेण्यः १३. ख. कान्तिपरम्पराः । १४. ख. ग. संवलितानि । १५. ख. ग. अङ्गरागो वसनानि च । . ... १६. ख, तस्येति कर्मणि पष्टी। ग. यद् वा द्वितीया प्रथमान्तत्वे देव्याः विशेषणम् ।
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प्रबोधिनीटीकासहितम्
[२३ अथेदानी भगवत्या मृत्युञ्जयमन्त्राराधनमाह'श्रीमृत्युञ्जयनामधेयभगवञ्चैतन्यचन्द्रात्मिके
..हींकारि' प्रथमातमांसि दलय त्वं हंससंजीविनि। . जीवं प्राणविजृम्भमाणहृदयग्रन्थिस्थितं से कुरु
- त्वां सेवे निजबोधलाभरभसा स्वाहाभुजामीश्वरीम् ॥३३॥ . श्रीति-हे मृत्युञ्जयनामधेयभगवञ्चैतन्यचन्द्रात्मिके ! हेहीकारि ! हे हंससञ्जीविनि' अहं निजबोधलाभरभसा स्वज्ञानप्राप्तिरभसत्वेन हर्षेण त्वां स्वाहाभुजां देवानामीश्वरीम् सेवे आश्रये ! अतः कारणात् त्वं मे मम प्रथमातमांसि पूर्वाणि अज्ञानादीनि दलय विदारय । प्रथमातमासीत्यत्र छन्दसि डिश्योर्वा लोप इति शिलोपः चकारोऽत्राध्याहर्त्तव्यः । च पुनः मम जीवं प्राणविजृम्भमाणहृदयग्रन्थिस्थितं प्राणवायुना विजृम्भमाण उत्फुल्लितो यो हृदयग्रन्थिः तत्र स्थितं आश्रितं कुरु ।' मृत्युञ्जयमनुर्यथा ॐ श्रीं ह्रीं मृत्युञ्जये भगवति चैतन्यचन्द्रे हंससंजीविनि स्वाहेति ॥ ३३॥
इदानीं मृत्युञ्जयनाम ध्यानमाह"एवं त्वाममृतेश्वरीमनुदिनं राकानिशाकामुक
स्वान्ते" सन्ततभासमानवपुर्ष साक्षाद्यजन्ते तु ये । - ते मृत्योः कवलीकृतत्रिभुवनाभोगस्य मौलौ पदं
दत्त्वा भोगमहोदधौ निरवधि क्रीडन्ति तैस्तैः सुखैः॥३४॥
१. ग. मनुनाऽराधनमाह । २. ग. हींकार । ३. ग. संजीवनि । ४. ग, मृत्युञ्जय इति - नामधेयं यस्या ईदृशी भगवतः शम्भोश्चैतन्यमेव चन्द्रिका प्रकाशकत्वात् तत्सरूपे । ५. ग. हे हंससंजीवनि ! हंसं निर्गुणं ब्रह्म जीवयति जीवाऽभिधं सम्पादयति तस्याः सम्बोधनम् । ६. यतः चन्द्रास्मिका हीकारः प्रथमो यस्याः सा एवं भूता स्वं मम तमांस्यज्ञानानि, हीकारि
प्रथमातमांसीति पाठे शिलोपः। ७. ख. यद्वा प्रथमे आये अत्र कोपि न दोपः । ८. मृत्युञ्जयमन्त्रोद्धारपक्षेतु श्रीमृत्युञ्जये इति नामधेये भगवच्छब्दारिमके ततश्चैतन्यचन्द्रशब्दात्मिके
हीकारः प्रथमादक्षरात् श्रीकारोत्तरो यत्र स्वाहाशब्दः भुजो यस्याः भक्तदत्तव्यग्रहणाय
तद्वान्छितदानाय च । १, 'ख' पुस्तके प्रणवो नास्ति मंत्रेऽस्मिन् । १०. ख. ग. परमेश्वर्या मृत्युञ्जयस्य फलमाह । ११. ग. स्यान्तः संतत......
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२४]
भुवनेश्वरीमहास्तोत्रम् एवमिति-हे मातः ! ते पुरुषाः मृत्योः कृतान्तस्य' कवलीकृतत्रिभुवनाभोगस्य .. कवलीकृतं ग्रासीकृतं यत् त्रिभुवनं तस्य आसमन्ताद्भावेन भोगो यस्य तथा तस्य, ते के तु पुनः ये पुरुषाः एवं विधां पूर्वलक्षणां अमृतेश्वरी मोक्षदात्री त्वां साक्षात् अनुदिनं निरन्तरं यजन्ते, किस्मृतां त्वां राकानिशाकामुकस्यान्ते सन्ततभासमानवपुपं राकायाः । पूर्णिमायाः निशाझाकस्य चन्द्रस्य अन्तः मध्ये सततं भासमानं वपुः शरीरं । यस्याः सा तथा ताम् ।। ३४ ।।
इदानी परमेश्वर्या मृत्युञ्जयमनोनिमाहजाग्रद्बोधसुधामयूखनिचयैराप्लाव्य सर्वा दिशो.
यस्याः कापि कला कलङ्करहिता षट्चक्रमांकामति । दैन्यध्वान्तविदारणैकचतुरा वाचं परां तन्वती ..
सा नित्या भुवनेश्वरी विहरतां हंसीव मन्मानसे ।। ३५ ॥ जाग्रदिति-सा नित्या चिद्रूपा भुवनेश्वरी ह्रींकाररूपा मन्मानसे मदीये चित्ते विहरतां क्रीडतां, केव हंसीव यथा हंसी मानसे सरसि विहरति तथा सा का यस्याः भुवनेश्वर्याः कलङ्करहिता कापि कला तुरीयावस्था पट्चक्रमाक्रामति षट्चक्राणि विभिद्य सद्य ... उदिता भवति, किं कृत्वा सर्वाः दिशः आप्लाव्य व्याप्य कै जाग्रद्बोधसुधामयूखनिचयैः जाग्रत् जाग्रदरूपो यो बोधो ज्ञानं सैव सुधा तस्याः ये मयूखनिचयाः किरणसमूहाः तैः । किम्भूता कला दैन्यध्वान्तविदारणैकचतुरा दैन्यमज्ञानं तदेव ध्वान्तं .. गाढान्धकारं तद्विदारणे तन्निराकरणे एकचतुरा एका प्रवीणा, पुनः किम्भूता कला : परां वाचं तन्वती पराभिधां वाणीं तन्वती विस्तारयन्ती ॥ ३५ ॥ .......
- इदानी परमेश्वर्या अनन्यपरत्वेनाहत्वं मातापितरौ त्वमेव सुहृदस्त्वं भ्रातरस्त्वं सखा
त्वं विद्या त्वमुदारकीर्तिचरितं त्वं भाग्यमत्यद्भुतम् । किम्भूयः सकलं त्वमीहितमिति ज्ञात्वा कृपाकोमले - श्रीविश्वेश्वरि संप्रसीद शरणं मातः परं नास्ति मे ॥ ३६ ॥
१. ख. मौलौ शिरसि वामं पादं दत्वा भोगसागरे तैत्तैः धनकलत्रपुत्रंहयराजमानादिभिः ..... ___ सुखैः निरवधि यथा भवति तथा क्रीडन्ति विलसन्ति किम्भूतस्य मृत्योः कंवलीकृत
त्रिभुवनाभोगस्य.........। २. ख. पूर्वोक्तलक्षणां । ३. ख. यजन्ति । ..... . ख. इन्दोः। ५. ख. मृत्युञ्जयनाम ध्यानमाह; ग, मृत्युञ्जयमनोर्ध्यानमाह । ...
६. ख. क्रीडां कुरुवाम्, ग. करोतु । ...
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प्रबोधिनीटीकासहितम्
[ २५
हे मातः हे कृपाकोमले, हे ' विश्वेश्वरि संप्रसीद सम्यक् प्रसादं कुरु यतो मे मम वत्तः परं अन्यत् किमपि शरणं नास्ति । किंकृत्वा इति ज्ञात्वा इतीति किं हे जननि वं मम मातापितरौ जननीजनको, एव शब्दोऽत्र निर्धारणे, पुनः सुहृदो मित्राणि वमेव भ्रातरो बान्धवास्त्वमेव त्वमेव सखा सहचरः विद्याश्चतुर्दशविद्यास्त्वमेव तत् उदारकी र्तिचरितं प्रभूतकीर्तिप्रवर्त्तनं त्वमेव । अत्यद्भुतं प्रचुरतरं भाग्यं त्वमेव । यः किं पुनरपि किमुच्यते सकलमीहितं निखिलं वान्छितं त्वमेवेति ॥ ३६ ॥
इदानीं परमसिद्धिकारकं गुरोर्नामाह
श्री सिद्धिनाथ इति कोपि युगे चतुर्थे प्राविभूव' करुणावरुणालयेऽस्मिन् । श्रीशम्भुरित्यभिधया स मथि प्रसन्नं * चेतश्चकार सकलागमचक्रवर्त्ती ।। ३७ ।।
४
श्रीसिद्धिनाथेति - करुणावरुणालये करुणया युक्ते वरुणालये ग्रामविशेषे नर्मदातटनिकटवर्त्तिनि श्रीसिद्धिनाथ इति कोपि चतुर्थे युगे कलियुगे प्रादुर्बभूव किम्भूतः तस्मिन् श्रीसिद्धिनाये अभिधया श्रीशम्भुरिति सः मयि विषये चेतो मनः प्रसन्नं चकार स्नेहं कृतवान् । पुनः किम्भूतः श्रीशम्भुः सकलागमचक्रवर्ती सकलागमचक्रे वर्त्तत इति किम्भूते अस्मिन् श्रीसिद्धिनाथे करुणावरुणालये कृपासागरे इत्यर्थः इति तु अस्मिन्नित्यस्य पदस्य विशेषणं संपनीपद्यते ।। ३७ ।।
७
९
११
इदानीं कृपावाहुल्यं विरचयन्नाह - '
१०
तस्याऽऽज्ञया परिणतान्वयसिद्धविद्याभेदास्पदैः स्तुतिपदैर्वचसां विलासैः । तस्मादनेन भुवनेश्वरि वेदगर्भे
सद्यः प्रसीद वदने मम सन्निधेहि || ३८ ॥
4:
१. ख. श्री । २. ग. सकलं ।
३. ख. ग. प्रादुर्बभूव । ४. ग. प्रकटोऽभूत् । ६. ख. सस्नेहं । ७. सकलेप्वागमेषु चक्रवर्ती
मग सिद्धस्यापि । ६ ख तस्य ।
१०. ग. क्रियाबाहुल्यं ।
५
मयि सुप्रसन्नं । सर्वतन्त्र स्वतन्त्र इति । ११, ख. विशयन्नाह ।
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.२६ ]
भुवनेश्वरीमहास्तोत्रम् तस्येति-हे भुवनेश्वरि ! वेदगर्भ ! यतः मयि विषये सः श्रीशम्भुः चेतः सुप्रसन्नं मनश्चकार अनेनैव हेतुना सद्यः तत्कालं त्वं प्रसीद प्रसादपरा' भव । । तस्मात्प्रसादानन्तरं मम वदने वचसां वाणीनां विलासैः सन्निधेहि सन्निधानं कुरु । किम्भूतैः विलासैः स्तुतिपदैः स्तवनानुरूपैः, पुनः किम्भूतैर्विलासैः तस्याज्ञयापरिणतान्वयसिद्धविद्याभेदास्पदैः आज्ञया परिणतः परिणाम प्राप्तः योऽन्वयः . आम्नायो गुरुक्रमः तत्र सिद्धविद्यानां भेदास्पदानि भेदस्थानानि तैः तथा ॥ ३८॥ .
अथेदानी भगवत्याः प्रार्थनामाहयेषां परं न कुलदैवतमम्बिके त्वं
तेषां गिरा मम गिरो न भवन्तु मिश्राः । ... तैस्तु क्षणं परिचिते विषयेऽपि वासो.. ...
मा भूत्कदाचिदपि सन्ततमर्थये त्वाम् ॥ ३६॥ . येषामिति-हे सर्वेश्वरि ! सन्ततं निरन्तरं त्वां अहं अर्थये प्रार्थयामि इतीति किं हे अम्बिके ! येषां पुरुषाणां परं अत्यर्थं त्वं न कुलदैवतमसि तेषां पुरुषाणां गिरा सह मम गिरो वाण्यः मिश्राः न भवन्तु, पुनः तै पुरुषैः सह विषये देशे परिचितेऽपि परिचयं प्राप्तेऽपि अभ्यासं प्राप्तेऽपि पितृपितामहप्रपितामहादिनिवासावनौ क्षणं क्षणमात्रं कदाचिदपि वासो माभूत् मास्तु ।। ३६ ॥
इदानीं गुरुमभ्यर्थयन्नाह-" श्रीशम्भुनाथ ! करुणाकर ! सिद्धिनाथ !
श्रीसिद्धिनाथ ! करुणाकर ! शम्भुनाथ !. .... सर्वापराधलिनेऽपि मयि प्रसन्नं . .
चेतः कुरुष्व शरणं मम नान्यदस्ति ।। ४० ।। ....... श्रीशम्भुनाथेति-हे श्रीशम्भुनाथ ! हे करुणाकर सिद्धिनाथ ! हे श्रीसिद्धिनाथ करुणाकर शम्भुनाथ ! सर्वापराधमलिनेऽपि निखिलापराधकलुपीकृतेऽपि मयि : विपये चेतो मनः प्रसन्नं सदयं कुरुष्व, यतः कारणात् मम किञ्चिदन्यदपि शरणं . नास्ति ।। ४० ॥
ख. प्रसता भव । २. ख, तस्य श्रीशम्भोः । ३. ग. भवन्ति । ४. ग. परिचितिर्विषये । . ५. ख. कदाचिदिति । ६. ख. पितृपितामहाद्यावासेऽवनौ । ७. ख. गुरुवर प्रार्थयन्नाह। ८. ग. मलिने मयि सुप्रसन्नं । ..
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[ २७
प्रबोधिनीटीकासहितम्
इदानी परमेश्वर्या दयालुत्त्वमाह__इत्थं प्रतिक्षणमुदश्रुविलोचनस्य .. पृथ्वीधरस्य पुरतः स्फुटमाविरासीत् । ... दत्त्वा वरं भगवती हृदयं प्रविष्टा - शास्त्रैः स्वयं नवनवैश्च मुखेऽवतीर्णा ॥ ४१ ॥ ____ इत्थमिति-इत्थं अनेन प्रकारेण गुरुस्मरणादितः' प्रतिक्षणं क्षणं क्षणं प्रति उदश्रुविलोचनस्य अत्यर्थं निर्यदश्रलोचनस्य' पृथ्वीधरस्य पुरतोऽग्रे स्फुटं प्रकटं यथा भवति तथा भगवती भुवनेश्वरी आविरासीत् प्रकटीवभूव । किम्भूता वरं दत्वा इदयं प्रविष्टा, पुनः किम्भूता च पुनः भगवती स्वयं स्वयमेव नवनवैर्गद्यपद्यादिमयैः शास्त्रैः कृत्वा मुखेऽवतीर्णा विस्तारं प्राप्ता ॥ ४१ ॥
___ इदानीं स्तोत्रविषये प्रसादमाह- वाक्सिद्धिमेवमतुलामवलोक्य नाथः
...... श्रीशम्भुरस्य महतीमपि तां प्रतिष्ठाम् । .: स्वस्मिन् पदे त्रिभुवनागमवन्द्यविद्या...... सिंहासनकरुचिरे सुचिरं चकार ॥ ४२ ॥ .... वागिति-अस्मिन् लोके नाथः श्रीशम्भुः अस्य स्तोत्रस्य वासिद्धिं अतुला बहुलां मे वाचं अवलोक्य अस्मिन् स्थाने चिरं यथा भवति तथा तां पाठमात्रतो' हि सकलसिद्धिविधायिनी महीयसी महती प्रतिष्ठां चकार । किम्भूते स्वस्मिन् पदे त्रिभुवनागमवन्धविद्यासिंहासनैकरुचिरे त्रिभुवने यानि आगमशास्त्राणिं तैर्वन्ध स्तुत्यं विद्यासिंहासनं यत् तेनैकरुचिरं सुन्दरं तस्मिन् तथेति ।। ४२ ।।
. इदानीं मन्त्रजपसमये विधानमाहभूमौ शय्या वचसि नियमः कामिनीभ्यो निवृत्तिः ............ मातात
. प्रातर्जातीविटप समिधा दन्तजिह्वाविशुद्धिः।
१. ख. ग. गुरुस्मरणादिना । . २. ग. अश्रुपूर्णविलोचनस्य । ३. ख. महतीमिह । ....... ४. ख. स्वस्मिन् । ५. ख. ग. पठनमात्रतो। ६. ख. तस्मिन् । ७. ख. विटपि ।
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३०३
भुवनेश्वरीमहास्तोत्रम् ग. पुस्तकस्य पुष्पिका'विक्रम संवत् १६६३ लिखितं केदारनाथेन समाप्तमद्य आश्विन शुक्लप्रतिपदि देहल्याम् ॥
'यन्मात्रा विन्दुविन्दुद्वितयपदपदद्वन्द्ववर्णादिहीनं भक्तया भक्तयाऽनुपूर्वीप्रभवकृतवशा व्यक्तमव्यक्तमम्ब ! मोहादज्ञानतो वा पठितमपठितं सांप्रतं स्तोत्रमेतत् तत् सर्वं साङ्गमास्तां त्रिभुवनवरदे ! देवि विद्ये ! प्रसीद ।' इति श्रीपृथ्वीधराचार्यविरचितं श्रीभुवनेश्वरीस्तोत्रं श्रीसिद्धसारखतापरपर्याय
जयजयहरिकविमल्लभट्टलिखितं समाप्तम् ॥ शुभं भवतुतमाम् ॥
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श्रीभुवनेश्वरीचक्रम्
राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला ]
[ ग्रन्थाङ्क ५४
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२८ ]
भुवनेश्वरीमहास्तोत्रम्
पत्रावल्यां मधुरमशनं ब्रह्मवृक्षस्य पुष्पैः
पूजाहोमी कुसुमवसनालेपनान्युज्ज्वलानि ॥ ४३ ॥
3
भूमाविति - भूमौ शय्या भूमिशयनं वचसि नियमो चाकसंयमः कामिनीभ्यो निवृत्तिः स्त्रीभ्यो निवर्त्तनं, तथा प्रातः प्रभाते जातं विटपसमिधा जातीवृक्षशाखयां दन्तजिह्वाविशुद्धि: दन्तानां जिह्वायाश्च विशोधनं निर्मलीकरणं, ' पत्रावली प्रसिद्धा तस्यां मधुरमशनं उदनादि' तथा ब्रह्मवृक्षस्य पुष्पैः पलाशस्य पुष्पैः कुसुमैः पूजाहोमा कार्यों । तथा कुसुमवसनालेपनानि उज्ज्वलानि ॥ ४३ ॥ इदानीं गुरुस्मरणतो यद्भवति तदाहइत्थं मासत्रयमविकलं यो व्रतस्थः प्रभाते मध्याह्ने वांऽस्तमनसमये कीर्त्तयेदेकचित्तः । तस्योल्लासः सकलभुवनाश्रर्यभूतैः प्रभूतैः
विद्याः सर्वाः सपदि वदने शम्भुनाथप्रसादात् ॥ ४४ ॥ इत्थमिति - इत्थं मुना प्रकारेण यः पुमान् व्रतस्थः सन् मासत्रयं अविकलं निरन्तरं प्रभाते प्रातः काले अथवा मध्याह्ने मध्यंदिने अथवा अस्तमनसमये सायं समये एकचित्तः एकमनाभूत्वा श्रीगुरुं कीर्त्तयेत् पठेत् चिन्तयेत् तस्य पुरुषस्य सपदि तत्कालं वदने मुखे सर्वाः सकलाः विद्याः उल्लासैः गद्यपद्यादिरूपैः स्फुरन्ति, कस्मात् शम्भुनाथप्रसादात् किम्भूतैरुल्लासैः प्रभृतैः सद्यः स्फुरदरूपैः पुनः किम्भूतैः . सकलभुवनाश्चर्यभूतैः गुरुस्मरणतः त्रिभुवनविषये किं न प्राप्यते श्रपितु सकलमेव प्राप्यत इत्यर्थः ।। ४४ ।
९
इदानीं यथार्थ - प्रभाव स्तोत्रमहिमानमाह
व्रतेन हीनोऽप्यनवाप्त मंत्रः
G
श्रद्धाविशुद्धोऽनुदिनं पठेद्यः " ।
तस्यापि वर्षादनवद्यसद्यः
-
कवित्त्वहृद्याः प्रभवन्ति विद्याः || ४५ ||
१. ग. नैर्मल्यं । २. ख. पायसादि । ३. ख. ग. तथा कुसुमवसनानि उज्ज्वलानि कुसुमानि पुष्पाणि शतपत्रादीनि वसनानि वखाणि शुभ्राणीति तथा लेपनानि चन्दनादिभवानि एतान्युज्ज्वलानि' इति । ४. ख. यद्यद्भवति, ग. स्तोत्रपठनतो यद्भवति ।
५-६. ख, ग, वाऽस्वमिवसमये । ७. ख. ग. श्रीस्तोत्रं कीर्तयेत् पठेत् । ८ख. गद्यपद्यादिमयैः । ६. ख, भुवनाश्चर्यकारकैः । १०. ख. जपेद्यः ।
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. .. प्रबोधिनीटीकासहितम्
[२६ व्रतेनेति-यः पुमान् व्रतेन हीनोऽपि अनवाप्तमंत्रः अप्राप्तमंत्रः श्रद्धाविशुद्धो भूत्वा श्रद्धया निर्मलीकृतमानसः सन् अनुदिनं निरन्तरं इदं जपेत् तस्यापि पुरुषस्य वर्षात संवत्सरात् विद्याः प्रभवन्ति स्फुरन्ति, किम्भूताः अनवद्यसद्यःकवित्वहृद्याः अनवद्येन निर्दोषेण सद्यः कविन्वेन तत्कालोदितकाव्येन' हृद्याः मनोहराः ॥ ४५ ॥
इदानीं अस्य स्तोत्रस्याचिन्त्यमहिमानमाह- . कोप्याचिन्त्यः प्रभावोऽस्य स्तोत्रस्य प्रत्ययावहः । श्रीशम्भोराज्ञया सर्वाः सिद्धयोऽस्मिन् प्रतिष्ठिताः ॥ ४६ ॥
कोपीति-अस्य स्तोत्रस्य कोप्यचिन्त्यः प्रभावः प्रत्ययावहो वर्त्तते प्रीतिजनको भवति यतः कारणात् श्रीशम्भं राज्ञया सर्वाः अणिमाद्याः सिद्धयोऽस्मिन् स्तोत्रे प्रतिष्ठिताः आरोपिताः अत एव अचिन्त्यमहिमस्तोत्रमित्यर्थः ॥ ४६॥
पद्मनाभेन कविना विपुला विमला कृता ।
पृथ्वीधरकृतेस्तेन वृत्तिः सद्युक्तिदीपिका ।। इति श्रीपद्मनाभकविविरचितं भुवनेश्वरीस्तोत्रभाष्यं सम्पूर्णम् ।।
लिखितं ब्राह्मणजेरामेन ।।
ख. पुस्तकस्य पुष्पिका॥ शुभम् ।। संवत् १६५० पौषमासीयकृष्णपक्षीयनवम्यां शुक्रे
गंगासहायशर्मणो लिपिः । श्रीसवायी श्रीमाधवसिंहराज्ये जयपुरे पुस्तकमिदमायोध्यक
सरयूप्रसाद द्विवेदिनः शिवम् ॥
... ख. तत्कालोचितकाव्येन। २. ख. ग. प्रतीतिजनको । . ३. ख. तत्तु, ग. श्रीमत् पृथ्वीधरनुतेर्वृत्तिः सद्युक्तिदीपिनी। ख. पृथ्वीधरकृती तन वृत्तिः
. सयुक्तिदीपिका। ४. ख. विवरणम्, ग. व्याख्यानम् ।
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श्री :
अथ भुवनेश्वरीपञ्चाङ्गम् ।
तत्रादौ पटलः ..... . - श्रीगणेशाय नमः ...... '.. अथ वक्ष्ये जगदधात्रीमधुना भुवनेश्वरीम् ।. ..
ब्रह्मादयोपि यां ज्ञात्वा लेभिरे श्रियमुत्तमाम् ॥ १ ॥ . नकुलेशोऽग्निनारूढो वामनेत्रार्द्धचन्द्रवान् । ....
बीजमस्याः समाख्यातं समग्रसिद्धिकाङ्क्षिभिः ।। २ ॥ ऋषिः शक्तिर्भवेच्छन्दो गायत्री समुदीरितम् । देवता सुरसङ्घन सेंविता भुवनेश्वरी ॥ ३ ॥ षड्दीर्घयुक्तबीजेन कुर्यादङ्गविकल्पनम् । . - सारस्वतोक्तमार्गेण मातृकान्यस्तविग्रहः ॥ ४ ॥
मन्त्रन्यासं ततः कुर्याद्देवताभावसिद्धये ।
हल्लेखां मूर्द्धनि वदने गगनां हृदयाम्बुजे ॥ ५॥ .. ... रक्तां करालिकां गुह्ये महोच्छुष्मां. पदद्वये । .......
ऊर्ध्वप्रागदक्षिणोदीच्यपश्चिमेषु मुखेषु च ।। ६ ।।..
मध्यादि हस्ववीजया न्यस्तव्या भूतसप्रभाः । - ब्रह्माणं विन्यसेद्भाले गायत्र्या सह संयुतम् ।। ७ ॥
साविच्या सहितं विष्णु कपोले दक्षिणे न्यसेत् ।.. वागीश्वर्या समायुक्त वामगण्डेश्वरं तथा ॥ ८ ॥
श्रिया गणपति न्यस्य पुष्टया गणपतिं तथा । ..... सव्यकोपरि सिद्धि कर्णगण्डान्तरालयोः ॥ ६॥
१. श्रियमूर्जिताम् । २. कुर्यादङ्गानि षटक्रमांत् । ३, संहारसृष्टिमार्गेण । :: :: सद्यादि । सद्य श्रोकारः तदादयः पञ्चहस्वा ओ ए उ इ अइत्याद्या हल्लेखाथाः शक्कयो
.. न्यस्तव्या इति । ५. वामगएडे महेश्वरम् । ६. श्रिया धनपतिं पश्चाद्वामकर्णाग्रिके पुनः।
. रत्या स्मरं मुखे न्यस्येत् पुष्टया गणपतिं तथा । (सिं. सिं.) ७. निधी। .
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३२]
___ भुवनेश्वरीपञ्चाङ्गम् न्यस्तव्यं' वदने मूलं पुनश्चैतांस्तनौ न्यसेत् । कण्ठमूले स्तनद्वन्द्वे वामांसे हृदयाम्बुजे ॥ १० ॥ सव्यांसे पार्श्वयुगले नाभिदेशे च दैशिकः । भालांसपार्श्वजठरे पार्श्वमपकरें हृदि ॥ ११ ॥ ब्रह्माण्याद्यास्तनौ न्यस्या विधिना प्रोक्तलक्षणाः । मृलेन व्यापकं देहे न्यसेद्देवीं विचिन्तयेत् ।। १२ ॥ उद्यदिनद्युतिमिन्दुकिरीटां तुङ्गकुचां नयनत्रययुक्ताम् । स्मेरमुखी वरदाङ्कुशणशाभीतिकरां प्रभजे भुवनेशीम् ॥ १३ ॥ प्रभजेन् मन्त्रविन्मंत्रं द्वात्रिंशल्लक्षमानतः । .. त्रिस्वादुयुक्तैर्जुहुयादष्टद्रव्यैर्दशांशतः ।। १३ ।। दद्यादयं दिनेशाय तत्र संचिन्त्य पार्वतीम् । : पद्माकारं लिखेद्यन्त्रं तत्काले साधकोत्तमः ।। १४ ॥ . पद्ममष्टदलं वाह्य पद्म षोडशभिर्दलैः।.. . विलिखेत् कर्णिकामध्ये पट्कोणमतिसुन्दरम् ॥ १५ ॥ विन्दुत्रिकोणं रसकोणसंयुतं वृत्ताञ्चितं नोगदलेन मण्डितम् ।.. कलारवृत्तत्रयभूगृहाङ्कितं श्रीचक्रमेव नवशक्तिसमन्वितञ्च ।। १६ ।।. जयाख्या विनया पश्चाद जिताह्वाऽपराजिता । नित्या विलासिनी दोग्ध्री त्वघोरा मङ्गला नव ॥ १७ ॥ वीजाद्यमासनं दत्त्वा मूर्ति तेनैव कल्पयेत् । . तस्यां सम्पूजयेदेवीमावाह्यावरणैः क्रमात् ॥ १८॥ मध्यप्रदक्षिणोंदीच्यपश्चिमेषु यथाक्रमम् ।। हल्लेखाद्याः समभ्याः पञ्चभूतसमप्रभाः ॥ १६ ॥ वरपाशाङ्कुशाभीतिधारिण्योऽमितभृषणाः ।... स्थानेषु पूर्वमुक्तेषु पूजयेदङ्गदेवताः ॥ २० ॥
१. न्यस्तव्यौ । २. पावासापरके । ३. वरदादिस्थितिस्तु पदार्थादर्श यथा---वामाधोहस्ते
वर, दक्षिणोचे अंकुशं, वामोर्चे पाशं, दक्षाधोभयमिति सम्प्रदायविदः । ४. प्रजपेन् । ....५. निस्वादूक्कैः प्रजुहुयादष्टद्रव्यैर्दशांशतः । त्रित्वादु घृतमधुशर्कराः, अष्टद्रव्याणि-'अश्वत्थोदुम्बर- :
प्लक्षन्यग्रोधसमिस्तिलाः । सिद्धार्थपायसाज्यानि दव्याण्यष्टौ विदुर्बुधा' इति । ६. मध्यप्राग्याम्यसौम्येषु पश्चिमेषु यथाक्रमात् । .........
.
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[.३३
षट्कोणेषु यजेन्मन्त्री पश्चान्मिथुनदेवताः ।.... .. इन्द्रकोणे लसद्दण्डकुण्डिकाक्षगुणामयाम् ॥ २१ ॥ गायत्री पूजयेन्मंत्री ब्रह्माणमपि तादृशम् । . रक्षकोणे चक्रशङ्खगदापङ्कजधारिणीम् ॥ २२॥ . . . सावित्री पीतवसनां यजेद्विष्णुं च तादृशम् । ........ वायुकोणे परवक्षमालाभयवरान्वितम् ॥ २३ ॥. .. यजेत् सरस्वती पश्चादरुद्र' तादृशलक्षणम् ।. .... बहिकोणे यजेद्रनकुम्भरत्नकरण्डकम् ॥ २४॥ .. कराभ्यां बिभ्रतं पीतं तुन्दिलं धननायकम् । . .
आलिङ्ग्य सव्यहस्तेन वामेनाम्बुजधारिणीम् ॥ २५ ॥ .. धनदाङ्कसमारूढां महालक्ष्मी प्रपूजयेत् । . . . . . . . .
वारुण्यां मदनं बाणपाशाङ्कुशशरासनम् ॥ २६ ॥ . • धारयन्तं समारत पूजयेद्रत्नभूषणम् । ...........
सव्येन पतिमाश्लिष्य वामेनोत्पलधारिणीम् । . . पाणिना रमणाङ्कस्थां रति सम्यक् समर्चयेत् ॥ २७ ॥ ईशाने पूजयेत् सम्यग् विघ्नराजं प्रियान्वितम् ॥.२८ ॥ - सृणिपाशधरं कान्तं वराङ्गसक राङगुलिम् ।। ... माध्वीपूर्ण कपालञ्च वर्णराजं दिगम्बरम् ॥ २६ ॥... पुष्कलं विगलदरत्नस्फुरचषकधारिणम् । ... .
सिन्दूरसदृशाकारां संमुदा मदविभ्रमाम् ॥ ३० ॥ . - 'धृतरक्तोत्पलामन्यपाणिना तद्ध्वजस्पृशाम् । ... . . पाश्लिष्टकान्तामरुणां पुष्टिमर्चेद्दिगम्बराम् ॥ ३१ ॥ ..
कर्णिकायां निधी पूज्यौ षटकोणस्याथ': पार्श्वयोः ।
अङ्गानि केसरेष्वेताः पश्चात् पत्रेषु पूजयेत् ।। ३२ ॥... .... अनङ्गकुसुमा पश्चादनङ्गकुसुमारुणा ।"..... ... ..
अनङ्गमदना तद्वदनङ्गमदनातुरा ।। ३३ ।।... . १. अच्छां रुदं । २. वारुणे । ३. जपारक्तं। ४. ऐशान्ये । ५. कान्ता ।
६. स्पृक् । ७. कपालाढ्य । ८. पुष्करें। ६. उद्दाम । . १०. पट्कोणोंभय । १. भनङ्गकुसुमातुरा ।
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भुवनेश्वरीपञ्चाङ्गम्
भुवनपाला गगनवेगा चैव ततः परम् । शशिरेखा च गगनरेखा चेत्यष्टशक्तयः ॥ ३४ ॥ पाशाङकुशवराभीतिधारिण्योऽरुण विग्रहाः । ततः षोडशपत्रेषु कराली विकराल्युमा ।। ३५ ।। ... सरस्वती श्रीदुगोपा लक्ष्मीश्रुत्यौ स्मृतिधृतिः । श्रद्धा मेधा मतिः कान्तिरार्या पोडशशक्तयः ।। ३६ ।। खड्गखेटकधारिण्यः श्यामाः पूज्याश्च मातरः । पद्मावहिः समभ्याः शक्तयः परिचारकाः' ।। ३७ ॥ . . प्रथमानङ्गरूपा स्यादनङ्गमदना तथा । .... ... .. मदनातुरा तु भवनवेगा भुवनमालिका ॥ ३८ ॥.. .... स्यात्पूर्वमदनानङ्गवेदनानङ्गमेखला।। ... . चषकं तालवृन्तं च ताम्बूलं छत्रमुज्ज्वलम् ॥ ३ ॥ चामरे चांशुकं पुष्पं विभ्राणां करपङ्कजैः। ......... सर्वाभरणसंयुक्तां गुरुपङ्क्तित्रयं यजेत् ॥ ४० ॥ .. दिव्यौघांश्चैव सिद्धौघान् मानवौधान् यथाक्रमात् । सर्वाभरणसन्दीप्ताल्लोकपालान् बहिर्यजेत् ॥ ४१ ॥ इन्द्राग्नियमनैऋत्यवरुणा मरुतस्तथा । . . कुबेर ईशपतयः पूर्वादीनां दिशां क्रमात् ॥ ४२ ॥.. गजो मेषश्च महिषः प्रेतो मकर एव च । .. मृगो नरों वृपश्ते पूज्याः पूर्वादितः क्रमात् ॥ ४३ ॥ .. वज्रः शक्तिस्तथा दण्डः खड्गपाशौ तथाङ्कुशः। गदा त्रिशूल इत्येते पूर्वाद्याश्चायुधाः स्मृताः ॥ ४४ ॥ ऊर्ध्वाधः क्रमतः पूज्यौ ब्रह्मा विष्णुस्तथैव च । हंसताच्यौँ पद्मचक्रे पूर्वादीनां समागमैः ॥४५॥ पूज्यते सकलैर्देवैः किं पुनर्मनुजोत्तमैः । ...
मंत्री त्रिमधूपेतै हुँत्वाऽश्वत्थसमिद्वरैः ॥ ४६॥.... १. परिवारिकाः। २. भुवनपालिका। ३. स्यात् सर्वशिशिरानङ्गमदनानङ्गमेखला । ४. त्रिमधुरोपेतैः । ..
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[३५
.. पटलः . ब्राह्मणान् वशयेच्छीघ्रं पार्थिवान् पद्महोमतः। । ... पलाशपुष्पैस्तत्पनीमंत्रिणः कुसुमैरपि ॥४७॥ पञ्चविंशतिसंजप्त जलैः स्नाने दिने दिने । . .
आत्मानमभिषिञ्चयः सर्वसौभाग्यवान् भवेत् ॥ ४८॥ पञ्चविंशतिसंजप्त जलं प्रातः पिबेन्नरः । अवाप्य महतीं प्रज्ञां कवीनामग्रणीभवेत् ॥ ४६॥ कर्पूरागरुसंयुक्तं कुकुमं साधु साधितम् । गृहीत्वा तिलकं कुर्याद्राज्य वश्यमनुत्तमम् ॥ ५० ॥ शालिपिष्टमयीं कृत्वा पुत्तलीं मधुरान्विताम् । . जप्त्वा प्रतिष्ठितप्राणां भक्षयेद्रविवासरे ॥५१॥ वशं नयति राजानं नारी वा नरमेव च । कण्ठमात्रोदके स्थित्वा वीक्ष्येत खगतं रविम् ॥ ५२ ॥ त्रि सहस्र जपेन्मत्रं इष्टकन्यां लभेत सः। . अन्नं तु मंत्रितं मन्त्री भुञ्जीत श्रीप्रसिद्धये ॥ ५.३ ॥... ... ... लिखित्वा भस्मनाऽमायां सुसाध्या फलकादिषु । तत्कालं च लिखेद्य सुखं सूयति' गर्भिणी ॥ ५४॥ शक्त्यन्तःस्थितसाध्यकर्म भुवने" वह्नवृतं वहिभि-१२. बाह्ये कोणगतेयुतं * हरिहरैवर्णैः कपोलार्पितैः। पश्चात्तैः पुनरीयुतैलिपिभिरप्यावीतमिष्टाक्षरः ...,
यंत्रं भूपुरमध्यगं त्रिगुणितं सौभाग्यसम्पत्प्रदम् ॥ ५५ ॥ . १. कुमुदैरपि । २. नित्यं । ३. अवश्यं । ४. राज । . ५: जप्तां । ६. वीच्य तोयगतं । ७. लिखितां । ८. तत्काले । : १. दर्शयेद्यन्त्रं ।. १० सूयेत । ११. भवने (सिं. सिं.) १२. शक्तिभिः (सिं. सिं.)। १३. मिष्टार्थदं (सिं. सिं.)। . .
* कोणगतेयुतमिति कोणगतेन ईकारेण युतमित्यर्थः, सविन्दुनेति सम्प्रदायः, अस्यार्थः-इन्द्ररक्षोवायुदिग्गतकोणत्रयव्यस्रमग्निमण्डलं विधाय तन्मध्ये भुवनेश्वरीबीजं विलिख्य तस्य रेफस्थाने साध्यनाम ईकारस्थाने साधकनाम तयोर्मध्ये कर्म च विलिख्य तद्भुवनेश्वरीबीजैरावेष्टय त्रिकोणस्य कोणत्रयाभ्यन्तरे सबिन्दुकमीकारं विलिख्य त्रिकोणाग्रेषु भुवनेश्वरीबीज प्रतिकोणं विलिख्य तेषां त्रयाणामेकैकबीजस्य रेफेण तत्तद्वीजं प्रदक्षिणीकृत्याऽन्योन्यस्येकाराम परस्परं बध्नीयात् । ततः कोणत्रयपार्श्वयोः 'हरिहर' इति वर्णचतुष्टयं विलिख्य बहिवृत्तनयं कृत्वा तन्मध्यगतवीथीद्वये प्रथमवीच्यां त्वाग्रादिप्रादक्षिणेन 'हरि ई हर ई' इति वर्णैः पुनः पुनलिखितैरावेष्टय द्वितीयवीथ्यां अकारादिक्षकारान्तैः सबिन्दुकैर्मातृकाक्षरैः स्वाग्रादिप्रादक्षिण्येन चेष्टयित्वा सर्ववाद्ये चतुरस्र कुर्यादेतद्यन्त्रमुक्तफलदं भवति, तथा च
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३६ ]
सुवनेश्वरीपञ्चाङ्गम्
वीजान्तः स्थितसाध्यनाम शरशो मायारमामन्मथैवतं वह्निपुरद्वये रसपुटेष्वापाढवी जत्रयम्' । स्वात्मानात्मकमीप से हरिहरैराव ढगण्डं वहिः पडवीजैरनुबद्धसन्धिलिपिभिवीतं गृहाभ्यां तु वः ॥ ५६ ॥ चिन्तामणिनृसिंहाभ्यां लसत्कोणमिदं लिखेत् । यंत्रं षड्गुणितं दिव्यं वहतां सर्वसिद्धिदम् ॥ ५७ ॥
अत्रापि सम्पदे देव यथाविधि समाहितः । हृल्लेखाद्याः समभ्यर्च्य पूर्ववत् साधकः स्वयम् । अङ्गानि पूजयेत् पश्चाद गायत्र्याद्याः प्रपूजयेत् ॥ प्रागग्रवीजे गायत्री सावित्रीं दक्षिणालगे । सरस्वतीं मारुतस्ये ब्रह्माणं वह्निगे तथा ॥ वारुणे विष्णुमीशं च यजेदीशे ततो वहिः । ब्रह्माण्याद्या लोकपालास्तवाहो कुलिशादयः ॥
एव' त्रिगुणिते देवीं पूजयेत् साधकोत्तमः ॥ [ सिं. सिं. पत्र ४१४ ] १. श्रालिख्य बीजत्रयम् । २. सात्मा । ३. मीशिखं । ५. " वहि: पोडशशुलाङ्गमतीव च मनोरमम् ।
४. भुवः ।
तत्वगुणितं यन्त्रं सर्वसिद्धिकरं परम् ॥ १ ॥ अत्र देवों यजेन्मंत्री यद्यस्योपरिशोभनम् । पद्मं द्वादशपत्रं च पविंशत्केसरान्वितम् ॥ २ ॥ बहिश्च राश्यादिकेन युक्तं कुर्यान्मनोहरम् । नवशक्तियुतं पीठं संपूज्यावाह्य देवताम् ॥ ३ ॥ संपूजयेत् चन्दनाद्यैरुपचारैश्च पूर्ववत् । प्रोक्तवच्च षड्ङ्गानि मिथुनानि च संयजेत् ॥ ४ ॥ बहिर्द्वादशशक्तीश्व रक्ताद्याः संयजेत् क्रमात् । रक्ता चानङ्गकुसुमा नित्या च कुसुमातुरा ॥ ५ ॥ अनङ्गमदना तद्वद् भवेच्च मदनातुरा |
गौरी च गगना तद्वद् रेखान्तं गगनं पदम् ॥ ६॥ अनेन विधिना मंत्री योऽर्चयेद्भुवनेश्वरीम् ।
:
स लक्ष्मीनिलयो भूयात् त्रिदशैश्चाभिवन्दितः ॥ ७ ॥ देहान्ते शिवसायुज्यं स प्राप्नोति सुनिश्चितम् ।" इति सिंहसिद्धान्त सिन्धौ विशेषः ॥ -
६ श्रस्यार्थः- तत्र स्वेष्टमानभ्रमेण वृत्तं कृत्वा तत्र प्राक् प्रत्यब्रह्मसूत्रमास्फाल्य तदग्रयोः सन्धिमवष्टभ्यं वृत्तार्धपरिमाणेन सूत्रेण वृत्तसंदष्टं मत्स्यद्वयं मत्स्यद्वयं दक्षिणोत्तरयोः कुर्यात् । एवंकृते मत्स्यचतुष्कं संपन्न ं भवति, ततः पूर्वमत्स्यद्वये पश्चिममत्स्यद्वये च दक्षिणोत्तरं तिर्यक्सूत्रयमास्फाल्य :
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पटल:
[ ३७
बीजं व्याहृतिभिर्युतं' गृहयुगद्वन्द्व वसोः कोणगं दौर्ग बीजमनन्तरे लिपियुतैराबद्धगण्डं लिखेत् । । गायत्र्या रविशक्तिबद्धविवरं त्रिष्टुब्युतं तत् ततो , बीजं मातृकया धरापुरयुगे सत्सिंहचिन्तामणिः ॥ ५॥
यंत्रं दिनेशगुणितं प्रोक्त रक्षाप्रसिद्धिदम् । सर्वसौभाग्यजननं सर्वशत्रुनिवारणम् ॥ ५९॥
ब्रह्मसूत्रस्य प्रागग्रे विधाय पश्चिममत्स्यद्वययोस्तिर्यकसूत्रद्वयमास्फात्य पुनर्ब्रह्मसूत्रस्य पश्चिमाग्रे निधाय पूर्वदिङमत्स्योदरयोः सूत्रद्वयमास्फालयेत् । एवं कृते वह्निमण्डलद्वयं जायते ततो वृत्तं प्राचीसूत्रं च
मार्जयेदित्येवं पटकोणं कृत्वा तन्मध्ये शक्तिबीजमालिख्य तस्य रेफभागे साध्यनामालिख्य तस्येकारस्वरभागे .. साधकनामालिख्य रेफेकारयोरन्तरालं साधकांशे कर्म लिखेदित्येवं स्वाभिमतं विलिख्य मध्यस्थबीजोपरितो
वेष्टनप्रकारेण पञ्चधाशक्तिबीजं विलिख्य तद्वहिः पञ्चधा श्रीबीज पुनस्तबहिः पञ्चधा कामबीजं विलिख्य .. षट्कोणस्योर्ध्वगतकोणत्रये उत्तरमध्यदक्षिणक्रमेण शक्तिश्रीकामबीजानि प्रतित्रिकोणमेकैकं बीजं
साधकनामयुतं विलिख्याधोगतत्रिकोणत्रये तान्येव बीजानि विसर्गयुक्तानि ससाध्यनामानि दक्षिण... मध्योत्तरक्रमेण विलिख्य पस्वपि त्रिकोणोदरेषु सबिन्दु चतुर्थस्वरमीकारमालिख्य षट्कोणस्य
प्रतिकोणपार्श्वयोः 'हरिहर' इति द्वादशधा विलिख्य पटसु त्रिकोणानेषु प्रतित्रिकोणाग्रमेकमेकं शक्तिबीज विलिख्य पूर्ववदेकैकान्तरितं बध्नीयात्, उक्तं चाचार्यचरणैः “एकैकान्तरितास्तास्तु सम्बद्ध्युरितरेतरमिति" ततो बहिर्वृत्तत्रयं कृत्वा वीथीद्वयं निष्पाद्य तत्राभ्यन्तरवीथ्यां स्वानादि प्रादक्षिण्येन सबिन्दूनकारादिक्षकारान्तान् मातृकावर्णान् विलिख्य बहिर्वीच्या तानेव क्षकाराद्यकारान्तक्रमेण प्रादक्षिण्येन विलिखेत् , उक्तं च श्राचार्यचरणैः -
"वाह्य रेखामन्तराः स्युर्वर्णाः क्रमगताः शुभाः । तद्वहिः प्रतिलोमाश्च ते स्युलेखकपाटवात् ।" इति
ततो. बहिरष्टकोणं विधाय तस्य दिग्गतक्रमेण चतुष्के वक्ष्यमाणं नृसिंहबीजं विलिख्य विदिग्गते कोणचतुष्के वक्ष्यमाणं चिन्तामणिबीजं विलिख्याष्टकोणस्थरेखाष्टकप्रान्तषोडशके पोडशत्रिशूलानि कुर्यात् , उक्तञ्चाचार्यचरणैः
: 'बहिः षोडशशूलाई शोभनं व्यक्तवर्णवत्' इति । एतत् पड्गुणितं यन्त्रमुक्तफलदं भवति ॥ (सिं. सिं. पत्र ४१५) १. वृतं । ..
२. अस्यार्थ:-तत्र प्रागवत षटकोणमालिख्य तस्य सन्धिपटके त्रिकोणषटकं यथा व्यक्तं भवति तथा गुरूक्तयुक्त्या पट्कोणान्तरं विलिख्य तन्मध्ये प्रागवत साध्यसाधककर्मयुक्त शक्तिबीजमालिख्य तत्प्रतिलोमेन व्याहृतिभिर्वेष्टयेत् , तदुक्तमाचार्यैः
... : 'शक्ति प्रवेष्टयेच्च प्रतिलोमव्याहृतिभिरन्तस्थामिति' ततो द्वादशत्रिकोणोदरेषु दु इति दुर्गाबीजं विलिख्य तेष्वेव सानुस्वारं चतुर्थस्वरं लिखेत् , तदुक्तमाचार्यचरणैः- . : . ..
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३८ ]
भुवनेश्वरीपञ्चाङ्गम्
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लिखेत सरोजं रसपत्रयुक्त मध्ये दलेष्वप्यभिलिख्य मायाम् । स्वरावृतं यंत्रमिदं वधूनां पुत्रप्रदं भूमिगृहान्तरस्यम् ॥ ६० ॥ पट्कोणमध्ये प्रविलिख्य शक्तिं कोणेषु नामैव विलिख्य भूयः । स साध्यगर्भं वसुधापुरस्थं यंत्रं भवेद्वश्यकरं नराणाम् ॥ ६१ ॥ वाग्भवं शम्भुवनितार मावीजत्रयात्मकम् ।
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मंत्रं समुद्धरेन्मंत्री त्रिवर्गफलसाधनम् ॥ ६२ ॥ पडदीर्घभाग्बीजेन वाग्भवाद्येन कल्पयेत् । षडङ्गानि मनोरस्य जातियुक्तानि मंत्रवित् ॥ ६३ ॥ कुर्यात् पूर्वोदितान् न्यासान् चिन्तयेदपि साधकः । सिन्दूरारुणविग्रहां त्रिनयनां माणिक्यमौलिस्फुरत्तारानायकशेखरां स्मितमुखीमापीनवक्षोरुहाम् । पाणिभ्यां मणिपूर्ण रत्नचपकं रक्तोत्पलं विभ्रतीं सौम्यां रक्तघटस्थसन्यचरणां ध्यायेत् परामम्बिकाम् ॥ ६४ ॥
'रविकोणेषु दुरन्तां मायां लिखेदद्यात्र विन्दुमतीमिति' ततो द्वादशत्रिकोण पार्श्वद्वये प्रतिपार्श्वमेकमिति क्रमेण वैदिकगायत्र्याश्चतुर्विंशतिवर्णान् सबिन्दून् प्रादक्षिण्येन प्रतिलोमगतान् विलिखेत्, उक्तञ्चाचार्यंचरणै: - 'गायत्रीं प्रतिलोमतः प्रविलिखेदग्नेः कपोलमिति' ततः पूर्ववद्वादश त्रिकोणाग्रेषु शक्तिबीजानि विलिख्य तानि परस्परं पूर्ववदेकान्तरितं बध्नीयात् तद्द्बहिर्वृ तद्वयं विधाय तयोरन्तरालगत वीथ्याम् —
"जातवेदसे सुनवाम सोममरातीयतो निं दहाति वेदः ।
स नः पर्षदति दुर्गाणि विश्वा नावेव सिन्धुं दुरितात्यग्निः ' ऋग्वेदः १/७/७/१
इति न्निष्टुभमंत्रस्य . सबिन्दुभिर्वर्णैः प्रतिलोमेन वेष्टयेत्, उक्तञ्चाचार्यचरणैः
'वहिश्च रचयेद्भूयस्तथा त्रिष्टुभमिति'
तन्त्र श्रीपद्मपादाचार्यव्याख्या-- तथा त्रिष्टुभमिति प्रतिलोमेनेत्यर्थः । ततः प्राग्वदनुलोममातृकया विलोममातृकया च संवेष्टय तदवहिरष्टकोणं कृत्वा प्राग्वत्तत्तत्कोणेषु नृसिंहबीजं चिन्तामणिबीनं च विलिख्य तथैव पोडशशूलयुक्तं कुर्यादित्येतद्यन्त्रमुक्तफलदं भवति । (सि. सि. पृ. ४१६ )
१. श्रस्यार्थः, भूर्जादौ पड्दलकमलं विधाय तन्मध्ये ससाध्यं शक्तिबीजमालिख्य षट्सु दलेष्वपि शक्तिबीजमेवालिख्य तद्बहिवृ तद्दयं विधाय तयोरन्तराले सबिन्दुभिः पोडशस्वरैरावेष्ट्य चिरकुर्यात् । एतयंत्रमुक्तफलदम् । (सिं. सिं. पृ. ४१६ )
२. श्रस्यार्थः, प्राग्वत् पट्कोणं विधाय तन्मध्ये तत्कोणेषु च ससाध्यं शक्तिबीजमालिख्य तद्बहिश्चतुरस्रं कुर्यात्, एतयंत्रमुक्तफलदम् । (सि. सि. पृ. ४१६ )
३. चांग्भवं एं, शम्भुवनिता हीं, रमावीजं श्रीं इति । .
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पटल:
रविलक्षं जपेन्मंत्रं पायसैर्मधुराप्लुतैः ।
दशांशं जुहुयान्मंत्री पीठे प्रागीरिते यजेत् ॥ ६५ ॥ देवीं प्रागुक्तमार्गेण गन्धाद्यैरतिशोभनैः ।
'हुत्वा पलाशकुसुमैः वाक्श्रियं महतीं व्रजेत् ।। ६६ ।। ब्राह्मीघृतं पिबेज्जप्तं कवित्वं वत्सराद्भवेत् । सिद्धार्थं लवणोपेतं हुत्वा मंत्री वशं नयेत् ॥ ६७ ॥ नरं नारीं नरपतिं नात्र कार्या विचारणा । चतुरङ्गुलजैः पुष्पैश्चन्दनादभस्मसूक्षितैः' ।। ६८ ।। हुत्वा वशीकरोत्या त्रैलोक्यमपि साधकः । जुहुयादरुणाम्भोजैरयुतं मधुराप्लुतैः ॥ ६६ ॥ राजा श्रियमवाप्नोति शालि जैस्तन्दुलैस्तथा' । प्रागुक्तान्यपि कर्माणि मंत्रेणानेन साधयेत् ॥ ७० ॥ वाग्बीजपुटिता माया विद्येयं त्र्यक्षरी मता । मध्येन दीर्घयुक्तेन वाक्पुटितेन कल्पयेत् ॥ ७१ ॥ अङ्गानि जातियुक्तानि क्रमेण मंत्रवित्तमः । यथा पुरा समुद्दिष्टं न्यासं कुर्वीत मन्त्रवित् ॥ ७२ ॥ श्यामाङ्गीं शशिशेखरां निजकरैर्दानं च रक्तोत्पलं रक्ताढ्य ं चषकं वरं भयहरं संविभ्रतीं शाश्वतीम् । मुक्ताहारलसत्पयोधरनतां नेत्रत्रयोल्लासिनीवन्देऽहं सुरपूजितां हरवंधूं रक्तारविन्दस्थिताम् ॥ ७३ ॥ तत्वलक्षं जपेन्मंत्रं जुहुयात्तदशांशतः । पलाशपुष्पैस्तद्वक्त्रैः पुष्पैर्वा राजवृक्षकैः ॥ ७४ ॥ हुल्लेखाविहिते पीठे पूजयेत् परमेश्वरीम् ॥ मध्यादि पूजयेन्मन्त्री हुल्लेखाद्याः पुरोदिताः ॥ ७५ ॥ मिथुनानि यजेन्मन्त्री षट्कोणेषु यथा पुरा । अंगपूजा केसरेषु पूज्याः पत्रेषु मातरः ॥ ७६ ॥
:
चन्दनाम्भः समुक्षितैः । २. राज्यश्रियमवाप्नोति सतिलैस्तण्डुलैस्तथा । ३. वाक्पुटेन प्रकल्पयेत् । ४. परं । २. स्वाद्वक्तैः ।
[ ३६
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४० ]
भुवनेश्वरीपञ्चाङ्गम्
भैरवासमारूढाः स्मेरवक्त्रा मदालसाः । सिताङ्गो रुरुचण्डः क्रोधश्वोन्मत्तसंज्ञकः ॥ ७७ ॥ कपालिभीपणौ पश्चात् संहाराचाष्टभैरवाः । शूलं कपालं भीतिं च विभ्राणाः क्षुद्रदुन्दुभिम् ॥ ७८ ॥ गजत्वगम्बरा भीमाः कुटिलालकशोभिताः । दीर्घाद्या मातरः प्रोक्ता हखाद्या भैरवाः स्मृताः ॥ ७६ ॥ पूज्याः पोडशपत्रेषु कराल्याद्याः पुरोदिताः । तवाह्येऽनङ्गरूपाद्या लोकेशास्त्राणि तवहिः ॥ ८० ॥ एवमाराधयेद्देवीं शास्त्रोक्तेनैव वर्त्मना ।
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वशं नयति राजानं वनिताच मदालसाः ॥ ८१ ॥ अन्नमाज्येन जुहुयाल्लभते वसु वाञ्छितम् । सुगन्धैः कुसुमैर्हुत्वा श्रियमाप्नोति वान्छिताम् ॥ ८२ ॥ मन्त्रेणानेन संजप्तमश्रीयादन्नमन्वहम् । भवेदरोगी' नियतं दीर्घमायुरवाप्नुयात् ॥ ८३ ॥ तो बिन्दुसंयुक्तो माया ब्रह्मानितारवान् । पाशादित्र्यक्षरो मन्त्रः सर्ववश्यफलप्रदः ॥ ८४ ॥ ऋष्याद्याः पूर्वमुक्ताः स्युर्वीजेनाङ्गक्रिया मता ।। ८५ ।। बराङ्कुशौ पाशमभीतिमुद्रां करैर्वहन्तीं कमलासनस्थाम् । बालार्ककोटिप्रतिमां त्रिनेत्रां भजेऽहमाद्यां भुवनेश्वरी ताम् ॥ ८६ हविष्यभुग् जपेन्मंत्रं तत्त्वलक्षं जितेन्द्रियः । तत्सहस्र प्रजुहुयाज्जपान्ते मन्त्रवित्तमः ॥ ८७ ॥ दधिनौद्र' घृताक्ताभिः समिद्भिः क्षीरभूरुहाम् । तत्संख्येयतिलैः शुद्धैः पयोक्तैर्जुहुयात्ततः ॥ ८८ ॥ हल्ले खाविहिते पीठे नवशक्तिसमन्विते ।
श्रर्चयेत् परमेशानीं वच्यमाणक्रमेण ताम् ॥ ८६ ॥
१. प्रेतं । २. शोभिनः । ३. भवेदरोगो । ४. स्पष्टार्थः श्रनन्त श्राकारः बिन्दुसंयुक्तस्तेन श्रां, माया भुवनेशी, ब्रह्मा ककारः, अग्नि रेफः, तारः प्रणवस्ताभ्यां युक्तस्तेन को । अत्र प्रथमबीजस्य पाश इति संज्ञा श्रन्त्यस्याश इति संज्ञा ।
२. चतुर्विधतिलवमित्यर्थः । ६. मधु चौद्रमित्यमरः ।
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[४१
...: पटलः . हल्लेखाद्या यजेदादौ कर्णिकायां यथाविधि । अङ्गानि केशरेषु स्युः पत्रस्था मातरः क्रमात् ॥ १०॥ इन्द्रादयः पुनः पूज्यास्तेपामस्त्राणि तवहिः। एवं सम्पूजयेद्देवीं साक्षादवैश्रवणो भवेत् ॥ ६१॥ रज्यते सकलैलॊकैस्तेजसा भास्करोपमः । अनेनाधिष्ठितं गेहं निशि दीपशिखाकुलम् ।। ६२ ॥ दृश्यते प्राणिभिः सर्वैमन्त्रस्यास्य प्रभावतः । सर्पपैोजसंमित्रै राज्यार्थे जुहुयान्निशि ।। ६३ ॥ राजानं वशयेत् सद्यस्तत्पनीमपि साधकः । अन्नवानन्नहोमेन श्रीमान् पद्महुतादभवेत् ॥ ६४ ॥ राजवृक्षसमुद्भूतैः पुष्पैर्तुत्वा कविर्भवेत् । अरोगो तिलहोमेन घृतेनायुरखाप्नुयात् ॥ ६५ ॥ प्राक्प्रोक्तान्यपि कर्माणि साधयेत् साधकोत्तमः ।
आलिख्याष्टदिगर्गलान्युदरगं पाशादिकं व्यतरं कोष्ठेष्वङ्गमनूदरेपु' विलिखेदष्टार्णमन्त्रद्वयम् । अच्पूर्वापरपटकयुग्लयवरान् व्योमासना मर्गलेवालिख्येन्द्रजलाधिपादिगुणशः पंक्तिद्वयं तत्परम् * ॥६६॥ कोशेष्वष्टयुगार्णमात्मसदृशां युग्मस्वरान्तर्गता मायां केसरगां दलेषु विलिखेन् मूलं त्रिपङ्क्तिः क्रमात् । त्रिःपाशाङ्कुशवेष्टितं लिपिभिरावीतं क्रमाव्युत्क्रमात् पद्मस्थेन घटेन पङ्कजमुखेनावेष्टितं तबहिः॥ १७॥ घटार्गलमिदं यंत्रं मन्त्रिणां प्राभृतं मतम् ।
पाशश्रीशक्तिकन्दर्पकामशक्त्यादिरङ्कुशः ॥१८॥ १. मनून् परेपु । २. व्योमासनानर्गले । ३. सहितां । ४. शक्तीन्दिराङ्कुशाः । ... अत्र विपमपदव्याख्या अचपूर्वेति-अचां स्वराणां नपुंसकव्यतिरिक्तानाम् । पूर्वपटकं श्रश्रा इ ई उ ऊ । अपरषटकं ए ऐ ओ औ अं अः। एतद्युक्तान् लयवरान् । व्योमासनान् व्योम हकारस्तनासना स्थितियेषां तादृशाम् । इन्द्रजलाधिपादि पूर्वपश्चिमादि । गुणशः अक्षरन्त्रितयक्रमेण । अष्टयुगाणं षोडशार्णम् । अात्मसहितां युग्मस्वरान्तर्गतां मायामिति । श्रात्मा हंसः मायाशब्देनान चतुर्थस्वरो ज्ञेयः । तथा च निघण्टुमातृकायां
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४२]
भुवनेश्वरीपञ्चाङ्गम् प्रथमोऽष्टाक्षरो मन्त्रस्ततः कामिनि रञ्जिनि । स्वाहांतोप्टाक्षरः सद्भिरपरः कीर्तितो मनुः॥१६॥ ही गौरि रुद्रदयिते योगेश्वरि सवर्म फट् । :: द्विठान्तः पोडशार्णोऽयं मन्त्रः सद्भिरुदीरितः ॥ १० ॥ लिखित्वा भूर्जपत्रादौ यन्त्रमध्ये' यथाविधि । धारयेद्वामबाहौ वा कण्ठे वा निजमूर्द्धनि ॥ १०१॥ 'ईस्त्रिमूर्तिर्वामनेत्रं शेखरः कौटिलस्तथा।
वाग्मी शुद्धश्च जिह्वाख्यो मायाविष्णुः प्रकाशितः ।।' इत्युक्तः ।। अात्मसहितयुग्मस्वरान्तर्गतमायालेखनक्रमस्तु दक्षिणामूर्विसंहितायाम्
"हंसः पदं वामनेत्रं विन्द्विन्दुपरिभूषितम् । पुनर्हसः पदं चैतत् पश्चार्णम्मनुमालिखेत् ॥
खरद्वन्द्वोदगतं सप्तार्णं चाटधा भवेत् ।" इति ॥ तेन अं हंसः ई हंसः श्रां इत्यादिक्रमेण केसरेषु सप्त सप्त वर्णा लेख्याः।
प्रपञ्चसारेप्येतद् यंत्रनिर्माणमुक्त यथा"अष्टाशान्तर्गताविहलयवरयुताचपूर्वपाश्चात्यपटकं. कोणोद्यत्स्वाङ्गसाष्टाक्षरयुगयुगलायाक्षराख्यं वहिश्च । मायोपेतात् सयुग्मस्वरमिलितलसत्केसरं साष्टपत्रं पद्मं तन्मध्यपङ्क्तित्रितयपरिलसत्पाशशक्त्यकुशार्णम् ॥१॥ पाशाङ्कुशावृतमनुप्रतिलोमगैश्च वर्णैः सरोजपुटितेन घटेन चापि। आवीतमिष्टफलभद्रघटं तदेतद्यन्त्रोत्तमन्त्विति घटार्गलनामधेयम् ॥ २॥ प्राक्प्रत्यगर्गले हलमथ पुनराग्नेयमारुते च हयम् । . दक्षोत्तरे हवाणं नैऋतशैवे द्विपतिशो विलिखेत् ॥ ३॥ विलिखेच्च कर्णिकायां पाशाङ्कुशसाध्यसंयुतां शक्तिम् । . अभ्यन्तरस्थकोष्ठेखङ्गान्यवशेपितेषु चाष्टाणे ॥४॥ कोष्ठेपु पोडशखथ षोडशवर्ण मनु तथा मन्त्री । . पद्मस्य केसरेपु च युगवरात्मान्वितां तथा मायाम् ॥ ५ ॥
ऐकैकेषु दलेषु त्रिशस्त्रिशः कर्णिकागतान मंत्रान् । .. .. . पाशाङ्कुशवीजाभ्यां प्रवेष्टयेबाह्यतश्च नलिनस्य ॥ ६॥ ... अनुलोमविलोमगतैः प्रवेष्टयेदक्षरैश्च तद्वाह्ये ।
तदनु घटेन सरोजस्थितेन तद्वक्त्रकेऽम्बुजं विलिखेत् ।। ७॥" . सारसंग्रहे
'घटार्गलाभिधं यंत्रं सर्वसम्पत्करं परम् ।' . १. यन्त्रमेतत् ।
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पटल:
वशयेत् सकलान् देवान्' विशेषेण महीपतीन् । नीलपट्टे विलिख्यैतद् गुटिकीकृत्य तत्पुनः ॥ १०२॥ लाक्षया ताम्ररजतकाश्चनैर्वेष्टयेत् क्रमात् !
तत्कुम्भे न्यस्य सम्पूज्य यथावद् भुवनेश्वरीम् ॥ १०३ ॥ संस्पृश्य तज्जपेन्मन्त्रं यथाविधि सहस्रकम् ।
[ ४३
अभिषिच्य प्रियं साध्यं बध्नीयादुद्घट माशिखम् ॥ १०४ ॥ कान्ति पुष्टिं धना रोग्यश्रेयांसि ' लभते नरः । वाक्कायमनसा कृत्य पूजयेन्नित्यमादरात् ॥ १०५ ॥ भूतप्रेतपिशाचाश्च न वीक्षितुमपि क्षमाः । तद्विलिख्य शिरस्त्राणे साधयेद्धारितं भटः ॥ १०६ ॥ युद्धे बहून् रिपून् हत्वा जयमाप्नोति पार्थिवः ।
वज्रा पुरद्वये तां पाशाङ्कुशाभीतिसदस्ति' साध्याम् । मध्येऽष्टको पुवाहुपद्म' पुनः पुनस्तां विलिखेत् समन्तात् ॥१०८॥ भूर्जे लिखितमेतत्स्यादभुक्तिमुक्तिफलप्रदम्" । आरोग्यैश्वर्यजननं युद्धेषु विजयप्रदम् ॥ १०६ ॥
93
लिखेत् सरोजे" सकलेऽमराढ्यो " वस्त्रश्रपत्रे " वसुधापुरस्थे । पाशाङ्कुशाभ्यां गुणशः प्रबोधं" मायां लिखेन्मध्यगतां ससाध्याम् ॥ ११० ॥ सर्वेषां चन्द्रदं यन्त्र " धारितं कुरुतेऽर्पणम्" | 'आरोग्यैश्वर्यसौभाग्यं विजयादीननारतम् ॥ १११ ॥ इति ॥
श्रीरुद्रयामले दशविद्या रहस्ये श्रीभुवनेश्वरीपटलं सम्पूर्णम् ॥
१. मर्त्यान् । २. " साध्यप्रतिकृतौ सिक्थनिर्मितायां हृदि न्यसेत् । पात्रे त्रिमधुरापूर्णे निक्षिप्यैनां विधानतः ॥ सम्पूज्य गन्धपुष्पाद्यैर्बलिं निक्षिप्य रात्रिषु । मूलमंत्र जपेन्मन्त्री नित्यमष्टसहस्रकम् ॥ सप्ताहाद्वाञ्छितां नारीमाहरेत्स्मरविह्वलाम् ।
भूर्जपत्रे विलिख्यैतद् गुटिकीकृत्य तत्पुनः ॥” इति शारदा तिलके विशेषः |
३. दिवाकर । ४. यन्त्र | २. धरा । ६. यशांसि । ७. भित्तौ विलिख्य तद्यन्त्रं ।
८. पाशाङ्कुशाभ्यामुदरस्थ । ६ मध्येऽथकोणेष्वथ बाह्यवृत्ते ।
१०. सर्ववश्यकरं नृणाम् । ( शा० ति० ) । ११. 'भूर्जे सरोजे' इत्यपि क्वचित् पाठः ।
१२. स्वर केसराढ्ये ( शा० ति० ) । १३ वर्गाष्टपत्रे ( शा० ति० ) । १४ प्रबद्धां । ( शा० ति० )
१५, सर्वोत्तममिदं यंत्रं । ( शा० ति० )
१६. नृणाम् ।
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अथ भुवनेश्वरीपूजापद्धति:
श्रीगणेशाय नमः
अथ पूजाविधिं वक्ष्ये सर्वकामार्थसिद्धये । यामज्ञात्वा न जानाति पदमव्ययमात्मनः ॥ १ ॥
तत्र श्रीमान् साधको ब्राह्मे मुहूर्ते शयनतलादुत्थाय करचरणौ प्रक्षाल्य निजासने समुपविश्य निजशिरसि श्वेतवर्णाधोमुखसहस्रदलकमल कर्णिकान्तर्गतचन्द्रमण्डलसिंहासनोपरि स्वगुरु शुक्लवर्णं शुकालङ्कारभूपितं ज्ञानानन्दमुदितमानसं त्रिनयनं चतुर्भुजं ज्ञानमुद्रापुस्तकवराभयकरं वामाङ्गे वामहस्तधृतकमलया रक्तवसनाभरणया स्वप्रियया दक्षभुजेनालिङ्गितं सर्वदेवदेवं सर्वतीर्थ तीर्थं सर्वमङ्गलमाङ्गल्यं परमशिवस्वरूपं ध्यात्वा तच्चरणयुगल बिगलदमृतधारया स्वात्मानं प्लुतं विभाव्य मानसोपचारैराध्य मंत्र जपेत् ॐ ऐं ह्रीं श्रीं ह स ख फ ह स क्ष म ल व र यू ह्सौः स्हौः श्रीमदमुकानंदनाथश्रीपादुकां श्रीअमुकीदेव्यम्वाश्रीपादुकां च पूजयामि तर्पयामि नमः, इति पादुकामंत्रं दशधा विमृश्य दण्डवत् प्रणामं मनसा 'कुर्यात्तद्यथा
नमामि सद्गुरुं शांतं प्रत्यक्षं शिवरूपिणम् । शिरसा योगपीठस्थं मुक्तिकामार्थसिद्धये ॥ १ ॥ श्रीगुरुं परमानन्दं वन्दाम्यानन्दविग्रहम् । यस्य सान्निध्यमात्रेण चिदानन्दायते वरम् ॥ २ ॥ श्रखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम् । तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ ३ ॥ अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ ४ ॥ गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः । गुरुरेव जगत् सर्वं तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ ५ ॥
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पूजापद्धतिः नमस्ते नाथ भगवन् शिवाय गुरुरूपिणे । विद्यावतारसंसिद्ध्यै खीकृतानेकविग्रह ! ॥ ६ ॥ नवाय नवरूपाय परमार्थेकरूपिणे । सर्वाज्ञानतमोभेदभानवे चिघनाय ते ॥७॥ खतन्त्राय दयाक्लप्तविग्रहाय परात्मने । परतन्त्राय भक्तानां भव्यानां भव्यरूपिणे ॥ ८ ॥ ज्ञानिनां ज्ञानरूपाय प्रकाशाय प्रकाशिनाम् । विवेकिनां विवेकाय विपर्शाय विमर्शिणाम् ॥ ३॥ पुरस्तात् पार्श्वयोः पृष्ठे नमस्कुर्यामुपर्यधः।
सदा मच्चित्तरूपेण' विधेहि भवदासनम् ॥ १० ॥ इति श्रीगुरु' प्रणम्य सुप्रसन्नं विभाव्य मनसा तदाज्ञां गृहीत्वा मूलाधारे लिङ्गगुहामध्ये योनिस्थाने स्वर्णवर्णे चतुर्दलकमलान्तर्गतत्रिकोणान्तर्गतशृङ्गाटकपीठो
परि परां शक्तिं कुण्डलिनी सर्पाकारामूर्ध्वमुखी साईत्रिवलयां बिसतन्तुतनीयसीमुद्य..... दिनकरसहसभास्वरां विद्युत्कोटिसन्निभां पश्चाशवर्ण विग्रहामष्टात्रिंशत्कलारूपिणीं
विधामधामानं सर्वदेवदेवीं सकलमंत्रान्तस्सुप्तां विभाव्य गुरूपदिष्टनिजसहजनादेन
सचैतन्यां विधाय हुमिति शब्ददण्डेन प्रबोधयित्वा तत्र चतुर्दलेषु वं नमः शं नमः ... पं नमः सं नमः इति पत्रेषु प्रादक्षिण्येन प्रपूज्य मध्ये मूलेन च सम्पूज्य हंस इति
मंत्रण सर्वत्रोत्थाप्य कमलात् कमलं नीत्वा खाधिष्ठाने पड्दले कमले लिङ्गमूले
विद्मवणे तामारोह्य तत्र वं नमः मं नमः मं नमः यं नमः नमः लं नमः इति ... पत्रेषु मध्ये मूलेन च सम्पूज्य ततो हंस इति अनेन सर्वत्रोत्थाप्य नाभौ मणिपूरके :- नीलवर्णे दशदले कमले तां नीत्वा तत्र डं नमः हूँ नमः णं नमः तं नमः थं नमः
दं नमःधं नमः ५ नमः ६ नमः इति पत्रेषु मध्ये मूलेन च सम्पूज्य ततो ... वक्षस्यनाहते पिङ्गलवणे द्वादशदलकमले तां नीत्वा तत्र कं नमः खं नमः गं नमः
घं नमः, ऊँ नमः च नमः छं नमः जं नमः झं नमः बनमः टं नमः ठं नमः इति पत्रेषु मध्ये भूलेन च सम्पूज्य, ततो विशुद्धौ कण्ठे धूम्रवर्णे षोडशदलकमले तां नीत्वा तत्र अं नमः ां नमः ई नमः ई नमः ऊँ नमः ऊं नमः ऋ नमः ऋ नमः
१. ह्यचिन्त्यरूपेण । २. यद्यपि "प्रबोध्य" इत्येव शुद्धस्ततोऽपि तन्त्रशास्त्राचाराद् यथास्थितं गृहीतः।
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४६ ]
भुवनेश्वरीपञ्चाङ्गम् लुं नमः लूं नमः एं नमः ऐं नमः ओं नमः औं नमः अः नमः अं नमः इति पत्रेषु मध्ये मूलेन च सम्पूज्य, ततो भ्रूमध्ये अज्ञाचक्रे विद्युदणे द्विदलकमले तां नीत्वा तत्र हं नमः शं नमः इति पत्रयोर्मध्ये मूलेन च सम्पूज्य, ततो ब्रह्मरंध्रगतसहस्रदलकमलकर्णिकामध्यगतत्रिकोणान्तर्गतपरमप्रकाशमयविन्दुरूपपरमशिवेन सहकता नीत्वा .. ततः स्रवता परमामृतेन तां संतमे ततो नादश्रवणतत्परो मुहूर्तमेकं लयं विभाव्य अवरोहसमये सर्वत्र सोहमिति मंत्रेण कमलात् कमलेऽवारोह्य मनसाज्ञाचक्रादिक्रमेण तेषु तेषु कमलेषु तैस्तैरक्षरैः सम्पूज्य तत्तदाधारतत्तवर्णतत्तदधिदेवतास्तेनामृतेन सन्तर्प्य तथैव स्वस्थाने मूलाधारे संस्थाप्य प्रणमेत्
प्रकाशमाना प्रथमे प्रयाणे प्रतिप्रयाणेऽप्यमृतायमानाम् । अन्तः पद्व्यामनुसञ्चरन्तीमानन्दरूपामवलां प्रपद्ये ॥ ..
इति देवीरूपं ध्यात्वा वक्ष्यमाणविधानेन प्राणायामऋष्यादिकरपडङ्गन्यासान् विधाय भूलमंत्रं यथाशक्ति जप्त्वा पुनरपि ऋष्यादिकरपडङ्गन्यासान् विधाय: जपं समयं निजकृत्यं समर्पयेत्
अहं देवी न चान्योऽस्मि ब्रह्मैवाहं न शोकभाक् । सच्चिदानन्दरूपोऽहं स्वात्मानमिति चिन्तयेत् ॥ प्रातः प्रभृति सायान्तं मायादि प्रातरन्ततः। . यत्करोमि जगद्योने तदस्तु तव पूजनम् ॥
इति समर्प्य स्वकार्यानुष्ठानायत्रैलोक्यचैतन्यमये परेशि भुवनश्वरि त्वच्चरणाज्ञयैव प्रातः समुत्थाय नव प्रियार्थ संसारयात्रामनुर्वतयिष्ये ।।१।। संसारयात्रामनुवर्तमानं त्वदाज्ञया श्रीभुवनेश्वरीशि। स्पङतिरस्कारकाप्रमाद यानि मां माभिभवन्तु मानः ॥२॥ जानामि धर्म न च मे प्रवृत्तिर्जानाम्यधर्म न च मे निवृत्तिः।
त्वया हृषीकशि हृदिस्थयाऽहं यथा नियुक्तोस्मि तथाऽऽचरामि ॥३॥ ... इति देव्याज्ञां प्रार्थ्य अजपाजपं सहजसिद्धं तत्तद्देवताम्। संकल्पं समर्पयेत् । अंध पूर्वे युरहोरात्राचरितमुच्छ्वासनिःश्वासात्मकं पट्शताधिकमेकविंशतिसहस्रसंख्या
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.. . पूजापद्धतिः...
४७ कमजपाजपं - मूलाधारस्वाधिष्ठानमणिपूरकानाहतविशुद्धाज्ञाब्रह्मरंधेषु चतुर्दलषड्दलदशदलद्वादशदलषोडशदलद्विदलसहस्रदलेषु स्वर्णविद्मनीलपिङ्गलधूम्रविद्युस्कर्पूरवर्णेषु । स्थिताभ्यो . गणपतिब्रह्मविष्णुरुद्रजीवात्मपरमात्मश्रीगुरुपादुकाभ्यो ... यथाभागशः समर्पयामि नमः ।
षट्शतं गणनाथस्य षट्सहस्रं पितामहे । षट्सहस्रं गदापाणौ षट्सहस्रं पिनाकिने ।। १ ॥ सहस्रमात्मने दद्यात् सहस्रं परमात्मने ।
सहस्रं गुरवे दद्याद् एतत् संख्यासमर्पणम् ॥ २॥ . इति संकल्पं कृत्वा समर्पयेत्, यथा-ॐ ऐं ह्रीं श्रीं मूलाधारचक्रस्थाय महागण- पतये अजपाजपानां षट्शतानि समर्पयामि नमः । ॐ ऐं ह्रीं श्रीं स्वाधिष्ठानचक्रस्थाय ब्रह्मणे अजपाजपानां षट्सहस्राणि समर्पयामि नमः । ॐ ऐं ह्रीं श्रीं मणिपूरचक्रस्थाय
विष्णवे अजपाजपानां षट्सहस्राणि समर्पयामि नमः । ॐ ऐं ह्रीं श्रीं अनाहतचक्र. स्थाय रुद्राय अजपाजपानां षट्सहस्राणि समर्पयामि नमः । ॐ ऐं ह्रीं श्रीं विशुद्धि
चक्रस्थाय जीवात्मने अजपाजपानां सहस्रमेकं समर्पयामि नमः । ॐ ऐं ह्रीं श्रीं - आज्ञाचक्रस्थाय परमात्मने अजपाजपानां सहस्रमेकं समर्पयामि नमः । ॐ ऐं ह्रीं श्रीं
सहस्रदलकमलकर्णिकामध्ये वर्तिन्यै श्रीगुरुपादुकायै अजपाजपानां सहस्रमेकं समर्पयामि नमः । इत्यजपाजपं समर्प्य अजपामन्त्रेण प्राणायाम विधाय संकल्पं कुर्यात् "ॐ अस्य श्रीअजपानामगायत्रीमंत्रस्य हंसऋषिरव्यक्तगायत्री छन्दः श्रीपरमहंसो देवता हं बीजं सः शक्तिः सोहं कीलकं ॐकारतत्वं नभः स्थान हैमो वर्ण उदात्तस्वरो मम मोक्षार्थे जपे विनियोगः ।” इति कृताञ्जलिः स्मृत्वा न्यासं कुर्यात्, ऐं ह्रीं श्रीं हंसात्मने ऋषये नमः शिरसि, अक्तगायत्रीछन्दसे नमो मुखे, श्रीपरमहंस
देवतायै नमो हृदि, हं वीजाय नमो गुह्ये, सः शक्तये नमः पादयोः, सोहं कीलकाय ... नमो नाभौ, ॐ कार तत्त्वाय नमो हृदये, उदात्तस्वराय नमः कण्ठे, नभसे स्थानाय
_ नमो मूर्द्धनि, हेमाय वर्णाय नमः सर्वाङ्गे, इति विन्यस्य करषडङ्गन्यासौ च कुर्यात् - ॐ ऐं ह्रीं श्रीं इसां सूर्यात्मने अङ्गुष्ठाभ्यां नमः, ॐ ऐं ह्रीं श्रीं इसी सोमात्मने
तर्जनीभ्यां स्वाहा, ॐ ऐं ह्रीं श्रीं ह्र निरञ्जनात्मने मध्यमाभ्यां नमः वषट्, ॐ ऐं ह्रीं श्रीं हसैं निराभासात्मने अनामिकाभ्यां हु, ॐ ऐं ह्रीं श्रीं इसौं तनुसूक्ष्माप्रचोदयात्मने कनिष्ठिकाभ्यां वौषट्, ॐ ऐं ह्रीं श्रीं हसः अध्यक्तबोधात्मने करतल
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४८ ]
भुवनेश्वरीपञ्चाङ्गम्
करपृष्ठाभ्यां फट्, ॐ ऐं ह्रीं श्रीं इस सूर्यात्मने हृदयाय नमः, ॐ ऐं ह्रीं श्रीं इसी सोमात्मने शिरसे स्वाहा, ॐ ऐं ह्रीं श्रीं हमें निरञ्जनात्मने शिखायै वषट्, ॐ ऐं ह्रीं श्रीं इस निराभासात्मने कवचाय हुं, ॐ ऐं ह्रीं श्रीं इसौं तनुम्रमाप्रचोदयात्मने नेत्रत्रयाय वौषट्, ॐ ऐं ह्रीं श्रीं हूं सः अव्यक्तषोधात्मने अस्त्राय फट् इति करपड - ङ्गन्यासौ च कृत्या ध्यानं कुर्यात्
द्यां मूर्द्धानं यस्य विप्रा वदंति खं वै नाभिं चंद्रसूर्यौ च नेत्रे । दिग्भिः श्रोत्रे यस्य पादौ क्षितिश्च ध्यातव्योऽसौ सर्वभूतान्तरात्मा ॥
इति विराट्स्त्ररूपं ध्यात्वा प्राणवायोर्निर्गमप्रवेशात्मकं हूं सः पदं पश्वविंशतिवारं तदनुसंधाय जप्त्वा समर्प्य गुरूपदिष्टमार्गेण नादानुसंधानपूर्वकं निरस्तसमस्तोपाधिना केनापि चिद्दिलासेन प्रवर्तमानोऽस्मीति विभाव्य स्वकार्यानुष्ठानाय -
समुद्रमेखले देवि पवर्तस्तनमण्डले ।
विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्श क्षमस्व मे ॥
इति भूमिं संग्रार्थ्य श्वासानुसारेण तत्पदं निधाय वहिर्गत्वा मलमूत्रोत्सर्ग कृत्वा यथोक्तप्रकारेण शौचं विधाय दन्तधावनं च कृत्वा 'क्लीं कामदेवाय सर्वजनप्रियाय नम इति' नद्यादौ गत्वा वैदिकं स्नानं निर्वर्त्य तान्त्रिकमारभेत् ।। तत्रादौ मूलमात्मतत्त्राय स्वाहा मूलं विद्यातत्त्वाय स्वाहा, मूलं शिवतत्त्वाय स्वाहा इति आचम्य ॐ अद्येत्यादि अमुकमासे अमुकपक्षेऽमुकतिथावमुकवासरेऽमुकनक्षत्रयोग करण मुहूर्तेषु अमुक शर्माऽहं श्री परदेवताप्रीतये तान्त्रिकस्नानविधिमहं करिष्ये इति संकल्पं कृत्वा जले त्रिकोणचक्र ं विलिख्य सूर्यमण्डलात्
ॐ गङ्गे च यमुने चैव गोदावरि सरखति । नर्मदे सिन्धु कावेरि जलेऽस्मिन् सन्निधिं कुरु ॥
इत्यनेनाङ्कुशमुद्रया तीर्थ मावाह्य पुरः कल्पिततीर्थे संयोज्याचम्य मूलेनात्मानं संप्रोक्ष्य सूलं पठन् हृदयकमलमध्याद देवीं तीर्थमध्ये समावाह्य ध्यात्वा तंत्र कुम्भमुद्रया देवीं त्रिभिरभिषिच्य स्वहृदि संस्थाप्य सप्तछिद्राणि निरुध्य त्रिभिर्निमज्योन्मज्जेत् ॥ इति स्नानम् ||
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पूजापद्धतिः
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[४६
अथ संध्या ।। तीरोंपरि पूर्ववदाचम्य स्वमूलप्राणायामऋष्यादिकरषडङ्गन्यासान् विधाय पूर्ववज्जले चतुष्कोणचक्रं विलिख्य तीर्थमावाह्य वामहस्ते जलं निधाय दक्षहस्तेनाच्छाद्य लं वं रं यं हं इत्यनेन त्रिरभिमन्त्र्य मूलमुच्चरंस्तत्त्वमुद्रया मूर्द्धनि सप्तधा मूलेन चाभ्युक्ष्य शेषजलं दक्षहस्तेन निधाय तेजोरूपं ध्यात्वा इडयाऽऽकृष्य देहान्तःपापं प्रक्षाल्य कृष्णवर्ण तज्जलं पापरूपं विचिन्त्य पिङ्गलया विरेच्य पुरः कल्पितवज्रशिलायां फडिति मंत्रेण निक्षिपेत् । ततोऽर्घ्यपात्रमुद्धृत्य ॐ ह्रां ह्रीं हं स: श्री (कुल) मार्तण्डभैरवाय प्रकाशशक्तिसहिताय इदमयं परिकल्पयामि नमः, इत्यनेन कुलसूर्याय त्रिरयं दत्वा स्वहृदयकमले देवीं सूर्यमण्डले नीत्वा तत्र विधिवद्ध्यात्वा मूलगायत्री पठेत्, धनदायै विद्महे रतिप्रियायै धीमहि ही तन्नः स्वाहा प्रचोदयात् इति विर्जप्त्वा गायत्रीमूलं च जपन् साङ्गायै सपरिवारायै सवाहनायै शक्तिसहितायै श्रीभुवनेश्वर्यै इदमध्ये परिकल्पयामि नमः स्वाहा, इत्यनेन मूलदेव्यै अयं दत्त्वा यथाशक्ति मूलं च जप्त्वा ततः प्राणायामऋष्यादिकरषडङ्गन्यासान् विधाय जपं समर्प्य सूर्यमण्डलाद्देवीतेजः स्वस्थाने समानयेत् ।। इति संध्या॥ ... अथतर्पणम् ।। पूर्ववदाचम्य प्राणायामऋष्यादिकरपडङ्गन्यासान् विधाय पुनस्तीर्थमावाह्य मूलेन जलं सप्तधाऽमृतमुद्रयाऽमृतीकृत्य तत्रजले मूलयन्त्र संस्थाप्य लिखित्वा तत्र देवीं स्वहृदयात् सपरिवारामानीय पडङ्गमंत्रयोगेन सकलीकृत्य
कुण्डलिन्याः प्रयोगेणामृतेनाभिषिञ्च्य विधिवद्गन्धादिभिः सम्पूज्य गुरु तर्पयेत्, . ऐशान्यां ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्रीमच्छी अमुकानंदनाथस्तृप्यतामित्यनेन त्रिसन्तर्य, ... आग्नेय्यां ॐ ऐं ह्रीं श्रीं परमगुरुस्तृप्यतामिति त्रिनैऋत्यां ॐ ऐं ह्रीं श्रीं परापरगुरु.: स्तृप्यतामिति निर्वायव्यां ॐ ऐं ह्रीं श्रीं परमेष्ठिगुरुस्तृप्यतामिति त्रिःपरितः ॐ ऐं
ह्रीं श्रीं दिव्यौधा गुरवस्तृप्यन्तामिति त्रिः ॐ ऐं ह्रीं श्रीं सिद्धौघा गुरवस्तृप्यन्तामिति त्रि: ॐ ऐं ह्रीं श्रीं मानवौधा गुरवस्तृप्यन्तामिति त्रिः सन्तर्य पुनरपि पूर्वोक्तप्रकारेण मूलदेवीं त्रिधा संतर्प्य यंत्रो क्तपरिवारान् क्रमेण संतर्य प्राणायामऋष्यादिकरपडङ्गन्यासान् विधाय मूलदेवी विसृज्य स्वहृदि संस्थाप्य तीर्थं च स्वस्थाने सूर्यमण्डले विसर्जयेत् ।। इति तर्पणम् ॥
अथ गृहागमनम् ।। यागगेहमागत्य जलादिना द्वारदेवताः प्रोक्ष्य गन्धाक्षतादिभिः पूजयेत्, दक्षे ॐ धं धात्रे नमः, वामे ॐ विं विधात्रे नमः, दक्षे ॐ गं गङ्गायै नमः, वामे ॐ यं यमुनायै नमः, ऊध्वे ॐ ग्लौं गणपतये नमः, ॐ श्रीं द्वारश्रियै नमः,
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५० ]
भुवनेश्वरीपञ्चाङ्गम् अधः ॐ दं देहल्यै नमः, अद्ध्ये ॐ वं वास्तुपुरुषाय नमः, अधः अनन्ताय नमः इति द्वारं संपूज्य यागगेहान्तरे अक्षतान् विकीर्य अञ्जलिं कृत्वा- ...
आरब्धं यन्मया कर्म यत्करिष्यामि यत्कृतम् ।
तत्सर्व कृपया देवि निर्विघ्नं कुरु मे सदा ॥ ___ इति नमस्कृत्य, वहच्छ्वासपादपुरःसरं बामाङ्गसंकोचेन गृहमध्ये च वेशयेत् चास्त्वधिपतये नमः ईशाने, दीपनाथाय नमः
द्वीपनाथ गुरो स्वामिन् देशिकस्यात्मनायक ।
भुवनेश्वर्याश्च पूजार्थमनुज्ञां दातुमर्हसि ॥ ईशाने वृतदीपं प्रज्वाल्य, नैर्ऋते भैरवाय नमः
अतितीक्ष्ण' महाकाय कल्पान्तदहनोपम ।
भैरवाय नमस्तुभ्यं अनुज्ञां दातुमर्हसि ।। नैर्ऋते तैलदीपं प्रध्याल्य इति संप्रार्थं पूजास्थानं द्विधाः विभाव्य स्वासनस्थानाय नमः, देव्यासनस्थानं द्विधा विभाव्य देव्यासनस्थानाय नमः, इति स्थानं ... सम्पूज्य । अथासन प्रकार:; ॐ कूर्मासनाय नमः हुं आधारशक्तये नमः ॐ ब्रह्मा- ... सनाय नमः, ॐ कमलासनाय नमः, ॐ विमलासनाय नमः, ॐ अनन्तासनाय नमः, ॐ ब्रह्मपद्मासनाय नमः, ॐ गरुडासनाय नमः, ॐ योगासनाय नमः, ॐ श्रीपरपरात्परसिंहासनाय नमः, इति गन्धाक्षतैः सम्पूज्य ॐ पृथिवीति मन्त्रस्य मेरुपृष्ठ . . ऋषिः कूर्मो देवता सुतलं छन्द आसने विनियोगः, इति संकल्प्य भूमौ हस्तं दत्त्वा :: मंत्रं पठेत्
ॐ पृथ्वि त्वया धृता लोका देवि त्वं विष्णुना धृता । ... त्वं च धारय मां देवि पवित्रं कुरु चासनम् ।। इति
ॐ भूम्यै नमः, इत्यनेन कम्बलाद्यासनमास्तीर्य तदुपरि षट्कोणेषु भूवीजं लिखित्वा मध्ये हुंकारं विलिख्य तत्रोपविश्य, ततो ब्रह्मरंध्रे संघट्टमुद्रया गुरुं संप्रार्थ्य गुं गुरुभ्यो नमः, पं.परमगुरुभ्यो नमः, पं परात्परगुरुभ्यो नमः, पं परमेष्ठि-... गुरुभ्यो नम इति प्रणम्य दक्षे गं गणपतये नमः, वामे दुदुर्गायै नमः, पृष्ठे भैरवाय नमः, अग्रे बटुकहनुमते नमः, हृदि श्रीभुवनेश्वर्यै नम इति प्रणम्य ।
१. वीणदंष्ट्र महाकाय, इति पाठान्तरम् ।
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'पूजापद्धति:
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अथ पूर्वादि दिग्बन्धनम् पूर्वे इन्द्राय नमः, आये नये नमः, दक्षिणे यमाय नमः, नैर्ऋत्ये राक्षसाय नमः, पश्चिमे वरुणाय नमः, वायव्ये पवनाय नमः, उत्तरे कुबेराय नमः, ईशाने ईश्वराय नमः, ऊर्ध्व ब्रह्मणे नमः, पाताले अनन्ताय नमः, तालत्रयं दत्त्वा स्वात्मानं देवतारूपं भावयेत्, सर्वसाधनं कुर्यात् ।
3
अथ प्रयोगः अस्य (...) श्रीभुवनेश्वरीप्रीत्यर्थं जपार्चनहोमान करिष्ये । स्वगुरु' नत्त्वा 'पार्श्वघातकरास्फोटैरूर्ध्ववक्त्रस्तु मांत्रिकः सर्वभूतानि संत्रास्य
'अपसर्पन्तु ते भूता ये भूता भुवि संस्थिताः । ये भूता विघ्नकर्तारस्ते नश्यन्तु शिवाज्ञया ॥ अपसर्पन्तु ते भूता पिशाचा सर्वतो दिशम् । एतेषां चाविरोधेन ब्रह्मकर्म समारभे ॥
स्वस्य चिन्मयताभावेन, एवं भूतनाश इति तथा कृत्वा । अथ भूतशुद्धिः, तद्यथा पादादिजानुपर्यन्तं भूमण्डलं चतुरस्रं पीतवर्ण, जान्वादिनाभ्यन्तं जलमण्डलं श्रर्द्धचन्द्राकारं श्वेतवर्ण, नाम्यादिहृदयान्तं श्रग्निमण्डलं त्रिकोणं रक्तवर्णं ध्यात्वा, हृदयादिभ्रूमध्यान्तं वायुमण्डलं पट्कोणं धूम्रवर्णं ध्यात्वा, भ्रूमध्यादि ब्रह्मरंध्रान्तं आकाशमण्डलं वृत्तं कृष्णवर्ण ध्यात्वा, वामकुक्षौ पापपुरुषं ध्यायेत्
ब्रह्महत्या शिरःस्कन्धं स्वर्णस्तेयभुजद्वयम् । सुरापानहृदा युक्तं गुरुतल्पकटिद्वयम् ॥ तत्संयोग पदद्वंद्वमङ्गप्रत्यङ्गपातकम् । उपपातकमा रक्तश्मश्रुविलोचनम् ॥ खड्गचर्मधरं पापमङ्गुष्ठपरिमाणकम् । अधोमुखं कृष्णवर्ण वामकुक्षौ विचिन्तयेत् ॥ कनिष्ठिकाऽनामिकाऽङ्गुष्ठैः यन्नासापुटधारणम् । कुम्भकं रेचकं चैव पुनः कुम्भकरेचयेत् ॥
:
षट्कोणं वायुमण्डलात् यं रं वं लं हं ह्रीं क्रों एवं बीजेन जपोद्भूतं
महारूपं वायुं विभाव्य -
:
१ सर्वेषामिति साधुः पाठः ।
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भुवनेश्वरीपञ्चाङ्गम् अष्टौ बीजप्रमाणेन वायुवीजदयं चरेत् । एवं तु विबुधैर्जातं प्राणायामः स उच्यते ।। ... वामेन पूरकं कृत्वा कुम्भं दक्षिणरेचकम् । पुनर्दक्षिणरेचकं च कुम्भं वामेन रेचयेत् ।। पुनर्वामेन पूरकं च कुम्भदक्षिणरेचकम् ।
एवंविधि दृढीकृत्य शुद्धिप्राणप्रतिष्ठितम् ॥ इति वचनात् । स चाह, यं बीजेन षोडशवारं पूरकेण संशोप्य, रं ६४ . चतु:पष्टिवारं कुम्भकेन संदह्य, वं ३२ द्वात्रिंशद्वारं रेचकेन भस्म निःसारयेत्। वं १६ पोडशवारं पूरकेण संस्नाप्य, लं ६४ चतुःपष्टिवारं कुम्भकेन पिण्डीकरणं, हं ३२... द्वात्रिंशद्वारं रेचकेन प्राणस्थापनं, आं १६ पोडशवारं पूरकेण दृढीकृत्य ही ६४. . . चतुःपष्टिवारं कुम्भकेन शुद्धीकरणं क्रोचीजेन ३२ द्वात्रिंशद्वारं रेचकेण प्रतिष्ठाप्य इति. क्रमः ॥ एवं प्राणायामः, वं संप्लाव्य लं धनीकृत्य हं इति देहावयवान् ध्यात्वा जीवं पूर्णात्मभावं ह्रीं सोहं हंसः परमात्मनि स्वस्थाने संस्थाप्य परमात्मनः सकाशात् प्रकृतिः प्रकृतेमहत्तत्त्वं महत्तत्त्वादहङ्कारस्तस्मादाकाशः, आकाशाद्वायुवोयोरग्निरग्नेरापः अभ्यः पृथ्वी इति क्रमेण यथास्थाने भृतानि संस्थाप्य सोहमिति मंत्रण कुण्डलिनीममृतलोलीभूतां पश्चभूतानि जीवात्मानश्च ब्रह्मपथे स्वस्वस्थाने.. स्थापयेत् । इति भूतशुद्धिः ॥
अथ प्राणप्रतिष्ठापनम् ।। ततो देवीरूपमात्मानं विचिन्त्य हृदि हस्तं निधाय .. प्राणप्रतिष्ठां कुर्यात्, ॐ आँ ह्रीं क्रों यं रं लं वं शंघ सं हं सः मम प्राणा इह प्राणा... इह ।। १२ ।। मम जीव इह स्थित इह स्थितः ।। १२ ।। मम सर्वेन्द्रियाणि इह . स्थितानि इह स्थितानि ॥ १२ ॥ मम वाइमनस्त्वक्चनुःश्रोत्रजिह्वाघ्राणप्राणा इहैवागत्य सुखं चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा, इति प्राणप्रतिष्ठां विधाय स्वमूलमंत्रऋष्यादिकरपडङ्गन्यासान् विदधीत
ॐ अस्य श्रीभुवनेश्वरीमन्त्रस्य श्रीशक्तिऋषिर्गायत्री छन्दः श्रीभुवनेश्वरी देवता ह्रीं वीजं श्री शक्तिः क्लीं कीलकं ममाभीष्टसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः, इति कृताञ्जलिः .. स्मृत्वा शक्तिऋषये नमः शिरसि, गायत्रीछन्दसे नमो मुखे, श्रीभुवनेश्वरीदेवतायै नमो हृदि, ह्रीं वीजाय नमो गुह्ये, श्री शक्तये नमः पादयोः, क्लीं कीलकाय नमो नाभौ जपे विनियोगः । सर्वाङ्गे मूलेन नवधाव्यापकं न्यसेत् ।
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पूजापद्धति:
[ ५३
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७
अथ मंत्रन्यासः ॥ ॐ हृल्लेखायै नमः शिरसि, ॐ ऐं गगनायै नमो मुखे, ॐ रक्तायै नमो हृदये, ॐ इं करालिकायै नमो गुह्ये, ॐ महोच्छुष्मायै नमः पदद्वये, ॐ ऐं जुं उं हल्लेखायै नमः सर्वाङ्ग इति विन्यस्य ॐ हृल्लेखायै नम ऊध्वमुखे, ॐ ऐं गगनायै नमः पूर्वमुखे, ॐ जुं रक्तायै नमो दक्षिणमुखे, ॐ इं कालिकायै नम उत्तरमुखे, ॐ महोच्छुष्मायै नमः पश्चिममुखे इति विन्यस्य करषडङ्गन्यासान् कुर्यात् । ॐ ह्वां श्रृङ्गुष्ठाभ्यां नमः, ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः, ॐ हूँ मध्यमाभ्यां नमः, ॐ है अनामिकाभ्यां नमः ॐ ह्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः, ॐ ह्नः करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः । ॐ ह्रां हृदयाय नमः, ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा, ॐ हूं शिखायै वपटू, ॐ हैं कवचाय हु, ॐ ह्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्, ॐ ह्नः अस्त्राय फट्, इत्यूर्ध्वतालत्रयं दत्त्वा पूर्ववदिग्बन्धनं कृत्वा, भाले ॐ ब्रह्मगायत्रीभ्यां नमः, दक्षकपोले सावित्रीविष्णुभ्यां नमः, वामगण्डे वागीश्वराभ्यां नमः, वामकर्णे ॐ श्री सहितधनपतये नमः, मुखे ॐ रतिसहितमदनाय नमः सव्यकर्णे ॐ पुष्टिसहित - गणपतये नमः, दक्षकर्णे ॐ शङ्खनिधये नमः, वामकर्णे ॐ पद्मनिधये नमः, मुखे मूलं न्यसेत्, कण्ठमूले ॐ गायत्रीसहितब्रह्मणे नमः, दक्षस्तने ॐ सावित्रीसहितविष्णवे नमः, वामस्तने ॐ वागीश्वरीसहितमहेश्वराय नमः, दक्षांसे ॐ श्रीसहितधनपतये नमः, वामांसे ॐ रतिसहितमन्मथाय नमः पादयोः ॐ शङ्खनिधये नमः ॐ पद्मनिधये नमः, नाभौ मूलं न्यसेत्, भाले ॐ ब्राहम्यै नमः, वामांसे ॐ माहेश्वयै नमः वामपार्श्वे ॐ कौमाय्यै नमः, उदरे ॐ वैष्णव्यै नमः, दक्षपा ॐ वाराहयै नमः, दक्षांसे ॐ इन्द्राण्यै नमः, गलपृष्ठे ॐ चामुण्डायै नमः, हृदि ॐ महालक्ष्म्यै नमः, मूलेन नवधा व्यापकं न्यसेत् ।
अथ मातृकान्यासः ॥ ॐ अस्य श्रीमातृकान्यासस्य ब्रह्मा ऋषिः, गायत्री छन्दः, श्रीमातृका सरस्वती देवता हलो बीजानि स्वराः शक्तयः, अव्यक्तं कीलकं मम श्रीभुवनेवर्य्यङ्गत्वेन न्यासे विनियोगः, इति कृताञ्जलिः स्मृत्वा न्यसेत् । ॐ ऐं ह्रीं श्रीं ब्रह्मणे ऋषये नमः शिरसि, गायत्रीछन्दसे नमो मुखे, श्रीमातृकासरस्वतीदेवतायै नमो हृदि, हल्भ्यो बीजेभ्यो नमो गुह्ये, स्वरेभ्यः शक्तिभ्यो नमः पादयोः, अव्यक्ताय कीलकाय नमो नाभौ मम श्रीभुवनेश्वर्यङ्गत्वेन न्यासे विनियोगः सर्वाङ्गे । इति ऋष्यादिन्यासः । अथ करषडङ्गन्यासौ कुर्यात्, ॐ ऐं ह्रीं श्रीं अं कं ५ अङ्गुष्ठाभ्यां नमः, ॐ ऐं ह्रीं श्रीं इं चं ५ इं तर्जनीभ्यां नमः, ॐ ऐं ह्रीं श्रीं ॐ
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भुवनेश्वरीपञ्चाङ्गम् टं ५ ऊं मध्यमाभ्यां नमः, ॐ ऐं श्रीं ह्रीं ऐं तं ५ ऐं अनामिकाभ्यां नमः, ॐ ऐं : ह्रीं श्रीं ऊं पं ५ ऊं कनिष्ठिकाभ्यां नमः, ॐ ऐं ह्रीं श्रीं अं यं १० अं करतलकर-... पृष्ठाभ्यां नम इति करन्यासः ॥ अथ पडङ्गन्यासः ॥ ॐ ऐं श्रीं ह्रीं अं कं ५ श्रां हृदयाय नमः, ॐ ऐं ह्रीं श्रीं इं चं ५ इं शिरसे स्वाहा, ॐ ऐं ह्रीं श्रीं ऊंटं५ ऊं.. शिखायै वषट्, ॐ ऐं ह्रीं श्रीं ऐं तं ५ ऐं कवचाय हु, ॐ ऐं ह्रीं श्रीं ऊं पं ५ ऊं नेत्रत्रयाय वौषट् , ॐ ऐं ह्रीं श्रीं अं यं १० अं अः अस्त्राय . फट , इति षडङ्गन्यासः । ध्यानम्
ॐ व्योमेन्द्रौ रसनार्णकर्णिकमचां इन्द्वैः स्फुरत्केशरं पत्रान्तर्गतपञ्चवर्गयशलार्णादित्रिवर्ग क्रमात् । आशास्वस्त्रिषु लान्तलाङ्गलियुजा क्षोणीपुरेणावृतं
पचं कल्पितमत्र पूजयतु तां वर्णात्मिकां देवताम् ॥ अथ ऋष्यादिकरपडङ्गन्यासान् पूर्ववत् कृत्वा न्यसेत् अं नमः, आं नमः, इं... नमः, ई नमः, ऊँ नम:, ऊं नमः, श्रृं नमः, ऋनमः, लु नमः, ल्लू नमः: एं नमः, ऐं नमः, ओं नमः, औं नम, अं नमः, अ. नमः, इति कण्ठस्थाने पोडशदले । कं नमः, खं नमः, गं नमः. घं नमः, ऊँ नमः, चं नमः, छ नमः, जं नमः, झं... नमः, बनमः, टं नमः, ठं नमः. इत्यनाहते द्वादशदले । डं नमः ढं नमः, णं .... नमः, तं नमः, थं नमः. दं नमः, धं नमः, नं नमः, पं नम:, ऊं नमः इति मणि
१. व्योम हः । इन्दुः सः । औः स्वरूपम् । रसतारें विसर्ग: 1 व्योमादिः सचतुर्दशस्वरविसर्गान्त:-.
स्फुरत्कर्णिकमित्युक्तेः । अचां स्वराणाम् । अत्र केसरेषु स्वरलिखनञ्च । अग्रपनादिकर्णिकाभिमुखत्वेन वेति ज्ञेयम् । श्राशासु दिक्षु । अन्त्रिषु कोणेषु लान्तो वः । लागुली ठः । श्रनयो रेखा सॅल्लनतया लिखनं झेयं तदुक्त दक्षिणामूर्तिसंहितायाम्-( सरस्वतीभवनप्रकाशितायाम् )
चतुरस्र ततः कुर्यात् सिद्धिदं दिनु सँल्लिखेत् । ठकाराणां चतुष्कञ्च रेखान्तं वाह्यतस्ततः ।। ...
दारुणश्च समालिख्य देवीमावाहयेत् सुधीः । इति ॥ अन पूजायन्त्रेऽपि अक्षरादिलिखनयोक्तेः । केपाचिन्मते इदमेव धारणयन्त्रमिति सूचयति । पममिति श्वेतं स्मरेत् पद्म तथा सितमित्युक्तेः । तेन श्वेतकमलासना ध्येयेत्यर्थः । इति शारदातिलकपदार्थादर्श।
पयस्यास्य चतुर्थे पादे-- __'वर्णाजं शिरसि स्थितं विपगदप्रध्वंसि मृत्युञ्जयेत्' इत्यपि पाठः प्राप्यते क्वचित् ।.....
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..... पूजापद्धतिः - . . पूरके दशदले । बं नमः, ॐ नमः, मं नमः, यं नमः, रं नमः, लं नमः, इति स्वाधिष्ठाने षड्दले । वं नमः, शं नमः, सं नमः इति मूलाधारे चतुर्दले । हं नमः, दं नमः इत्याज्ञाचक्रे द्विदले ॥ इत्यन्तर्मातृकान्यासः ॥
अथ बहिर्मातृकान्यासः ॥ ॐ अस्य श्रीवहिर्मातृकान्यासस्य ब्रह्मा ऋषिर्गायत्री . छन्दः श्रीवहिर्मातका सरस्वती देवता हलो वीजानि स्वराः शक्तयः अव्यक्तं कीलकं - मम श्रीभुवनेश्वर्यङ्गत्वेन बहिर्मातृकान्यासे विनियोगः, इति कृताञ्जलिः स्मृत्वा
ऋष्यादिकरषडङ्गन्यासान् पूर्ववत् कृत्वा न्यसेत्, ॐ ऐं ह्रीं श्रीं अं नमः शिरसि ४ - ां नमो मुखवृत्ते ४ इं नमो दक्षनेत्रे ४ ई नमो वामनेत्रे ४ उं नमो दक्षकर्णे ४
. ऊं नमो वामकर्णे ४ ऋ नमो दक्षनासिकायां ४ ऋ नमो वामनासिकायां ४ लं - नमो दक्षकपोले ४ लू नमो वामकपोले ४ एं नम अद्ध्वोष्ठे ४ ऐं नमः अधरोष्ठे
४ ओं नमः ऊद्ध्वदन्तेषु ४ औं नमः अधोदन्तेषु ४ अं नमो मूर्द्ध नि ४ श्रा :. नमो ललाटे ४ कं नमो दक्षस्कन्धे ४ खं नमः कूपरे ४ गं नमो मणिबन्धे ....४ घं नमोऽङ्गुलीमूले ४ ऊँ नमोऽङ्गुल्यग्रे ४ चं नमो वामस्कन्धे ४ छं नमः
कूपरे, जं नमो मणिबन्धे ४ झं नमोऽङ्गुलीमूले ४ व नमोऽगुल्यग्रे ४ टं नमो दक्षजङ्घायां ४ ठं नमो जानुनि ४ इं नमो गुल्फे ४ ढं नमोऽङ्गुलीमूले ४ . नमोऽगुल्यग्रे ४ तं नमो वामजवायां ४ थं नमो जानुनि ४ दं नमो गुल्फे ४.धं नमोऽङ्गुलीमूले ४ नं नमोऽगुल्यग्रे ४ पं नमो दक्षपार्वे ४ फं नमो वामपार्वे ४ ब नमः पृष्ठे ४ भं नमो नाभौ ४ मं नम उदरे ४ यं त्वगात्मने नमो हृदये.४ रं असृगात्मने नमो दक्षांसे ४ लं मांसात्मने नमः ककुदि ४ वं मेदात्मने नमो वामांसे ४ शं अस्थ्यात्मने नमो हृदादिदक्षकरान्तं ४ षं मज्जात्मने नमो हृदादिवामकरान्तं ४ सं शुक्रात्मने नमो हृदादिदक्षपादान्तं ४ हं प्राणात्मने - नमो हृदादिवामपादान्तं ४ ळं जीवात्मने नमः पादादिहृदन्तं, ४ क्षं परमात्मने नमो हृदादिमूर्द्धान्त, इति वहिर्मातृकान्यासः' ॥ अथ मातृकाध्यानम्. पञ्चाशद्वर्णरूपाश्च कपर्दशाशभूषणाम् ।
शुद्धस्फटिकसंकाशी शुद्धीमविराजिताम् ।।..
मुक्तारत्नस्फुरदभूषां जपमालां कमण्डलम् । .... पुस्तकं वरदानञ्च बिभ्रती परमेश्वरीम् ॥
१. स्तोत्रे १७ पृष्ठे २३, २४ श्लोको द्रष्टव्यौ । ..
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भुवनेश्वरीपञ्चाङ्गम् ____ एवं मातृकां ध्यात्वा विद्यान्यासं कुर्यात्, ऐं नमो मणिबन्धे, क्लीं नमस्तले, सौं नमोऽङ्गुल्यग्रे इति दक्षकरे । ऐं नमो मणिबन्धे, क्लीं नमस्तले, सौं नमोऽगुल्यने । इति वामकरे । ऐं नमो दक्षस्कंधे, क्लीं नमः कूपरे, सौं नमः पाणौ, ऐं नमो. दक्षजङ्घायां, क्लीं नमो जानुनि, सौं नमः पादान, ऐं नमो वामजवायां, क्लीं नमो जानुनि, सौं नमः पादाग्रे ॥ इति विद्यान्यासः॥ अथान्तर्यजनं
मूलाधारे मूलविद्यां विद्युत्कोटिसमप्रभाम् । सूर्यकोटिप्रतीकाशां चन्द्रकोटिमुशीतलाम् ॥ विसतन्तुस्वरूपां तां विन्दुत्रिवलयां प्रिये । ऊर्ध्वशक्तिनिपातेन सहजेन वरानने ॥ मूलशक्तिदृढत्वेन मध्यशक्तिप्रबोधतः। .
परमानन्दसन्दोहामात्मानमिति चिन्तयेत् ॥ इत्याद्यन्तर्यजनं कृत्त्वा
अथ पीठन्यासं कुर्यात्, ॐ ऐं श्रीं ह्रीं आधारशक्तये नमः, प्रकृत्यै नमः, मण्डूकाय नमः, कमठाय नमः पृथिव्यै नमः, सुधाम्बुधये नमः, मणिद्वीपाय नमः, चिन्तामणिगृहाय नमः, रनवेदिकायै नमः, मणिद्वीपाय नम इत्युपर्युपरि दिनु नानामुनिगणेभ्यो नमः, नानावेदेभ्यो नमः दक्षांसे धर्माय नमः, वामांसे ज्ञानाय नमः, चामोरौ वैराग्याय नमः, दक्षोरौ ऐश्वर्याय नमः, दक्षकुक्षौ अधर्माय नमः, दक्षपृष्ठे अज्ञानाय नमः, वामपृष्ठे अवैराग्याय नमः, वामकुक्षौ अनैश्वर्याय नमः, पुनरुपर्युपरि शेपाय नमः, हृदि पद्माय नमः, प्रकृतिमयपत्रेभ्यो नमः, विकृतिमयकेशरेभ्यो नमः, पञ्चाशद्धीजभूपितकर्णिकायै नमः, तदुपरि सूर्यमण्डलाय नमः, सोममण्डलाय नमः, वैश्वानरमण्डलाय नमः, सं सत्वाय नमः, रं रजसे नमः, तं तमसे नमः, अां अात्मने नमः, अं अन्तरात्मने नमः, पं परमात्मने नमः, ह्रीं ज्ञानात्मने नमः । पत्रेषु, वामायै नमः, ज्येष्ठायै नमः, रौद्रायै नमः, अम्बिकायै नमः, इच्छायै नमः, ज्ञानायै नमः, क्रियायै नमः, कुन्जिकायै नमः, चित्रायै नमः, विपग्निकार्यै नमः, ऐं अपरायै नमः, ऐं ऐं परायै नमः, हसौंः सदाशिवमहाप्रेतपद्मासनाय नमः, शिवमचाय नमः ॥ इति पीठन्यासः ॥
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[ ५७
पूजापद्धतिः । अथ वहृदयकमलमध्ये मूलदेवीं ध्यायेत्- .
ॐ उद्यदिनद्युतिमिन्दुकिरीटां तुङ्गकुचां नयनत्रययुक्ताम् ।
स्मेरमुखों वरदाभयदानाभीतिकरां' प्रभजे भुवनेशीम् ॥ ... .. .. इति भूलदेवीस्वरूपं ध्यात्वा मानसोपचारैराराध्य, यथाशक्तितो होमादिकं च ... कृत्वा कामकलां च विचिन्त्य तदुपरि श्रीभुवनेश्वरी यथोक्तरूपां ध्यात्वा स्ववामभागे
निवेश्य । ____ अथार्त्यपात्रस्थापन- स्ववामभागे षट्कोणान्तर्गतत्रिकोणान्तर्गतबिन्दुबाह्यवृत्तचतुरस्ररूपं मण्डलं विधाय पुनः स्वदः त्रिकोणवृत्तविन्दुमण्डलं कृत्त्वा भृमौ
विरच्य तत्राधारशक्तिं प्रपूज्य, तत्राधारं संस्थाप्य तदुपरि अस्त्रमंत्रेणशोधितं .. हृन्मंत्रण पूरितं पात्रं शङ्खादिकं वा संस्थाप्य तत्र तीर्थमावाह्य गन्धादिभिः प्रणवेन
सम्पूज्य सूर्यसोमाग्निकलाभिः सम्पूज्य इति धेनुमुद्रां प्रदर्श्य स्वमन्त्रेण च पूजयेत्, इति . सामान्यविधिः । तेन सामान्याय॑जलेन स्ववामभागे कृतमण्डलमभ्युक्ष्य तत्राधारशक्त्यादिक्रमेण पीठपूजां कृत्वा, नम इत्याधारं प्रक्षाल्य मण्डलोपरि संस्थाप्य, रं वह्निमण्डलाय दशकलात्मने नमः, इति सम्पूज्य फडिति मंत्रेण कलशं प्रक्षाल्य कारणेन प्रपूर्य रस्तमाल्यादिना संभूष्य देवीबुद्ध्या संस्थाप्य 'अं अर्कमण्डलाय द्वादशकलात्मने नम' इति संपूज्य ॐ सः चन्द्रमण्डलाय षोडशकलात्मने नम' इति द्रव्यमध्ये सम्पूज्य फडिति संरक्ष्य, हुं. इत्यवगुण्ठय, मूलेन द्रव्यं संवीक्ष्य नम इत्यभ्युक्ष्य मूलेन द्रव्यगन्धमाघ्राय कुम्भे पुष्पं दत्त्वा शापहरी विद्यां जपेत्- .
एकमेव परं ब्रह्म स्थूलसूक्ष्ममयं ध्रुवम् । कचोद्भवां ब्रह्महत्यां तेन ते नाशयाम्यहम् ॥ १॥ सूर्यमण्डलसम्भूते वरुणालयसम्भवे । अमाबीजमये देवि शुक्रशापाद्विमुच्यताम् ॥ २॥ .. वेदानां प्रणवो बीजं ब्रह्मानन्दमयं यदि ।
तेन सत्येन ते देवि ब्रह्महत्यां व्यपोहतु ।। ३ ।। इति त्रिपठेत, ॐ ऐं ह्रीं श्रीं वां वी बूं द्रौं व ब्रह्मशापविमोचितायै सुरादेव्यै नमः स्वधा इति त्रिः, ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्रां क्रीं कै क्रौं कः सुरे कृष्णशापं मोचय
१ वरदायकुशपाशाभीतिकरां।
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५८]
भुवनेश्वरीपञ्चाङ्गम् मोचय अमृतं स्रावय स्रावय स्वाहा इति त्रिः, ॐ ऐं ह्रीं श्रीं शांशी शं शैं शौं शः : ... सुरे शुक्रशापं मोचय सोचय अमृतं स्त्रावय स्रावय स्वाहा इति त्रिः, ॐ हंसः शुचि-.. पद्वसुरंतरिक्ष ४ सद्धोतावेदिषदतिथिटुरोणसत्, नृपदरसदृतसद्व्योम सदब्जा गोजा ... ऋतजा अद्रिजा ऋतं वृहत्, इति त्रिः । इत्येतान् मंत्रान् हस्तेन घटं धृत्वा पठेत् ॥ ..
. अथाऽऽनन्दभैरवं स्वरांश्च यथोक्तप्रकारेण तत्र ध्यात्वा स्वस्वमंत्रेण पूजयेत्-... ॐ ह स क्ष म ल व र यूं आनन्दभैरवाय चौपट , ॐ स ह क्ष म ल व र यी सुरादेव्यै वौषट् , इत्याभ्यां मंत्राभ्यां पृथक् संपूज्य संतj । श्रथ द्रव्यमध्ये दक्षिणावर्तेन त्रिपंक्त्या मातृकाचक्र विलिखेत्-अं १६ के १६ थं १६ इति शक्तिचक्र विलिख्य तन्मध्ये हं क्षं च विलिख्य तत्समावेशाद् द्रव्यमध्येऽमृतं विचिन्त्य धेनुमुद्रयाऽमृतीकृत्य वमिति सुधावीनं मूलमंत्रमप्यष्टधा घटे धृत्वा पठित्वा, अथात्मश्रीचक्रयोर्मध्ये त्रिकोणपटकोणवृत्तचतुरस्त्रात्मकं मण्डलं विलिख्य पूजयेत्, चतुरस्र पूर्णगिरिपीठाय नमः, ॐ उड्डीयानपीठायनमः, कामरूपपीठाय नमः, जालंधरपीठाय नम इति सम्पूज्य । षट्कोणे षडङ्गानि प्रपूज्य, मूलखण्डत्रयेण त्रिकोणस्याग्रदोत्तरं सम्पूज्य । मध्ये आधारशक्त्यादि सम्पूज्य त्रिकोणगर्भे त्रिपदिकां . संस्थाप्य नम इति सामान्याय॒जलेनाभ्युक्ष्य गन्धाक्षतहस्तेन पूजयेत् । ॐ रं वह्निमण्डलाय दशकलात्मने नम इति सम्पूज्य, यं धूम्राचिपे नमः, रं ऊष्मायै नमः, लं ज्वलिन्यै नमः, चं ज्वालिन्यै नमः, शं विस्फुल्लिंगिन्यै नमः, षं सुश्रियै नमः, सं.. सुरूपायै नमः, हं कपिलायै नमः, ळं हव्यवाहायै नमः, दं कन्यवाहायै नम.. इति सम्पूज्य । ततः पात्रं फडिति मंत्रेण प्रक्षाल्य त्रिकोणोपरि संस्थाप्य 'अं अर्कमण्डलाय द्वादशकलात्मने नमः' इति सम्पूज्य के भं तपिन्यै नमः, खं वं तापिन्यै .. नमः, गं फं धूम्रायै नमः, घं पं मरीच्यै नमः, ऊँ नं ज्वलिन्यै नमः, चं धं रुच्यै .... नमः, छं दं सुषुम्णायै नमः, जं थं भोगदायै नमः, ॐ तं विश्वायै नमः, अंणं .. वोधिन्यै नमः, टं टं धारिण्यै नमः, ठं डं क्षमायै नम इति सम्पूज्य, त्रिकोणवृत्त-... पटकोणं विलिख्य समस्तेन व्यस्तेन च मंत्रेण सम्पूज्य वं वरुणवीजं मूलं विलोममातृकां च पठन् द्रव्येण त्रिभागं जलेन च भागमेकं प्रपूर्य तत्र गन्धादीनि निक्षिप्य
ॐ सः सोममण्डलाय पोडशकलात्मने नम' इति सम्पूज्य, अं अमृतायै नमः, आं. मानदायै नमः, इं पूपायै नमः, ई तुष्टय नमः, उं पुष्टयै नमः, ऊं रत्यै नमः, - .धृत्यै नमः, शशिन्यै नमः, लं चंद्रिकायै नमः, लू कान्त्यै नमः, एं ज्योत्स्नायैः ।।
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:: पूजापद्धतिः नमः, ऐं श्रियै नमः, ओं प्रीत्यै नमः, औं अङ्गदायै नमः, अं पूर्णायै नमः, अ: पूर्णामृतायै नमः इति सम्पूज्य । पूर्ववद् द्रव्ये अकथादित्रिकोणचक्रं विलिख्य . मूलखण्डत्रयेण त्रिकोणं सम्पूज्य, षट्कोणे षडङ्ग च सम्पूज्य 'गङ्गे च यमुने' त्यादिना तीर्थमावाह्य आनन्दभैरव भैरव्यौ स्वस्वमंत्रेण सम्पूज्य पञ्चरत्नानि पूजयेत् । ग्लू गगनरत्नेभ्यो नमः पू, स्लू स्वर्गरत्नेभ्यो नमो दक्षिणे, म्लू मर्त्यरत्नेभ्यो नमः पश्चिमे. प्लू पातालरत्नेभ्यो नम उत्तरे, न्लू नागरत्नेभ्यो नमः पूर्वे, इति प्रथमपात्रं सम्पूज्य । अथ द्वितीयादीनां पात्राणि पुरतो मण्ड लेषु संस्थाप्य, हुं इत्यवगुण्ठय, वं इति धेनुमुद्रयामृतीकृत्य, तालत्रयं छोटिकाभिदर्शदिग्बन्धनं च कृत्वा, मत्स्यमुद्रया पात्रमाच्छाद्य तदुपरि मूलं सप्तधा संजप्य द्वितीयादीनां स्वस्वमंत्रण संस्कृतपात्रं देवीरूपं विभावयेत् । अथ देव्याज्ञामादाय घटसमीपे एकादशपात्राणि स्थापयेयु:गुरुपात्रं, शक्तिपात्रं, भोगपात्रं, स्वपात्रं, योगिनीपात्रं, वटुकपात्रं, वीरपात्रं, बलिपात्रं, पाद्यपात्रं, अर्घ्यपात्रं, आचमनीयपात्रं इत्येतानि पात्राणि संस्थाप्य चर्वणयुतकारणेन प्रपूर्य तत्त्वमुद्रया श्रीपात्राद्विन्दुमुद्धृत्य ह स क्ष म ल व र यूं आनन्दभैखं तर्पयामि नमः इति त्रिः संतप्यं । पादुकामंत्रान्ते श्रीमच्छ्रीअमुकानन्दनाथ श्रीपादुकां
तपेयामि नम इति त्रिःसन्तर्प्य एवं परमगुरुं परमाचार्य परमेष्ठिनं च संतl ततः - श्रीपात्रामृतेन मूलान्ते सायुधां सवाहनां सपरिवारां समुद्रां सपरिच्छदां श्रीभुवनेश्वरी
तर्पयामि नम इति त्रिसंतर्य पुनरपि गन्धमाल्यादिना कलशं संभूष्य देवीरूपं ध्यात्वा अमृतमयं घटं विभावयेत् ॥ इति कलशपूजाविधानम् ॥
अथ सिंहासनोपरि रचितपीठे पूर्ववत् पीठपूजां कुर्यात्-ॐ ऐं ह्रीं श्रीं आधारशक्तये नमः, मूलप्रकृत्यै नमः, मंडूकाय नमः, कमठाय नमः, शेषाय नमः, पृथिव्यै नमः, सुधाम्बुधये नमः, मणिद्वीपाय नमः, कल्पवनाय नमः, चिन्तामणिगृहाय नमः, रत्नवैदिकायै नमः, नानामणिखचितपीठाय नमः, दिक्षु नानामुनिगणेभ्यो नमः, नानासिद्धगणेभ्यो नमः, धर्माय नमः, ज्ञानाय नमः, वैराग्याय नमः, ऐश्वर्याय नमः, अनैश्वर्याय नमः, मध्ये-कन्दाय नमः, नालाय नमः, पद्माय नमः, प्रकृतिमयपत्रेभ्यो नमः, विकृतिमयकेशरेभ्यो नमः, पञ्चाशन्मातृकाबीजभूषितकर्णिकायै नमः, तन्मध्ये
अंसूर्यमण्डलाय नमः, सः सोममण्डलाय नमः, रं वैश्वानरमण्डलाय नमः, सं ... सत्वाय नमः, रं रजसे नमः, तं तमसे नमः, अां आत्मने नमः, अं अन्तरात्मने नमः,
-: पंपरमात्मने नमः, ह्रीं ज्ञानात्मने नमः, पुनः पत्रेषु-वामायै नमः, ज्येष्ठायै नमः, रौद्रय
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६० ]
भुवनेश्वरीपञ्चाङ्गम्
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नमः, अम्बिकायै नमः इच्छायै नमः, ज्ञानायै नमः, क्रियायै नमः, कुब्जिकायै नमः, चित्रायै नमः, विषनिकायै नमः, ऐं परायै नमः ऐं परायै नमः, सर्वत्र - हसौः सदाशिव - महाप्रेतपद्मासनाय नमः, शिवमव्वाय नम, इति पीठं संपूज्य पीठोपरि श्रीचक्रं संस्थापयेत् —
पद्ममष्टदलं वाह्ये वृतं षोडशभिर्दलैः । विलिखेत् कर्णिकामध्ये षट्कोणमति सुन्दरम् ॥ आचरेद्भूगृहं तद्वदिति चक्रं समुद्धरेत् ।
मतान्तरे च
बिन्दुत्रिकोणं रसकोणसंयुतं
वृत्तान्चितं नागदलेन मण्डितम् ।
कलारवृत्तत्रयभूगृहाङ्कितं
श्रीचक्रमेतद् भुवनेश्वरीप्रियम् ॥
इत्येवं श्रीचक्र संस्थाप्य तस्योपरि रक्तपुष्पं किञ्चिज्जलं च दत्त्वा पीठशक्ती: पूजयेत् । दिक्षु जयायै नमः, ई विजयायै नमः, ॐ श्रजितायै नमः, ऋ अपराजितायै नमः, लुं नित्यायै नमः, ऐं विलासिन्यै नमः, औं दोग्ध्यै नमः, अः अघोरायै नमः । मध्ये ह्रीं मङ्गलायै नमः, इति पीठं सम्पूज्य यथोक्तां श्रीभुवनेश्वरीं ध्यायेत् —
ॐ उद्यदिनद्युतिमिन्दुकिरीटां तुङ्गकुचां नयनत्रययुक्ताम् । स्मेरमुखीं वरदाभयदाना भीतिकरां प्रभजे भुवनेशीम् ॥
इति ध्यात्वा, यमिति वायुवीजेन वामनासापुटेन देवीं स्वहृदयात् कुसुमाञ्जलाचानीय तत्रावाह्य प्रार्थयेत्-~~
ॐ देवेशि भक्तिसुलभे परिवारसमन्विते । यावत्त्वां पूजयिष्यामि तावद्देवि इहावह ॥ १ ॥
मूलान्ते सवाहनस परिवारसायुधसमुद्रसपरिच्छद श्रीमच्छ्री महेश्वरभैरवसहिते श्रीभुवनेश्वरीहागच्छ इहागच्छ, एवं इह तिष्ठ इह तिष्ठ, एवं इह सन्निधेहि इह सन्निधेहि एवं इह सन्निरुद्धस्व इह सन्निरुद्धस्व, एवं मम सर्वोपचारसहितां पूजां गृह गृह स्वाहा, इत्यावाहनादिनवमुद्राः प्रदर्श्य पीठे पुष्पं दत्त्वा । अथ श्रीचक्रोपरि लेलिहानमुद्रां विधाय प्राणप्रतिष्ठां
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पूजापद्धति:
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कुर्यात्, ॐ ॐ ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हं सः श्रीमच्छी भुवनेश्वर्याः प्राणा इह प्राणा इह ॥ २१ ॥ जीव इह स्थितः ॥ २१ ॥ सर्वेन्द्रियाणि इह स्थितानि इह स्थितानि ॥ २९ ॥ वाङ्मनस्त्वक्चक्षुः श्रोत्रजिह्वाघाणप्राणा इहैवागत्य सुखं चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा, इति प्राणप्रतिष्ठां कृच्चा, पीठे पुष्पं दत्वा दिग्बन्धनं कृत्वा अवगुण्ठ्य सकलीकृत्य परमीकरणं विधाय धेनुयोनिमुद्रे प्रदर्श्य, शक्तिमुद्रां प्रदर्श्य, वराभयपुस्तकातमा लाज्ञानाङ्कश चापवाणकपालमालादिमुद्राः प्रदर्श्य, ततः पुष्पहस्तमुद्रया श्रीपात्रामृतेन सायुधां सवाहनां सपरिवारां समुद्रां सावरणां श्रीमच्छ्री महेश्वर भैरवसहितां श्रीभुवनेश्वरीं तर्पयामि नम इति त्रिः पीठोपरि संतर्प्य, पुनरपि मूलान्ते श्रीमच्छ्री भुवनेश्वरीपादुकां तर्पयामि नमः इति त्रिः संतर्प्य । अथ षोडशोपचारपूजां कुर्यात्, मूलान्ते एतत्पाद्यं श्रीमच्छ्री भैरवसहितायै श्रीभुवनेश्वय्यै नमः पादयोः पाद्यं, मूलान्ते इदमर्घ्यं स्वाहा शिरसि, मूलान्ते इदमाचमनीयं स्वाहा मुखे, मूलान्ते इदं मधुपर्क खधा मुखे, मूलान्ते इदं स्नानीयं नमः सर्वाङ्गे इत्यादि सुखाप्य शुद्धदुकूलेनाङ्गं प्रोन्छ अथ मूर्ती विचित्रपट्टवत्र कुंकुम कस्तूरीचन्दन सिन्दूरमुकुटकुण्डलमाल्यमुक्ताहारंत्रयादिनानालङ्कारान् दत्वा संभ्रूष्य पुनराचमनीयं दद्यात्, ततो मध्यानामाङ्गुष्ठाग्रमुद्रया मूलान्ते अयं गन्धो नमः, इति गन्धं दत्त्वा ततोऽङ्गुष्ठतर्जन्यग्रया मुद्रया मूलान्ते इमानि पुष्पाणि वौषट् इति पुष्पाणि दत्त्वा ततो धूपपात्रं फडिति संप्रोदय सम्मुखे संस्थाप्य वामहस्ततर्जन्या संस्पृशन् सूलान्ते धूपं निवेदयामि नम इति जलं दत्वा ततः 'ॐ जगदध्वनिमंत्र मातः स्वाहा' इत्यनेन गन्धादिभिः घण्टां सम्पूज्य वामपाणिना घण्टां वादयन् दक्षिणपाणिमध्यानामाङ्गुष्ठैर्धूपपात्रं समुद्धृत्य 'गायत्री मूलं च पठन
ॐ वनस्पतिरसोत्पन्नो गन्धाढ्यो गन्ध उत्तमः । श्रायः सर्वदेवानां धूपोऽयं प्रतिगृह्यताम् ॥
सवाहनसपरिवारसायुधसमुद्रसपरिच्छद सावरण श्रीमच्छी महेश्वर भैरव
मूलान्ते सहिताय श्रीभुवने धूपं निवेदयामि नम इति त्रिधा उत्तोल्य देवीं धूपयेत् । ततो दीपपात्रं सम्मुखे संस्थाप्य पूर्ववत् प्रोक्षणं पूजनं च कृत्वा वामहस्तमध्यमया दीपपात्रं संस्पृशन पूर्ववन्मूलसावरणान्ते दीपं निवेदयामि इति दक्षिणपाणिना जलेन निवेद्य पूर्वaari वादयन् दक्षिणपाणिना मध्यानामामध्ये दीपपात्रमङ्गुष्ठेन धृत्वा दर्शयन् मूलगायत्री च पठन् -
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६२ ]
भुवनेश्वरीपञ्चाङ्गम् ॐ सुप्रकाशो महादीपः सर्वत्र तिमिरापहः ।
सबाह्याभ्यन्तरज्योतिर्दीपोऽयं प्रतिगृह्यताम् ॥ इति पूर्वबद्दीपं निवेदयामि नम इत्यनेन देवी दीपयेत । अथ पर्णादिपात्रे. कुंकुमेन वसुपत्रं चन्द्ररूपं चरुं कृत्वा पात्रमध्ये दीपकमेकमष्टपत्रेषु दीपाष्टकं संस्थाप्य .. पूजयेत् ॥ श्रीं सौंः ग्लू स्लू म्लू प्लू न्यूँ सौं श्री श्री रत्नेश्वर्यै नम इत्यनेन पात्रं... सम्पूज्य मूलेन च सम्पूज्य ततो वामपाणिना घण्टा वादयन् दक्षेन पाणिना स्थालकं .... मस्तकान्तं उद्धृत्य नवधा मूलं जपन्
समस्तचक्रचक्रेशीयुते देवीनवात्मिके। ..
आरार्तिकमिदं देवि गृहाण मम सिद्धये ॥ इति चक्रमुद्रया नीराजयेत् ॥ ततो नाना नैवेद्यं स्वर्णादिपात्रे निक्षिप्य हुमित्यवगुण्ठ्य चमिति धेनुमुद्रयामृतीकृत्य मूलं सप्तधा जप्त्वा वामहस्ताङ्गुष्ठेन नैवेद्यपात्रं स्पृशन् मूलान्ते
हेमपात्रगतं दिव्यं परमान्नं सुसंस्कृतम् ।
पञ्चधा षड्रसोपेतं गृहाण परमेश्वरि ॥ श्रीभुवनेश्वर्यै नैवेद्यं निवेदयामि नमः, ततो दक्षानामाङ्गुष्ठाभ्यां नैवेद्यपात्रमुसृजेत्, पुनराचमनीयं दत्वा मूलान्ते कर्पूरादियुक्तं ताम्बूलं निवेदयामीति पूर्ववद्दद्यात्, सर्वेपी मध्ये जलेनोत्सर्गः कार्यः। ततस्तत्वमुद्रया श्रीपात्रामृतेन देवीं त्रिः संतयं ततः पूर्वोक्तमुद्राः प्रदर्श्य योनिमुद्रामेवं दर्शयेत्-हदि क्षोभिणी, मुखे द्राविणी भ्रूमध्ये आकर्पिणी, ललाटे वशिनी, ब्रह्मरन्ध्रे आह्लादिनी इति पञ्चमुद्रामयीं योनिमुद्रां प्रदर्श्य, अथ कृताञ्जलिः 'श्रीभुवनेश्वरि ! आवरणान् ते पूजयामि' इत्याज्ञां .. गृहीत्वा आवरणपूजामारभेत्-कर्णिकामध्ये ॐ ऐं ह्रीं श्रीं हुल्लेखायै नमः, पूर्वे ऐं गङ्गायै नमः, दक्षिणे रक्तायै नमः, उत्तरे इं करालिकायै नमः, पश्चिमे महोच्छुष्मायै नम इति प्रथमावरणम् । आग्नेय्यां ॐ ह्रां हृदयाय नमः. नैर्ऋत्यां ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा, वायव्यां ॐ हूं शिखायै वषट् , ऐशान्यां ॐ हैं कवचाय हुँ, अग्रभागे ॐ ह्रौं नेत्रत्रयाय वौषट् , दिक्षु ॐ ह्रः अस्त्राय फट, मध्ये मूलं पुनरपि पट्कोणेषु : पूर्वे गायत्रीसहितब्रह्मणे नमः, नैर्ऋत्यां सावित्रीसहितविष्णवे नमः, वायव्यां सरस्व
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.. पूजापंद्धतिः ..
[६३ तीसहिताय रुद्राय नमः, आग्नेय्यां लक्ष्मीसहिताय कुबेराय नमः, पश्चिमायां रति. सहिताय मदनाय नमः, ऐशान्यां पुष्टिसहितविघ्नराजाय नमः, षट्कोणपार्श्वयोः
शङ्खनिधये नमः पद्मनिधये नमः, पुनरपि आग्नेय्यादिकेशरेषु आग्नेये ॐ हां हृदयशक्तये नमः, ईशाने ॐ ह्रीं शिरःशक्तये नमः, वायव्ये ॐ हूँ शिखाशक्तये नमः नैर्ऋत्ये ॐ हैं कवचशक्तये नमः, आग्नेये ॐ ह्रौं नेत्रशक्तये नमः, दिक्षु ॐ ह्रः अस्त्रशक्तये नमः, मध्ये मूलं इति द्वितीयावरणम् || ततः पूर्वाद्यष्टदलेषु ॐ ऐं ह्रीं श्री अनङ्गकुसुमायै नमः, अनङ्गकुसुमातुरायै नमः, अनङ्गमदनायै नमः, अनङ्गमदनातुरायै नमः, भुवनपालायै नमः, गगनवेगायै नमः, शशिरेखायै नमः, गगनरेखायै नमः, मध्ये मूलं इति तृतीयावरणम् ॥ ततः पूर्वादिषोडशदलेषु सम्पूज्य
_ 'पूज्यपूजकयोमध्ये प्राचीति कथ्यते बुधैः । ... ॐ ऐं ह्रीं श्रीं कराल्यै नमः, विकराल्यै नमः, उमायै नमः, सरस्वत्यै नमः, श्रियै नमः, दुर्गायै नमः, उषायै नमः, लक्ष्म्यै नमः, श्रुत्यै नमः, स्मृत्यै नमः,
धृत्यै नमः, श्रद्धायै नमः, मेधायै नमः, मत्यै नमः, कान्त्यै नमः, आर्यायै नमः, .: मध्ये मूलं इति चतुर्थावरणम् ॥ ततः षोडशपत्रेभ्यो बहिः ॐ ऐं ह्रीं श्रीं अनङ्ग. रूपायै नमः, अनङ्गमदनायै नमः ॥२॥ मदनातुरायै नमः ॥ ३॥ भुवनवे
गायै नमः ॥ ४॥ भुवनपालिन्यै नमः ॥ ५ ॥ सर्वमदनायै नमः ॥ ६ ॥ अनङ्गवेदनायै नमः ॥ ७॥ अनङ्गमेखलायै नमः ॥ ८॥ मध्ये मूलं इति पञ्चमावरणम् । ततस्तबहिः ॐ ऐं ह्रीं श्रीं ब्राह्मयै नमः॥१॥ माहेश्वर्यै नमः ॥२॥ कौमार्यै नमः ॥ ३ ॥ वैष्णव्यै नमः ॥ ४ ॥ वाराह्य नमः ॥ ५ ॥ इन्द्राण्यै नमः ॥ ६॥ चामुण्डायै नमः ॥ ७ ॥ महालक्ष्म्यै नमः ।। ८ ।। मध्ये मूलं ततस्तद्वंहिः ॐ ऐं ह्रीं श्रीं असिताङ्गभैरवाय नमः ॥ १।। रुरुभैरवाय नमः ॥२॥ चण्डभैरवाय नमः ।। ३॥ क्रोधभैरवाय नमः ॥ ४ ॥ उन्मत्तभैरवाय नमः ॥॥ कपालभैरवाय नमः ॥ ६॥ भीषणभैरवाय नमः ॥ ७॥ संहारभैरवाय नमः ॥८॥ मध्ये मूलं इति षष्ठावरणम् ॥ ततो वृत्तमध्ये ॐ ऐं ह्रीं श्रीं इन्द्राय नमः ॥१॥ अग्नये नमः ॥ २ ॥ धर्मराजाय नमः ॥ ३॥ नैऋत्याय नमः ॥४॥ वरुणाय नमः ॥ ५॥ वायवे नमः॥६॥ कुबेराय नमः । ७ ॥ ईशानाय नमः ॥८॥
ईशाने ब्रह्मणे नमः। नैऋत्यां विष्णवे नमः । मध्ये मूलं इति सप्तमावरणम् ।। तत...... स्तबहिः ॐ ऐं ह्रीं श्रीं इन्द्रशक्तये नमः ॥१॥ अग्निशक्तये नमः ॥ २॥ यम
..
.
त
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६४
भुवनेश्वरीपञ्चाङ्गम् शक्तये नमः ॥ ३॥ नैर्ऋत्यशक्तये नमः !। ४ ॥ वरुणशक्तये नमः ॥ ५ ॥ वायव्यशक्तये नमः ॥ ६॥ कुवेरशक्तये नमः ॥ ७ ॥ ईशानशक्तये नमः ॥ ८॥ ब्रह्मशक्तये नमः ॥६॥ वैष्णवशक्तये नमः ।। १० ।। मध्ये-वरमुद्रायै नमः ॥१॥ अभयमुद्रायै नमः ॥ २ ॥ जपमालायै नमः ॥ ३ ॥ पुस्तकायै नमः ॥ ४ ॥ मध्ये मूलमिति नवमावरणम् । ततो भृगृहे ॐ ऐं ह्रीं श्रीं वज्रशक्तये नमः ॥ १॥ शक्तिशक्तये नमः ।। २॥ दण्डशाक्ये नमः || ३॥ खड्गशक्तये नमः ॥४॥ पाशशक्तये नमः ॥ ५ ॥ अङ्कुशशक्तये नमः ।। ६ ।। गदाशक्तये नमः ॥७॥ त्रिशूलशक्तये नमः ॥ ८ ॥ पद्मशक्तये नमः ॥६॥ चक्रशक्तये नमः ॥ १० ॥ मध्ये मूलमिति दशमावरणम् ।। ततस्तवहिः, ॐ ऐं ह्रीं श्रीं ऐरावताय नमः, मेपाय नमः, महिषाय नमः, प्रेताय नमः, मकराय नमः, मृगाय नमः, नराय नमः, वृषभाय नमः, हंसाय नमः, गरुडाय नमः मध्ये सिंहाय नमः, ततस्तवहिः ॐ ऐं .. ह्रीं श्रीं ऐरावतशक्तये नमः, मेषशक्तये नमः, महिपशक्तये नमः, प्रेतशक्तये नमः, .. मकरशक्तये नमः, मृगशक्तये नमः, नरशक्तये नमः, बृपशक्तये नम:, हंसशक्तये नमः, .. गरुडशक्तये नमः, सिंहशक्तये नमः, इत्येकादशावरणम् ।। ततः पूर्वक्रमेण ॐ ऐं ह्रीं । श्री आदित्याय नमः, सोमाय नमः, भौमाय नमः, बुधाय नमः, गुरवे नमः, शुक्रायनमः, शनैश्चराय नमः, राहवे नमः, मध्ये केतवे नमः, ततस्तवहिः, ॐ ऐं ह्रीं श्रीं ..
आदित्यशक्तये नमः, सोमशक्तये नमः, भीमशक्तये नमः, बुधशक्तये नमः, गुरुशक्तये.. नमः, शुक्रशक्तये नमः, शनिशक्तये नमः, राहुशक्तये नमः, मध्ये केतुशक्तये नमः, इति द्वादशावरणम् ॥ ततः पूर्वे ॐ ऐं ह्रीं श्रीं वां बटुकाय नमः, दक्षिणे यां योगिनीभ्यो नमः, पश्चिमे क्षां क्षेत्रपालाय नमः, उत्तरे ग्लौं गणपतये नमः, ईशाने हुं सर्वभूतेश्वराय नमः, मध्ये मूलमिति सम्पूज्य संतयं अथावरणं ध्यायेत्-...
हल्लेखाद्याः समभ्याः पंचभूतसमप्रभाः।
वरपाशाकुशाभीतिधारिण्योऽमितभूषणाः ।। दण्डकमण्डल्वक्षमालाधारिणौ गायत्रीब्रह्माणौ, शङ्खचक्रगदापद्मधारिणौ पीताम्वरौ सावित्रीविष्णू , परवक्षमालाभयहस्तौ सरस्वतीमहेश्वरी, रनकुम्भमणिकरण्डक- ... धारितुन्दिलः पीताम्बरः कुवेरः स्वाङ्कस्था दक्षिणभुजेन पद्मधारिणी महालक्ष्मी .. वामवाहुनाऽलिङ्ग्य स्थितः, वाणपाशाङ्कुशधरासनहस्तो रक्तमाल्याम्बरधरो मोदकहस्तो दक्षिणहस्तेनाऽलिङ्ग्य वामेनोत्पलधारिणी रति अङ्कुशपाशहस्त: करण
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पूजापद्धतिः ।
[ ६५ कान्ताभगं स्पृशन् दिगम्बरो माध्वीकपूर्णकलशं धारयन् पुष्करेण चषकधारी रक्तवर्णो विघ्नेशः, मदविह्वला रक्तवर्णा वामपाणिना चषकधारिणी गणेशलिङ्गं स्पृशन्ती अन्येन धृतोत्पला समाश्लिष्टकान्ता दिगम्बरा पुष्टिः, अनङ्गरूपाद्यास्तु
'चषकं तालवृन्तं च ताम्बूलं छत्रमुज्वलम् । चामरं च शुकं पुष्पं बिभ्राणाः कर पङ्कजैः ।।
नानाऽभरणसंदीप्ता' इत्यादि आवरणपूजाध्यानं विधाय । अथ दिव्यौधान् सिद्धौघान् मानवौघान् पक्तित्रयेण पृथक् पृथक् त्रिकोणेषु पूजयेत्, पुनरपि बिन्दौ मूलेन सम्पूज्य सन्तर्प्य पञ्चमुद्राः प्रदये ततः पुष्पाञ्जलिमंत्रेण पुष्पाञ्जलिं दद्यात्
__ॐ यद्दत्तं भक्तिमात्रेण पत्रं पुष्पं जलं फलम् ।
. निवेदितं च नैवेद्यं तद्गृहाणानुकम्पया ।
इत्यनेन पञ्चपुष्पाञ्जलिं दत्त्वा अन्योक्तिभिर्यथालाभद्रव्योमं कुर्यात्, अग्नौ ... : जले बा चक्र विलिख्य विभाव्य प्राणाय स्वाहा, अपानाय स्वाहा, व्यानाय स्वाहा,
उदानाय स्वाहा, समानाय स्वाहा इत्यादि हुत्या 'ॐ ह्रां हृदयाय नमः स्वाहा' इत्यादि पडङ्गाहुतीर्दत्वा स्वयन्त्रोक्तपरिवारान् मूलदेवी च यथोक्तप्रकारेण हुत्वा नामसहस्रेण होमं कृत्वा देवी सम्पूज्य क्षमापयेत्
ॐ भूमी स्खलितपादानां भूमिरेवावलम्बनम् । त्वयि जातापराधानां त्वमेव शरणं मम ॥१॥ अपराधो भवत्येव सेवकस्थ पदे पदे । कोऽपरः सहते लोके केवलं स्वामिनं विना ॥ २ ॥ अपराधसहस्राणि क्रियन्तेऽहर्निशं मया। समक्षं सविधे सर्वमिति मातः क्षमस्व मे ॥ ३ ॥ .. श्रावानं न जानामि न जानामि विसर्जनम् । ' पूजाभावं न जानामि त्वं गतिः परमेश्वरि ॥ ४ ॥
कर्मणा मनसा वाचा नास्ति चान्या गतिर्मम । ..: अन्तश्चारेण भूतानां रक्ष त्वं परमेश्वरि ! ।। ५ ॥
.....:
श्रावाहन
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भुवनेश्वरीपञ्चानम् देवी दात्री च भोक्त्री च देवी सर्वमिदं जगत् । देवी जयति सर्वत्र या देवी सोऽहमेव हि ॥ ६ ॥ यदक्षरपरिदृष्टं * मंत्रहीनं च यद्भवेत् । क्षन्तुमर्हसि देवेशि कस्य न स्खलितं मनः ॥ ७ ॥ द्रव्यहीनं क्रियाहीनं मंत्रहीनं सुरेश्वरि ! सर्व तत् कृपया देवि क्षमस्त्र परमेश्वरि ! ॥ ८ ॥ यन्मया क्रियते कम जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिषु । तत्सर्व तावकी पूजा भूयाद्भूत्यै नमः शिवे ! ॥ ६ ॥ प्रातः प्रभृति सायान्तं सायादि प्रातरंततः यत्करोमि जगद्योने तदस्तु तव पूजनम् ।। १० ।। क्षमस्व देवदेवेशि मम मन्त्रस्वरूपिणि ।
तव पादाम्बुजे नित्यं निश्चला भक्तिरस्तु मे ॥ ११ ।। इत्येवं देवीं क्षमाप्य पुनरपि निर्माल्यं त्यक्त्वा संपूज्य देवीं स्वहृदि विसर्जयेत् । पुष्पाञ्जलिमादाय
ॐ गच्छ गच्छ परं स्थानं स्वस्थानं परमेश्वरि !
यत्र ब्रह्मादयो देवा न विदुः परमं पदम् ॥ इति पीठे पुष्पाञ्जलिं दत्त्वा संहारमुद्रया पीठात् पुष्पं गृह्णीयात्-.
ॐ तिष्ठ तिष्ठ परे स्थाने स्वस्थाने परमेश्वरि ! .
यत्र ब्रह्मादयः सर्वे सुरास्तिष्ठन्ति मे हृदि । इति पठित्वा पुष्पं हृदि स्पृशन्नाघ्राय शिरसि स्थापयेत् । तत ईशाने मण्डलं कृत्वा 'वां बटुकाय नम' इति सम्पूज्य ॐ ऐं ह्रीं श्रीं ऐह्येहि देवीपुत्र बटुकनाथ कपिलजटाभारभास्वर त्रिनेत्र ज्वालामुख सर्वविघ्नान्नाशय नाशय सर्वोपचारसहित वलिं गृह्ण गृह्ण स्वाहा, इत्यनेनाङ्गुष्ठानामिकायोगेन ईशानाय वटुकाय वलिं दत्त्वा, आग्नेय्यां मण्डलं कृत्वा 'यां योगिनीभ्यो नमः इति सम्पूज्य ॐ ऐं ह्रीं श्रीं
.
* यदक्षरपदभ्रष्टं मात्राहीनं ।
...
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पूजापद्धतिः
[६७ ऊर्ध्वं ब्रह्माण्डतो वा दिवि गगनतले भूतले निष्कले वा पाताले वाऽनले वा सलिल पवनयोर्यत्र कुन स्थितो वा। क्षेत्रे पीठोपपीठादिषु च कृतपदा धूपदीपादिकेन
प्रीता देव्यः सदा नः शुभवलिविधिना पान्तु वीरेन्द्रवन्द्याः॥ , ....... यां योगिनीभ्यो हुं फट् स्वाहा, इत्यनेन कनिष्ठिकाङ्गुष्ठयोगेन वह्निकोणे
योगिनीभ्यो वलिं दत्त्वा, नैर्ऋत्यां ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्षांक्षी चू तैं क्षौं क्षः हुं स्थानक्षेत्रपाल ! सर्वकामान् पूग्य पूरय अलिबलिसहितं बलिं गृह्ण गृह्ण स्वाहा इत्यनेन वायुकोणे मएडलं कृत्वा सम्पूज्य श्री गां गी गूज गौं गः गणपतये वरवरद
सर्वजनं मे वशमानय इमां पूजा बलिं गृह गृह्ण स्वाहा गजशुण्ड मुद्रया वलिं दद्यात् ..इत्यनेन गणपतये बलिं दत्त्वा, ईशानेतरयोर्मध्ये मण्डलं कृत्वा ॐ ऐं ह्रीं श्रीं
सर्वविघ्नकृभ्यः सर्वभूतेभ्यः हुं फट् स्वाहा, इत्यनेन सर्वभूतेभ्यो बलिं दत्वा ततो ... छागादिवलिमपि दद्यात् । ततः शिरसि गुरु हदि इष्टदेवतां च ध्यात्वा यथाशक्तितो जपं विधाय प्राणायामऋष्यादिकरषडङ्गन्यासान् विधाय जलमादाय
ॐ गुह्यातिगुह्यगोपनी त्वं गृहाणास्मत्कृतं जपम् ।
सिद्धिर्भवतु मे देवि त्वत्प्रसादान्महेश्वरि !॥ .. इत्यनेन तेजोमयं जपफलं देव्या वामहस्ते समर्प्य कवचसहस्रनामस्तोत्रादि - पठित्वा साष्टाङ्गं प्रणिपत्य प्रदक्षिणीकृत्य सामयिकैः सह पात्रचन्दनं विधाय
नन्दन्तु साधकाः सर्वे विनश्यन्तु विदूषकाः।
अवस्था शाम्भवी मेऽस्तु प्रसन्नोऽस्तु गुरुः सदा ॥
इत्यादि शान्तिस्तोत्रं पठित्वा ईशाने मण्डलं कृत्वा ॐ निर्माल्यवासिन्यै नम, ... इत्यनेन ईशाने निर्माल्यादिकं निक्षिप्य जलमादाय ॐ ऐं ह्रीं श्रीं इत्तः प्राणबुद्धिदेह. धर्माधिकारतो जाग्रत्स्वप्नसुषुप्त्यवस्थासु मनसा वाचा कर्मणा हस्ताभ्यां पदस्यां
उदरेण शिश्ना यत्स्मृतं यदुक्तं यत्कृतं तत् सर्व मामकीनं सकलं श्रीभुवनेश्वर्याश्चररणकमले समर्पणमस्तु स्वाहा, . इत्यनेनाप्रभागे जलं निक्षिप्य ॐ तत्सद् ब्रह्म इति स्मृत्वा यथासुखं विहरेत् ॥ - इति श्रीरुद्रयामले तंत्रे दशविद्यारहस्ये श्रीभुवनेश्वर्या नित्यपूजनद्धतिः सम्पूर्णा ॥ संवत् १६४३ मिती श्रावण सुदि ६ रविवासरे श्रीरस्तु ॥ कल्याणमस्तु ।
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अथ कवचम्
श्रीगणेशाय नमः
ॐ अस्य श्रीभुवनेश्वरीमंत्रस्य शक्तिॠषिर्गायत्री छन्दः भुवनेश्वरी देवता हं बीजं ई शक्ति: रं कीलकं ममाभी प्रसिध्यर्थे जपे विनियोगः । शक्तिऋषये नमः शिरसि, गायत्रीछन्दसे नमो मुख, श्रीभुवनेश्वरीदेवतायै नमो हृदि, हं बीजाय नमो गु, ई शक्तये नमः पादयोः, रं कीलकाय नमः सर्वाङ्ग । ॐ ह्रां अंगुष्ठाभ्यां नमः ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः, हूं मध्यमाभ्यां नमः हैं अनामिकाभ्यां नमः ह्रौं कनिष्टिकाभ्यां नमः, ह्रः करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः । ह्रां हृदयाय नमः, ह्रीं शिरसे स्वाहा, हूं शिखायै वषट्, हैं कवचाय हुं, ह्रौं नेत्रत्रयाय वौषट् हः अस्त्राय फट् इत्यादि न्यासं कृत्वा ध्यायेत् —
,
ॐ उद्यदिन द्युतिमिन्दु किरीटां तुङ्गकुचां नयनत्रययुक्ताम् ! स्मेरमुखीं वरदाङ्कुशपाशाभीतिकरां प्रभजे भुवनेशीम् ।।
देव्युवाच
भुवनेश्याश्च देवेश या या विद्याः प्रकाशिताः । श्रुताश्चाधिगताः सर्वाः श्रोतुमिच्छामि साम्प्रतम् ॥ १ ॥ त्रैलोक्य मङ्गलं नाम कवचं यत् पुरोदितम्' । कथयस्व महादेव ! मम प्रीतिकरं परम् ॥ २ ॥
ईश्वर उवाच -
पार्वति शृणु वक्ष्यामि सावधानाऽवधारय । त्रैलोक्यमङ्गलं नाम कवचं मंत्रविग्रहम् || ३ || सिद्धिविद्यामयं देवि सर्वेश्वर्यप्रदायकम् । पठनाचारणान् मर्त्यस्त्रैलोक्यैश्वर्यवान् भवेत् ॥ ४ ॥ त्रैलोक्यमङ्गलस्यास्य कवचस्य ऋषिः शिवः । छन्दो विराट्र जगधात्री देवता भुवनेश्वरी ॥ ५ ॥ १. ख. पुरा कृतम् । २. ख. समन्वितम् । ३. ख. त्रैलोक्यैश्वर्यभाग ।
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[६६
भुवनेश्वरीपञ्चाङ्गम् धर्मार्थकाममोक्षार्थे विनियोगः प्रकीर्तितः ।...... ही बीजं मे शिरः पातु भुवनेशी ललाटकम् ॥ ६.॥ ऐं पातु दक्षनेत्रं मे ह्रीं पातु वामलोचनम् । श्रीं पातु दक्षकर्णं मे त्रिवर्णात्मा महेश्वरी ॥ ७ ॥ .. वामकर्ण सदा पातु ऐं प्राणं पातु मे सदा। ह्रीं पातु वदनं देवी ऐं पातु रसनां मम ।। ८ ।।... - वात्रिपुरा त्रिवर्णात्मा कण्ठं पातु परात्मिका। . . . श्री स्कन्धौ पातु नियतं ही भुजौ पातु सर्वदा ॥६॥ क्लीं करौ त्रिपुरेशानी त्रिपुरैश्वर्यदायिनी । श्री [i) पातु हृदयं ह्रीं मे मध्यदेशं सदाऽवतु ॥ १० ॥ क्रों पातु नाभिदेशं सा' ब्यक्षरी भुवनेश्वरी । : सर्वजीवप्रदा पृष्ठं पातु सर्ववशंकरी ॥ ११ ॥ .. हीं पातु गुह्यदेशं मे नमो भगवती कटिम् । . माहेश्वरी सदा पातु सक्थिनी जानुयुग्मकम् ॥ १.२ ॥ . अन्नपूर्णे सदा पातु स्वाहा पातु पदद्वयम् । सप्तदशाक्षरी पायादन्नपूर्णाऽखिलं वपुः ॥ १३ ।। .. तारं माया रमा कामः षोडशार्णा ततः परम् । शिरःस्था सर्वदा पातु विंशत्यत्मिका परा ॥ १४ ॥ तारं दुर्गे युगं रक्षिणि स्वाहेति दशाक्षरी। ... जयदुर्गा घनश्यामा पातु मां पूर्वतः सदा ॥ १५ ॥ . .. माया बीजादिका चैषा दशार्णा च तथा परा। .. उत्तप्तकाश्चनामा सा जयदुगोऽनलेऽवतु ॥ १६ ॥ ..
तारं ह्रीं दुर्गायै नम अष्टवर्णात्मिका परा।। ... शङ्खचक्रधनुर्वाणधरा मां दक्षिणेऽवतु ॥ १७॥ .
१. ख. मोक्षेषु। १ ख. चदने । २. ख, वाक्पुटा च । ३. ख. त्रिपुरा पातु । - ग. निपुटा पातु । ४. ख. मे । ५. ख. सर्वबीजप्रदा । ६. ख. शालिनी सर्वक्त्रपदा .. ७. ख, सर्वतो मुदाः।
ख. ततः । १. ख. जय दुर्गाऽऽननेऽवतुः । ग. जयदुर्गाऽवनेऽवतु । . .१०. ख; तारं ही दुच दुर्गायै नमोऽष्टार्णात्मिका परा।
.
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७० ]
त्रैलोक्यमङ्गलं कवचम्
महिषमर्द्दिनी स्वाहा वसुवर्णात्मिका परा । नैर्ऋत्यां सर्वदा पातु महिषासुरनाशिनी ॥ १८ ॥ माया पद्मावती स्वाहा पश्चिमे मां सदाऽवतु | पाशाङ्कुशपुटा माया पाहि परमेश्वरि स्वाहा ॥ १६ ॥ त्रयोदशार्णा' ताराद्या अश्वारूढा ऽनिलेऽवतु | सरस्वती पञ्चशरे नित्यक्लिन मदद्रवे || २० | स्वाहा च त्र्यक्षरी नित्या मामुत्तरे सदाऽवतु । तारं माया च कवचं खे च रक्षेत् ततो वधूः ॥ २१ ॥ हुं ह्रीं फट् महाविद्या द्वादशार्णाऽखिलप्रदा । त्वरिताष्टादिभिः पायाच्छ्विकोणे सदा च माम् ।। २२ ।। ऐं क्लीं सौः सततं बाला मामृदुर्ध्वदेशतोऽवतु । विद्वन्ता भैरवी वाला भूमौ" मां सर्वदाऽवतु ॥ २३ ॥ इति ते कवचं " पुण्यं त्रैलोक्यमङ्गलं परम् ।
९
सारात् सारतरं पुण्यं महाविद्यौघविग्रहम् ॥ २४ ॥ अस्य हि पठनान्नित्यं कुबेरोऽपि धनेश्वरः । इन्द्राद्याः सकला देवाः पठनादुद्धारणाद्यतः ॥ २५ ॥
$3
१२
सर्वसिद्धीश्वराः संतः सर्वैश्वर्यमवाप्नुयुः ।
૪
पुष्पाञ्चल्यष्टकं दत्त्वा" मृलेनैव पटेत् सकृत् " ।। २६ ॥
संवत्सरकृतायास्तु पूजायाः फलमाप्नुयात् ।
१६
प्रीतिमान् योऽन्यतः कृत्त्वा कमला निश्चला गृहे ॥ २७ ॥ वाणी च निवसेवक्त्रे सत्यं सत्यं न संशयः । यो धारयति पुण्यात्मा त्रैलोक्यमङ्गलाभिधम् ॥
२८ ॥
१. व. ग. सप्तार्णा परिकीर्तिता । 'पद्मावतीपद्मसंस्था पश्चिमे मां सदाऽवतु' इति ख, ग, पुस्तकयोर्विशेषः । २. ग. मायेति परमेश्वरि स्वाहा । ३. ग. नमो दशाणां । ४ ख साऽश्वा । ५ ख, पञ्चत्वरा । ६. ख. वस्वचरी । ७. ग, खे रक्षेत् सततं वधूः । ८.ग. त्वरिताष्टाहिभिः बुधः । १. ख. मामूर्ध्वदेशे ततोऽवतु । ग. विन्दुना । १० ख स ग हस्तौ । ११. ख. एतत् ते कथितं । १२. ख. श्रंस्यापि पठनात् सद्यः । ग. धारणात्पठनाद्यतः । १३. ख. दद्यात् । १४. ख. पृथक् पृथक् । १५. ख. प्रीतिमन्योन्यतः । १६ ख तत्तनुम् । १७ ख परमेश्वरीम् ।
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भुवनेश्वरीपञ्चाङ्गम्
कवचं परमं पुण्यं सोऽपि पुण्यवतां वरः । सर्वैश्वर्ययुतो भूत्वा त्रैलोक्यविजयी भवेत् || २६ || पुरुषो दक्षिणे बाहौ नारी वामभुजे तथा । बहुपुत्रवती भूत्वा वन्ध्यापि लभते सुतम् ।। ३० ।। ब्रह्मास्त्रादीनि शस्त्राणि नैव कृन्तन्ति तं जनम् । एतत्कवचमज्ञात्वा यो जपेद्र भुवनेश्वरीम् || ३१ ।। द्रारिद्रयं परमं प्राप्य सोऽचिरान् मृत्युमाप्नुयात् ॥ ३२ ॥
[ ७१
इति श्रीरुद्रयामले तन्त्रे पार्वतीश्वरसंवादे त्रैलोक्यमङ्गलं नाम मुवनेश्वरीकवचं
समाप्तम् ।।
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श्रीभुवनेश्वरीसहस्त्रनाम
श्रीगणेशाय नमः श्रीदेव्युवाच
देव देव महादेव सर्वशास्त्रविशारद ! कपालखट्वाङ्गधर ! चिताभस्मानुलेपन ! ।। १ ।। आद्या या प्रकृतिनित्या सर्वशास्त्रेषु गोरिता । तस्याः श्रीभुवनेश्वर्या नाम्नां पुण्यं सहस्रकम् ।। २ ।।
कथयस्व महादेव ! यथा देवी प्रसीदति । ईश्वर उवाच
साधु पृष्टं महादेवि ! साधकानां हिताय वै ॥ ३ ॥ या नित्या प्रकृतिराद्या सर्वशास्त्रेषु गोपिता ।। यस्याः स्मरणमात्रेण सर्वपापैः प्रमुच्यते ।। ४ ।। ..
आराधनाभवेद्यस्या जीवन्मुक्तो न संशयः ।
तस्या नामसहस्रं वै कथयामि समासतः ।। ५ ।। ॐ अस्य श्रीभुवनेश्वर्याः सहस्रनामस्तोत्रस्य दक्षिणामूर्तिर्ऋषिः पंक्तिश्छन्दः आद्या श्रीभुवनेश्वरी देवता ह्रीं बीजं श्रीं शक्तिः क्लीं कीलकं मम श्रीधर्मार्थकाममोक्षार्थे . जपे विनियोगः ।
आद्या माया एरा शक्तिः श्रीं ह्रीं क्लीं भुवनेश्वरी। भुवना भावना भव्या भवानी भवभाविनी ॥ ६॥ रुद्राणी रुद्रभक्ता च तथा रुद्रप्रिया सती । .... उमा कात्यायनी दुर्गा मङ्गला सर्वमङ्गला ।। ७ ।। त्रिपुरा परमेशानी त्रिपुरा सुन्दरी प्रिया । ......... रमणा रमणी रामा रामकार्यकरी शुभा ।। ८ ॥ ब्राह्मी नारायणी चण्डी चामुण्डा मुण्डनायिका । .....
माहेश्वरी च कौमारी वाराही चापराजिता ।। || १.ग. महादेव । २. ग. भुवनाभुवना भाव्या । ३. ग. सुन्दरी सुन्दरप्रिया । ४. ग. चण्डा । ......
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(७३
भुवनेश्वरीपञ्चाङ्गम् । महामाया मुक्तकेशी महात्रिपुरसुन्दरी । सुन्दरी शोभना रक्ता रक्तवस्त्रापिधायिनी ॥ १० ॥ रक्तानी रक्तवस्त्रा च रक्तबीजातिसुन्दरी' । रक्तचन्दनसिक्ताङ्गी रक्तपुष्पसदाप्रिया ॥ ११ ॥ कमला कामिनी कान्ता कामदेवसदाप्रिया । लक्ष्मी लोला चश्चलाक्षी चन्चला चपला प्रिया ॥ १२ ॥ भैरवी भयहीं च महाभयविनाशिनी । भयङ्करी महाभीमा भयहा भयनाशिनी ॥ १३ ॥ श्मशाने प्रान्तरे दुर्गे संस्मृता भयनाशिनी । जया च विजया चैव जयपूर्णा जयप्रदा ॥ १४ ॥ यमुना यामुना याम्या यामुनजा यमप्रिया । सर्वेषां जनिका जन्या जनहा जनवर्द्धिनी ॥ १५ ॥ काली कपालिनी कुल्ला कालिका कालरात्रिका । महाकालहृदिस्था च कालभैरवरूपिणी ॥ १६ ॥ कपालखट्वाङ्गधरा पाशाङ्कुशविधारिणी।। अभया च भया चैव तथा च भयनाशिनी ॥ १७॥ महाभयप्रदात्री च तथा च वरहस्तिनी। गौरी गौराङ्गिनी गौरा गौरवर्णा जयप्रदा ॥ १८ ॥ उग्रा उग्रप्रभा शान्तिः शान्तिदाऽशान्तिनाशिनी । उग्रतारा तथा चोग्रा नीला चैकजटा तथा ॥ १६ ॥ हां हां हूं हूं तथा तारा तथा च सिद्धिकालिका । तारा नीला च वागीशी तथा नीलसरस्वती ॥ २० ॥ . गङ्गा काशी सती सत्या सर्वतीर्थमयी तथा । तीर्थरूपा तीर्थपुण्या तीर्थदा तीर्थसेविका ॥ २१ ॥ पुण्यदा पुण्यरूपा च पुण्यकीर्तिप्रकाशिनी"।
· पुण्यकाला पुण्यसंस्था तथा पुण्यजनप्रिया ॥ २२ ॥ ... १. ग. रक्तबीजनिषूदिनी। २. ग. रक्तपुप्पप्रिया सदा। ३. ग. कामदेवप्रिया सदा। ४. ग. भयहन्त्री। ५. ग. भयहारिणी। ६. ग. जयना च। ७. ग. यमभागी। ८. ग. तथा · भयविनाशिनी । है. ग. शीतनाशिनी । १०. ग. हंसरूपा । ११. ग. प्रतारिणी।
-
१०. . . .
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७४ ]
सहस्त्रनाम
तुलसी तोतुलास्तोत्रा' राधिका राधनप्रिया । सत्यासत्या सत्यभामा रुक्मिणी कृष्णवल्लभा ।। २३ ।। देवकी कृष्णमाता च सुभद्रा भद्ररूपिणी । मनोहरा तथा सौम्या श्यामाङ्गी समदर्शना ॥ २४ ॥ घोररूपा घोरतेजा घोरवप्रियदर्शना । कुमारी वालिका क्षुद्रा कुमारीरूपधारिणी ।। २५ ॥ . , युवती युवतीरूपा युवतः रसरञ्जका । पीनस्तनी क्षुद्रमध्या प्रौढा मध्या जरातुरा ॥ २६ ॥ अतिवृद्धा स्थाणुरूपा चलाझी चञ्चला चला। देवमाता देवरूपा देवकार्यकरी शुभा ॥२७॥ देवमाता दितिदक्षा सर्वमाता सनातनी । पानप्रिया पायनी च पालना पालनप्रिया ॥ २८॥ मत्स्याशी मांसभक्ष्या च सुधाशी जनवल्लभा । तपस्विनी तपी तप्या" तपासिद्धिप्रदायिनी ॥ २६ ॥ . हविण्या च हविर्भोक्त्री हव्यकव्यनिवासिनी । यजुर्वेदा वश्यकरी यज्ञाङ्गी यज्ञवल्लभा ॥ ३० ॥ दक्षा दादायिणी दुर्गा" दक्षयज्ञविनाशिनी । पार्वती पर्वतप्रीता तथा पर्वतवासिनी ॥ ३१ ॥ हैमी हा हेमरूपा मेना मान्या मनोरमा । कैलामवासिनी मुक्ता" शबक्रीडाविलासिनी ॥ ३२ ॥ चार्वङ्गी चारुरूपा च सुवस्त्रा च शुभानना । चलत्कुण्डलगण्डश्री सत्कुण्डलधारिणी ॥ ३३ । . महासिंहासनस्था" च हेमभूषणभूषिता । हेमाङ्गन्दा हेमभृपा सूर्यकोटिसमप्रभा ॥ ३४ ॥
१. ग. तोतला तोला ! २. ग. लमवल्लभा। ३. ग. जुन्धा। ४.ख. रसरक्षिता। ५. ख. सुद्ररूपा। ६. स. देवकार्यकरी शुभा । लागली चचला वैगा देवमातास्वरूपिणी । ७. स. च यज्वानी। ८.ख.. ... पालिनी। ६. स. मांसाशी जनवल्लभा । १०. स्त्र. तपस्ताण्या। ११. ख, ग. हविष्याशी । १२.स... ग. यजुर्वहा वंशकरी । १३. स. यज्ञभुक् सदा । ग. यज्ञभुक सती। १४. ख. दाक्षायणी महादुर्गा। १५. स्व. ग. शुक्ला ! १६. ख. ग. शिवक्रोडविलासिनी । १७. ख. ग. महासिंहोपरिस्था च ।
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[७५
भुवनेश्वरीपञ्चाङ्गम् बालादित्यसमाकान्तिः सिन्दूरार्चितविग्रहा।। यवा यावकरूपा च रक्तचन्दनरूपधृक् ।। ३५ ॥ कोटरी कोटराक्षी च निर्लज्जा च दिगम्बरा । पूतना' बालमाता च शून्यालयनिवासिनी ।। ३६ ॥ श्मशानवासिनी शून्या हृद्या चतुग्वासिनी । मधुकैटभहंत्री च महिषासुरघा तिनी' ।। ३७ ।। निशुम्भशुम्भमथनी चण्डमुण्डविनाशिनी। . . शिवाख्या शिवरूपा च शिवदूती शिवप्रिया ॥ ३८ ॥ शिवदा शिववक्षःस्था शर्वाणी शिवकारिणी । इन्द्राणी चेन्द्रकन्या च' राजकन्या सुरप्रिया ॥ ३९ ॥ लज्जाशीला साधुशीला कुलस्त्री कुलभूपिका । महाकुलीना निष्कामा निर्लज्जा कुलभूषणा ॥ ४० ॥ कुलीना कुलकन्या च तथा च कुलभूषिता । अनन्तानन्तरूपा च अनन्तासुरनाशिनी ॥ ४१ ॥ इसन्ती शिवमङ्गेन वाञ्छितानन्ददायिनी। नागाङ्गी नागभूषा च नागहारविधारिणी ॥ ४२ ॥ धरिणी धारिणो धन्या महासिद्धिप्रदायिनी । डाकिनी शाकिनी चैव राकिनी हाकिनी तथा" ।। ४३ ।। भूता प्रेता पिशाची च यक्षिणी धनदार्चिता''। धृतिः कीर्तिः१२ स्मृतिमेधा तुष्टिःपुष्टिरुमा रुषा१४ ॥४४॥ शाङ्करी शाम्भवी मीना" रतिः प्रीतिः स्मगतुरा। अनङ्गमदना देवी अनङ्गमदनातुग ॥ ४५ ॥ भुवनेशी महामाया तथा भुवनपालिनी । ईश्वरी चेश्वरप्रीता चन्द्रशेखरभूपणा ।। ४६ ।।
- . .
१.ख. पूर्णानना । २. ग. हरचत्वरवासिनी। ३. ख. नाशिनी। ४. ख. सर्वेषां. ग. शिवानी। ५. ख. रुद्राणी रुदकन्या च । ६. ख. कुलपालिका । ७. भूपणान्विता । ८. ख. ग. अनन्तानन्त पाला च। ६. ख. प्रष्ट । १०. ख. राक्षसी डामरी तथा। ११. ख, ग, धनदा शिवा । १२. ख: श्रुतिः । १३. महामेधा । १४. ग. उपा। १५. ख. ग. मेनारतिः ।
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७६]
सहस्त्रनाम
चित्तानन्दकरी' देवी चित्तसंस्था जनस्य च । अरूपा बहुरूपा च सर्वरूपा चिदात्मिका । ४७ ॥ .. अनन्तरूपिणी नित्या तथानन्तप्रदायिनी । नन्दा चानन्दरूपा च तथाऽनन्दप्रकाशिनी ॥४८॥ सदानन्दा सदानित्या साधकानन्ददायिनी । वनिता तरुणी भव्या भविका च विभाविनी ।। ४६ ।। -- चन्द्रसूर्यसमा दीप्ता सूर्यवत्परिपालिनी । नारसिंही हयग्रीवा हिरण्याक्षविनाशिनी ॥ ५० ॥ वैष्णवी विष्णुभक्ता च शालग्रामनिवासिनी । . . चतुर्भुजा चाष्टभुजा सहस्रभुजसंज्ञिता ॥ ५१ ॥ श्राद्या कात्यायनी नित्या सर्वाद्या सर्वदायिनी । सर्वचन्द्रमयी देवी सर्ववेदमयी शुभा ॥ ५२ ॥ सर्वदेवमयी देवी सर्वलोकमयी पुरा । सर्वसम्मोहिनी देवी सर्वलोकवशंकरी ॥ ५३ ।। राजिनी रञ्जिनी रागा देहलावण्यरञ्जिता। ... नटी नटप्रिया धूर्ता तथा धृर्तजनादिनी ॥ ५४ ॥ ... महामाया महामोहा महासत्वविमोहिता । वलिप्रिया मांसरुचिर्मधुमांसप्रिया सदा ॥ ५५ ॥ मधुमत्ता माधविका मधुमाधवरूपिका । दिवामयी रात्रिमयी संध्या संधिस्वरूपिणी ।। ५६ ॥ कालरूपा सूक्ष्मरूपा सूचिमणी चातिमूदिमणी । तिथिरूपा वाररूपा तथा नक्षत्ररूपिणी ॥ ५७ ॥ सर्वभृतमयी देवी पञ्चभूतनिवासिनी । शून्याकारा शून्यरूपा शुन्यसंस्था च स्तम्भिनी ॥ ५८ ॥
. १. स्व. चिदानन्दकी। २. ख. श्ररूपा सर्वरूपा च तथाऽनन्दप्रदा शिवा । ३. ख. सपंदायिका । ४. ग. सर्वमंत्रमयी। ५. ख. परा। ६. ख. रजनी रञ्जिता रामा। ग: रखिनी रञ्जिता रागा। ७.स.न. भूतंजनप्रिया । ८. ग. साधुमाधवरूपिका । ६. ख. सुपुग्णा ! १०. ख. स्तम्भिका ।
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. भुवनेश्वरीपञ्चाङ्गम्
[७७ आकाशगामिनी देवी ज्योतिश्चक्रनिवासिनी । ग्रहाणां स्थितिरूपा च रुद्राणी चक्रसम्मवा ॥ ५ ॥ ऋषीणां ब्रह्मपुत्राणां तपःसिद्धिप्रदायिनी । अरुन्धती च गायत्री सावित्री सत्वरूपिणी ॥ ६० ।। चितासंस्था चितारूपा चित्तसिद्धिप्रदायिनी । शवस्था शवरूपा च शवशत्रनिवासिनी ॥ ६१ ॥ योगिनी योगरूपा च योगिनां मलहारिणी । सुप्रसन्ना महादेवी यामुनी मुक्तिदायिनी ।। ६२ ॥ निर्मला विमला शुद्धा शुद्धसत्वा जयप्रदा । महाविद्या महामाया मोहिनी विश्वमोहिनी ॥ ६३ ॥ कार्यसिद्धिकरी देवी सर्वकार्यनिवासिनी । कार्याकार्यकरी रौद्री महाप्रलयकारिणी ॥ ६४ ॥ स्त्रीपुंभेदाह्यभेद्या च भेदिनी भेदनाशिनी । सर्वरूपा सर्वमयी अद्वैतानन्दरूपिणी ।। ६५ ॥ प्रचण्डा चण्डिका चण्डा चण्डासुरविनाशिनी। . सुमस्ता" बहुमस्ता च छिन्नमस्ताऽसुनाशिनी ॥ ६६ ॥ अरूपा च विरूपा च चित्ररूपा चिदात्मिका । बहुशस्त्रा अशस्त्रा च सर्वशस्त्रप्रहारिणी ॥ ६७॥ शास्त्रार्था शास्त्रवादा च नाना शास्त्रार्थवादिनी । काव्यशास्त्रप्रमोदा च काव्यालङ्कारवासिनी ॥ ६८।। रसज्ञा रसना जिह्वा रसामोदा रसप्रिया। नानाकौतुकसंयुक्ता नानारसविलासिनी ॥ ६६॥ अरूपा च स्वरूपा च विरूपा च सुरूपिणी ।
रूपावस्या तथा. जीवा वेश्याद्या वेशधारिणी ।। ७१ ॥ १. ख. रुद्रादीनाञ्च सम्भवा । २. ग. प्रतपात्राणां । ३. ख. ग. सत्यरूपिणी । ४. ख. चित्त. संस्था चित्तिरूपा चिन्ता सिद्धिप्रदायिनी । ५. ख. शब्दस्था शब्दरूपा च शब्दचक्रनिवासिनी ग. शव. चक्रनिवासिनी। ६. ख. परधारिणी। ७. ख. मायिनी। ८. ख. ग, महामाया विष्णुमाया । ६. ग. स्त्रीपुभेदाभेदरूपा। १०. ख. अद्वैतानन्तरूपिणी। ११. ख. ग. सुमत्ता। १२. ख. असुनासिका। ग. छिनमध्या सुनासिका । १३. ख. सुरूपा रूपवर्जिवा । चिन्नरूपा सहारूपा विचित्रा च चिदात्मिका । १४.ख.प्यशास्त्रा च । १५.ख.ग, अव्यक्ताव्यक्तरूपा च विश्वरूपा च रूपिणी । १६. ख, ग. जीवावेशाव्या ।
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सहस्रनाम नानावेशधरा' देवी नानावेशेषु संस्थिता । कुरूपा कुटिला कृष्णा कृष्णारूपा च कालिका ॥ ७१ ॥ लक्ष्मीप्रदा महालक्ष्मीः सर्वलक्षण संयुता । कुवेरगृहसंस्था च धनरूपा धनप्रदा ॥ ७२ ।। नानारत्नप्रदा देवी रत्नखण्डेपु संस्थिता । वर्णसंस्था वर्णरूपा सर्ववर्णमयी सदा ॥ ७३ ।। ॐकाररूपिणी वाच्या' आदित्यज्योतीरूपिणी । संसारमोचिनी देवी संग्रामे जयदायिन ॥ ७४ ।। जयरूपा जयाख्या च जयिनी जयदायिनी । मानिनी मानरूपा च मानभङ्गप्रणाशिनी ॥ ७५ ॥ . . मान्या मानप्रिया मेधा मानिनी मानदायिनी । साधकासाधकासाध्या साधिका साधनप्रिया ।। ७६ ।।.. स्थावरा जङ्गमा प्रोक्ता चपला चपलप्रिया। ऋद्धिदा ऋद्धिरूपा च सिद्धिदा सिद्धिदायिनी ॥ ७७ ॥ क्षेमङ्करी शङ्करी च सर्वसम्मोहकारिणी । रञ्जिता रञ्जिनी या च सर्ववाञ्छाप्रदायिनी ॥ ७ ॥ भगलिङ्गप्रमोदा च भगलिङ्गनिवासिनी । भगरूपा भगाभाग्या लिङ्गरूपा च लिङ्गिनी ॥ ७६ ॥ भगगीतिर्महाप्रीतिर्लिङ्गगीतिमहासुखा । स्वयंभूः कुसुमाराध्या स्वयंभूः कुसुमाकुला ॥ ८०॥ . स्वयंभूः पुष्परूपा च स्वयंभूः कुसुमप्रिया। ...
शुक्रकूपा महाकूपा शुक्रासवनिवासिनी ॥ १ ॥ ..... शुक्रस्था शुक्रिणी शुक्रा शुक्रपूजकपूजिता ।
कामाता कामरूपा च योगिनी पीठवासिनी ।। ८२ ॥ ...
१. ख. वेशधरी। २. ख. ग. कुत्सिता। ३. ख. कुबेरग्रह । ४. ग. पुस्तके नास्ति । ५. ग. आया। ६. ख. ग. सूक्ष्मा । ७. स्वयंभूः कुसुमाकला । ८. ख. ग. शुक्ररूपा । १. ख. ग. महाशुक्रा शुक्रबिन्दु.निवासिनी ।. . . .
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[ ७६.
भुवनेश्वरीपञ्चाङ्गम् सर्वपीठमयी देवी पीठपूजानिवासिनी' । अक्षमालाधरा देवी पानपात्रविधारिणी ।। ८३ ॥ . शूलिनी शूलहस्ता च पाशिनी पाशरूपिणी । खड्गिनी गदिनी चैव तथा सर्वास्त्रधारिणी ॥ ८४ ॥ भाव्या भव्या भवानी सा भवमुक्तिप्रदायिनी । चतुरा चतुरप्रीता चतुराननपूजिता ॥ ८५॥ . देवस्तव्या देवपूज्या सर्व पूज्या सुरेश्वरी ।
जननी जनरूपा च जनानां चित्तहारिणी ॥८६॥ . जटिला केशबद्धा च सुकेशी केशवद्धिका ।
अहिंसा द्वेषिका द्वेष्या सर्व द्वेषविनाशिनी ।। ८७॥ उच्चाटिनी द्वोषिनी च मोहिनी मधुगक्षरा । क्रीडा क्रीडकलेखाङ्ककारणाकारकारिका ॥८॥ सर्वज्ञा सर्वकार्या च सर्वभक्षा सुरारिहा । सर्वरूपा सर्वशान्ता सर्वेषां प्राणरूपिणी ॥८६॥ सृष्टिस्थितिकरी देवी तथा प्रलयकारणी । मुग्धा साध्वी तथा रौद्री नानामूर्तिविधारिणी ॥१०॥ उक्तानि यानि देवेशि अनुक्तानि महेश्वरि । यत् किचिए दृश्यते देवि तत् सर्व भुवनेश्वरी ।' ६१ ॥ इति श्रीभुवनेश्वर्या नामानि कथितानि ते । सहस्राणि महादेवि फलं तेषां निगद्यते ॥ १२ ॥ यः पठेत् प्रातरुत्थाय चार्द्धरात्रे तथा प्रिये । प्रातःकाले तथा मध्ये सायाह्ने हरवल्लभे ॥ १३ ॥ यत्र तत्र पठित्वा च भक्तया सिद्धिर्न संशयः । पठेद् वा पाठये इ वापि शृणुयाच्छावयेत्तथा ६४ ॥ तस्य सर्वं भवेत् सत्यं मनसा यच्च वाञ्छितम् ।
अष्टम्यां च चतुर्दश्यां नवम्यां वा विशेषतः ॥ १५ ॥ १ ख. पीठमध्यनिवासिनी । २. ख. ग. विधायिनी ३. ख. केशवामिका, ग. केशवा शिवा। ४.ग. स्तम्भिनी। ५. ग, मधुरासना । ६. ख. ग. क्रीडा क्रीडनखेला च खेलाकरणकारिका ७, ग. सर्वसीता । ८.ग. माया । १. ग. पुस्तके नास्ति ।
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८०]
सहस्रनाम
सर्वमङ्गलसंयुक्ते संक्रात शनिभौमयोः ।
यः पठेत् परया भक्त्या देव्या नामसहस्रकम् || ६६ ॥ तस्य देहे च संस्थानं कुरुते भुवनेश्वरी ।
२
तस्य कार्यं भवेद्देवि अन्यथा न कथञ्चन ॥ ६७ ॥ श्मशाने प्रान्तरे वापि शून्यागारे चतुष्पथे । चतुष्पथे चैकलिङ्गे मेरुदेशे तथैव च ॥ ६८ ॥ जलमध्ये वह्निमध्ये संग्रामे ग्रामशान्तये' । जप्त्वा मंत्रसहस्रं तु पठेन्नामसहस्रकम् || ६६ ॥ धूपदीपादिभिश्चैव बलिदानादिकैस्तथा । नानाविधैस्तथा देवि नैवेद्यैर्भुवनेश्वरीम् ॥ १०० ॥ सम्पूज्य विधिवज्जप्त्वा स्तुत्वा नामसहस्रकैः * । चिरात् सिद्धिमाप्नोति साधको नात्र संशयः ॥ १०१ ॥ तस्य तुष्टा भवेद् देवी सर्वदा भुवनेश्वरी ।
भूर्जपत्रे समालिख्य कुंकुमार् रक्तचन्दनैः ।। १०२ ।। तथा गोरोचनाद्यैश्च विलिख्य साधकोत्तमः । सुतिथौ शुभनक्षत्रे लिखित्वा दक्षिणे भुजे ।। १०३ ॥ धारयेत् परया भक्त्या देवीरूपेण पार्वति । । तस्य सिद्धिर्मशानि चिराच्च भविष्यति ।। १०४ ॥ रणे" राजकुले वाऽपि सर्वत्र विजयी भवेत् । देवता वशमायाति किं पुर्नमानवादयः ॥ १०५ ।। विद्यास्तम्भं जलस्तम्भं करोत्येव न संशयः । पठेद् वा पाठयेद वाऽपि देवीभक्त्या च पार्वति ।। १०६ ।।
इह भुक्त्वा वरान् भोगान् कृत्वा काव्यार्थविस्तरान् । श्रन्ते देव्या गणत्वं च साधको मुक्तिमाप्नुयात् ॥ १०७ ॥ प्राप्नोति देवदेवेशि सर्वार्थान्नात्र संशयः ।
हीनाङ्गे चातिरिक्ताङ्गे शठाय परशिष्यके ॥ १०८ ॥
१. ख. प्राणसंशये । २. ख. वै। ३. ख. पक्वान्नैः । ४ ख श्रुत्वा नामसहस्रकम् । ५. गं. वने ।
६. ख, ग, वाय्वग्न्योश्च गतिस्तम्भम् । ७. ख. ग. बुद्ध्या । म ख कलौ । ह. ग. काव्यान् सुदुस्तरान् ।
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भुवनेश्वरीपञ्चाङ्गम्
न दातव्यं महेशानि प्राणान्तेऽपि कदाचन । शिष्याय मतिशुद्धाय विनीताय महेश्वरि ॥ १०६ ॥ दातव्यः स्तवराजश्च सर्वसिद्धिप्रदो भवेत् । लिखित्वा धारयेद् देहे दुःखं तस्य न जायते ॥ ११० ॥ य इदं भुवनेश्वर्याः स्तवराजं महेश्वरि । इति ते कथित देवि भुवनेश्याः सहस्रकम् ।। १११ ॥ यस्मै कस्मै न दातव्यं विना शिष्याय पार्वति । सुरतरुवरकान्तं सिद्धिसाध्यैकसेव्यं
B
यदि पठति मनुष्यो नान्यचेताः सदैव ।
इह हि सकलभोगान् प्राप्य चान्ते शिवाय व्रजति परसमीपं सर्वदा मुक्तिमन्ते ॥ ११२ ॥
इति श्रीरुद्रयामले तन्त्रे भुवनेश्वरी सहस्रनामाख्यं स्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥ श्रीरस्तु ॥
२. ग. पुस्तके नास्ति ।
१. ख, ग, भक्तियुक्ताय । ४. ख. निखिलभोगान् । ५. ख. परिसमीपं किन्नरैः स्तूयमानः ।
.११
[ ८१
३. ख. ग. सिद्धसङ्कसेन्यं ।
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. श्रीगणेशाय नमः
अथ श्रीभुवनेश्वर्यष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम
ईश्वर उवाच
महासम्मोहिनी देवी सुन्दरी भुवनेश्वरी । एकाक्षरी एकमन्त्री एकाकी लोकनायिका ॥ १ ॥ एकरूपा महारूपा स्थूल सूक्ष्मशरीरिणी । बीजरूपा महाशक्तिः सङ्ग्रामे जयवर्द्धिनी ॥ २ ॥ महारतिर्महाशक्तियोंगिनी पापनाशिनी । अष्टसिद्धिः कलारूपा वैष्णवी भद्रकालिका ॥ ३ ॥ भक्तिप्रिया महादेवी हरिब्रह्मादिरूपिणी । शिवरूपी विष्णुरूपी कालरूपी सुखासिनी ॥ ४ ॥ पुराणी पुण्यरूपा च पार्वती पुण्यवर्द्धिनी । रुद्राणी पार्वतीन्द्राणी शङ्करार्द्धशरीरिणी ॥ ५ ॥ नारायणी महादेवी महिषी सर्वमङ्गला । अकारादिक्षकारान्ता ष्टात्रिंशत्कलाधरी || ६ | सप्तमा त्रिगुणा नारी शरीरोत्पत्तिकारिणी । आकल्पान्तकलाव्यापिसृष्टिसंहारकारिणी ।। ७ ।। सर्वशक्तिर्महाशक्तिः शर्वाणी परमेश्वरी । हृल्लेखा भुवना देवी महाकविपरायणा ॥ ८ ॥ इच्छाज्ञानक्रियारूपा अणिमादिगुणाष्टका । नमः शिवायै शान्तायै शाङ्करि भुवनेश्वरि ॥ ६ ॥ वेदवेदाङ्गरूपा च अतिसूक्ष्मा शरीरिणी । कालज्ञानी शिवज्ञानी शैवधर्मपरायणा ॥ १० ॥ कालान्तरी कालरूपी संज्ञाना प्राणधारिणी । खड्गश्रेष्ठा च खट्वाङ्गी त्रिशूलवरधारिणी ॥ ११ ॥
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[८३
भुवनेश्वरीपञ्चाङ्गम् अरूपा बहुरूपा च नायिका लोकवश्यगा । अभया लोकरक्षा च पिनाकी नागधारिणी ॥ १२ ॥ वज्रशक्तिर्महाशक्तिः पाशतोमरधारिणी। अष्टादशभुजा देवी हल्लेखा भुवना तथा ॥ १३ ॥ खड्गधारी महारूपा सोमसूर्याग्निमध्यगा। एवं शताष्टकं नाम स्तोत्रं रमणभाषितम् ॥ १४ ॥ सर्वपापप्रशमनं सर्वारिष्ट निवारणम् । सर्वशत्रुक्षयकरं सदा विजयवर्द्धनम् ॥ १५ ॥ आयुष्करं पुष्टिकरं रक्षाकरं यशस्करम् । अमरादिपदैश्वर्यममत्त्वांशकलापहम् ।। १६ ॥ इति श्रीरुद्रयामले तन्त्रे भुवनेश्वर्यष्टोत्तरशतनाम समाप्तम् । ___संवत् १६४३ फाल्गुनवदि १०मी गुरुवारः॥
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श्रीगणेशाय नमः अथ श्रीभुवनेश्वर्यष्टकम्
श्रीदेव्युवाच
प्रभो श्रीभैरवश्रेष्ठ दयालो भक्तवत्सल । भुवनेशीस्तवम् ब्रूहि यद्यहन्तब वल्लभा ॥१॥
ईश्वर उवाच शृणु देवि ! प्रवक्ष्यामि भुवनेश्यष्टकं शुभम् । येन विज्ञातमात्रेण त्रैलोक्यमङ्गलम्भवेत् ॥ २ ॥ ॐ नमामि जगदाधारां भुवनेशी भवप्रियाम् । भुक्तिमुक्तिप्रदां रम्यां रमणीयां शुभावहाम् ॥ ३ ॥ त्वं स्वाहा त्वं स्वधा देवि ! त्वं यज्ञा यज्ञनायिका । त्वं नाथा त्वं तमोही व्याप्यव्यापकवजिता ॥४॥ त्वमाधारस्त्वमिज्या च ज्ञानज्ञेयं परं पदम् । त्वं शिवस्त्वं स्वयं विष्णुस्त्वमात्मा परमोऽव्ययः॥ ५ ॥ त्वं कारणञ्च कार्यञ्च लक्ष्मीस्त्वञ्च हुताशनः । त्वं सोमस्त्वं रविः कालस्त्वं धाता त्वञ्च मारुतः॥६॥ गायत्री त्वं च सावित्री त्वं माया त्वं हरिप्रिया । त्वमेवैका पराशक्तिस्त्वमेव गुरुरूपधृक् ॥ ७ ॥ त्वं काला त्वं कलाऽतीता त्वमेव जगतांत्रियः। . त्वं सर्वकार्य सर्वस्य कारणं करुणामयि ! ॥८॥ इदमष्टकमाद्याया भुवनेश्या वरानने। . . त्रिसन्ध्यं श्रद्धया मर्यो यः पठेत् प्रीतमानसः ॥६॥ सिद्धयो वशगास्तस्य सम्पदो वशगा गृहे । .... राजानो वशमायान्ति स्तोत्रस्याऽस्य प्रभावतः ॥ १० ॥
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अथ श्रीभुवनेश्वर्या भकरादिसहस्रनाम स्तोत्रम्
ॐ अस्य श्रीभुवनेश्वरीसहस्रनामस्तोत्रमंत्रस्यसदाशिव ऋषिः, अनुष्टुप् छंदः, भुवनेश्वरी देवता, लज्जा वीजम्, कमला शक्तिः, वाग्भवं कीलकम्, सर्वार्थसाधने पाठे विनियोगः ॥
ॐ भुवनेशी भुवाराध्या भवानी भयनाशिनी । .. .. भवरूपा भवानन्दा भवसागरतारिणी ॥ १ ॥ . . भवोद्भवा भवरता भवभारनिवारिणी । भव्यास्या भव्यनयना भव्यरूपा भवौषधिः ॥ २ ॥ भव्याङ्गना भव्यकेशी भवपाशविमोचिनी । भव्यासना भव्यवस्त्रा भन्याभरणभूषिता ॥ ३ ॥ भगरूपा भगानन्दा भगेशी भगमालिनी। भगविद्या भगवती भगक्लिन्ना भगावहा ॥ ४ ॥ भगाङ्करा भगक्रीडा भगाढया भगमङ्गला। . भगलीला भगप्रीता भगसम्पदभगेश्वरी ॥ ५ ॥ .. भगालया भगोत्साहा भगस्था भगपोपिणी । भगोत्सवा भगविद्या भगमाता भगस्थिता ॥ ६ ॥ भगशक्तिर्भगनिधिर्भगपूजा भगेषणा । भगस्वापा भगाधीशा भगाळ भगसुन्दरी ॥ ७ ॥ ..... भगरेखा भगस्नेहा भगस्नेहविवर्धिनी । भगिनी भगवीजस्था भगभोगविलासिनी ॥ ८ ॥ भगाचारा भगाधारा भगाकारा भगाश्रया। भगपुष्पा भगश्रीपा भगपुष्पनिवासिनी ॥ ६ ॥ भव्यरूपधरा भव्या भव्यपुष्पैरलङ्कृता । '. भव्यलीला भव्यमाला भव्याङ्गी भव्यसुन्दरी ॥ १० ॥
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[८७
. . भुवनेश्वरीपञ्चाङ्गम् . भव्यशीला भव्यलीला भन्यादी भव्यनाशिनी । भव्याङ्गिका भव्यवाणी भव्यकान्तिभंगालिनी ॥ ११ ॥ भव्यत्रपा भव्यनदी भव्यभोगविहारिणी । भव्यस्तनी भव्यमुखी भव्यगोष्ठी भयापहा ॥ १२॥ भक्तेश्वरी भक्तिकरी भक्तानुग्रहकारिणी। भक्तिदा भक्तिजननी भक्तानन्दविवर्द्धिनी ॥ १३ ॥ भक्तिप्रिया भक्तिरता भक्तिभावविहारिणी । भक्तिशीला भक्तिलीला भक्तशा भक्तिपालिनी ॥ १४ ॥ भक्तिविद्या भक्तविद्या भक्तिभक्तिविनोदिनी । भक्तिरीतिभक्तिप्रीतिभक्तिसाधनसाधिनी ॥ १५ ॥ भक्तिसाध्या भक्तसाध्या भक्तिराली भवेश्वरी । भटविद्या भटानन्दा भटस्था भटरूपिणी ॥ १६ ॥ भटमान्या भटस्थान्या भटस्थाननिवासिनी । भटिनी भटरूपेशी भटरूपविवर्द्धिनी ॥ १७॥ भटवेशी भटेशी च भटभाग्भवसुन्दरी । भटप्रीत्या भटरीत्या भटानुग्रहकारिणी ।। १८ ॥ भटाराध्या भटवोध्या भटबोधविनोदिनी । भटैः सेव्या भटवरा भटार्ष्या भटबोधिनी ॥ १६ ॥ भटकीर्त्या भटकला भटपा. भटपालिनी । भटैश्वर्या भटाधीशा भटेक्षा भटतोषिणी ।। २० ॥ भटेशी भटजननी भटभाग्यविवर्द्विनी ।' भटभुक्ति टयुक्तिर्भटप्रीतिविवर्द्धिनी ॥ २१ ॥ भाग्येशी भाग्यजननी भाग्यस्था भाग्यरूपिणी । भावना भावकुशला भावदा भाववर्द्धिनी ॥ २२ ॥ भावरूपा भावरसा भवान्तरविहारिणी । भवाङ्करा भवकला भावस्थाननिवासिनी ।। २३ ॥ भावान्तरा भावधृता भावमध्यव्यवस्थिता। भावऋद्धिर्भावसिद्धिर्भावादिर्भावभाविनी ।। २४ ॥
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4.]
भकरादिसहस्त्रनाम स्तोत्रम् भावालया भावपरा भावसाधनतत्परा । भावेश्वरी भावगम्या भावस्था भावगर्विता ।। २५ ॥ ..... भाविनी भावरमणी भारती भारतेश्वरी। भागीरथी भाग्यवती भाग्योदयकरी कला ।। २६ ।। भाग्याश्रया भाग्यमयी भाग्या भाग्यफलप्रदा। भाग्याचारा भाग्यसारा भाग्यधारा च भाग्यदा ।। २७ ।। भाग्येश्वरी भाग्यनिधिर्भाग्या भाग्यसुमातृका । . भाग्येक्षा भाग्यना भाग्यभाग्यदा भाग्यमातृका ॥ २८ ॥ भाग्येक्षा भाग्यमनसा भाग्यादिर्भाग्यमध्यगा। ... भ्रात्रीस्वरी भ्रातृमती भ्रात्रम्वा भ्रातृपालिनी ।। २8 ।। .. ... भ्रातृस्था भ्रातृकुशला भ्रामरी भ्रमराम्बिका। भिल्लरूपा भिल्लवती भिल्लस्था मिल्लपालिनी ।। ३० ।। भिल्लमाता भिल्लधात्री भिल्लिनी भिल्लकेवरी । भिल्लकीर्तिल्लिकला भिल्लमन्दरवासिनी ॥ ३१ ॥ भिल्लक्रीडा भिल्ललीला भिल्लाा भिल्लवल्लभा । . भिल्लस्नुषा भिल्लपुत्री भिल्लिनी भिल्लपोषिणी ।। ३२ ।। भिल्लपौत्री भिल्लगोष्ठी भिल्लाचारनिवासिनी। .. भिल्लपूज्या भिल्लवाणी भिल्लाणी भिल्लभीतिहा ॥ ३३॥ . . भीतस्था भीतजननी भीतिभौंतिविनाशिनी । भीतिदा भीतिहा भीत्या भीत्याकारविहारिणी ॥ ३४ ॥. : .... भीतेशी भीतिशमनी भीतिस्थाननिवासिनी। ... .... भीतिरीत्या भीतिकला भीतीक्षा भीतिहारिणी ॥ ३५ ॥ भीमेशी भीमजननी भीमा भीमनिवासिनी । भीमेश्वरी भीमरता भीमाङ्गी भीमपालिनी ।। ३६ ॥ ... भीमनादा भीमतन्त्री भीमैश्वर्यविवर्द्धिनी। . . भीमगोष्ठी भीमधात्री भीमविद्याविनोदिनी ॥ ३७॥ भीमविक्रमदात्री च भीमविक्रमवासिनी। भीमानन्दकरी देवी भीमानन्दविहारिणी ॥ ३८॥ .
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भुवनेश्वरीपञ्चाङ्गम् भीमोपदेशिनी नित्या भीमभाग्यप्रदायिनी । भीमसिद्धिीमऋद्धिीमभक्तिविवर्धिनी ॥ ३९ ॥ भीमस्था भीमवरदा भीमधर्मोपदेशिनी । भीष्मेश्वरी भीष्मभृतिर्भीष्मबोधप्रबोधिनी ।। ४०॥ भीष्मश्रीभॊष्मजननी भीष्मज्ञानोपदेशिनी । भीष्मस्था भीष्मतपना भीष्मेशी भीष्मतारिणी ।। ४१ ।। भीष्मलीला भीष्मशीला भीष्मरोधोनिवासिनी । . भीष्माश्रया भीष्मवरा भीष्महर्षविवद्धिनी ॥ ४२ ॥ भुवना भुवनेशानी भुवनानन्दकारिणी । भुविस्था भुविरूपा च भुविभारनिवारिणी ।। ४३ ॥ भुक्तिस्था भुक्तिदा भुक्ति कशी भुक्तिरूपिणी । भुक्तेश्वरी भुक्तिदात्री भुक्तिराकाररूपिणी ।। ४४ ॥ भुजङ्गस्था भुजङ्गेशी भुजङ्गाकाररूपिणी । भुजङ्गी भुजगावासा भुजङ्गानन्ददायिनी ॥ ४५ ॥ भूतेशी भूतजननी भूतस्था भूतरूपिणी । भूतेश्वरी भूतलीला भूतवेषकरी सदा ।। ४६ ।। भूतदात्री भूतकेशी भूतधात्री महेश्वरी । भृतरीत्या भूतपत्नी भूतलोकनिवासिनी ॥ ४७ ।। भूतसिद्धिर्भूतऋद्धिर्भूतानन्दनिवासिनी । भूतकीर्तिर्भूतलक्ष्मीभूतभाग्यविवर्द्धिनी ।। ४८ ।। भूतार्ध्या भूतरमणी भूतविद्याविनोदिनी। भूतपौत्री भूतपुत्री भूतभार्या विधीवरी ॥ ४६ ॥ भूतस्था भूतरमणी भूतेशी भूतपालिनी । भूपमाता भूपनिभा भूपैश्वयंप्रदायिनी।। ५० ॥ . भूपचेष्टा भूपनेष्टा भूपभावविवर्द्धिनी । भूपखसा भूपभूरी भूपपौत्री तथा वधूः॥५१॥ भूपकीर्ति पनीति पभाग्यविवर्द्धिनी । भूपक्रिया भूपक्रीडा भूपमन्दवासिनी ।। ५२ ॥
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६०]
भकारादिसहस्रनाम स्तोत्रम् .. भूपाळ भूपसंराध्या भूपभोगविवर्द्धिनी । भूपाश्रया भूपकला भूपकौतुकदण्डिनी ।। ५३ ॥ भूपणस्था भूपणेशी भूपा भूपणधारिणी । भूषणाधारधर्मेशी भूपणाकाररूपिणी ॥ ५४ ।। भूपताचारनिलया भूपताचारभूषिता । भूपताचाररचना भूपताचारमण्डिता ॥ ५५ ॥ भूपताचारधर्मेशी भूपताचारकारिणी। भूपताचारचरिता भूपताचारवर्जिता ॥ ५६ ।। भूपताचारवृद्धिस्था भूपताचारवृद्धिदा । भूपताचारकरणा भूपताचारकर्मदा ।। ५७ ॥ भूपताचारकर्मेशी भूपताचारकर्मदा । भूपताचारदेहस्था भूपताचारकर्मिणी ।। ५८ ।। भूपताचारसिद्धिस्था भूपताचारसिद्धिदा। भूपताचारधर्माणी भूपताचारधारिणी ।। ५६ ।। भूपतानन्दलहरी भूपतेश्वररूपिणी ।. .. भूपतेनौतिनीतिस्था भूपतिस्थानवासिनी ।। ६० ।। भूपतिस्थानगीर्वाणा भूपतेर्वरधारिणी। भेषजानन्दलहरी भेषजानन्दरूपिणी ।। ६१ ॥ भेषजानन्दमहिपी भेषजानन्दधारिणी। भेषजानन्दकर्मेशी भेषजानन्ददायिनी ।। ६२॥ भेपजी भेषजा कन्दा भेषजस्थानवासिनी । भेपजेश्वररूपा च भेषजेश्वरसिद्धिदा ।। ६३ ।।. भेपजेश्वरधर्मेशी भेपजेश्वरकर्मदा । . भेपजेश्वरकर्मेशी भेपजेश्वरकर्मिणी ।। ६४ ॥ भेषजाधीशजननी भेपजाधीशपालिनी । भेषजाधीशरचना भेपजाधीशमङ्गला ।। ६५ ॥ . भेषजारण्यमध्यस्था भेषजारण्यरक्षिणी । .... भैपज्यविद्या भैषज्या भैपज्येप्सितदायिनी ।। ६६ ।।
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[६१
भुवनेश्वरीपञ्चाङ्गम् । भैषजस्था भैषजेशी भैषज्यानन्दवर्द्धिनी । भैरवी भैरवाचारा भैरवाकाररूपिणी ।। ६७ ।। भैरवाचारचतुरा भैरवाचारमण्डिता । भैरवा च भैरवेशी भैरवानन्ददायिनी ।। ६८ ॥ भैरवानन्दरूपेशी भैरवानन्दरूपिणी । भैरवानन्दनिपुणा भैरवानन्दमन्दिरा ॥ ६ ॥ भैरवानन्दतत्वज्ञा भैरवानन्दतत्परा । भैरवानन्दकुशला भैरवानन्दनीतिदा ॥ ७० ॥ भैरवानन्दप्रीतिस्था भैरवानन्दप्रीतिदा । भैरवानन्दमहिषी भैरवानन्दमालिनी ॥ ७१ ॥ भैरवानन्दमतिदा भैरवानन्दमातृका । भैरवाधारजननी भैरवाधाररक्षिणी ॥ ७२ ॥ भैरवाधाररूपेशी भैरवाधाररूपिणी । भैरवाधारनिचया भैरवाधारनिश्चया ॥ ७३ ॥ भैरवाधारतत्वज्ञा भैरवाधारतत्त्वदा । भैरवाश्रयतन्त्रेशी भैरवाश्रयमन्त्रिणी ॥ ७४ ॥ भैरवाश्रयरचना भैरवाश्रयरञ्जिता । भैरवाश्रयनिर्धारा भैरवाश्रयनिर्भरा ।। ७५ ॥ भैरवाश्रयनिर्धारा भैरवाश्रयनिर्धरा । भैरवानन्दबोधेशी भैरवानन्दवोधिनी ।। ७६ ।। भैरवानन्दवोधस्था भैरवानन्दबोधदा । भैरव्यैश्वर्यवरदा भैरव्यैश्वर्यदायिनी ॥ ७७ ॥ भैरव्यैश्वर्य्यरचना भैरव्यैश्वर्य्यवर्द्धिनी । भैरव्यैश्वर्यसिद्धिस्था भैरव्यैश्वर्यसिद्धिदा ।। ७८ ॥ भैरव्यैश्वर्यसिद्धेशी भैरव्यैश्वर्यरूपिणी । भैरव्यैश्वर्यसुपथा भैरव्यैश्वर्यसुप्रभा ॥ ७६ ॥ भैरव्यैश्वर्यवृद्धिस्था भैरव्यैश्वर्यवृद्धिदा। भैरव्यैश्वर्यकुशला भैरव्यैश्वर्य्यकामदा ।। ८० ॥
पणी।
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१२]
भकारादिसहस्त्रनाम स्तोत्रम् भैरव्यैश्वर्यसुलभा भैरव्यैश्वर्यसम्प्रदा । भैरव्यैश्वर्यविशदा भैरव्यैश्वर्यविक्रिया ॥८१ ॥ भैरव्यैश्वर्यविनया भैरव्यैश्वर्य्यवेदिता । भैरव्यैश्वर्यमहिमा भैरव्यैश्वर्यमानिनी ॥ ८२ ॥ भैरव्यैश्वर्यनिरता भैरव्यैश्वर्यनिर्मिता । भोगेश्वरी भोगमाता भोगस्था भोगरक्षिणी ॥ ८३ ॥ भोगक्रीडा भोगलीला भोगेशी भोगवर्द्धिनी । भोगाङ्गी भोगरमणी भोगाचारविचारिणी ॥ ८४॥ भोगाश्रया भोगवती भोगिनी भोगरूपिणी । भोगाङकुरा भोगविधा भोगाधारनिवासिनी ॥ ८५ ॥ भोगाम्बिका भोगरता भोगसिद्धिविधायिनी। . भोजस्था भोजनिरता भोजनानन्ददायिनी ॥८६॥ भोजनानन्दलहरी भोजनान्तविहारिणी । ...... भोजनानन्दमहिमा भोजनानन्दभोग्यदा ।। ८७ ॥ भोजनानन्दरचना भोजनानन्दहर्षिता । भोजनाचारचतुरा भोजनाचारमण्डिता ॥ ८८ ॥ .. भोजनाचारचरिता भोजनाचारचर्चिता ।। भोजनाचारसम्पन्ना भोजनाचारसंयुता ।। ८६ ॥ भोजनाचारचित्तस्था भोजनाचाररीतिदा। भोजनाचारविभवा भोजनाचारविस्तृता ॥ १० ॥ भोजनाचाररमणी भोजनाचाररक्षिणी। ..: भोजनाचारहरिणी भोजनाचारभक्षिणी ॥११॥ भोजनाचार सुखदा भोजनाचारसुस्पृहा । .. .. भोजनाहारसुरसा भोजनाहारसुन्दरी ।। ६२ ।। भोजनाहारचरिता भोजनाहारचञ्चला। .. ., .. भोजनाखादविभवा भोजनास्वादवल्लभा ।। ६३ ॥. भोजनास्वादसंतुष्टा भोजनास्वादसम्प्रदा। .... . भोजनास्वादसुपथा भोजनास्वादसंश्रया ।। ६४ ॥ ..
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[१३
भुवनेश्वरीपञ्चाङ्गम् भोजनास्वादनिरता भोजनास्वादनिर्णता । । भौक्षरा भौक्षरेशानी भौकागक्षररूपिणी ॥६५॥ भौक्षरस्था भौक्षरादिभौक्षरस्थानवासिनी । भकारी भर्मिणी भर्मी भस्मेशी भस्मरूपिणी ॥ १६ ॥ भङ्कारा भश्चना भस्मा भस्मस्था भस्मवासिनी । भक्षरी भक्षराकारा भक्षरस्थानवासिनी ॥ ६७॥ भक्षराढ्या भक्षरेशी भरूपा भस्वरूपिणी । भूधरस्था भूधरेशी भूधरी भूधरेश्वरी ।। ६८ ॥ भूधरानन्दरमणी भूधरानन्दपालिनी । भूधरानन्दजननी भूधरानन्दवासिनी ।। ६६ ॥ भूधरानन्दरमणी भूधरानन्दरक्षिता । भूधरानन्दमहिमा भूधरानन्दमन्दिरा ॥ १०० ॥ भूधरानन्दसर्वेशी भूधरानन्दसर्वसूः । भूधरानन्दमहिषी भूधरानन्ददायिनी ।। १०१ ॥ भूधराधीशधर्मेशी भूधरानन्दधर्मिणी । भूधराधीशधर्मेशी भूधराधीशसिद्धिदा ॥ १०२ ।। भूधराधीशकर्मेशी भूधराधीशकामिनी । .. भूधराधीशनिरता भूधाराधीशनिर्णिता ॥ १०३ ॥ भूधराधीशनीतिस्था भूधराधीशनीतिदा । भूधराधीशभाग्येशी भृधगधीशभामिनी ।। १०४ ॥ भूधराधीशबुद्धिस्था भूधराधीशबुद्धिदा । भूधराधीशवरदा भूधराधीशवन्दिता ॥ १०५॥ . भूधराधीशसंराध्या भूधराधीशचर्चिता । भङ्गेश्वरी भङ्गमयी भङ्गस्था भङ्गरूपिणी ॥ १०६ । भङ्गाक्षता भङ्गरता भङ्गायो भङ्गरक्षिणी । भङ्गावती. भङ्गलीला भङ्गभोगविलासिनी ।। १०७ ॥ भङ्गारङ्गप्रतीकाशाः भङ्गारङ्गनिवासिनी । भङ्गाशिनी भङ्गमूली भङ्गभोगविधायिनी ।। १०८ ॥
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६४]
भकारादिसहस्रनाम स्तोत्रम् भङ्गाश्रया भङ्गवीजा भङ्गवीजाकुरेश्वरी । भनयंत्रचमत्कारा भङ्गयंत्रेश्वरी तथा ॥ १० ॥ भङ्गयंत्रविमोहस्था भङ्गयंत्रविनोदिनी । भनयंत्रविचारस्था भङ्गयंत्रविचारिणी ॥ ११० ॥ भनयंत्ररसानन्दा भङ्गयंत्ररसेश्वरी । भनयंत्ररसस्वादा भङ्गयंत्ररसस्थिता ॥ १११॥ भनयंत्ररसाधारा भङ्गयंत्ररसाश्रया। भूधरात्मजरूपेशी भूधरात्मजरूपिणी ॥ ११२ ॥ भूधरात्मजयोगेशी भूधरात्मजपालिनी। भूधरात्मजमहिमा भूधरात्मजमालिनी ॥ ११३ ॥ भूधरात्मजभूतेशी भूधरात्मजरूपिणी ।..:......... भूधरात्मजसिद्धिस्था भूधरात्मजसिद्धिदा ।। ११४ ।। :: भूधरात्मजभावेशी भूधरात्मजभाविनी । ....... . भूधरात्मजभोगस्था भूधरात्मजभोग्यदा ॥ ११५ ॥ भूधरात्मजभोगेशी भूधरात्मजभोगिनी ।... - भव्या भव्यतरा भव्यभाविनी भववल्लभा ॥ ११६ ॥ भावातिभावा भावाख्या भातिभा भीतिभान्तिका । . . . भासातिभासा भासस्था भासामा भास्करोपमा ॥ ११७॥... भास्करस्था भास्करेशी भास्करैश्वर्यवर्द्धिनी। ..... भास्करानन्दजननी भास्करानन्ददायिनी ॥ ११८ ।।... भास्कगनन्दमहिमा भास्करानन्दमातृका । भास्करानन्दनैश्वर्या भास्करानन्दनेश्वरा ॥ ११६ ॥ भास्करानन्दसुपथा भास्करानन्दसुप्रभा। .. भास्करानन्दनिचया भास्करानन्दनिर्मिता ॥ १२० ॥ भास्करानन्दनीतिस्था भास्करानन्दनीतिदा । भास्करोदयमध्यस्था भास्करोदयमध्यगा ।। १२१ ।। भास्करोदयतेजःस्था भास्करोदयतेजसा । भास्कराचारचतुरा भास्कराचारचन्द्रिका । १२२ ॥
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[६५
... .. - भुवनेश्वरीपञ्चाङ्गम्
भास्कराचारपरमा भास्कराचारचण्डिका । भास्कराचारपरमा भास्कराचारपारदा ॥ १२३ ॥ भास्कराचारमुक्तिस्था भास्कराचारमुक्तिदा । भास्कराचारसिद्धिस्था भास्कराचारसिद्धिदा ॥ १२४ ॥ भास्कराचरणाधारा भास्कराचरणाश्रिता । भास्कराचारमन्त्रेशी भास्कराचारमन्त्रिणी ॥ १२५ ॥ भास्कराचारवित्तेशी भास्कराचारचित्रिणी। ' भास्कराधारधर्मेशी भास्कराधारधारिणी ॥ १२६ ॥ भास्कराधाररचना भास्कराधाररक्षिता । भास्कराधारकर्माणी भास्कराकर्मदा ॥ १२७ ॥ भास्कराधाररूपेशी भास्कराधाररूपिणी । भास्कराधारकाम्येशी भास्कराधारकामिनी ॥ १२८ ।। भास्कराधारसांशेशी भास्कराधारसांशिनी । भास्कराधारधर्मेशी भास्कराधारधामिनी ॥ १२६ ॥ भास्कराधारचक्रस्था. भास्कराधारचक्रिणी। भास्करेश्वरक्षेत्रेशी भास्करेश्वरक्षेत्रिणी ॥ १३० ॥ भास्करेश्वरजननी भास्करेश्वरपालिनी । भास्करेश्वरसर्वेशी भास्करेश्वरशर्वरी ॥ १३१ ॥ भास्करेश्वरसद्भीमा भास्करेश्वरसन्निभा । भास्करेश्वरसुपथा भास्करेश्वरसुप्रभा ॥ १३२ ॥ . भास्करेश्वरयुवती भास्करेश्वरसुन्दरी । भास्करेश्वरमूर्तेशी भास्करेश्वरमूर्तिनी ।। १३३ ।। भास्करेश्वरमित्रेशी भास्करेश्वरमन्त्रिणी। भास्करेश्वरसानन्दा भास्करेश्वरसाश्रया ॥ १३४ ॥ . भास्करेश्वरचित्रस्था भास्करेश्वरचित्रदा । भास्करेश्वरचित्रेशी भास्करेश्वरचित्रिणी ॥ १३५ ॥ भास्करेश्वरभाग्यस्था भास्करेश्वरभाग्यदा । भास्करेश्वरभाग्येशी भास्करेश्वरभाविनी ॥ १३६ ॥
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भकारादिसहस्रनाम स्तोत्रम् भास्करेश्वरकीर्तीशी भास्करेश्वरकीर्तिनी । भास्करेश्वरकीर्तिस्था भास्करेश्वरकीर्तिदा ॥ १३७ ।। भास्करेश्वरकरुणा भास्करेश्वरकारिणी। भास्करेश्वरगीर्वाणी भास्करेश्वरगारुडी ॥ १३८ । भास्करेश्वरदेहस्था भास्करेश्वरदेहदा। भास्करेश्वरनादस्था भास्करेश्वरनादिनी ॥ १३६ ।। भास्करेश्वरनादेशी भास्करेश्वरनादिनी । भास्करेश्वरकोशस्था भास्करेश्वरकोशदा ॥ १४० ।। भास्करेश्वरकोशेशी भास्करेश्वरकोशिनी। . . . भास्करेश्वरशक्तिस्था भास्करेश्वरशक्तिदा ॥ १४१ ॥ भास्करेश्वरतोपेशी भास्करेश्वरतोषिणी । भास्करेश्वरक्षत्रेशी भास्करेश्वरक्षत्रिणी ॥ १४२ ॥ .. भास्करेश्वरयोगस्था भास्करेश्वरयोगदा। भास्करेश्वरयोगेशी भास्करेश्वरयोगिनी ।। १४३ ॥ भास्करेश्वरपद्मेशी भास्करेश्वरपद्मिनी । भास्करेश्वरहृद्धीजा भास्करेश्वरहृद्वरा ॥ १४४ ॥ भास्करेश्वरहृयोनिर्भास्करेश्वरहद्द्युतिः । भास्करेश्वरबुद्धिस्था भास्करेश्वरसद्विधा ॥ १४५ ॥ . भास्करेश्वरसद्वाणी भास्करेश्वरसद्वरा । भास्करेश्वरराज्यस्था भास्करेश्वरराज्यदा ॥ १४६ ॥ भास्करेश्वरराज्येशी भास्करेश्वरपोषिणी । भास्करेश्वरज्ञानस्था भास्करेश्वरज्ञानदा ।। १४७॥.... भास्करेश्वरज्ञानेशी भास्करेश्वरगामिनी। ... ... भास्करेश्वरलक्षेशी भास्करेश्वरलक्षिता ॥ १४८ ॥ .... भास्करेश्वरक्षालिता भास्करेश्वररक्षिता।. . .. भास्करेश्वरखड्गस्था भास्करेश्वरखड्गदा ॥ १४६ ।। : .. भास्करेश्वरखड्गेशी भास्करेश्वरखड्गिनी।..... भास्करेश्वरकार्येशी भास्करेश्वरकामिनी ॥ १५० ॥
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१३
भुवनेश्वरीपञ्चाङ्गम्
भास्करेश्वरकायस्था भास्करेश्वर कायदा |
भास्करेश्वरचतुःस्था भास्करेश्वरचनुषा ॥ १५१ ॥
भास्करेश्वरसन्नाभा भास्करेश्वरसार्चिता ।
भ्रूणहत्याप्रशमनी भ्रूणपापविनाशिनी ॥ १५२ ॥ भ्रूणद्रारिद्रयशमनी भ्रूणरोगविनाशिनी । भ्रूणशोकप्रशमनी भ्रूणदोपनिवारिणी ।। १५३ ।। भ्रूण संतापशमनी भ्रूणविभ्रमनाशिनी ।
aur rai शा भवान्धिभयनाशिनी ॥ १५४ ॥ भवान्धि पारकरणी भवान्धिसुखवर्द्धिनी । भवन्धि कार्यकरणी भवान्धिकरुणानिधिः ॥ १५५ ॥ भवाब्धिकालशमनी भवान्धिवरदायिनी ।
भवाभिजनस्थाना भवान्धिभजनस्थिता ।। १५६ ।।
भवान्धिभजनाकारा भवाब्धिभजनक्रिया |
भवाब्धिभजनाचारा भवाब्धिभजनाङ्कुरा || १५७ ॥
भवान्धिभजनानन्दा भवान्धिभजनाधिपा ।
भवान्धिभनैश्वर्या भवाब्धिभजनेश्वरी ॥ १५८ ॥
भवान्धिभजनासिद्धिर्भवाब्धिभजनारतिः ।
भवाब्धिभजनानित्या भवाब्धिभजनानिशा ।। १५६ ॥
भवाब्धिभजनानिम्ना भवान्धिभवभीतिहा ।
भवाब्धिभजना काम्या भवाब्धिभजनाकला || १६० ॥ भवान्धिभजनाकीर्तिर्भवाब्धिभजनाकृता ।
भवाविधशुभदानित्या भवाब्धिशुभदायिनी ।। १६१ ॥
भवान्धिसकलानन्दा भवाब्धिसकलाकला । भवान्धिंसकला सिद्धिर्भवान्धिसकला निधिः ॥ १६२ ॥ भवान्धिकलासारा भवाब्धिसकलार्थदा । भवान्धिभवनामूर्तिर्भवान्धिभवनाकृतिः ॥ १६३ ॥ भवान्धिभवना भव्या भवान्धिभवनाम्भसा । भवाब्धिमदनारूपा भवाब्धिमदनातुरा || १६४ ॥
[ ६७
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६८1
भकारादिसहस्रनाम स्तोत्रम् भवाब्धिमदनेशानी भवाब्धिमदनेश्वरी । भवाब्धिभाग्यरचना भवाब्धिभाग्यदा सदा ।। १६५ ॥ भवाब्धिभाग्यदाकाला भवाब्धिभाग्यनिर्भरा । भवाब्धिभाग्यनिरता भवाब्धिभाग्यभाविता ॥ १६६ ॥ भवाब्धिभाग्यसंचारा भवाब्धिभाग्यसंचिता । भवाब्धिभाग्यसुपथा भवाब्धिभाग्यसुप्रदा ॥ १६७ ॥ भवाब्धिभाग्यरीतिज्ञा भवाब्धिभाग्यनीतिदा । भवाब्धिभाग्यरीतीशी भवाधिभाग्यरीतिनी ।। १६८॥ भवाब्धिभोगनिपुणा भवाब्धिभोगसम्प्रदा । भवाब्धिभाग्यगहना भवाब्धिभोगगुम्फिता ॥ १६६ ॥ भवाब्धिभोगगान्धारी भवाब्धिभोगगुम्फिता । भवाब्धिभोगसुरसा भवाब्धिभोगसुस्पृहा ॥ १७ ॥ भवाब्धिभोगग्रंथिनी भवाब्धिभोगयोगिनी । भवाब्धिभोगरसना भवाधिभोगराजिता ॥ १७१ ।। भवाब्धिभोगविभवा भवाब्धिभोगविस्तृता । भवाब्धिभोगवरदा भवाब्धिभोगवन्दिता ॥ १७२ ।। भवाब्धिभोगकुशला भवाब्धिभोगशोभिता । भवाब्धिभेदजननी भवाब्धिभेदपालिनी ।। १७३ ॥ भवाब्धिभेदरचना भवाब्धिभेदरक्षिता । भवाब्धिभेदनियता भवाब्धिभेदनिःस्पृहा ॥ १७४ ।। भवाब्धिभेदरचना भवाब्धिभेदरोपिता । भवाब्धिभेदराशिनी भवाब्धिभेदराशिनी ॥ १७५ ॥ भवाब्धिभेदकर्मेशी भवाब्बिभेदकर्मिणी । भद्रेशी भद्रजननी भद्रा भद्रनिवासिनी ॥ १७६ ॥ भद्रेश्वरी भद्रवती भद्रस्था भद्रदायिनी । भद्ररूपा भद्रमयी भद्रदा भद्रभापिणी ॥ १७७ ।। भद्रकर्णा भद्रवेषा भद्राम्बा भद्रमन्दिरा। भद्रक्रिया भद्रकला भद्रिका भद्रवर्द्धिनी ।। १७८ ।।
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भुवनेश्वरीपञ्चाङ्गम् भद्रक्रीडा भद्रकला भद्रलीलाऽभिलाषिणी । भद्राङ्करा भद्ररता भद्राङ्गी भद्रमंत्रिणी ।। १७६ ॥ भद्रविद्याऽभद्रविद्या भद्रवाग्भद्रवादिनी । भूपमङ्गलदा सूपा भूलता भूमिवाहिनी ॥ १८० ।। भूपभोगा भूपशोभा भूपाशा भूपरूपदा । भूपाकृतिर्भूपरतिर्भूपश्रीभूपश्रेयसी ।। १८१ ॥ भूपनीति परीतिर्भूपभीतिर्भयङ्करी । . भवदानन्दलहरी भवदानन्दसुन्दरी ।। १८२ ॥ भवदानन्दकरणी भवदानन्दवर्द्धिनी । भवदानन्दरमणी भवदानन्ददायिनी ॥ १८३ ॥ भवदानन्दजननी भवदानन्दरूपिणी । य इदं पठते स्तोत्रं प्रत्यहं भक्तिसंयुतः ।। १८४ ॥ गुरुभक्तियुतो भूत्वा गुरुसेवापरायणः । जितेन्द्रियः सत्यवादी ताम्बूलपूरिताननः ॥ १८५ ॥ . दिवारात्रौ च सन्ध्यायां स भवेत्परमेश्वरः । स्तवमात्रस्य पाठेन राजा वश्यो भवेद् ध्रुवम् ॥ १८६ ॥ सर्वागमेषु विज्ञानी सर्वतन्त्रे स्वयं हरः। गुरोर्मुखात् समभ्यस्य स्थित्वा च गुरुसन्निधौ ॥ १८७ ।। शिवस्थानेषु सन्ध्यायां शून्यागारे चतुष्पथे । यः पठेच्छृणुयाद्वापि स योगी नात्र संशयः ॥ १८८ ॥ सर्वस्वदक्षिणां दद्यात्स्त्रीपुत्रादिकमेव च । स्वच्छन्दमानसो भूत्वा स्तवमेनं समुद्धरेत् ॥ १८६ ॥ एतत्स्तोत्ररतो देवि हररूपो न संशयः। यः पठेच्छृणुयाद्वापि एकचित्तेन सर्वदा ॥ १० ॥
स दीर्घायुः सुखी वाग्मी वाणी तस्य न संशयः। ... गुरुपादरतो भूत्वा कामिनीनां भवेत्प्रियः ॥ १६१॥
धनवान्गुणवान् श्रीमान् धीमानिव गुरुः प्रिये ।। सर्वेषां तु प्रियो भूत्वा पूजयेत्सर्वदा स्तवम् ॥ १२ ॥
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१०० ]
भकारादिसहस्त्रनाम स्तोत्रम् मंत्रसिद्धिः करस्थैव तस्य देवि न संशयः। कुबेरत्वं भवेत्तस्य तस्याधीना हि सिद्धयः ॥ १६३ ।।। मृतपुत्रा च या नारी दौर्भाग्यपरिपीडिता । वन्ध्या वा काकवन्ध्या वा मृतवत्सा च याऽङ्गना ।। १६४ ॥ धनधान्यविहीना च रोगशोकाकुला च या । ताभिरेतन्महादेवि भूर्जपत्रे विलिख्य वै ॥ १६५ ।। सव्ये भुजे धारणीयं तेन सौख्यपदं भवेत् । एवं पुनः पुनर्यायाइदुःखेन परिपीडिता ॥ १६६ ।। सभायां व्यसने वाणीविवादे शत्रुसङ्कटे । चतुरङ्गे तथा युद्धे सर्वत्रापदि पीडने ॥ १६७ ॥ स्मग्णादस्य कल्याणि संशया यान्ति दूरतः । न देयं परशिष्याय नाभक्ताय च दुर्जने ॥ १६८ ॥ दाम्भिकाय कुशीलाय कृपणाय सुरेश्वरि । दद्याच्छिष्याय शान्ताय विनीताय जितात्मने ॥ १६६ ॥ भक्ताय शान्तियुक्ताय रजःपूजारताय च । जन्मान्तरसहस्रेस्तु वर्णितुं नैव शक्यते ॥ २० ॥ स्तवमात्रस्य माहात्म्यं वक्त्रकोटिशतैरपि । विष्णवे कथितं पूर्व ब्रह्मणापि प्रियंवदे ॥ २०१ ।। . अधुनापि तव स्नेहाकथितं परमेश्वरि ।
गोपितव्यं पशुभ्यश्च सर्वथा न प्रकाशयेत् ॥ २०२॥ इति महातन्त्रार्णवे ईश्वरपार्वतीसंवादेभुवनेश्वरीभकारादिसहस्रनाम स्तोत्रं समाप्तम् ।
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श्रीभुवनेश्वरीहृदयस्तोत्रम् श्रीदेव्युवाच-भगवन ब्रूहि तत्स्तोत्रं सर्वकामप्रसाधनम् ।
यस्य श्रवणमात्रेण नान्यच्छ्रोतव्यमिष्यते ॥ १ ॥ यदि मेऽनुग्रहः कार्यः प्रीतिश्चापि ममोपरि।।
तदिदं कथय ब्रह्मन् विमलं यन्महीतले ॥ २॥ ..ईश्वर उवाच-शृणु देवि प्रवक्ष्यामि सर्वकामप्रसाधनम् ।
. हृदयं भुवनेश्वर्याः स्तोत्रमस्ति यशःप्रदम् ॥ ३॥ . ॐ अस्य श्रीभुवनेश्वरीहृदयस्तोत्रमंत्रस्य शक्तिर्ऋषिः, गायत्री छन्दः, भुवनेश्वरी देवता, हकारी बीजम्, ईकार शक्तिः, रेफः कीलकम्, सकलमनोवाञ्छितसिद्धयर्थे पाठे विनियोगः ॥ ॐ ह्रीं हृदयाय नमः १, ॐ श्रीं शिरसे स्वाहा २, ॐ ऐं शिखायै वषट् ३, ॐ ह्रीं कवचाय हुं ४, ॐ श्रीं नेत्रत्रयाय वौषट् ५, ॐ ऐं अस्त्राय फट् । इति हृद्यादिषडङ्गन्यासः।
ॐ हीं अंगुष्ठाभ्यां नमः १, ॐ श्रीं तर्जनीभ्यां नमः २, ॐ ऐं मध्यमाभ्यां .. नमः ३, ॐ ह्रीं अनामिकाभ्यां नमः ४, ॐ श्रीं कनिष्ठिकाभ्यां नमः ५, ॐ ऐं करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ६ । इति करन्यासः ।
अथ ध्यानम् ध्यायेद् ब्रह्मादिकानां कृतजनिजननीं योगिनी योगयोनि देवानां जीवनायोज्ज्वलितजयपरज्योतिरुयाङ्गधात्रीम् । शंखं चक्रं च वाणं धनुरपि दधतीं दोश्चतुष्काम्बुजातैर्मायामाद्यां विशिष्टां भवभवभुवनां भूभुवाभारभूमिम् ॥ ४ ॥ यदाज्ञयेदं गगनावशेष सृजत्यजः श्रीपतिरौरसं वा। बिभर्ति संहति भवस्तदन्ते भजामहे श्रीभुवनेश्वरी ताम् ॥ ५ ॥ जगज्जनानन्दकरी जयाख्यां यशस्विनी यंत्रसुयज्ञयोनिम् । जितामितामित्रकृतप्रपञ्चां भजामहे श्रीभुवनेश्वरी ताम् ॥ ६ ॥ हरौ प्रसुप्ते भुवनत्रयान्ते अवातरन्नाभिजपद्मजन्मा । विधिस्ततोऽन्धे विदधार यत्पदं भजामहे श्रीभुवनेश्वरी ताम् ॥ ७॥ न विद्यते क्वापि तु जन्म यस्या न वा स्थितिः सान्ततिकीह यस्याः। न वा निरोधेऽखिलकर्म यस्या भजामहे श्रीभुवनेश्वरी ताम् ॥ ८॥ कटाक्षमोक्षाचरणोगवित्ता निवेशितार्णा करुणार्द्रचित्ता । सुभक्तये एति समीप्सितं या भजामहे श्रीभुवनेश्वरी ताम् ॥६॥
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१०२]
भुवनेश्वरीपञ्चाङ्गम् यतो जगज्जन्म वभूव योनेस्तदेव मध्ये प्रतिपाति या वा । .. तदत्ति याऽन्तेऽखिलमुग्रकाली भजामहे श्रीभुवनेश्वरी ताम् ॥ १० ॥ सुषुप्तिकाले जनमध्ययन्त्या यया जनः स्वप्नमवैति किंचित् । प्रबुध्यते जाग्रति जीव एष भजामहे श्रीभुवनेश्वरी ताम् ।। ११ ॥ दयास्फुरत्कोरकटाक्षलाभान्नैकत्र यस्याः प्रलभन्ति सिद्धाः । कवित्वमीशित्वमपि स्वतंत्रा भजामहे श्रीभुवनेश्वरी ताम् ॥ १२ ॥ लसन्मुखाम्भोरुहमुत्स्फुरंत हृदि प्रणिध्याय दिशि स्फुरंतः । यस्याः कृपा प्रविकाशयति भजामहे श्रीभुवनेश्वरी ताम् ॥ १३ ॥ यदानुरागानुगतालिचित्राश्चिरंतनप्रेमपरिप्लुताङ्गाः । .. सुनिर्भयाः सन्ति प्रमुद्य यस्याः भजामहे श्रीभुवनेश्वरी ताम् ॥ १४ ॥ हरिविरञ्चिईर ईशितारः पुरोऽवतिष्ठंति प्रपन्नभङ्गाः। यस्याः समिच्छन्ति सदानुकूल्यं भजामहे श्रीभुवनेश्वरी ताम् ॥ १५ ॥ मर्नु यदीयं हरमग्निसंस्थं ततश्च वामश्रतिचन्द्रसक्तम् । ज.न्ति ये स्युर्हि सुवंदितास्ते भजामहे श्रीभुवनेश्वरी ताम् ॥ १६ ॥ प्रसीदतु प्रेमरसा चित्ता सदा हि सा. श्रीभुवनेश्वरी मे । कृपाकटाक्षण कुबेरकल्पा भवंति यस्याः पदभक्तिभाजः ॥ १७ ॥ मुदा सुपाठयं भुवनेश्वरीयं सदा सतां स्तोत्रमिदं सुसेव्यम् । सुखप्रदं स्यात्कलिकल्मषघ्नं सुशृण्वतां संपठतां प्रशस्यम् ॥ १७॥ एतत्तु हृदयं स्तोत्रं पठेद्यस्तु समाहितः। भवेत्तस्येष्टदा देवी प्रसन्ना भुवनेश्वरी ॥ १८ ॥ ........ ददाति धनमायुष्यं पुण्यं पुण्यमति तथा । नैष्ठिकी देवभक्तिं च गुरुभक्तिं विशेषतः॥ १६ ॥ पूर्णिमायां चतुर्दश्यां कुजवारे विशेषतः। पठनीयमिदं स्तोत्रं देवसद्मनि यत्नतः ॥ २० ॥ यत्र कुत्रापि पाठेन स्तोत्रस्यास्य फलं भवेत् ।
सर्वस्थानेषु देवेश्याः पूतदेहः सदा पठेत् ॥ २१ ॥ ' इति नीलसरस्वतीतन्त्रे भुवनेश्वरीपटले श्रीदेवीश्वरसंवादे श्रीभुवनेश्वरीहृदयस्तोत्रं समाप्तम् ।
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अथ श्रीभुवनेश्वरीस्तोत्रम् अथानन्दमयीं साक्षाच्छब्दब्रह्मस्वरूपिणीम् ।
ईडे सकलसम्पत्य जगत्कारणमम्बिकाम् ॥ १ ॥ आद्यामशेषजननीमरविन्दयोनेविष्णोः शिवस्य च वपुःप्रतिपादयित्रीम् । सृष्टिस्थितिक्षयकरी जगतां त्रयाणां स्तुत्वा गिरं विमलयाम्यहमम्बिके ! त्वाम् ॥ २ ॥ पृथ्व्या जलेन शिखिना मरुतां वरेण होनेन्दुना दिनकरेण च मूर्तिभाजः । देवस्य मन्मथरिपोरपिशक्तिमत्ताहेतुस्त्वमेव खलु पर्वतराजपुत्रि ! ॥३॥ त्रिस्रोतसः सकलदेवसमर्चिताया वैशिष्ट्यकारणमवैमि तदेव मातः ! " त्वत्पादपङ्कजपरागपवित्रितासु शम्भोर्जटासु सततं परिवर्तनं यत् ॥ ४॥ · आनन्दयेत् कुमुदिनीमधिपः कलानां नान्यामिनः कमलिनीमथ नेतरां वा । एकत्र मोदनविधौ परमे क ईष्टे त्वन्तु प्रपञ्चमभिनन्दयसि स्वदृष्ट्या ॥ ५ ॥ आद्याऽप्यशेषजगतां नवयौवनाऽसि शैलाधिराजतनयाऽप्यतिकोमलाऽसि ।
त्रय्या प्रमूरपि तथा न समीक्षिताऽसि ध्येयाऽसि गौरि ! मनसो न पथि स्थिताऽसि ॥६॥ - आसाद्य जन्म मनुजेषु चिरादुरापं तत्रापि पाटवमवाप्य निजेन्द्रियाणाम् ।
नाभ्यर्चयन्ति जगतां जनयित्रि ! ये त्वां निःश्रेणिकाग्रमधिरुह्य पुनः पतन्ति ।। ७ ।। कर्पूरचूर्णहिमवारिविलोड़ितेन ये चन्दनेन कुसुमैश्च सुगन्धिगन्धैः। आराधयन्ति हि भवानि ! समुत्सुकास्त्वां ते खल्वशेषभुवनाधिभुवः प्रथन्ते ॥ ८॥ आविश्य मध्यपदवीं प्रथमे सरोजे सुप्ताहिराजसदृशी विरचय्य विश्वम् । विद्युल्लतावलयविभ्रममुद्वहन्ती पद्मानि पञ्च विदलय्य समश्नुवाना ॥६॥ तन्निर्गतामृतरसैः परिषिक्तगात्रमार्गेण तेन निलयं पुनरप्यवाप्ता । येषां हृदि स्फुरसि जातु न ते भवेयुर्मातर्महेश्वरकुटुम्बिनि ! गर्भभाजः ॥ १० ॥
आलम्बिकुण्डलभरामभिरामवक्त्रामापीवरस्तनतटीं तनुवृत्तमध्याम् । चिन्ताक्षसूत्रकलशालिखिताढ्यहस्तामावर्तयामि मनसा तव गौरि ! मूर्तिम् ॥ ११ ॥
आस्थाय योगमवजित्य च वैरिषटकमावद्धय चेन्द्रियगणं मनसि प्रसन्ने। .
पाशाङकुशाभयवराढयकरां सुवक्त्रामालोकयन्ति भुवनेश्वरि ! योगिनस्त्वाम् ॥ १२ ॥ ... उत्तप्तहाटकनिभाकरिभिश्चतुर्भिरावर्तितामृतघटैरभिषिच्यमाना । .. इस्तद्वयेन नलिने रुचिरे वहन्ती पद्माऽपि साऽभयवरा भवसि त्वमेव ॥ १३ ॥
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पारष्टसारा ।
१०४]
भुवनेश्वरीपञ्चाङ्गम् अष्टाभिरुग्रविविधायुधवाहिनीभिर्दोल्लरीभिरधिरुह्य मृगाधिराजम् ।। दुर्वादलद्युतिरमर्त्य विपक्षपक्षान् न्यक्कुर्वती त्वमसि देवि ! भवानि ! दुर्गा ॥ १४ ॥ ... श्राविर्निदाघ जलशीकरशोभिवक्त्रां गुजाफलेन परिकल्पितहारयष्टिम् । पीतांशुकामसितकान्तिमनङ्गन्तन्द्रामाद्यां पुलिन्दतरुणीमसकृत् स्मगमि ।। १५ ।। हंसर्गतिक्वणितनपुरदूरदृष्टे मूतैरिवार्थवचनैरनुगम्यमानौ । पद्माविवोर्ध्वमुखरूढसुजातनाली श्रीकण्ठपनि ! शिरसा विदधे तयाधी ।। १६ ॥ द्वाभ्यां समीक्षितुमवृप्तिमतेव दृग्भ्यामुत्पाट्य भालनयनं वृपकेतनेन । सान्द्रानुरागतरलेन निरीक्ष्यमाणे जो शुभे अपि भवानि ! तवानतोऽस्मि ।। १७॥ ऊरू स्मरामि जितहस्तिकरावलेपौ स्थौल्येन मार्दवतया परिभृतरम्भौ । श्रोणीमरस्य सहनौ परिकल्प्य दत्तौस्तम्भाविवाङ्ग वयसा तब मध्यमेन ॥ १८ ॥ श्रोण्यौस्तनौ च युगपत् प्रथयिष्यतांचैर्याल्यात्परेण क्यसा परिहृष्टसारौ । रोमावलीविलसितेन विभाव्य मूर्ति मध्यं तव स्फुरतु मे हृदयस्य मध्ये ॥ १६ ॥ सख्यः स्मरस्य हरनेत्रहुताशशान्त्यै लावण्यवारिभरितं नवयौवनेन ।
आपाय दत्तमिव पल्लवमप्रविष्टं नाभिं कदापि तव देवि ! न विस्मरेयम् ॥ २० ॥ ईशेऽपि गेहपिशुनं भसितं दधाने काश्मीरकर्दममनुस्तनपङ्कजे ते । स्नातोत्थितस्य करिणः क्षणलक्ष्यफेनौ सिन्दरितो स्मरयतः समदस्य कुम्भौ ॥ २१ ॥ कण्ठातिरिक्तगलदुज्ज्वलकान्तिधाराशोभौ भुजौ निरिपोकर्मकरध्वजेन । कण्ठग्रहाय रचितौ किल दीर्घपाशौ मातर्मम स्मृतिपथं न विलङ्घयेताम् ॥ २२ ॥ नात्यायतं रचितकम्युबिलासचौर्यं भूपाभरेण विविधेन विराजमानम् । कण्ठं मनोहरगुणं गिरिराजकन्ये ! सञ्चिन्त्य तृप्तिमुपयामि कदापि नाहम् ।। २३ ॥ अत्यायताक्षमभिजातललाटपट्टम् मन्दस्मितेन दम्फुल्लकपोलरेखम् । विम्बाधरं वदनमुन्नतदीर्घनासं यस्ते स्मरत्यसकृदम्ब ! स एव जातः ।। २४ ॥
आविस्तुपारकरलेखमनल्पगन्धपुष्पोपरिभ्रमदलिबजनिर्विशेषम् । यश्चेतसा कलयते तव केशपाशं तस्य स्वयं गलति देवि पुराणपाशः ॥ २५ ॥ श्रुतिसुचरितपाकं श्रीमतां स्तोत्रमेतत् पठति य इह मो नित्यमार्टान्तरात्मा । स भवति पदमुच्चैः सम्पदां पादनम्रक्षितिपमुकुटलक्ष्मीलक्षणानां चिराय ॥ २६ ॥ .
इति श्रीरुद्रयामले तन्त्रे श्रीभुवनेश्वरीस्तोत्रं समाप्तम् ।
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अथ श्रीपृथ्वीधराचार्यपद्धतौ - श्रीभुवनेश्वरीक्रमचन्द्रिका ॥श्रीः ।। चित्प्रकाशं गुरुं वन्दे परमानन्दविग्रहम् ।
क्रियते स्वप्रकाशेन भुवनेशीक्रम महत् ॥ १ ॥ अथ मन्त्री ब्राह्म मुहूर्ते चोत्थाय स्वशिरसि श्रीगुरुचरणारविन्दं ध्यात्वा
प्रशास्महे नमोवाकमाकाशानन्दमूर्तये । शिवाय करुणाीय गुरुरूपमुपेयुषे ॥ २ ॥ स्वप्रकाशविमाख्यबीजाङ्कुरलतां पराम् । शृङ्गारपीठनिलयां वन्दे श्रीभुवनेश्वरीम् ॥ ३ ॥ ब्राह्म मुहूर्ते चोत्थाय ब्रह्मरन्ध्रे सिताम्बुजे । चिच्चन्द्रमण्डले शुद्ध स्फटिकाभं वराभये ॥ ४ ॥ दधानं रक्तया शक्त्या श्लिष्टं वामाङ्कसंस्थया । धारयन्त्योत्पलं दीर्घ नेत्रत्रयविभूषितम् ॥ ५॥ प्रसन्नवदनं शान्तं स्मरेत्तन्नामपूर्वकम् । रक्तशुक्लात्मकं तस्य संस्मृत्य चरणद्वयम् ॥ ६ ॥ गुरुश्च गुरुपत्नीञ्च देवं देवीं विभावयेत् । पादुकामन्त्रमुच्चार्य यथास्वगुरुरुक्तितः ॥ ७ ॥
तत्तन्मुद्रान्वितैर्गन्धाधुपचारैः प्रपूजयेत् । तद्यथा-लं. पृथिव्यात्मने परमात्मने गन्धतन्मात्रप्रकृत्यात्मने श्रीगुरुनाथाय गन्धं समर्पयामि कनिष्ठयोः । हं आकाशात्मने परमात्मने शब्दतन्मात्रप्रकृत्यात्मने श्रीगुरुनाथाय पुष्पं समर्पयामि अङ्गुष्ठयोः । यं वायव्यात्मने परमात्मने स्पर्शतन्मात्रप्रकत्यात्मने श्रीगुरुनाथाय धूपं समर्पयामि तर्जन्योः । रं अग्न्यात्मने परमात्मने रूपतन्मात्रप्रकृत्यात्मने श्रीगुरुनाथाय दीपं समर्पयामि मध्यमयोः। वं अवात्मने परमा
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२०६ ]
श्री पृथ्वीधराचार्यपद्धती
त्मने रसतन्मात्रप्रकृत्यात्मने श्रीगुरुनाथाय नैवेद्यं समर्पयामि अनामिकयोः । सं शक्त्यात्मने परमात्मने सर्वतन्मात्र प्रकृत्यात्मने श्रीगुरुनाथाय ताम्बूलं समर्पयामि करसम्पुटयोरित्युपचारैः श्रीगुरुनाथं सम्पूज्य प्रार्थयेत्---
प्रातः प्रभृति सायान्तं सायादि प्रातरन्ततः । यत्करोमि जगन्नाथ ! तदस्तु तव पूजनम् ॥
इत्युक्तरीत्या स्वगुरु तन्नामपूर्वकं प्रणम्य तद्यथा - ऐं ह्रीं श्रीं श्रमुकानन्दनाथसंविदं वा शक्तियुक्तश्रीपादुकां पूजयामि नम इति नमस्कृत्य
हेरम्यं क्षेत्रपालब्च वागीशं वटुकं तथा । श्रीगुरुं नाथमानन्दं भैरवं भैरवीं पराम् ||
इति क्रमेण गुरुपादुकास्तोत्रं पठित्वा -
तस्यै दिशे सततमञ्जलिरेष पौष्पः प्रक्षिप्यते मुखरितो भ्रमरैर्द्विरेकैः । जागर्ति यत्र भगवान् गुरुचक्रवर्ती विश्वोदय प्रलय नाटक नित्य साक्षी ॥ इति पञ्चमुद्राभिर्नमस्कृत्य मूलविद्यां ध्यायेत् । तद्यथा
मूलादिब्रह्मरन्ध्रान्तं संस्मरेन्निज देवताम् | सूर्यकोटिप्रतीकाशां चन्द्रकोटिसुशीतलाम् ॥ उद्यद्दिवाकरोतां यावच्छ्वासं दृढासनः । ध्यात्वा तदैकरस्येन कञ्चित् कालं सुखी भवेत् ॥
इत्युक्तरीत्या मूलविद्यां विभाव्य अजपासंकल्पं कुर्यात् । तद्यथा - अस्य श्री ज पानाम गायत्रीमन्त्रस्य हंस ऋषिः परमहंसो देवता अव्यक्तगायत्री छन्दः हे वीजम् सः शक्तिः सोऽहं कीलकम् प्रणवस्तत्वम् नाद: स्थानम् उदात्तः स्वरः श्वेतो वर्णः मम समस्त पापक्षयार्थं स्वस्वरूपसंचित्प्राप्त्यर्थमद्याहोरात्रमध्ये श्वासोच्छ्वासरूपेण पट्ाताधिकमेकविंशतिसहस्रमजपानाम गायत्री जपमहं करिष्य इति संकल्प्य हंसः सोऽहमिति मन्त्रेण प्राणायामं करशुद्धि पडङ्गन्यासं कुर्यात् । इसां सूर्यात्मने हृदयाय नमः
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... भुवनेश्वरी क्रमचन्द्रिका
[ १०७ अङ्ग ष्ठयोः । इसी सोमात्मने शिरसे स्वाहा तर्जन्योः। _ निरञ्जनात्मने शिखायै वषट् मध्यमयोः । सँ निराभासात्मने कवचाय हुं अनामिकयोः । हसँ अतनुसूक्ष्मप्रचोदयात्मने नेत्रत्रयाय वौषट् कनिष्ठयोः । हसः अव्यक्तप्रबोधात्मने अस्त्राय फट् करतलकरपृष्ठयोरिति षडङ्गः । अथ ध्यानम् ।
...................... हसरूपं विभावयेत् । आत्मानमग्निसोमाख्यपक्षयुक्तं शिवात्मकम् ॥ सकारण बहिर्यातं विशन्तञ्च हकारतः। हंसः सोऽहमिति स्मृत्वा सोऽहं व्यञ्जनहीनतः॥
पक्षी संहृत्य चात्मानमण्डरूपं विभावयेत् । तारमभ्यस्येति ॐ काररूपं परमात्मानं ध्यात्वा । ॐ आधारचक्रं पृथिवीस्थानं रक्तवर्ण चतुर्दलं चतुरक्षरं चतुःशक्तियुक्तम् वं शं पं सं तन्मध्ये गणेशं सिद्धिबुद्धिसहितं पूर्वेयुः कृतमजपाजपं पट्शताधिकमेकविंशतिसहस्रं तन्मध्ये पटशतम् हंसः सोऽहमिति सिद्धमन्त्रेण कृतं परब्रह्मस्वरूपाय महागजवदनाय समर्पयामि नमः । ततः स्वाधिष्ठान चक्रं अग्निस्थानं पीतवर्ण षडक्षरं वं भं मं यं रं लं तत्कमलकर्णिकामध्ये षट्सहस्रं ६००० हंसः सोऽहमिति सिद्धमन्त्रेण कृतं परब्रह्मम्वरूपाय श्रीब्रह्मणे सावित्रीसहिताय' अजपाजपं समर्पयामि नमः । ततो मणिपूरचक्रं नाभिस्थानं दशदलं श्यामवर्ण दशाक्षरं डं ढं णं तं थं दं धं नं पं फं तन्मध्ये पट्सहस्रं ६००० हंसः
सोऽहमिति सिद्धमन्त्रेण कृतमजपाजपं श्रीपरब्रह्मस्वरूपाय विष्णवे लक्ष्मीसहिताय ... - अजपाजपं समर्पयामि नमः । अथ अनाहत चक्र हृदयस्थान द्वादशदलं शुभ्रवणे
द्वादशाक्षरं क ख ग घ ङ च छ ज झ अं टं टं तन्मध्ये पट्सहसं ६००० हंसः सोऽहमितिसिद्धमन्त्रेण कृतं अजपाजपं श्रीपरब्रह्मस्वरूणय रुद्राय गौरीसहिताय अजपाजपं समर्पयामि नमः। अथ विशुद्धचक्र कण्टस्थानं षोडशदलं स्फटिकवण षोडशाक्षरं अं आ इ ई उ ऊ ऋ ऋलं एंऐ ओ औ अं अः तन्मध्ये सहस्रमेकं १०००ईसः सोऽहमिति सिद्धमन्त्रेण कृतं अजपाजपं श्रीपरब्रह्मस्वरूपाय जीवात्मने ईश्वरक्रियाशक्ति सहिताय अजपाजपं समर्पयामि नमः। अथ आज्ञाचक्र भ्रूमध्यस्थानं द्विदलं विधुवर्ण द्वयक्षरं ह क्ष कमलकर्णिकामध्ये सहस्रमेकं हंसः सोऽहमिति सिद्धमन्त्रेण कृतं श्रीएरब्रह्मपरमशिवशक्तिसहिताय अजगजपं समर्पयामि नम इति समये परेऽहन्येवं कुर्यात् ।
एवं प्राभातिकं कृत्वा स्वस्थाने गुरुमु यास्य महीं नत्वा वहिर्बजेत् । तद्यथा
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१०]
श्रीपृथ्वीधराचार्यपद्धती समुद्रमेखले देवि पर्वतस्तनमण्डले !
विष्णुपत्न्यै नमस्तुभ्यं पादस्पर्श क्षमस्व मे ॥ इत्यनेन हस्तपुटाभ्यां नमस्कृत्य बहिर्गच्छेत् । "
वक्ष्ये प्रत्याहिकं कर्म मन्त्राराधनचेतसाम् । अरुणोदयवेलायामुत्थाय प्रत्यहं प्रिये ! निजग्रामाद् बहिरं गन्तव्यं नियतेन्द्रियः। : विलोक्य निर्मलं देशमुबरं तृणवर्जितम् । तृणैराच्छाद्य तं देशं मृदमाहूय नूतनाम् ॥
तीर्थात्तज्जलमाइल वृहत्पात्रे च पूरयेत् ॥ तद्यथा-वृहत्गत्रं जलपूर्ण मृत्तिकाञ्च गृहीत्वा सिञ्चनपूर्वकं भूमौ संस्थाप्य मृदं. त्रिधा विभज्याथ भागमेकं प्रगृह्य च एक भाग मूत्रशोचार्यमेकं पुरीषशौचार्थमेकं हस्तपादादि शौचार्यमिति त्रिधा विभज्य पात्रान् (णि) नैर्ऋत्यकोणे तृणास्तरित (स्तीर्ण - भृम्यां कर्णस्यव्रह्मसूत्रः सन् दक्षिणाभिमुखः मलोत्सर्जनं कुर्यात् । तत्र संकल्पः- ....
गच्छन्तु ऋषयो देवाः पिशाचा यक्षराक्षसाः।
पितृभूतगणाः सर्वे करिष्ये मलमोचनम् ॥ इत्युक्त्वा तालत्रयं दत्वा मस्तकंचाससाऽपवृत्य मलविमोचनं कुर्यात् । प्रातःकाल उत्तराभिमुखी रात्रौ चेद्दक्षिणाभिमुखः तत उत्थाय शौचं कुर्यात् ।
अपसर्पन्तु भूतानि कुर्यात्तालत्रयं ततः। स्थूलामलकमानेन गृहीत्वा मृदमादरात् ॥ ....
शौचं कार्य प्रयत्नेन गन्धले पक्षयावधि ॥ तत्र शौचनियम:
एका लिङ्गे करे तिस्त्र उभयोर्मुद्द्वयं स्मृतम् । ..
एकैकं पादयोर्दद्यान् मृत्र शौचं प्रकीर्तितम् ॥ इति मूत्रशौचः।
पञ्चापाने दश करे उभयोः सप्त मृत्तिकाः। त्रिवारं पादयोर्दद्याद् गुदशौचं प्रकीर्तितम् ॥
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भुवनेश्वरी क्रमचन्द्रिका
[ १०६ .. इति पुरीषशौचः । ततो गण्डूषान् त्यजेत् । तत्र नियम:
चतुरष्टत्रिषभिश्च गण्डूषैः शुद्धयति क्रमात् ।
___ मूत्रे पुरीषे भुक्त्यन्ते रेतःप्रस्रवणेऽपि च ॥ ... अस्यायमर्थ:- . ...... . मूत्रे चतुरः, पुरीषेऽष्ट, भोजने त्रिः (त्रीन्: ) रेत:-प्रस्रवणे षट् ६ गण्डूषान् त्यजेत् । इत्थं शौचविधि विधाय । अथ दन्तधावनक्रमः
चूतचम्पकजम्बूकापामार्गादि वा प्रिये !
बदरं जातिवृक्षस्य दन्तकाष्ठं समाहरेत् ॥ तत्र प्रार्थना
श्रायुर्बलं यशो वर्चः प्रजापशुवसूनि च ।
श्रियं प्रज्ञाश्च मेधाश्च त्वन्नो देहि वनस्पते ! ...' इति वनस्पति प्रार्थ्य अष्टादशाङ्गुलं द्वादशाङ्ग लं नवाङ्ग लं षडङ्गलं वा - दन्तकाष्ठं गृहीत्वा “ॐ नमो भगवते मणिभद्राय यक्षसेनाधिपतये किलि किलि स्वाहा' इत्यनेन मन्त्रेण षोडशवारमभिमन्त्र्य "क्लीं कामदेवाय नमः" इत्यनेन मन्त्रेण दन्तान् जिह्वया सह संशोध्य मूलेन मुखं त्रिपक्षालयेत् । ततः स्नानसामग्री गृहीत्वा प्रातःस्मरणादिकं पठन्नद्यादि जलाशयं गच्छेत् स्नायाच्च । तद्यथा हस्तौ णदौ प्रक्षाल्याचम्य तिथ्यादिकं सङ्कीर्त्य मम समस्तपापक्षयार्थ देवताप्रसादसिद्धयर्थं स्नानमहं करिष्य इति संकल्प्य । तत्रादौ मृत्तिकास्नानम्-मूलमन्त्रेण पादावारभ्य जानुपर्यन्तं जान्वादि नाभिपर्यन्तं नाम्यादि वक्षोऽन्तं वक्षत्रादि कराठान्तं कएटादारभ्य मूर्धान्त
मित्यं मृत्तिकास्नानं विधाय ततो वैदिकस्नानमघमर्षणान्तं कृत्वा तान्त्रिकस्नानं कुर्यात् ।। - तद्यथा-ॐ ह्रीं आत्मतत्वं शोधयामि स्वाहा ॐ ह्रीं विद्यातत्वं शोधयामि स्वाहा
ॐ ह्रीं शिवतत्व शोधयामि स्वाहा । द्विःप्रमृज्य नासिकायां नयनयोः शिरसि दक्षिणकणे सकृत् स्पृष्ट्वा एवमाचम्य ।
... स्नानप्रकारो द्विविधो बाह्याभ्यन्तरभेदतः। - तत्रादौ अन्तःस्नानम्
आन्तरं स्नानमत्यन्तं रहस्यमपि पार्वति । कथयामि भवध्वंस्यै ( ध्वस्त्यै ) पञ्चवर्गाप्तयेऽपि च ॥
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११० ]
श्रीपृथ्वीधराचार्यपद्धतौ. सरित्त्रयमनुस्मृत्य चरणत्रयमध्यतः। स्रवन्तं सच्चिदानन्दं प्रवाहं भावगोचरम् ।। विमुक्तिसाधनं पुंसां स्मरणादेव योगिनाम् । तेनाप्लावितमात्मानं भावयेदु भावशान्तये ॥ इडा गङ्गेति विख्याता पिङ्गाला यमुना नदी। .
मध्ये सरस्वती ज्ञेया तत्प्रयागमिति स्मृतम् ।। ___ इति भावनाक्रमेणा-तरं स्नानं निवर्त्य बहिर्मन्त्रस्मानं कुर्यात् । तद्यथा-पूर्वाशाभिमुखो भूत्वा भूमिं गुरुञ्चाभ्यां मन्त्राभ्याम् प्रार्थयेत्
धारणं पोषणं त्वत्तो भूतानां देवि ! सर्वदा। . तेन सत्येन मां पाहिं पाशान् मोचय धारिणि ! अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम् ।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ एताभ्यां नमस्कृत्य नाभिमाने जले स्थित्वा जलमध्ये कनिष्ठया त्रिकोणं षट्कोणं अष्टदलं षोडशदलं चतुरआं लिखित्वा त्रिकोणमध्ये मूलबीजं विलिख्य । तीर्थ-... सूर्यमण्डलादङ्कशमुद्रया “ऐं हृदयाय नम" इति मन्त्रेणाकृष्य तीर्थे क्षिप्त्वा तत्र तीर्थ- . . मावाहयेत् । मन्त्र:
ब्रह्माण्डोदरतीर्थानि करैः स्पृष्टानि ते रवे! तेन सत्येन मे देव ! तीर्थं देहि दिवाकर ! . गङ्गे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति ! नर्मदे सिन्धु कावेरि ! जलेऽस्मिन् सन्निधिं कुरु ॥ इमं मे गङ्गे यमुने......: इति । आवाहयामि तां देवीं स्नानार्थमिह सुन्दरि ।
एहि गङ्गे ! नमस्तुभ्यं सर्वतीर्थसमन्विते ॥ "ऐं ह्रीं श्रीं सर्वानन्दमये तीर्थशले एहि एहि स्वाहा' इति मन्त्रेणाङ्कशमुद्रया संयोज्याचाहनादिमु हाः प्रदर्श्य आवाहनी. १ स्थापनी २ सन्निरोधिनी ३ अवगुएठनी... ४ सम्मुखीकरणी ५ धेनुः ६. योनिः ७ एताः सप्त मुद्राः प्रदर्य पडङ्ग कुर्यात् ।
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भुवनेश्वरी क्रमचन्द्रिका
[ १११ तद्यथा-ॐ ह्रां हृदयाय अंङ्ग ठाभ्यां नमः । ह्रीं शिरसे स्वाहा तर्जनीभ्यां नमः । ह् शिखायै वषट् मध्यमाभ्यां नमः । हूँ कवचाय हुं अनामिकाभ्यां नमः । ह्रौं नेत्रयाय वौषट् कनिष्ठिकाभ्यां नमः । हः अस्त्राय फट करतलकरपृष्ठाभ्यां नम इत्थं षडङ्ग विधाय पाणिभ्यामाच्छाद्य मूलेन सप्तवारमभिमन्न्य । अमृतेश्वरी सप्तशो जपित्वा ध्यात्वाऽचम्य स्नायात् । तद्यथा-ॐ ह्रीं क्लीं आं अमृते अमृतोद्भवे अमृतेश्वरि अमृतवर्षिणि अमृतं स्रावय स्रावय सां जू जू सः अमृतेश्वर्यै स्वाहा । . . . : .
प्रसृतामृतरश्म्यौघसन्तर्पितचराचरम् । __... भवानि ! भवशान्त्यै त्वां भावयाम्यमृतेश्वरीम् ॥
अन्तःशक्तिमभिध्यायन्नाधाराद् ब्रह्मरन्ध्रगाम् ।
तस्याः पीयूषवर्षेण स्नानमन्तः समाचरेत् ॥ .. इत्युक्तरीत्या ध्यात्वा निमज्योन्मज्य भूलेन सप्तवारं मार्जनं कृत्वा ततः अघमर्षणं
कुर्यात् । तद्यथा-दक्षिणपाणितले जलं गृहीत्या मूलेन सप्तवारमभिमन्त्रितं चिद्रपं स्मृत्वा वामपाणिना संघट्टमुद्रया भूलविद्यया त्रिवारं मूर्ध्नि अभिषिञ्च्यावशिष्टमुदक मिडया संगृह्य अन्तर्नाडी प्रक्षाल्य कलुषं कजलामं पिङ्गलया विरेच्य वामे वज्रशिला ध्यात्वा हुं फट् इति मन्त्रेण वामभागस्थवज्रशिलायामास्कालयेत् । ततो योनिमुद्रया शिरसि मूलेन त्रिवारमभिषिञ्च्यं हृदि बाबोस्त्रिरभिषिञ्चयेत् । ततो जलतर्पणम् । तान् देवांस्तर्पयामीति जलतर्पणं कृत्वा । ॐ ऐं ह्रीं श्रीं भुवनेश्वर्यम्बाश्रीपादुकां तर्पयामीति त्रिः सन्तर्प्य बहिर्निर्गच्छेत् । मूलेन धौते अनाहतवाससी संप्रोक्षिते परिधायाचम्य विभूतिधारणं कुर्यात् । तद्यथा
प्रक्षाल्य पाणिचरणावाचमेन्मूलविद्यया । उपवीतोत्तरीयाणि नवानि विमलानि च ॥ भस्मस्नानं पुरा कृत्वा त्रिपुण्डं धारयेत्ततः । ततः सम्यक् कुशासीनो कुर्यादुलनं क्रमात् ॥ • आपादमस्तकं देवि ! सितानवभस्मना । .. ... सर्वाङ्गोलनं कुर्यात् प्रणवेन शिवेन वा ॥
ततस्त्रिपुण्ड्रं रचयेत् त्रियायुषसमाह्वयम् ।। तद्यथा-विभूतिं वामहस्ते निधाय दक्षिणेन पाणिना पिधाय जातवेदसे' ... १. ॐ जातवेदसे सुनवाम सोममरातीयतो नि दहाति वेदः ।
स नः पर्षदति दुग्र्गाणि विश्वा नावेव सिन्धु दुरितात्यग्निः ।।'ऋग्वेदः १ । ७।७।१।
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११२
श्रीपृथ्वीधराचार्यपद्धती "गायत्र्या" "व्यम्बकं "अग्निरस्मि "मा न स्तोके ।। च्यायुपम् जमदग्ने।" रिति षट् अग्निरिति भस्म वायुरिति भस्म जलमिति भस्म स्थलमिति भस्म व्योमेति... सर्व ह वा इदं भस्म । मन एतानि चपि भस्मानि भवन्ति । ततो मूलविद्यया सप्तवारमभिमन्त्र्य । ईशान इति शिरसि भस्म निधाय "तत्पुरुषाये" ति वक्त्रे "अघोरेभ्यः' इति हृदये "यामदेवाये"" ति गुह्ये "सद्यो जात ” मिति पादयोः । पुनः मूलविद्यया शिरसि भस्म निधाय मूलेन मुखे मूलेन वक्षसि मूलेन ऊोः मूलेन । जङ्घयोः मूलेन पादयोः मूलेन सर्वसन्धिप्रदेशेषु स्नायात् । अङ्गुष्ठेन सम्मर्च कनिष्ठिकया त्रिकोणं बिलिख्य तन्मध्ये भुवनेश्वरीबीजं लिखित्वा मूलमन्त्रेण सप्तवारमभिमन्त्र्य अङ्गुष्ठेन शिरः प्रदक्षिणीकृत्य ॐ दीप्तचण्डाय नमः ललाटमध्ये रेखां कृत्वा मध्यमया अनामिकया
........... ....."तर्जन्या तु त्रिपुण्डकम् । ललाटे भगवान ब्रह्मा हृदये हव्यवाहनः॥ नाभौ स्कन्धे गले पृषा बाह्वोवामे च दक्षिणे।
रुद्रादित्यौ तथा मध्ये मणिवन्धे प्रभञ्जनः १. भूर्भुवः स्वः । तरसवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि । धियो यो नः प्रचोदयात। २. ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्द्धनम् । उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय
मामृतात् ।। ३ । ६० । ३. अग्निरस्मि जन्मना जातवेदा घृतम्मे चक्षुरमृतम्मऽश्रासन् । अर्कस्त्रिधातू रजसो .
विमानोऽजस्रो धो हविरस्मि नाम । - । ६६ ।। ४.४ मा नस्तोके तनये मा न आयुपि मा नो गोपु मा नो अश्वेषु रीरिपः । मा नो वीरान् ___ रुद्र भामिनो वधीहविष्मन्तः सदमिरवा हवामहे । १६ । १६ । ५. ॐ त्र्यायुपं जमदग्नेः कश्यपस्य व्यायुपम् । यद् देवपु त्र्यायुपस् । तन्नो अस्तु न्यायुपम् । ' ६. ईशानः सर्वविद्यानामीश्वरः सर्वभूतानाम् । ब्रह्माधिपतिर्ब्रह्मणोऽधिपतिर्ब्रह्मा शिवो में __ अस्तु सदा शिवोम् ॥ ३८ । । । ७. तत्पुरुषाय विद्महे । महादेवाय धीमहि । तन्नो रुद्रः प्रचोदयात ॥ ३८ । ७ ८. अघोरेभ्योऽथ घोरेभ्यो घोरघोरतरेभ्यः। ... ..
सर्वेभ्यः सर्व शर्वेभ्यो नमस्ते अस्तु रुद्ररूपेभ्यः ॥ ३८।६। ... ६. ॐ वामदेवाय नमो ज्येष्ठाय नमः श्रेष्ठाय नमो रुद्राय नमः कालाय नमः कलविकरणाय . नमो चलधिकरणाय नमः ।। ३ | ४ |
५०. सद्योजातं प्रपद्यामि सद्योजाताय वै नमो नमः ।.... ..." भवे भवे नाति भवे भवस्वमां भवोद्भवाय नमः ।। ३८।३। .
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भुवनेश्वरीक्रमचन्द्रिका . [ ११३ ... वाममूले वामदेवो मध्ये चैव शशिमभः। ... वसवो मणिबन्धे च पृष्ठे चैव हरिः स्मृतः ॥ .
शिरस्थात्मा महादेवो परमात्मा सदाशिवः । सर्वेष्वङ्गेषु दिक्पालाः शक्तिमातृगणादयः ॥
सर्वे देवाश्च रक्षन्तु विभूतेरभिधारणे ।। - अथ त्रिपुण्डलक्षणम्
वर्तुलेन भवेद् व्याधिःघेणैव तपाक्षयः । नेत्रयुग्मप्रमाणेन त्रिपुण्ड्रं धारयेद् वुधः । इति ज्ञात्वा विधानेन भस्मस्नानं समाचरेत् ।
सर्वाङ्गेष्वथवा कुर्यात् केवलं मूलविद्यया ॥ इति विभूतिस्नानधारण विधिः । .. अथ सन्ध्याविधिरुच्यते । आदौ स्वशाखोक्तवैदिकसन्ध्यां निवर्त्य मन्त्रसन्ध्या
मारभेत् । तद्यथा-ॐ ह्रीं आत्मतत्वं शोधयामि नमः स्वाहा । ॐ ह्रीं विद्यातत्वं शोधयामि नमः स्वाहा । ॐ ह्रीं शिवतत्वं शोधयामि नमः स्वाहा । एवमाचम्य । . . त्रिरुन्मृज्य सकृत् स्पृष्ट्वा नासिके नयने शिरः।
हृदयं दक्षिणं कर्ण संस्पृशेदयमाचमः ।। ..... मूलेन प्राणायाम कुर्यात् । ततः पडङ्गमङ्गपञ्चकन्यासं कुर्यात् । ॐ हां हृदयाय नम .. अङ्गुष्ठाभ्यां नमः, ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा तर्जनीभ्यां नमः, ॐ ह्र शिखायै वषट् मध्य..माभ्यां नमः, ॐ हैं कवचाय हुं अनामिकाभ्यां नमः, ॐ ह्रौं नेत्रत्रयाय वौषट् कनिष्ठि
काभ्यां नमः, ॐ हः अस्त्राय फट करतलकरपृष्ठाभ्यां नम इति षडङ्गः। अथाङ्गपञ्चकन्यासः । ॐ ह्रीं हल्लेखायै नमो मूर्धिन, ॐ ह्र गगनायै नमो मुखे, ॐ है रक्तायै नमो हृदये, ॐ ह्रौं करालिकायै नमो गुह्ये, ॐ हः महोच्छुष्मायै नमः पादयोरिति विन्यस्य। ॐ ह्रीं शिवाय नमः दक्षकरे ॐ हां शक्तये नमो बामकरे । ततो जले त्रिकोणं षट्कोणं यन्त्रं विधाय तीर्थं सूर्यमण्डलादङ्कशमुद्रया “ऐं हृदयाय नम" इत्याकृष्य तीर्थे क्षिप्त्वा पूर्वोक्ता वाहनादिसप्तमुद्राः प्रदर्श्य तीर्थान्यावाह्य
गङ्गे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति ।। नर्मदे सिन्धु कावेरि ! जलेऽस्मिन् सन्निधिं कुरु ॥
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लं ल ए में
सरुह्य मूलेन दक्षनासिाहतरात्मनः शिरसि
११४ ]
श्रीपृथ्वीधराचार्यपद्धतौ ततो दक्षकरतले जलं गृहीत्वा वामशाणिनाच्छाद्य मूलेन सप्तवारमभिमन्व्य तज्जलं वामहस्ते गृहीत्वा अशलिसन्धिगलितोदकेन यादिभिर्दशभिर्वर्णैः य र ल वं शं पं सं हं लं क्षं झूलविद्यासहितरात्मनः शिरसि मार्जयित्वा तज्जलं सन्त्यज्य अन्यजलं पूर्ववद् गृहीत्वा कादिमान्तः स्पर्शवणे (कं खं गं घ ङ च छ ज झ वं टं ठंड ढ णं तं थं दं धं नं पं फंव में मं) मूलविद्यासहितैर्जलं पीत्वा अन्यजलं पूर्ववद् गृहीत्वा पोडशस्वरैः सविन्दुभिः ( अंां ई ई उ ऊ ऋ ऋलं लू ए ऐं
ओं औं अं अं) मूलविद्यासहितैरात्मनः शिरसि पुनर्जियित्वा तज्जलं दक्षकरे संरुह्य मूलेन दक्षनासिकायामिडया नाड्या चन्द्रमण्डलवाहिन्या जलं पूरकप्रयोगेण नीत्वाऽन्तर्नाडी प्रक्षाल्य तेन नाभिप्रविष्टेन तमकल्लोलं कज्जलामं दक्षनासिकया सूर्यमण्डलवाहिन्या पिङ्गलया पापपुरुषं रेचकप्रयोगेण विरेच्य अस्त्रमन्त्रेण "श्ली पशु हुं फट्" इत्यस्त्रेण चक्रीकृतकरण वामभागे भूमौ वाऽस्फालयेत् । तत उत्थायाध्यंत्रयं दद्यात् । तद्यथा
" ऐं कामेश्वरी विद्महे ही भुवनेश्वरी धीमहि तन्नः शक्तिः प्रचोदयात्” । .. उद्यदादित्यवर्तिन्यै श्रीभुवनेश्वर्यै इदमध्यं समर्पयामि नम इत्ययंत्रयं दत्वा यथाशक्तिवारं गायत्री तर्पयेत् । पुनः पूर्ववदाचम्य मूलेन प्राणायामत्रयं पूर्ववन्न्यासं विधाय गायत्रीं ध्यायेत् ।
ततो जपन् महेशानीमाधारे कुङ्कुमप्रभाम् । मध्याह्ने हृदयाम्भोजे चिन्तयेच्चन्द्रसन्निभाम् ।।
ध्यायेच्च शिरसो मध्ये तमालश्यामलाश्रियम् ॥ इति ध्यात्वा पूर्वोक्तगायत्रीमष्टोत्तरशतबारं जपित्वा पुनः पडङ्गन्यासध्यानं विधाय गुह्यातिगुह्यमिति जपं पडध्वव्यापिन्यै देवतायै समर्पयेत् । एवमुक्तकालत्रयेऽपि मार्जनाद्यान्तं कुर्यात् । ततः प्रातःसन्ध्यानन्तरं सौरपूजां कुर्यात् । तद्यथा-भूमौ गोमयेन चतुरथं मण्डलं कृत्वा तत्र रक्तचन्दनेनाष्टदलं विरच्य मध्ये दिवसेश्वरं मायावीजसहितं विन्यस्य दलेपु सोमादीन् विन्यस्य पूजयेत् । तद्यथा-हीं सूर्याय नमो मध्ये, दलेषु ह्रीं सोमाय नमः ह्रीं भौमाय नमः ह्रीं बुधाय नमः ह्रीं गुरवे नमः ही भार्गवाय नमः ह्रीं मन्दाय नमः ह्रीं राहवे नमः ह्रीं केतवे नम इति सम्पूज्यायेपात्रे चन्दनाक्षतकुसुमानि निक्षिप्य पदीर्घमायावीजेन पडङ्ग कृत्वा दिवसेश्वरं ध्यायेत् । ..
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. भुवनेश्वरीक्रमचन्द्रिका
[११५ रत्नाकं स्वर्णकोटिं च कटकादिविभूषितम् । .. .
स्वर्ण लम्बोदरं शोणं चारुपाकरद्वयम् ।। . इति ध्यात्वा सूर्यमन्त्रेणार्यत्रयं दद्यात् । तत्र सूर्यमन्त्रः-ॐ ह्रीं हंसः सूर्याय नम, इत्ययंत्रयं दत्वा ललाटमध्यगमादित्यं विन्दुरूपेण भावयेत् । इत्थं सौरपूजां विधाय तर्पणं कुर्यात् । तद्यथा- जलान्तिके समुपविश्य पादौ पाणिं प्रक्षाल्याचम्य जलमध्ये यन्त्र विभाव्य पूर्ववदकुशमुद्रया तीर्थ सूर्यमण्डलादाकृष्यावाहनादिमुद्राः प्रदर्य मूलेन षडङ्गं विधाय तर्पयेत् । ॐ ह्रीं शिवस्तृप्यतु, ॐहीं पीठाधिकारिण्यो देवतास्तृप्यन्तु, ॐ हीं गुरवः पूर्वाचार्यास्तृप्यन्तु, ॐ ह्रीं शक्लयस्तृप्यन्तु, ॐ ह्रीं परममरीचयस्तृप्यन्तु, ॐ हीं पडध्वव्यापिदेवतास्तृप्यन्तु, ॐ हीं विघ्नेश्वरास्तृप्यन्तु, ॐ ही मन्त्रेश्वरास्तृप्यन्तु, ॐ हीं सप्तस्रोता देवस्तृप्यतु, ॐ ह्रीं ब्रह्मविष्णुरुद्रास्तृप्यन्तु, ॐ ह्रीं लोकपालास्तुप्यन्तु, ॐ ह्रीं ग्रहास्तृप्यन्तु, ॐ हीं सिद्धास्तृप्यन्तु, ॐ ह्रीं स्वर्गाधिकारिणस्तृप्यन्तु, ॐ ह्रीं पीठाधिकारिणश्चौषधयस्तृप्यन्तु इति देव तीर्थेन' । ॐ ह्रीं श्वसुरमहाश्वसुरवृद्धश्वसुरास्तृप्यन्तु, ॐ ह्रीं चतुष्पीठाधिकारिण: सिद्धास्तृप्यन्तु, ॐ ह्रीं पीठाधिकारिण्यो देवतास्तृप्यन्तु, ॐ ह्रीं गुरवः पूर्वाचार्यास्तृप्यन्तु, ॐ ह्रीं पीठाधिकारिण्यस्तृप्यन्तु, ॐ ह्रीं औषध्यस्तृप्यन्तु इति मनुष्यतीर्थेन । ॐ ह्रीं पितृपितामहप्रपितामहास्तृप्यन्तु, ॐ ह्रीं पितृवंशजास्तृप्यन्तु, ॐ ह्रीं भातामइप्रमातामहवृद्धप्रमातामहास्तृप्यन्तु, ॐ ह्रीं मातृवंशजास्तृप्यन्तु, ॐ ह्रीं श्वसुरवंशजास्तृप्यन्तु इति पितृतीर्थेन । एकोच्चारणेन वा कार्यानुसारतः कुर्यात् । सर्वजनविहिते मार्गे न दोषः। ॐ ह्रीं
शिवशक्तिपुरस्सरा मरीचयः पडध्यवासिन्यो देवता विद्या विद्येश्वरा मन्त्रा मन्त्रेश्वरा . ब्रह्मादयों लोकपालमातर उग्रसिद्धा औषधयस्तृप्यन्तु इति देवतीर्थेन । ॐ ह्रीं पीठा
धिकाराः सिद्धा भूचर्यो गुरवः पूर्वाचार्यास्तृप्यन्तु इति मनुष्यतीर्थेन । ॐ हीं पित- पितामहप्रपितामहमातामहप्रमातामहवृद्धप्रमातामहश्वसुरवृद्धश्वसुरपितृवंशजमातृवंशजाः
१. "प्रागपु सुरांस्तृप्येन्मनुष्यांश्चैव सध्यतः । पितृश्च दक्षिणायपु दद्यादिति जलाञ्जलीन्" ॥ अग्निपुराणे।
ऋपितर्पणन्तु-अङ्गुल्यग्रेण | "अमुल्यग्रमार्षम्” इति यमोक्तेः ।। .२. "तर्जन्यङ्गष्टमध्यस्थाने" इत्यमरः । ३. पितृतीर्थः- "अन्तराङ्गुष्ठदेशिन्योः पितॄणां तीर्थमुत्तमम्" । कूर्मपुराणे ।
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११६
श्रीपृथ्वीधराचार्यपद्धतौ श्वसुरवंशजास्तृप्यन्तु इति पितृतीर्थेन । ततः पित्रादि स्वपितक्रम तर्पयेत् । ततो मूलवीजेन चतुस्तत्वाङ्कितैः शोधयाम्यन्तैः सलिलं पिबेत् ।
चतुर्विशेषाचमोऽयं देहतत्वविशोधकः । (तत् ) कृत्वा कुर्यान महेशानि ! तर्पणं सूलविद्यया ॥: पीठान्यादी प्रताथ देवीमाबाह्य तर्पयेत् । त्रिधा सन्तर्प्य देव्याश्च ततस्त्वावरणं यजेत् ।। वाङ्मया कमला पूर्व सर्वमन्त्राः प्रकीर्तिताः ।। त्रितारमूलमन्त्रान्ते भुवनेश्वरी ( भुवनेशी ) पदं ततः। नमः श्रीपादुकान्ते तु तर्पयामीति चोच्चरेत् । . ....
अनेन क्रमयोगेन तर्पोदावरणं क्रमात् ।। तद्यथा-ऐं ह्रीं श्रीं ॐ ह्रीं भुवनेश्वर्यम्वा [ यै ] नमः, श्रीपादुकां तर्पयामि इति त्रिःसन्तर्प्य ततः पीठदेवतानामावरणदेवतानां त्रितार नमः श्रीपादुकां तर्पयामीत्येकै : कमञ्जलिं तर्पयेत् । तत्र पीठावरणदेवताश्चाने वक्ष्यामः। . :
तर्पणान्ते साधकेन्द्रो दत्वा पञ्चोपचारकान् । ततः समाहितो भूत्वा जपेत्तर्पणसंख्यया ॥ निष्कलीकृत्य हृदये देवीसुद्वास्य सत्कृताम् । सङ्कलीकृत्य संहृत्य तीर्थमार्तण्डमण्डले ॥ स्तोत्रपाठं प्रकुर्वाणो ततो यागालयं व्रजेत् ।
न बाह्यभाषमाणस्तु न स्पृशेन्नावलोकयेत् ॥ ". इति पृथ्वीधराचार्यपद्धतौ शारदातिलकं नानातन्त्रमतमालंब्य श्रीदायीदेवसम्प्रदायिना मात्पुरस्थितेन अनन्तदेवेन विरचितायाम् भुवनेश्वरीक्रमचन्द्रिकायाम्प्रात.. रादि तर्पणान्तं विवरणं ( नाम ) प्रथमः कल्पः ।।
॥ श्रीः ।। आचम्य प्राणानायभ्य देशकालौ सङ्कीर्त्य मम सकलदोषपरिहारार्थ भुवनेश्वरीप्रसादसिद्धयर्थं भूतशुद्धयादि न्यासान् करिष्ये इति संकल्प्य । तत्रादौ आसननियम:
विनासनेन मन्त्रज्ञः कृतं कर्म न सिद्धयति ।..
कृष्णाजिने ज्ञानसिद्धिस्तपासिद्धिः कुशासने ॥ १. शोधयामीत्यन्त्यपदैर्मन्त्रैः । ...
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भुवनेश्वरीक्रमचन्द्रिका भूम्यासने यशोहानिः पल्लवे चित्तविभ्रमः। तृणासने न सिद्धिः स्याद् वैतसं कीर्तिदायकम् ॥ श्वेताविक विना शान्तिः पाषाणे व्याधिरेव च । व्याघ्रचर्मणि मोक्षः स्यादर्भाग्यं दारुकासने ॥ वैणवे बल हानिः स्यात् सर्वार्थश्चित्रकम्बले । अभिचारादिके कृष्ण चतुर्दानिश्च निद्रया ॥ महती देवहानिश्च जम्माभिः सर्वदा भवेत् ।
मनसा चञ्चलेनाशु न सिद्धयति कदाचन ॥ इत्यासनानि । अथ शुभे शुचौ देशे विधिप्रोक्लमृवासने ऐं बीजकर्णिकं स्वरयुग्मकिञ्जल्कं क च ट त प य श ल वर्गाष्टकदलं दिक्षु वं वीजान्वितं विदित ठं बीजमण्डितं मातृकाम्बुजं ध्याला ऐं ह्रीं श्रीं आधारशक्तिकमलासनाय नम इति पुष्पाक्षतादिभिरभ्यर्च्य प्राङ्मुख उदधुखो बा उपविश्य भूमिं प्रार्थयेत् । पृथिव्या मेरुपृष्ठ ऋषिः, कूर्मो देवता, सुतलं छन्दः, भूमिप्रार्थने विनियोगः ।
पृथ्वि ! त्वया धृता लोका देवि ! त्वं विष्णुना धृता।
त्वं च धारय मां देवि ! पवित्रं कुरु चासनम् ॥ इति स्वशिरसि मृगीमुद्रया मातृकाब्जं ध्यात्वा दीपनार्थ प्रपूजयेत् । तद्यथा- क्षेत्राधक्षरमुच्चार्य अमुकक्षेत्रे मेदात्मकखङ्गीशाय वर्णेशानन्दनाथाय अतिरक्तवर्णाय रक्तद्वादशशक्तियुक्ताय अस्मिन् क्षेत्रे इमां पूजां गृह्ण गृह्ण स्वाहा इति पुष्पाक्षतादिभिर्दीपनाथमभ्यर्च्य
तीक्ष्णदंष्ट! महाकाय-कल्पान्तज्वलनोपस ।
भैरवाय नमस्तुभ्यमनुज्ञां दातुमर्हसि ॥ . इति भैरवाज्ञा लब्ध्वा हस्ताभ्यामञ्जलिं विधाय सपुष्पं ऐं ह्रीं श्रीं शिवादिगुरुभ्यो नमः शिरसि ३, गं गणपतये नमो दक्षस्कन्धे ३, वं बटुकाय नमो वामस्कन्धे ३, दुं दुर्गायै नमः दक्षोरुमूले ३, क्षं क्षेत्रपालाय नमो वामोरुमूले ३, इति दक्षवामपार्थोवाधोभागेषु विन्यसेत् । .
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११८ ]
श्रीपृथ्वीधराचार्यपद्धती
अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम् । तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ .. चरणं पवित्र विततं पुराणं येन पूतस्तरति दुष्कृतानि ।
तेन पवित्रेण शुद्धेन पूता अतिपाप्मानमरातिं तरेम ॥ इत्यादि वैदिकैर्मन्त्रैर्गुरुपादुकामुच्चार्य ऐं ह्रीं श्रीं अमुकानन्दनाथ-अमुकाम्बाशक्तियुक्त-श्रीपादुकां पूजयामि नम इति सहस्रारविन्दे श्रीगुरुनाथं सम्पूज्य योनिमुद्रया प्रणमेत् । ततो भूतोत्सारणं कुर्यात्
अपसर्पन्तु ते भूता ये भूता सूमिसंस्थिताः ।
ये भूता विघ्नकारस्ते नश्यन्तु शिवाज्ञया ॥ ॐ श्ली पशु हुं फट्' इति पाशुपतास्त्रेण नाराचमुद्रया विनानुत्सार्य सिद्धार्था- .. क्षतकुसुमैः पातालभूनभोलीनान् विघ्नान् क्रमेण वामपाणिघातकरास्फोटसमुदञ्चितवक्त्रैरुत्सार्य उतपाशुपतास्त्रेण वामहस्ततलं द्विधा मणिबन्धात् समारभ्य सपृष्ठं दक्षपाणिना प्रमृज्य दक्षिणं पाणिं सकृदेवोतमार्गतः अनेन पट करशोधनं कृत्वा । नाभरापादं हृदो नाभिपर्यन्तं शिरसो हृत्पर्यन्तं तेनैवास्त्रेण व्यापयित्वा अन्तस्तालत्रयं वहिस्तालत्रयं कृत्वा दशदिग्बन्धनं कृत्वा 'रं अग्निप्राकाराय नमः' ॐ सहसार हुं फट् स्वाहा' पूर्वोक्तास्त्रमन्त्राभ्यां प्राकारौ कृत्वा विरग्निवेष्टनं कृत्वा “एवं रक्षां पुरा कृत्वा .. भूतशुद्धिमथाचरेत् । तद्यथा-- ___ प्रणवद्वादशावृत्या नाडीशुद्धिं विधाय "हृदिस्थं चैतन्यं हंसः" इति मन्त्रेण ... संघट्टमुद्रयोर्ध्वमुन्नीय द्वादशान्तःस्थिते परे तेजसि संयोज्य अस्त्रेण रक्षां कृत्वा भूतानि शोधयेत् । अस्य पार्थिवमन्त्रस्य ब्रह्मा ऋषिर्गायत्री छन्दः सोमो देवता. पार्थिवाख्य- ... भूतशुद्धयर्थे जपे विनियोगः । पादादिजानुपर्यन्तं पृथ्वीस्थानम् तत्र पार्थिवमण्डलं पीतवर्णं चतुष्कोणं वज्रलाञ्छितम् ब्रह्मदैवत्यं तेन पञ्चगुणा पृथ्वी पडद्घातप्रयोगेण ... ॐ लं ६० वीजेन संशोध्य अप्सु लयं नयेत् ।
बारुणमन्त्रस्य गौतमऋपिर्वरुणो देवता त्रिष्टुप् छन्दो वरुणाख्यभूतशुद्धच्र्थे जपे .. विनियोगः । जान्वादिनाभिपर्यन्तं आएस्थानं वरुणमण्डलं धवलं धनुराकारं उभयोः कोट्योः श्वेतपदमलान्छितं तन्मध्ये वं वीजं श्वेतवर्ण विष्णुदैवत्यं तेन चतुर्गुणा आपः पञ्चोद्घातप्रयोगेण शोपयामि । ॐ वं ४८ इति वीजेन तेजसि लयं नयेत् ।
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. .. भुवनेश्वरीक्रमचन्द्रिका :
[ ११६ आग्नेयमंत्रस्य कश्यप ऋषिः । अग्निर्देवता त्रिष्टुप् छन्द आग्नेयाख्यभूतशुद्धयर्थे . जपे विनियोगः । नास्यादिहृदयपर्यन्तं अग्निस्थानं तत्र वह्निमण्डलं त्रिकोणाकारं - कोणत्रये स्वस्तिकाङ्कितं तन्मध्ये रं वीजं रक्तवर्ण रुद्रदैवत्यं तेन त्रिगुणो वह्निस्त्रिरुद्घातप्रयोगेण शोषयामि । ॐ ३६ इति वायौ लयं नयेत् । ।
वायव्यमन्त्रस्य किष्कन्ध ऋपिर्वायुर्देवता त्रिष्टुप् छन्दो वायव्याख्यभूतशुद्धयर्थे जपे विनियोगः । हृदयादिभ्रूमध्यपर्यन्तं वायुस्थानम् तत्र वायुमण्डलं षट्कोणाकारं ___ षड्विन्दुलाञ्छितम् तन्मध्ये यं बीजं नीलवर्ण सङ्कर्षणदैवत्यं त्रिगुणो वायुर्द्विरुघातप्रयोगेण शोषयामि ॐ यं २४ इति आकाशे लयं नयेत् ।।
आकाशमन्त्रस्य ब्रह्मा ऋषिः महदाकाशो देवता त्रिष्टुप् छन्द आकाशाख्यभूतशुद्धयर्थे जपे विनियोगः । भ्रूमध्याद् ब्रह्मरन्ध्रपर्यन्तमाकाशस्थानम् तत्र नभोमण्डलं वर्तुलाकारं ध्वजलाञ्छितं तन्मध्ये हं बीजम् धूम्रवर्णम् सदाशिवदैवत्यम् तेनैकगुण आकाश एकोघातप्रयोगेण शोषयामि ॐ हं १२ इति वीजेन परे शिवे लयं नयेत् ।
.षष्टिसंख्या समारभ्य द्वादश द्वादश त्यजेत् । .. पृथिव्यादीनि भूतानि क्रमेण स्वस्वकारणे ॥
एवं पञ्चमहाभूतानि परे तत्वे एकीभूतानि विचिन्त्य पुनर्भूतानि प्रविलापयेत् । ॐ ल्हाँ ब्रह्मणे पृथिव्यधिपतये निवृत्तिकलात्मने हुं फट् स्वाहा पादादिजानुपर्यन्तं व्याप्य पृथ्वीं शोधयेत् । ॐ ह्रीं विष्णवे अधिपतये प्रतिष्ठाकलात्मने हुं फट् स्वाहा इति जान्वादिनाभिपर्यन्तं व्याप्य अपः शोधयेत् । ॐ ह अग्नये तेजोऽधिपतये विद्याकलात्मने हुं फट् स्वाहा इति नाम्यादिवक्षःपर्यन्तं व्याप्य अग्निं शोधयेत् । ॐ . ईश्वराय वाय्वधियतये शान्तिकलात्मने हुं फट् स्वाहा । हृदयादि भ्रू युगान्तं व्याप्य वायुं शोधयेत् । ॐ हौं सदाशिवाय व्योमाधिपतये शान्त्यतीतकलात्मने हूं
फट स्वाहा । भ्र वादिब्रह्मरन्ध्रान्तं व्याप्य आकाशं शोधयेत् । इति व्यापकं कृत्वा -: योनिमुद्रां वध्या कुलकुण्डलिनीमुत्थाप्य पदसरोजानि भित्त्वा जीवनदीपस्नेहरूपिणीं .. तो परे तेजसि संयोज्य वक्ष्यमाणक्रमेण शोषणादि समाचरेत् । ..: तत्रादौ वामकुक्षौ पापपुरुषं ध्यायेत् - .: ब्रह्महत्याशिरस्कं च स्वर्णस्तेयभुजद्वयम् ।
सुरापानहृदा युक्तं गुरुतल्पकटिद्वयम् ॥
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१२० ]
श्रीपृथ्वीधराचार्यपद्धती उपपातकरोलाणं पातकोपाइसंश्रयम् ।
खङ्गचर्मधरं कृष्णं पापं अक्षौ विचिन्तयेत् ।। इत्यादि क्रमेण कुक्षौ पापपुरुषं ध्यात्वा तत्सहितस्य देहस्य शोषणादिकं कुयोत् । तद्यथा
बामनासापुटे वायुमण्डलं तवीजयुक्त यं कादिमान्तैः स्पर्शवणैः सेवितं धूम्रवर्णं स्मृत्वा अं १६ मात्रापोडशकेन सम्पूर्य प्राणापानवायुभ्यां सह संयोज्य तदुत्थेनानिलेन सह शारीरैर्महापापै रोगैश्च सह संशोध्य द्वात्रिंशद्भिर्मात्राभिः ३२ कुम्भकं पोडशभिः १६ रेचकं ततो दाहनम् ।
दक्षनासापुटे वह्निमण्डलं तवीजयुक्त यादिदशभिर्य सेवितं विचिन्त्य प्राणापानवायुभ्यां सह संयोज्य तदुत्थेनानलेन च सह शारीरैर्महापापै रोगैश्च सह संदह्य पूर्ववत् । कुम्भकरेचकौ । ततः प्लावनम् । वामनासापुटे आप्यमण्डलं तद्वीजयुक्तं धवलं धनुराकारं षोडशस्त्रर १६ सेवितं विचिन्त्य पूर्ववत् सम्पूर्य आधारगतेन वायुना .. वह्निकुण्डलिनीमुत्थाप्य तस्या ज्वालासमुदायेन आप्लाव्यमानं ब्रह्मरन्ध्रन्दुमण्डलादमृतादाप्लाव्यमानं पूर्ववत् पूरककुम्भकरेचकाः । एवं शोषणदाहनप्लावनानि कृत्वा .. परस्मिन् शाम्भवे ब्रह्मणि स्वशरीरं तत्सारूप्यप्रतिविम्वितं वुवुदाकारं ध्यात्वा लं. पृथिवीवीजेन कठिनीकृत्य हं व्योमवीजेन विभिद्य भूतोत्पत्तिं विचिन्तयेत् । अक्षरात् खम् । आकाशाद वायुः। औषधिभ्यो अन्नम् । अन्नाद् रेतः । रेतसः पुरुष इति . . सृष्टिक्रमं विचिन्त्य । ॐ हं १२ ॐ हौं सदाशिवाय व्योमाधिपतये शान्त्यतीतकला- . त्मने हुं फट् स्वाहा इति ब्रह्मरन्ध्रभ्र मध्यपर्यन्तं व्याप्यं यं २४ ॐ अॅ. ईश्वराय वाय्वधिपतये शान्तिकलात्मने हुं फट् स्वाहा भ्र मध्याइ हृदयपर्यन्तं व्याप्यं रं ३६ .. ॐ ह्र अग्नये तेजोऽधिपतये विद्याकलात्मने हुं फट् स्वाहा हृदादिनाभिपर्यन्तं व्याप्यं .. वं ४८ ॐ ह्रीं विष्णवे अधिपतये प्रतिष्ठाकलात्मने हुं फट् स्वाहा नाभ्यादिजानुपर्यन्तं व्याप्यं लं ६० ॐ ह्रां ब्रह्मणे पृथिव्यधिपतये निवृत्तिकलात्मने हुं फट् स्वाहा । जान्वादिपादपर्यन्तं व्याप्यमिति क्रमेण द्वादशसंख्या समारभ्य पष्टिपर्यन्तं बर्द्धयन् सोऽहमित्युच्चार्य हृत्पदमे शिवात्मानं जीवं पट्त्रिंशत्तत्वरूपं स्मरेत् । तत एकविंशतिवारं मायां जपित्वा अङ्कशाकारतर्जन्या प्राणान् मूलाधाराद् ब्रह्मरन्ध्रान्ते प्राणप्रतिष्ठा... मन्त्रेण स्थापयेत् ।
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. भुवनेश्वरीक्रमचन्द्रिका
[ १२१ ' अथ प्राणप्रतिष्ठां कुर्वीत वक्ष्यमाणप्रकारतः तद्यथा-प्राणप्रतिष्ठामन्त्रस्य ब्रह्मविष्णुशिवा ऋषयः शिरसि । ऋग्यजुःसामानि छन्दांसि मुखे । प्राणशक्तिर्देवता हृदये । द्वादशान्ते प्राणप्रतिष्ठापने विनियोगः । अं कं खं गं घ ङ ५ श्रां पृथिव्य. प्तेजोवाय्वाकाशात्मने हृदयाय नमः । अङ्गुष्ठाभ्यां नमः । ई च छ ज झ नं ५ ई शब्दस्पर्शरूपरसगन्धात्मने शिरसे स्वाहा । तर्जनीभ्यां नमः । उं टं ठंडं ढं णं ५ ऊँ
श्रोत्रत्वक्चक्षुर्जिह्वाधाणात्मने शिखायै वषट् । मध्यमाभ्यां नमः । एं तं थं दं धं नं ५ . ऐं वाकपाणिपायूपस्थाने कवचाय हुं । अनामिकाभ्यां नमः। ओं पं फं वं भं मं ५
औं वचनादानगमनविसर्गानन्दात्मने नेत्रत्रयाय वौपट । कनिष्ठिकाभ्यां नमः । अं यं र लं वं शं षं सं हं हं अः मनोबुद्धयहंकारचित्तात्मने' अस्त्राय फट । करतलकरपृष्ठयोः। यं त्वगात्मने नमः । रं अमृगात्मने नमः । लं मांसात्मने नमः । वं मेद आत्मने नमः । शं अस्थ्यात्मने नमः। 5 मज्जात्मने नमः । सं शुक्रात्मने नमः। ॐ श्रां ह्रीं क्रो इति वीजत्रयैश्च त्रिर्व्यापकं कृत्वा । ततो ध्यानम्
रक्ताम्भोधिस्थपोतोल्लसदरुणसरोजाधिरूढा कराब्जः पाशं कोदण्डमिक्षुद्भवमथ गुणमप्यकुशं पञ्च बाणान् ॥ विभ्राणाऽमुक्कपालं त्रिनयनसहशा पीनवक्षोरहाट्या
" देवी बालार्कवर्णा भवतु सुखकरी प्राणशक्तिः परा नः। इति ध्यानम् ।
- हृदि हस्तं दत्वा मन्त्र जपेत् । प्रां ह्रीं क्रों य र ल व श ष सं हों मम प्राणेन श्रीभुवनेश्वरीप्राणा इह प्राणाः ११ मम जीवेन सह श्रीभुवनेश्वर्या जीव इह स्थितः ११ मम सर्वेन्द्रियैः सह श्रीभुवनेश्वर्याः सर्वेन्द्रियाणि वाङ्मनस्त्वक्चक्षःश्रोत्र- जिह्वाघाणप्राणा इहैवागत्यं सुखं चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा इति प्राणप्रतिष्ठाविधिः। अथ मातृकान्यासक्रमः
गुदात्तु व्यगुलादूर्व सुषुम्णामूलरन्ध्रगम् । वादिवेदाणलसितं पङ्कजं कनकप्रभम् ॥ तत्स्था विद्युल्लताकारां तेजोरेखामणीयसीम् ।
कुलकुण्डलिनीमूर्ध्व नयेत् षट्चक्रभेदिनीम् ॥ । चित्तविज्ञानात्मने इति प्रातिककर्मसूत्रावलिपाठः।
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१२२ ]
श्रीपृथ्वीधराचार्यपद्धतौ - द्वादशान्ते दुमध्यस्थं पूर्वोक्तं मातृकाम्बुजम् । नवनीतनिभं ध्यात्वा द्रुतं कुण्डलिनीत्विषा ।।
तेजोऽञ्जली विनिःसार्य मातृकान्यासमाचरेत् ।। अं आं इ ई उ ऊ इति षट् स्वरान् दक्षवामकरतलतत्पृष्ठतद्व्याप्तिक्रमेण ...न्यसेत् । शिष्टान् दश स्वरानगुष्ठादिकनिष्ठान्तं दशस्वगुलिपु न्यसेत् । दक्षप्रदेशिनीमारभ्य वामकनिष्ठिकापर्यन्तं पूर्वत्रयाग्रेषु चतुश्चतुरः कादिसान्तान् वर्णान् । हलावष्ठियोः अन्त्यं अगुल्यग्रेषु न्यसेत् । ततो लिपिषडङ्गः ।
अं कं खं गं घं डं ५ ां हृदयाय नमः अङ्गुष्ठाभ्यां नमः। इं च छ ज झ नं. ५ ई शिरसे स्वाहा तर्जनीभ्यां नमः । उं टं ठ ड ढ णं ५ ऊं शिखायै वषट् . . मध्यमाभ्यां नमः । एं तं थं दं धं नं ५ ऐं कवचाय हुं अनामिकाभ्यां नमः। ओं. पं फं वं भं मं ५ औं नेत्रत्रयाय वौषट् कनिष्ठिकाभ्यां नमः । अं यं रं लं वं शं पं .. सं हं हं १० अः अस्त्राय फट करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः।
अस्याः शुद्धविन्दुविसर्गमातृकायाः ब्रह्मा ऋषिः शिरसि । देवी गायत्री छन्दो... मुखे । श्रीमातृका सरस्वती देवता हृदि । व्यञ्जनानि बीजानि गुह्य । स्वराः शक्तयः पादयोः । शुद्धविन्दुविसर्गमातृकान्यासे विनियोगः। . इसौं अं आं ५० स्हौं । इति मातृकां त्रिर्व्यापयेत् । तत्र न्यासे कारिका
काननवृत्तद्वयक्षिश्रुतितो गण्डोष्ठदन्तमूर्धास्ये । दो पसन्ध्यग्रेषु च पार्श्वयोश्च पृष्ठनाभिजठरेषु॥ हृद्दोर्मूलापरगलक हृदादिपाणिपादयुगे ।
जठराननयोापकसंज्ञां न्यसेदयाक्षरान क्रमशः ॥ तत्र न्यासः। ॐ अ नमः शिरसि । ॐ श्रा नमो मुखवृत्ते । ॐ इ नमो दक्षनेत्रे । ॐ ई नमो वामनेत्रे । ॐ उ नमो दक्षकणे । ॐ ॐ नमो वामकर्णे। ॐ ऋ नमो दक्षनासापुटे । ॐ ऋ नमो वामनासापुटे । ॐ ल नमो दक्षगण्डे । ..
ॐ नमो वामगण्डे । ॐ ए नम ऊर्बोष्ठे। ॐ ऐ नमः अधरोष्ठे । ॐ श्रो नम ... ... ऊर्ध्वदन्तपतौ । ॐ औ नमः अधोदन्तपंक्तौ । ॐ अं नमो जिह्वामूले । ॐ अः
नमो जिह्वाग्रे । ॐ क नमो दक्षहस्तमूले । ॐ ख नमो दक्षहस्तकूपरे । ॐ ग नमो
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... भुवनेश्वरीक्रमचन्द्रिका
[ १२३ दक्षहस्तमणिबन्धे । ॐघ नमो दक्षहस्ताङ्गुलिमूले । ॐ ङ नमो दक्षहस्ताङ्गुल्यग्रे। ॐ च नमो वामहस्तमूले । ॐ छ नमो वामहस्तकूपरे । ॐ ज नमो वामहस्तमणिवन्धे । ॐ झ नमो वामहस्ताङ्ग लिमूले । ॐ न नमो वामहस्ताङगुल्यग्रे । ॐ ट नमो दक्षपादमूले । ॐ नमो दक्षपादजानुनि । ॐ ड नमो दक्षपादगुल्फे । ॐ ढ नमो दक्षपादाङ्गुलिमूले । ॐ ण नमो दक्षपादाङ्गुल्यो । ॐ त नमो वामपादमूले । ॐथ नमो वामपादजानुनि । ॐ द नमो वामपादगुल्फे । ॐ ध नमो वामपादाङ्गुलिमूले । ॐ न नमो वामपादाङ्गुल्यग्रे । ॐ प नमो दक्षपार्चे । ॐ फ नमो वामपार्चे । ॐ व नमः पृष्ठे । ॐ भ नमो नाभौ । ॐ म नमो जठरे । ॐ य नमो हदि । ॐ र नमो दक्षस्कन्धे । ॐ ल नमो वामस्कन्धे । ॐ व नमः कण्ठे । ॐ श नमो दक्षकक्षे । ॐ प नमो वामकक्षे । ॐ स नमो हृदादिपाणियुगे । ॐ ह
नमो हृदादिपादयुगे ॐ ळ नमो जठरादि अानने । व्यापकम् । ॐक्ष नमो मस्त- कादिपादान्तं । व्यापकम् । पुनस्तत्रैव ॐ अं नमः शिरसि । ॐ आं नमो मुखवृत्ते ... इत्यादि क्रमेण बिन्दुमातृकां न्यसेत् । पुनस्तत्रैव ॐ अः नमः शिरसि । ॐ आः नमो मुखवृत्ते इत्यादि क्रमेण विसर्गमातृकामङ्गुष्ठानामिकायोगेन न्यसेत् । अथ ध्यानम्
अर्कोन्मुक्तशशाङ्ककोटिसदृशीमापीनतुगस्तनी चन्द्रार्धाहितमस्तकां मधुमदामालोलनेत्रत्रयाम् । विभ्राणामनिशं वरं जपवटीं शूलं कपालं करे
राद्यां यौवनगर्वितां लिपितनुं वागीश्वरीमाश्रये ॥ इति ध्यानम् । इति शुद्धविन्दुविसर्गमातृकाश्चेति त्रिविधो मातृकान्यासक्रमः । -, अथ अन्तर्मातृकान्यासक्रमः । अस्य श्रीअन्तर्मातृकान्यासस्य ब्रह्मा ऋषिः शिरसि । गायत्री छन्दो मुखे । अन्तर्मातृका सरस्वती देवता हृदि । हलो बीजानि ..गुह्ये । स्वराः शक्लयः पादयोः । क्षः कीलकं नाभौ । अन्तर्मानुकान्यासे विनियोगः । .अथ षडङ्गः । ॐ ह्रीं अं कं ५ अां हृदयाय नमः अङ्गुष्ठयोः । ॐ ह्रीं इं चं ५ ई शिरसे स्वाहा तर्जन्योः। ॐ ह्रीं उंटं ५. ॐ शिखायै वपट् मध्यमयोः । ॐ ह्रीं
एं तं ५ ऐं कवचाय हुं अनामिकयोः । ॐ ह्रीं ओं पं ५ औं नेत्रत्रयाय वौषट् ... कनिष्ठयोः ॐ ह्रीं अं यं ६ अः अस्त्राय फट करतलकरपृष्ठयोः । ध्यानम्.... बन्धूकाभां त्रिनेत्रां पृथुजघनलसच्छुक्तिमद्रक्तवस्त्रां
पीनोत्तुङ्गप्रवृद्धस्तनजघन भरां यौवनाभाररूढाम् ।
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१२४ ]
श्रीपृथ्वीधराचार्यपद्धती दिव्यालङ्कारयुक्तां सरसिजन यनामिन्दुसङ्क्रान्तिमूना
देवी पाशाङ्कुशाढयामभयवरकरां मातृकां तां नमामि ॥ इति ध्यानम् । तत्र विशुद्धौ पोडशदलकमलमूर्ध्वमुखं ध्यात्वा तत्तद्दलेषु प्रागादिप्राइक्षिण्येन वीजपूर्वकं न्यसेत् । ॐ ह्रीं अं नमः । ॐ ह्रीं श्रां नमः । ॐ ह्रीं इं नमः । ॐ ह्रीं ई नमः । ॐ ह्रीं सं नमः । ॐ ह्रीं ॐ नमः । ॐ ह्रीं ऋ नमः । ॐ ह्रीं ऋ नमः । ॐ ह्रीं लं नमः । ॐ ह्रीं लूं नमः । ॐ ह्रीं एं नमः । ॐ ह्रीं ऐं नमः । ॐ ह्रीं ओं नमः । ॐ ह्रीं श्रौं नमः । ॐ ह्रीं अं नमः । ॐ ह्रीं . अ: नमः । एवं षोडशस्वरान् न्यसेत् ।
ततोऽनाहतचक्रं द्वादशदलकमलं ध्यात्वा तथैव ककागदिठकारान्तान् वर्णान् । प्रादक्षिण्येन न्यसेत् । ॐ ह्रीं के नमः । ॐ ह्रीं खं नमः । ॐ ह्रीं गं नमः । ॐ ह्रीं धं नमः । ॐ ह्रीं डं नमः । ॐ ह्रीं चं नमः । ॐ ह्रीं छं नमः । ॐ हीं जं नमः । ॐ ह्रीं ॐ नमः । ॐ ह्रीं मं नमः । ॐ ह्रीं टं नमः । ॐ ह्रीं ठं नमः।
ततो. नाभौ मणिपूरकचक्र दशदलकमलं ध्यात्वा तत्तहलेषु डकारादिफकारान्तान् दश वर्णान् न्यसेत् । ॐ हीं डं नमः। ॐ ह्रीं ढं नमः । ॐ ह्रीं णं नमः। ॐ ह्रीं तं नमः । ॐ ह्रीं थं नमः । ॐ ह्रीं दं नमः । ॐ ह्रीं धं नमः । ॐ ह्रीं नं .. नमः । ॐ ह्रीं पं नमः । ॐ ह्रीं फं नमः ।।
ततो लिङ्गमूले स्वाधिष्ठानचक्र पड्दलकमलं ध्यात्वा तत्तद्दलेषु वकारादि लकारान्तान् पडवर्णान् न्यसेत् । ॐ ह्रीं वं नमः। ॐ ह्रीं मं नमः । ॐ ह्रीं मं नमः । ॐ ह्रीं यं नमः । ॐ ह्रीं रं नमः । ॐ ह्रीं लं नमः ।
ततो मूलाधारे चतुर्दलकमलं ध्यात्वा तत्तद्दलेषु वकारादिसकारान्तान् चतुर्वर्णान् । न्यसेत् । ॐ हीं वं नमः । ॐ ह्रीं शं नमः । ॐ ह्री. पं नमः । ॐ ह्रीं सं नमः । ___ ततो भ्रमध्ये आज्ञाचक्रं द्विदलकमलं ध्यात्वा तत्तद्दलयोर्द्विवर्णान् न्यसेत् । : ॐ ह्रीं हं नमः । ॐ ह्रीं क्षं नमः । अथ पट्चक्रध्यानम्- .
आधारे लिङ्गनाभौ प्रकटितहृदय तालुमूले ललाटे द्वे पत्रे षोडशारे द्विदशदशयुते द्वादशार्दै चतुष्के ।
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भुवनेश्वरीक्रमचन्द्रिका . [ १२५ वासान्ते बालमध्ये ड फ क उ सहिते कण्ठदेशे स्वराणां ":. हं हं तत्यार्थयुक्तं सकलदलगतं वर्णरूपं नमामि ॥ इति षट्चक्रध्यानम् । इत्यन्तर्मातृकान्यासः ।
अथ भुवनेश्वरीसम्पुटितबहिर्मातृकान्यासः । अस्य श्रीभुवनेश्वरीसम्पुटितबहिर्मातुकामन्त्रस्य ब्रह्मा ऋषिः शिरसि गायत्री छन्दो मुखे वहिर्मातृका सरस्वती देवता हृदये हलो बीजानि गुह्ये स्वराः शक्तयः पादयोः क्षः कीलकंनाभौ बहिर्मातृकान्यासे विनियोगः। .. अथ षडङ्गः। ॐ हं अं कं ५ श्रां हां हृदयाय नमः अङगुष्ठयोः। ॐ हिं इं चं. ५ ई ह्रीं शिरसे स्वाहा तर्जन्योः। ॐ हृउंटं ५ ऊंह शिखायै वषट मध्यमयोः । ॐ ह्र एं तं ५ ऐं हैं कवचाय हुं अनामिकयोः। ॐ हो ओं पं ५ औं ह्रौं नेत्रत्रयाय वौषट् कनिष्ठिकयोः । ॐ हं अं यं १० अः हः अस्त्राय फट् करतलकरपृष्ठयोः । इति षडङ्गः । ध्यानम्- ।
पञ्चाशद्वर्णभेदैविहितवदनदोःपादयुक्कुक्षिवक्षो- . देशां भास्वत्कपर्दाकलितशशिकलामिन्दुकुन्दावदाताम् । अक्षस्रक्कुम्भचिन्तालिखितवरकरां यक्षरां पद्मसंस्थामच्छाकल्पावतुच्छस्तनजघनभरां भारती तां नमामि ।
पुस्तकज्ञानमुद्राङ्कां त्रिनेत्रां चन्द्रशेखराम् । ... आधाराद् ब्रह्मरन्ध्रान्तां बिसतन्तुतनीयसीम् ॥
तां देवीं चिन्तयेदन्तः पापत्रयविनाशिनीम् । मन्त्रवित्तन्मयो भूत्वा भावमन्यं न भावयेत् ॥ ब्रह्मकेशवरुद्राद्यैर्लभते दुर्लभं पदम् । पादादिक्रोधपर्यन्तं वर्णचक्रं सुसंयुतम् ॥
निष्कलङ्क सुधाकान्तिकमनीयं न्यसेत्तनौ । तत्र न्यासे कारिका- ...
आद्यो मौलिरथापरो मुखमिई नेत्रे च कर्णावुऊ नासावंशपुटे ऋऋ तदनुजौ वर्णी कपोलद्वयम् ।
दन्ताश्चोर्ध्वमधस्तथोष्ठयुगलं सन्ध्यक्षराणि क्रमात् .: जिह्वामूलमुदग्रविन्दुरपि च नीवा विसर्गी स्वरः ।।
आदी
.....
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१२६ ]
__ श्रीपृथ्वीधराचार्यपद्धती कादिदक्षिणतो भुजम्तदितरो वर्गश्च वामो भुजष्टादिस्तादिरनुक्रमेण चरणौ कुक्षिद्वयं ते पफौ। .. वंशः पृष्ठभवोऽथ नाभिहृदये बादित्रयं धातवो याद्याः सप्तसमीरणश्च सपरः क्षः क्रोध इन्यम्बिके ।।
तद्यथा-ॐ ह्रीं अं नमः ह्रीं शिरसि । ॐ ह्रीं श्रां नमः ह्रीं मुखवृत्ते । ॐ ह्रीं इं. नमः ह्रीं दक्षनेत्रे । ॐ ह्रीं ई नमः ह्रीं वामनेत्रे । ॐ ह्रीं उं नमः ह्रीं दक्षत्रणे । ॐ ह्रीं . ऊं नमः ह्रीं वामकर्णे । ॐ ह्रीं नमः ही दक्षनासापुटे। ॐ ह्रीं ऋ नमः ह्रीं वाम-... नासापुटे । ॐ ह्रीं लं नमः ह्रीं दक्षगण्डे । ॐ ह्रीं लूं नमः ह्रीं बामगण्डे । ॐ ह्रीं एं नम ह्रीं ऊर्ध्वदन्तपतौ । ॐ ह्रीं ऐं नमः ह्रीं अधोदन्तपक्तौ । ॐ ह्रीं ओं.. नमः ही ऊर्बोष्ठे । ॐ ह्रीं औं नमः ह्रीं अधरोष्ठे। ॐ ह्रीं अं नमः ह्रीं जिह्वामूले। :... ॐ ह्रीं अः नमः ह्रीं जिह्वाग्रे । ॐ ह्रीं कं नमः ह्रीं दक्षस्कन्धे । ॐ ह्रीं खं नमः ह्रीं ..... दक्षबाहौ । ॐ ह्रीं गं नमःहीं दक्षकूपरे। ॐ ह्रीं घं नमःहीं दक्षमणिवन्धे। ॐ ह्रीं डं नमः ह्रीं दक्षकरतले । ॐ ह्रीं चं नमः ह्रीं वामस्कन्धे । ॐ ह्रीं छं नमः ह्रीं ... वामवाहौ। ॐ ह्रीं जं नमः ह्रीं बामकूपरे । ॐ हीं में नमः ह्रीं वाममणिवन्धे । ... ॐ ह्रीं नं नमः ह्रीं वामकरतले । ॐ ह्रीं टं नमः ह्रीं दक्षकट्याम् । ॐ ह्रीं ठं नमः . ह्रीं दक्षोरौ । ॐ ह्रीं डं नमः ह्रीं दक्षजानुनि । ॐ ह्रीं ढं नमः ही दक्षजवायाम् । ... ॐ ह्रीं णं नमः ह्रीं दक्ष वरणे । ॐ ह्रीं तं नमः ह्रीं वामकट्याम् । ॐ ह्रीं थं नमः . . ही वामोरौ । ॐ ह्रीं दं नमः ह्रीं वामजानुनि । ॐ ह्रीं धं नमः ह्रीं वामजवायाम् । ॐ हीं नं नमःहीं चामचरणे । ॐहीं पं नमः ही दक्षकुक्षौ। ॐ ह्रीं फं नमः हीं वामकुक्षौ । ॐ ह्रीं वं नमः ह्रीं पृष्ठवंशे। ॐ ह्रीं ॐ नमः हीं नाभौ । ॐ ह्रीं मं नमः हीं हृदये । ॐ ह्रीं यं नमः ह्रीं त्वचि आधारे । ॐ ह्रीं रं नमः ह्रीं स्वाधिष्ठाने रक्त लिङ्गे । ॐ ह्रीं लं नमः ह्रीं मांसे मणिपूरके नाभौ । ॐ ह्रीं वं नमः ह्रीं मेदसि हृदये । ॐ ह्रीं शं नमः हीं अस्थिन कराठे विशुद्धौं। ॐ ह्रीं पं नमः ही मज्जायां तालौ। ॐ ह्रीं सं नमः ह्रीं शुक्रे भ्रमध्ये अाज्ञायाम् । ॐ ह्रीं हं नमः ह्रीं प्राणे ललाटें । ॐ ह्रीं क्षं नमःहीं ब्रह्मरन्ध्र क्रोधे । इति भुवनेश्वरीसम्पुटितव हिर्माकान्यासः। .....
एवं न्यासे कृते मन्त्री सर्वपापैः प्रमुच्यते ! ... . त्रिभिर्मासैस्त्रिसन्ध्यन्तु जीवन मुक्तिमवाप्नुयात् ।।
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भुवनेश्वरीक्रमचन्द्रिका
[ १२७ प्रतिदिनमपि कुर्याद् यस्तु न्यासेन वैकं नृपतिसदनमान्यो योषितां कर्षमायात् । अपि च कमलवासा सुस्थिरा तस्य वेश्म
न्यहरहरपि वृद्धिं याति विश्वोपकर्तुम् ॥ इतिमातृकान्यासफलम् । ततः प्राणायामत्रयं कुर्यात् । तस्य लक्षणम् ।
इडया पूरयेद् वायुं स्वरैर्वणैश्च कुम्भयेत् । रेचयेद् यादिकवणैस्ततः पिङ्गलया सह ।। इडा च वामनासास्था पिङ्गला दक्षिणेन तु ।
इडापिङ्गलयोर्मध्ये सुषुम्णा रन्ध्रवाहिनी ॥ . इत्थं प्राणायामत्रयं अथवा मूलेन कुर्यात् । तत्रादौ कवचं पठित्वा । ... अस्य श्रीएकाक्षरभुवनेश्वरीमन्त्रस्य शक्तिऋषये नमः शिरसि । गायत्री छन्दसे
नमो मुखे । श्रीभुवनेश्वरीदेवतायै नमो हृदये। हं बीजाय नमो गुह्ये । ई शक्तये नमः - पादयोः । रं कीलकाय नमः सर्वाङ्गेषु । श्रीभुवनेश्वरीप्रीत्यर्थं जपे विनियोगः।। .. अथ हल्लेखादिन्यासः । ॐ ह्रीं हल्लेखायै नमो मूर्ध्नि । ॐ हौं गगनायै नमो .. मुखे । ॐ हैं रक्तायै नमो हृदये । ॐ ह्रौं करालिकायै नमो गुह्ये । ॐ हः महोच्छुष्मायै : नमः पादयोः । इति हल्लेखादिन्यासः । .... अथ मूलमन्त्रपडङ्गः । ॐ ह्रां हृदयाय नमः अङ्ग ठयोः। ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा
तर्जन्योः। ॐ ह शिखायै वषट मध्यमयोः। ॐ हैं कवचाय हुं अनामिकयोः । ___ ॐ ह्रौं नेत्रत्राय वौषट् कनिष्ठिकयोः। ॐ ह्रः अस्त्राय फट् करतलकरपृष्ठयोः । . इति षडङ्गः । ...... अथ सावित्र्यादिन्यासः। ॐ हां गायत्रीसहिताय ब्रह्मणे नमो भाले । ॐ ह्रीं
सावित्रीसहिताय विष्णवे नमो दक्षकपोले । ॐ ह्र वागीश्वरीसहिताय महेश्वराय - नमो वामकपोले. । ॐ ह्रौं श्रिया सहिताय धनपतये . नमो, वामकर्णे । ॐ ह्रौं - रतिसहिताय स्मराय नमो मुखे । ॐ हं सिद्धिबुद्धिसहिताय गणपतये नमो दक्षकर्णे ।
। ॐ ह्रः भुवनेश्वर्यै नमो मुखे । इति सावित्र्यादिन्यासः।
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१२८ ]
श्रीपृथ्वीधराचार्यपद्धती . पुनः पृथक्त्वेन एतांस्तनौ न्यसेत् । तद्यथा-ॐ ह्रां गायत्र्यै नमः कण्ठमूले । ॐ ह्रीं सा वेत्र्यै नमः सव्यस्तने । ॐ सरस्वत्यै नम अपरस्तने । ॐ हैं ब्रह्मणे नमः सव्यांसे । ॐ ह्रौं विष्णवे नमो हृदये । ॐहः शिवाय नमो दक्षांसे इति विन्यस्य।..
ॐ हौं हल्लेखायै नमो हदि। ॐ हैं गगनायै नमः शिरसे स्वाहा । ॐ हरायै .. नमः शिखायै वषट् । ॐ ह्रीं करालिकायै नमः कवचाय हुं । ॐ ह्रां महोच्छुष्मायै नमो नेत्रत्रयाय वौषट् ।हः सर्वसिद्धिदायिन्यै अस्त्राय फट । इति पञ्चवक्त्रन्यासलिपिः । ____ अथ ब्राह्मयादिन्यासः । ॐ ह्रां ब्राह्मचै नमो मूनि । ॐ ह्रीं माहेश्वर्यै नमः .. सव्यांसे । ॐ ह कौमार्यै नमो दक्षपायें । ॐ हैं वारायै नमो वामांसे । ॐ हौं .. चण्डिकायै नमो वामपार्श्वे । ॐ ह्रः महालक्ष्म्यै नमो हृदये इति ब्राह्मयादिन्यासः।
केचित् स्वदेहे पीठन्यासमपि कुर्वन्ति । एवं न्यासं कृत्वा मूलेन त्रिर्व्यापकं कुर्यात् । अथ ध्यानम् । हृदि योनिमुद्रां ... बद्ध्वा ध्यायेत्
उद्यद्भास्वत्समाभां विजितनवजपामिन्दुखण्डावनद्धां द्योतन्मौलि त्रिनेत्रां विविधमणिलसत्कुण्डलां पद्मगाश्च । ...... हारग्रैवेयकाञ्चीगुणमणिवलयां चित्रवासो वमानामम्बां पाशाङ्कुशेष्टामभयवरकरामम्बिकां तां नमामि .
अन्यच्च
उद्यदिनद्युतिमिन्दुकिरीटां तुङ्गकुचां नयनत्रययुक्ताम् ।
स्मेरमुखी वरदाङ्कुशपाशाभीतिकराम्प्रभजे भुवनेशीम् ।।... इति ध्यात्वा मानसैरुपचारैः सम्पूज्य प्रत्यहं ३२ द्वात्रिंशच्छतम् जपेत् । अथवाटोत्तरशतं जपेत् । जपानन्तरं पुनराचमनप्राणायामादिकं पडङ्गन्यासध्यानं विधाय दक्ष ( करे ) जलं गृहीत्वा
गुह्यातिगुह्यगोत्री त्वं गृहाणास्मत्कृतं जपम् ।
सिद्धिर्भवतु मे देवि ! त्वत्प्रसादात् सुरेश्वरि ॥ इति पुष्पाक्षतसहितं स्ववामभागे देव्या दक्षहस्ते जपं निवेदयेत् । पञ्चमुद्राभिः प्रणमेत् ।
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[ १२६
..... भुवनेश्वरीक्रमचन्द्रिका स्तम्भनं चतुरनं च मत्स्यगोत्तुरमेव च ।
योनिमुद्रेति विख्याताः पञ्चमुद्राभिवादने । इति नमस्कारं कुर्यात् ।
ततः स्तोत्रसहस्रनामादिपाठं कुर्यात् । अथ मन्त्रभेदोद्धारः। ....... लकुलीशोऽग्निमारूढो वामनेत्रार्द्धचन्द्रमाः।
बीजं तस्याः समाख्यातं सेवितं मिद्धिकाक्षिभिः॥ : अथ द्वितीयो भेदोद्धारः
वाग्भवं शम्भुवनितारमाबीजत्रयान्वितम् ।
मन्त्रं समुद्धरेद्धीमान त्रिवर्गफलसाधनम् ।। ... ऋष्यादिकं तु पूर्ववत् । पुरश्चरणे नपसंख्यास्तु अग्रे वक्ष्यामः। . इति पृथ्वीधराचार्यपद्धतौ शारदातिलकनानातन्त्रमतमालम्ब्य श्रीदायिदेवमत
सम्प्रदायिना मात्पुरस्थितेन अनन्तदेवेन विरचितायाम्भुवनेश्वरीक्रमचन्द्रिकायाम्भूत": शुद्धयादिजपान्तविवरणं ( नाम ) द्वितीयः कल्पः ॥ श्रीगुरुनाथार्पणमस्तु ।
. . . . . पापा
भुवनेश्वरीपूजाविवरणम् ॥श्री (:)॥ चित्प्रकाशं गुरुं वन्दे परब्रह्मस्वरूपिणम् । ... क्रियतेऽनन्तदेवेन भुवनेशीपूजनं महत् ॥१॥ अथ पूजायन्त्रदेवतास्थापनजपहोमपुरश्चरणादिप्रकारं लिख्यते । श्रीदेव्युवाच-सर्व कथितं देव ! महाश्चर्यप्रदायकम् ।
अधुना कथयामाप्त [कथयाशु त्वं] अर्चनं विधिपूर्वकम् ।। ..... शिव उवाच-पूजनं शृणु देवेशि ! साधके सिद्धिदायकम् ।
नित्यं नैमित्तिकं काम्यं पूजनं त्रिविधं स्मृतम् ।।
. सौवर्णेऽथवा रौप्ये वा ताने वा भूर्जपत्रके। यन्त्रोद्धारः। बिन्दु त्रिकोणं षट्कोणं वसुपत्रं सुशोभनम् ।
वृत्तं षोडशभिः पद्मं चतुर्दारोपशोभितम् ।।
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१३०]
पृथ्वीधराचार्यपद्धतौ कर्पूरागुरुकस्तूरीश्रीखण्डकुङ्कमेन च ।
लिखेद्यन्त्रं प्रयत्नेन लेखन्या हेमतारयोः ॥ एवं यन्त्रं शोभनं कृत्वा स्वर्णरौप्याद्यभावे गोमयेनोपलिप्तायां भृमौ. पीठं समचतुरस्त्रं चतुर्विंशतिभिः पोडशभिः द्वादशभिरङ्गुलैः परिमितं उत्तमं मध्यमं कनिष्ठं कर्परागुरुकस्तूरीश्रीखण्डकुंकुमादिना चतुरस्त्रं पोडशदलं अष्टदलं पट्कोणं त्रिकोणं विन्दुं विलिख्य राज्यभोगवासनाकामेन हेमलेखन्या लिखेत् । दूरसेन मृत्युजयति । कनकरसेन शत्रु जयति । स्तम्भनं हरिदारसेन । तत्र लेखनीनियमः । पालासजातिविटपसारस्वतकाकपक्षादि साम्राज्यकामः सुवर्णरजतोद्भवया ..... सामान्यसमृद्धिकामः रक्ताश्वत्थं मार्जारास्थ्ना वश्यं प्राकृष्टिप्रयोगे रक्तचन्दनं स्तम्भने ... हरिद्रालेखन्या लिखेत् । एवं यन्त्रोद्धारं विधाय । तत्र देवीं पूजयेत् । तदुक्तं स्मृतौ
यन्त्रं देवमयं प्रोक्तं देवता यन्त्ररूपिणी । कामक्रोधादिदोषोत्थसर्वदुःखनिम ( य )न्त्रणात् ।। यन्त्रमित्याहुरेतस्मिन् देवः प्रीणांति पूजितः। शरीरमिव जीवस्य दीपस्य लहवत् प्रिये ॥.. सर्वेषामपि देवानां तथा यन्त्रं प्रतिष्ठितम् ।
ज्ञात्वा गुरुमुखात् सर्वं पूजयेद् विधिना प्रिये ॥ अत उद्धारप्रामाण्येन यन्त्रोद्धारं कृत्वा पूजामारभेत् । तत्रादौ मण्डपार्चनम् । ततो देवतागारं मनोहरं सुधूपितं वहुदीपविराजितं कृत्वा, पुष्पं गृहीत्वा ऐं श्रीं ह्रीं भुवनेश्वरीमण्डपाय नम इति पुष्पाक्षताादभिः सम्पूज्य द्वारपूजामारभेत् । मूलमन्त्र-... मुच्चार्य शुद्धोदकेन चतुरात् संप्रोक्ष्य द्वारदेवताः पूजयेत् । 'ऐं ह्रीं श्रीं द्वारश्रियै नमः इति द्वारे सम्पूज्य ऊध्वोदुंबरमध्ये ऐं ह्रीं श्रीं गं गणपतये नमः । ऐं ह्रीं श्रीं सां सरस्वत्यै नमस्तस्कोणयोः । ऐं ह्रीं श्रीं क्षा क्षेत्रपालाय नमः, ऐं ह्रीं श्रीं वां ... वटुकाय नमः, ऐं ह्रीं श्रीं धां धात्रे नमः, ऐं ह्रीं श्रीं विधात्रे नमः, ऐं ह्रीं श्रीं गां गङ्गायै नमः, ऐं ह्रीं श्रीं यां यमुनायै नमः, ऐं ह्रीं श्रीं शं शङ्कनिधये नमः ऐं ह्रीं श्रीं पं पद्मनिधये नमः, ऐं ह्रीं श्रीं डाकिनीभ्यो दक्षशाखायाम, ऐं ह्रीं . श्री शाकिनीभ्यो वामशाखायाम्, ऐं ह्रीं श्रीं दें देहल्यै नमो. देहल्याम, ऐं . वीं श्रीं वास्तुपुरुषाय नम इति मण्डपाभ्यन्तरे सम्पूज्य । एवं द्वाराणि पूजयित्वा
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भुवनेश्वरीक्रमचन्द्रिका
[ १३१ वामाङ्गसङ्कोचपूर्वकं वामशाखां स्पृशन् सन् वामाघ्रिणान्तः प्रविश्य द्वारदेशे तिरस्करिणीं पूजयेत् । 'ॐ ऐं ह्रीं श्रीं ई नमस्त्रैलोक्यमोहिनि महामाये सकलपशुजुनमनश्चक्षुस्तिस्करणं कुरु कुरु स्वाहा' इति तिरस्करिणीं पूजयित्वा 'मुक्तकेशी विवसना मदापूर्णितलोचनां स्वयोनिदर्शनान्मुह्यत्पशुवर्गा स्मराम्यहम्' । मुक्तकेशी मिति ध्यात्वा तस्याः बलि अलिपिशितगन्धपुष्पसहितं पूर्वोक्तमंत्रेण दद्यात् । ... अथ देशिकः स्वदेशे भुवनेश्वरीकलामागद्धकामो वासंयतो जितेन्द्रियो जितक्रोधो रक्तालङ्कारवसनो हृद्यवेशो गन्धाष्टकलिप्ततनुर्बु तपुष्पमालाविराजितः सन रक्तासने उपविश्य 'ऐं ह्रीं श्रीं आधारशक्तिकमलासनाय नम' इत्यभ्यर्योपविश्य ॐ ह्रीं ह्रौं नमः शिवाय महाशरभाय । ॐ ह्रीं ह्रौं नमः शिवायै महाशरभ्यै । विघ्नशान्तये आसनाधः शग्भद्यमभ्यर्च्य वामदक्षिणभागयोः दीपद्वयं संस्थाप्य पूजासंभारान् दक्षहस्ते निधाय मूलेन शिखां बद्ध्या आचम्य 'ॐ हीं आत्मतत्त्वं शोधयामि नमः ॐ ह्रीं विद्यातत्त्वं शोध'ॐ ह्रीं शिवतत्त्वं शोध०' एवमाचम्य मूलेन पूरक १६ कुंभक ३२ रेचक १६ प्रयोगेण प्राणायामत्रयं कृत्वा तिथ्यादिकं संकीर्त्य "मम सकलमनोरथसिद्धयर्थं श्रीभुवनेश्वरीपूजनं करिष्ये तदङ्गभूतशुद्ध्यादिन्यासान् करिष्ये तदङ्गभूतपात्रस्थापनं करिष्ये” इति सङ्कल्प्य । तत्रायं पात्रक्रम:
श्रादौ कुम्भं ततः शङ्ख श्रीपात्रं शक्तिपात्रकम् । ... भोगं च गुरुपात्रं च बलिपात्राण्यपि क्रमात् ॥.
अथ यन्त्रात्मनोमध्ये शुद्धोदकेन स्ववामभागे वहन्नाडीकरश्चोर्ध्वहस्तेन मत्स्यमुद्रया मायाङ्कितं भूबिंबवृत्तपदकोणत्रिकोणात्मकं मण्डलं विरच्य अपसव्याङ्गुष्ठे [ नावष्टभ्य वामेन पुष्पाक्षतैमूलवीजेन व्यस्ताव्यस्तक्रमेण त्रिकोणमध्यं च [ सं ] पूज्य । षट्कोणे-'ऐं ह्रीं श्रीं हृदयदेवीश्रीपादुकां पूजयामि' '३ शिरोदेवीश्रीपा०'
'३ शिखादेवीश्रीपा०' '३ कवचदेवीश्रीपा०' '३ नेत्रदेवीश्रीपा०' '३अस्त्रदेवी... श्रीपा०' इति षडङ्गानि सम्पूज्य । वृत्ते–३ लं लक्ष्म्यै नमः' '३ के
. काल्यै' : ' ३. सं सरस्वत्यै०' ।. चतुरस्र--३ क्षां क्षीरसागराय नमः' '३ ई .. इक्षुसागराय नमः' '३ मं मधुसागराय नम:' '३ पी पीयूषसागरायः' इत्याग्नेयादीन्
सम्पूज्य । मूलेन गन्धादिना सम्पूज्य 'हूं फट्' इत्यस्त्रप्रक्षालितमाधारं 'मूलबीजेन श्रीभुवनेश्वर्याः कलशाधारं स्थापयामि नम' इति संस्थाप्य । 'रां री रूं रमलवरयऊं रं धर्मप्रददशकलात्मने अग्निमण्डलाय कलशाधाराय नमः' इति सम्पूज्य । तदुपरि
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१३२ ]
पृथ्वीधराचार्यपद्धतौ . प्रादविण्येन कलाः पूजयेत् । तद्यथा--३ यं धूम्राचिकलाश्री'. ३ र ऊष्माकलाश्री पा०' '३ लं ज्वलिनीकलाश्री मा०' ३ वं ज्वालिनीकला.' ३ शं विस्फुलिङ्गिनीक०' ३ षं सुश्रीक०' '३ सं स्वरूपक०" ३ हं कपिलाक०' ३ ॐ हव्यवहाक०' '३ दं कव्यवहाक०' इति गन्धादिना सम्पूज्य । ततो मूलेन कलशं ... गृहीत्वा ॐ ह्रीं ह्रीं हूँ हूँ ब्रह्माण्डचपकाय स्वाहा' इति वामहस्तेन कलशं प्रक्षाल्य दशाङ्गेन धूपयित्वा ॐ ऐं सन्दीपनी ज्वालामालिनी हूँ फट् स्वाहा' मन्त्रेण कलशे. योनिमुद्रां विन्यस्य, प्रणवेनाभिमन्त्र्य, अवगुण्ठनमुद्रया अवगुण्ठ्य ॐ क्रीं नमः 'ह्रीं नमः' हँ नमः' की नमः' हूँ नमः' इति वीजपञ्चकं कलशे विन्यस्य । ॐ ह्रीं श्रीं ह्रीं ॐ नमो भगवति महालक्ष्मी भुवनेश्वरि परमधाम्नि ऊर्ध्वशून्यप्रकाशिनि परमाकाशभासुरसोमसूर्याग्निभक्षिणि आगच्छ आगच्छ पात्रं गृह्ण गृह्ण प्रस्फुर प्रस्फुर फट वौषट' इति पात्रविद्यामुच्चार्य श्रीमदनिरुद्धसरस्वत्याः कलशं स्थापयामि नम, इति संस्थाप्य । 'हाँ ह्रीं हूँ हमलवरयऊं हं वसुप्रदद्वादशकलात्मने सूर्यमण्डलाय कलशाय नमः' इति सम्पूज्य । तदुपरिप्रादविण्येन, कलाः पूजयेत् । तद्यथा--३ केभ:तपिनी कलाभीपा० ३ वं तापिनीकला' ३ गं फं धूम्रार्चिकला०' '३. घं पं मरीचिकला.' '३ डं नं ज्वालिनी०' चं धं रुचिकला ३ छं दं सुषुम्णाकला.' '३ जथं भोगदाकला.' '३ झं तं विश्वा०' 'यं णं वोधिनीक०' 'टं ढं धारिणीक०' 'ठं डं क्षमाकला०' इति द्वादशकलाः सम्पूज्य, अमृतपात्रं दक्षहस्ते गृहीत्वा मूल विद्या - अनुलोमविलोममातृकाया वामहस्तद्वितीयाखण्डस्पृष्टधारया कलशमापूर्य । द्वितीयाशोधनम् -'ऐं ह्रीं जूं सःप्रतद्विष्णुस्तवे ति द्वितीयां संशोध्य मृलेन किश्चित् कलशे निक्षिपेत् । 'त्र्यम्बक मिति मीनं संशोध्य, निक्षिप्य, 'तद्विष्णो' रिति मुद्रां संशोध्य, निक्षिप्य गङ्गे च यमुने चैव' इत्यभिमन्त्र्य ब्रह्मशापं मोचयेत्--'वाँ वी → 3 ब्रौं व्रः ब्रह्मशापविमोचितायै सुधादेव्यै नमः' इति द्रव्यशोधनम् । द्रव्योपरि दशधा जप्त्वा कृष्णशापविमोचनं कुर्यात्-ॐ कृष्णशापं विमोचय विमोचय अमृतं स्रावय स्रावय स्वाहा' इति दशधा जप्त्वा-...
'एकमेव परं ब्रह्म स्थूलसूक्ष्ममयं ध्रुवम् । .. कचोद्भवां ब्रह्महत्यां तेन तत्पावयाम्यहम् ।। . सूर्यमण्डलसंभूते वरुणालयसम्भवे । अमायीजमये देवि शुकशापात्प्रमुच्यताम् ।।
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[१३३
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भुवनेश्वरीकमचन्द्रिका ..., . वेदानां प्रणवो बीजं ब्रह्मानन्दमयं यदि ।
तेन सत्येन ते देवि ब्रह्महत्यां + व्यपोहतु ।' ..... इत्याभ्यां शुक्रशापब्रह्महत्याभ्यां सुधां मोचयेत् ॥ अमृतविद्यया त्रिधा
विलोज्य ॐ ह्वाँ ह्रीं हूँ हँ हौं हः अमृते अमृतोद्भवे अमृतेश्वरि अमृतवर्षिणि अमृतस्वरूपिणि अमृतं स्रावय सावय शुक्र शापात् सुधां मोचय मोचय मोचिकायै नमः । ॐ ह्रीं जूं सः स्वाहा' इति त्रेधा विलोब्य तत्र अमृते दोषजालं 'य' वायु
चीजेन पूरकेन संशोष्य, '' अग्निवीजेन कुम्भकेन संन्दह्य, '' अमृतबीजेन रेचकेन ... अमृत कृत्य तत्र दशदोषनिवारणं कुर्यात् । तद्यथा-'इस्र] पथिकदेवताभ्यो
हुं फट् स्वाहा' । हमखर्के श्रास्फालिग्रामचाण्डालिनी हुं० । इसकें दृष्टिचाण्डालिनी हुं० । 'हफ्रें सृष्टिचाण्डालिनी हुँ.' "ड्स स्पर्शचाण्डालिनी हुं०' इस] घटचाण्डालिनी हुं०' 'सफ्रें तपनवेधचाण्डालिनी हुं०' '
हफ्रें सर्वजनदृष्टिस्पर्शदोषचाण्डालिनी हुँ.' 'सखर्फे पशुपाशचाण्डालिनी हु० फट् स्वाहा इति कलशामृते पुष्पाक्षतान्निक्षिपेत् । सां सी सं स म ल व र य ऊं सं कामप्रदषोडशकलात्मने सोममण्डलाय कलशामृताय नमः' इति सम्पूज्य तदुपरि प्रादक्षिण्येन कलाः पूजयेत् ३ अं अमृताकला श्रीपादुकां पूजयामि नमः । ३ श्रां मानदाकला श्री० । ३ई पूषाकला श्री० [३] ई तुष्टिकला श्री० । ३ उं पुष्टिकला श्री० । ३ऊं रतिकला श्री० । ३ धृतिकला श्री० । ३ ऋ शशिकला श्री० । ३ लं चन्द्रिकाकला श्री०। ३लं कान्तिफला श्री० । ३एं ज्योत्स्नाकला श्री० । ३ ऐं श्रीकला श्री० । ३ ओं प्रीतिकला श्री० । ३ औं अङ्गदाकला श्री० । ३ अं पूर्णाकला श्री० । ३ अः पूर्णामृताकला श्री० । इति सोमस्य षोडशकलाः सम्पूज्य कलाप्राणप्रतिष्ठां कुर्यात् । ॐ श्रां ह्रीं क्रो य र ल व श ष स ह ळ ई सो हं हं सः अस्मिन्नाधारसहिते कलशे अग्निसूर्यसोमकलानां प्राणाः इह प्राणाः, पुनर्मत्रं पठित्वा अस्मिन्नाधारसहिते कलशे अग्निवर्यसोमकलानां जीव इह स्थितः, पुनर्मत्रं पठित्वा अस्मिन्नाधारसहिते कलशे अग्निसूर्यसोमकलानां सर्वेन्द्रियाणि वाङ्मनस्त्वक्चक्षु:श्रोत्रजिह्वाप्राणप्राणा इहैवागत्य सुखं चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा, इति कलशोपरि पुष्पा
+कोष्ठान्तवर्ती एतावान् भागस्तु प्राय पुस्तकेनोपलब्धः पुस्तकस्य त्रुटितत्वात् । प्रत्यन्सरालाभाच स एष भागों रा० प्रा० वि० प्र० समहे २७३५ सङ्ख्याक-दक्षिण काली पद्धतिनाम्नो हस्तलिखित प्रस्थादुद्धृत्य विनिवेशितः । एषोऽपिप्रन्थ 'एतत्पद्धतिकृतः श्रीमदनन्तदेवस्यैव कृतिरित्यवधेयं सुधौमिः।
.
सम्पादक:
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१३४ ]
पृथ्वीधराचार्यपद्धत
क्षतानिक्षिपेत् । इत्थं प्राणप्रतिष्ठां विधाय कलशं गन्धादिभिः सम्पूज्य कण्ठे पुष्पमालां वध्वा 'हंसः शुचिपदि' ति' जपेत् । तत्र चतुर्दिक्षु मध्ये - ग्लूं गगनरत्नाय नमः पूर्वे, स्लू ं स्वर्गरत्नाय ० दक्षिणे, ग्लू मनुष्यरत्ताय पश्चिमे, ब्लू पातालरत्नाय ० उत्तरे, न्यूलीं नागरत्नाय० मध्ये, इत्थं पञ्चरत्नानि संपूज्य । तन्मध्ये कथादि त्रिकोणात्मकं हं क्षं मध्ये विलिख्य पुनः पूर्वोक्तामृतविद्यया त्रिरभिमन्त्रय जातवेदसं गायत्रीं त्र्यम्बकं च जपेत् । ततः शुक्रशापविमोचिनोविद्ययाभिमन्त्र्य तद्यथा - 'ॐ ऐं ह्रीं श्रीं सोहं हंसः ह्रां ह्रीं हूं हैं ह्रौं ह्रः तत्सवितुः ह्वां वरेण्यं ह्रीं भर्गो देवस्य हूं.. धीमहि हैं धियो यो नः हौं प्रचोदयात् हः वं अमृते अमृतोद्भवे अमृतवर्षिणि अमृतस्त्राविणि अमृतप्ताविनि पात्रं अमृतं पूरय पूरय चन्द्रमण्डलनिवासिनि शुक्रशापात् सुधां मोचय मोचय द्रव्यं पवित्रं कुरु कुरु शुक्रशापं नाशय नाशय छिन्धि छिन्धि - तन्मंगलं कुरु कुरु अमृतं वर्षय वर्षय पात्रजपापं भक्षय भक्षय पतितप्रेतनिशाचराक्षसडाकिनीशाकिनी [भ्यो] रक्ष रक्ष यक्षगन्धर्वामरगणमुनिसेवितममृतं पवित्रं कुरु कुरु हूं अमृतेश्वर मृतकलां वर्षय वर्षय हुं फट् स्वाहा क्रौं दैत्यनाथाय शुक्राय नमः' इति शुक्र शापविमोचिनिविद्यया सप्तवारमभिमन्त्रय
ܘ
श्रखण्डैकरसानन्दकरे परसुधात्मनि । स्वच्छन्दस्फुरणामत्र निधेह्यमृतरूपिणि ॥
ह सक्षम ल व र य ऊं आनन्दभैरवाय वौषट् स ह क्ष म ल व र य ई सुधादेव्यै वौषट् इति कलशमध्ये आनन्दभैरवमिथुनं तरविन्दुभिरेव सन्तर्प्य
अकुलम्यामृताकारे सिद्धिज्ञानकरे परे । अमृतत्त्वं निधेह्यस्मिन्वस्तुनि क्लिन्नरूपिणि ।
पुनरानन्दभैरवमिथुनं विन्दुभिरेव संतर्प्य
'ह्रीं तद्रूपेणैक्यरस्यत्वं दत्वा श्येनत्वरूपिणि । भूत्वा कुलामृताकारे मयि चित्स्फुरणं कुरु' ॥
पुनरानन्दभैरवमिथुनं तदविन्दुभिरेव संतर्प्य मूलेन सप्तधाभिमन्त्रयास्त्रेण संरक्ष्य कवचे नावगुण्ठ्य अमृतवीजेन अमृतीकृत्य धेनुयोनिमुद्राः प्रदर्श्य ब्राह्मचादिमिथुनाएकं पूजयेत् । तद्यथा-श्रं असिताङ्गभैरवश्रीपादुकां पूजयामि नमः, यां ब्रह्माएयम्वा श्री० ई रुरु भैरव श्री० ई माहेश्वर्यम्या श्री०, उं चण्डभैरव श्री०, जं
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भुवनेश्वरी क्रमचन्द्रिका
[ १३५
कौमार्या श्री०, ऋ क्रोध भैरव श्री०, ॠ वैष्णव्यम्बा श्री०, लूं उन्मत्त भैरवश्री ०, लूं वाराह्यम्वा श्री०, एं कपालिभैरव श्री०, ऐं इन्द्राण्यम्बा श्री०, ओं भीषणभैरव श्री०, चामुण्डाम्बा श्री०, अं संहारभैरव श्री०, श्रं महालक्ष्म्यम्बा श्री०, इति ब्रांह्य यादिमिथुनाष्टकं सम्पूज्य । अथ कुम्भध्यानम् — देवदानवसंवादे मध्यमाने महोदधौ ।
उत्पन्नोऽसि महाकुम्भ ! विष्णुना विधृतःकरे !! त्वत्तो ये सर्वदेवाः स्युः सर्वे वेदाः समाश्रिताः । त्वयि तिष्ठन्ति भूतानि त्वयि प्राणाः प्रतिष्ठिताः ॥ शिवः स्वयं त्वमेवासि त्वं विष्णुस्त्वं प्रजापतिः । श्रादित्याद्या ग्रहाः सर्वे विश्वेदेवा सपैतृकाः । Faft तिष्ठन्ति कलशे यतः कामफलप्रदः । त्वत्प्रसादादिमं यज्ञं कर्तुमीहे जलोद्भव ॥ त्वदालोकनमात्रेण भुक्तिमुक्तिफलं महत् । सान्निध्यं कुरु भो कुम्भ ! प्रसन्नो भव सर्वदा || इति कलशध्यानम् । अथ सुधाध्यानम् -
समुद्रे मथ्यमाने तु क्षीरोधे [ दे ] सागरोत्तमे । तत्रोत्पन्नां सुधां देवीं कन्यकारूपधारिणीम् ॥ अष्टादशभुजैर्युक्तां रक्तां चायतलोचनाम् । शङ्कं ख धनुश्चैव कपालं मुशलं तथा ॥ शक्तिं गदां वरं घण्टां दधानां सोत्तरैर्भुजैः । चक्रं मुष्टि शरं शूलं लोहखेडं न तोमरम् ॥
अभयं मिण्डिमालां [ भिन्दिपालं ]च दधानां दक्षिणैर्भुजैः । त्रिनेत्रां दीर्घतन्वङ्गीं कालाग्निसदृशप्रभाम् ॥
मन्दारं वेष्टयित्वा [च] फेनिलावर्त भीषणाम् । गोमूत्रवीरवर्णाभां कृष्णवर्णपरां सुधाम् ॥ अपीतापीतवर्णाभां बहुरूपां परां सुधाम् । त्रासयन्न [ न्त्य ] सुरान् सर्वान् देवानामभयङ्करी ॥ या सुधा सा उमा देवी यो मदः सो महेश्वरः ।
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१३६ ]
पृथ्वीधराचार्यपद्धतो. . . यो वर्णः स भवेद् ब्रह्मा यो गन्धः स जनार्दनः स्वादौ च संस्थितः सोमः शब्दे देवो हुनाशनः । इच्छायां मन्मथो देवो लीलायां किल भैरवः॥ फेने गङ्गा स्थितां देवो बोधस्थाः सप्तसागराः। इच्छाशक्तिः सुधामोदे ज्ञानशक्तिस्तु तसे ॥ तत्स्वादौ च क्रियाशक्तिः तदुल्लासे परा स्थितिः॥ सुधादर्शनमात्रेण सर्वपापैः प्रमुच्यते ।। तद्गन्धध्राणमात्रेण शतक्रतुफलं लभेत् । सुधास्पर्शनमात्रेण तीर्थ कोटिफलं लभेत् ॥
सुधास्वादनमात्रेण लभेन्मुक्तिं चतुर्विधाम् । इति सुधां ध्यात्वा सुधागायत्री जपेत्'ऐं सुधादेवि विद्महे ही समुद्रोद्भवे धीमहि श्री तन्नो रक्ताक्षी प्रचोदयात्'
इति सुधागायत्री कलंशोपरि सप्तधा जपित्वा ततः कलशामृतं. पात्रान्तरेणाच्छाद्य उद्धरणपात्रमादाय ॐ अमोघायै नमः, ॐ सूक्ष्माय नमः, ॐ आनन्दायै नमः, ॐ शान्त्यै नम इति तस्मिन् पात्रे शक्तिचतुष्टयं संपूज्य कुम्भस्याच्छादन-: पात्रस्योपरि संस्थाप्य आवाहनादिमुद्राः प्रदर्शयेत् । आवाहनि १ स्थापनि २ सन्नि- ... रोधिनि ३ अवगुण्ठिनि ४ सुप्रसारिणि ५ सम्मुखीकरिणि ६ संकलरिणि ७ अमृतीकरणि ८ चक्र ६ योनि १० एताः दशमुद्राः दशयेत् । कलशं गन्धादिनैवेद्यान्तमुपचारैः पूजयेत् । इति कलशस्थापनम् । ___ अथ शङ्खस्थापनम् । ततः कलशदक्षिणभागे शुद्धोदकेन वइन्नासाकरोर्ध्वपुटाभ्यां मछ (त्स्य ) मुद्रया त्रिकोणवृत्तं चतुरस्रं मण्डलं विरच्य शङ्खमुद्रया दक्षकरणा-.. वष्टभ्य वामेन पुष्पाक्षतः मूलेन व्यस्ताव्यस्तक्रमेण संपूज्य, मध्ये अस्वप्रतालिवमाधार मूलेन संस्थाप्य र अग्निमण्डलाय नमः, इति संपूज्य, मूलेन शङ्ख संस्थाप्य हं सूर्यमण्डलाय नमः, इति संपूज्य, मूलविद्यया शुद्धोदकैः पूरयित्वा, सं सोममण्डलाय नमः, इति संपूज्य, गन्धादिकं कलशविन्दु निक्षिप्य, ॐ हसौ वरुणाय स्हों वरुणादेव्यै नमः, इति सप्तवारमभिमन्त्र्य, 'गङ्ग च यमुने चैव० इमं में गंगे' . इत्यभिमन्त्र्य । ध्यानम्
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भुवनेश्वरीक्रमचन्द्रिका
[ १३७ पाञ्चजन्य महानादध्वस्तनिःशेषदानवान् । (१:)
महाविष्णुकरांग्रान्तं पयमानीय [पय आनीय ] सर्वदा ॥
इति शङ्खध्यानम् । शङ्खस्थमुदकं दक्षकरतले गृहीत्वा वामकरणाच्छाद्य मूल... मन्त्रेण त्रिवारमभिमन्व्य आत्मानं शिरसि त्रिवारं नववारं वा प्रोक्ष्य पूजोपकरणानि
प्रोक्ष्य शङ्खमुद्रां प्रदर्शयेत् । इति सामान्याय॑स्थापनम् ॥ अथ विशेषार्घ्यपात्रस्थापनम् । तत्पुरतो वहच्छ्वासोर्ध्वकराभ्यां शङ्खोदकेन अन्तर्मायाङ्कितं भूविम्ववृत्तपट्कोणत्रिकोणात्मकं मण्डलं विरच्य अपसव्याङ्गुष्ठेनावष्टभ्य वामेन व्यस्ताव्यस्तक्रमेण मूलविद्यया त्रिकोणमध्यं च संपूज्य षट्कोणे ऐं ह्रीं श्रीं हृदयदेवि श्रीपादुकां पूजयामि नमः । ३ शिरोदेवि श्री० । ३ शिखादेवि श्री० । ३ कवचदेवि श्री० । ३ नेत्रदेवि श्री० । ३ अस्त्रदेवि श्री० । चतुरस्र , ३ क्षां क्षीरसागराय नमः, ३ ई इक्षुसागराय०, ३ मं मधुसागराय०, ३ पं पीयूपसागराय०, इत्याग्न्येयादीन् संपूज्य, त्रिकोणे ३ कामरूपपीटाय नमः, ३ जालंधरपीठाय नमः, ३ पूर्वगिरिपीठाय नमः, मध्ये ३ उड्यानपीठाय नम इति पीठचतुष्टयं संपूज्य मूलेन प्रक्षालितमाधारं 'श्रीभुवनेश्वरीविशेषार्घ्यपात्राधारं स्थापयामि नमः' इति संस्थाप्य, रां री रूं रं म ल व र य उं रं धर्मप्रददशकलात्मने अग्निमण्डलाय विशेषार्घ्यपात्राधाराय नम इति संपूज्य तदुपरि प्रादक्षिण्येन कलाः पूजयेत् । ३ यं धूम्रार्चिः कला श्री०, ३ रं ऊष्माकला श्री०, ३ लं ज्वलिनिकला श्री०, ३ वं ज्वालिनिकला श्री०, ३ शं विस्फुलिङ्गिनीकला श्री०, ३ पं सुश्रीकला श्री०, ३ सं सुरूपाकला श्री०, ३ हं कपिलाकला श्री०, ३ ळं हव्यवहाकला श्री०, ३ दं कव्यवहाकला श्री०, इति गन्धादिना संपूज्य तदुपरि सौवर्ण राजतं ताम्र विश्वामित्रमयं मूलेन प्रक्षालितं सुधूपितं श्रीभुवनेश्वरीविशेषार्घ्यपात्रं स्थापयामि नम इति संस्थाप्य । हां ही हूं ह म ल व र य ऊं सं वसुप्रदद्वादशकलात्मने सूर्यमण्डलाय- विशेषार्घ्यपात्राय नम इति सम्पूज्य तदुपरि प्रादक्षिण्येन सूर्यद्वादशकलाः पूजयेत् । ३ कं भं तपिनिकला श्री०, ३ खं वं तापिनिकला श्री०, ३ गं फं धूम्राकला श्री०, ३ घं पं मरीचिकला श्री०, ३ डं नं ज्वालिनिकला श्री०, ३ चं धं रुचिकला श्री०, ३ छं दं सुषुम्णा कला श्री०,
३ थं भोगदाकला श्री०, ३ झं तं विश्वाकला श्री०, ३ बणं बोधिनीकला श्री०, .. ३ टंढं धारिणीकला श्री०, ३ ठं डं क्षमाकला श्री०, इति सम्पूज्य । ततः मूल
.. विद्यया विलोममातृकया कलशस्थजलं उद्धरणपात्रेणोद्धृत्य वामहस्तद्वितीयाखएडस्पृष्ट.. ...: १८ . .
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१९८]
पृथ्वीधराचार्यपद्धती धारया श्रीभुवनेश्वरीविशेषाय॒पात्रामृतं पूरयामि नम इति संपूर्य मूलेन किश्चिद् द्वितीयां निक्षिप्य ॐ ह्रीं इत्यङ्गुष्ठानामिकाभ्यां पुष्पेण तंत्पात्रस्थं अमृतं आलोय.. तत्पुष्पं निरस्य तन्मध्ये गन्धाष्टकपङ्कलोलितं पुष्पं निक्षिप्य ॐ इति गालिनीमुद्रया निरीक्ष्य 'गङ्गे च यमुने चेत्यभिमन्त्र्य तत्र दोपजालं यमिति वायुवीजेन पूरकेन संशोध्य, रमिति अग्निवीजेन कुम्भकेन सन्दह्य, वमिति अमृतबीजेन रेचकेन अमृतीकृत्य सां सी सूं स म ल व र य 5 सं कामप्रदपोडशकलात्मने सोममण्डलाय विशेपाळपात्रामृताय नम इति सम्पूज्य तदुपरि प्रादक्षिण्यन कलाः पूजयेत् । ३ अं अमृताकला श्री०, ३ श्रां मानदाकला श्री०, ३ इं पूपाकला श्री०, ३ ई तुष्टिकला श्री०, ३ उं पुष्टिकला श्री०, ३ ऊं शक्तिकला श्री०, ३ ऋ धृतिकला श्री०, ३ शशिनिकला श्री०, ३ लं चन्द्रिकाकला श्री०, ३ लू कान्तिकला श्री०, ३ एं ज्योत्स्नाकला श्री०, ३ ऐं श्रीकला श्री०, ३ ओं प्रीतिकला श्री०, ३ औं : अंगदाकला श्री०,३ अं पूर्णामृताकला श्री०,३ अः अमृताकला श्री०, इति सोमस्य पोडशकलाः पूजयेत् । [ ततः ] कलाप्राणप्रतिष्ठां कुर्यात् । ॐ प्रां ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं सं हं ळं क्षं सोहं हंसः अस्मिन्नाधारसहिते विशेषाध्ये अग्निसूर्यसोमकलानां प्राणा इह प्राणाः, पुनर्मत्रं पठित्वा अस्मिन्नाधारसहिते विशेपाय अग्निसूर्यसोमकलानां जीव इह स्थितः, पुनमन्त्रं पठित्वा अस्मिन्नाधारसहिते विशेषार्थे अग्निसूर्यसोमकलानां सर्वेन्द्रियाणि वाङ्मनस्त्वक्चक्षः श्रोत्रजिह्वाघ्राणप्राणा इहैवागत्य सुखं चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा, इत्यं प्राणप्रतिष्ठां विधाय तत्र चतुर्दिक्ष मध्ये ग्लू गगनरत्नाय नमः पर्वे, स्लू स्वर्गरत्नाय नमो दक्षिणे, म्लू मनुष्यरत्नाय नमः पश्चिमे, ब्लू पातालरत्नाय नम उत्तरे, न्व्ली नागरनाय नमो मध्ये, इत्थं पञ्चरत्नानि संपूज्य तन्मध्ये . अकथादि त्रिकोणात्मकं हं हं मध्ये वर्णकदम्बकं विलिख्य मूलविद्यामुच्चार्य--
ब्रह्माण्डखण्डसम्भूतमशेषरससम्भवम् ।
श्रापूरितमहापात्रं पीयूषरसमावहेत् ।। 'ॐ ह्रीं अमृते अमृतोद्भवे अमृतेश्वरि अमृतवपिणि अमृतं स्रावय सां जू . जूं सः अमृतेश्वर्य स्वाहा' इत्यमृतविद्यया त्रिरभिमन्न्य जातवेदसं गायत्री त्र्यम्बकं च जपेत् । शांशी शुशै शौं शः शुक्रशापविमोचिन्यै स्वाहा, इति शुक्रशापविमोचिन्या त्रिरभिमन्य
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श्रीभुवनेश्वरीक्रमचन्द्रिका
[१३६ .. अखण्डकरसानन्दकरे परसुधात्मनि ।
स्वच्छन्दस्फुरणा तत्र निधेह्यमृतरूपिणि ॥ ह स क्ष ल व र य ऊं आनन्दभैरवाय वौषट् , स ह क्ष म ल व र य ऊ सुधादेव्यै वौषट् इत्यय॑मध्ये आनन्दभैरवमिथुनं तइबिन्दुभिरेव संतl
अकुलस्थामृताकारे सिद्धिज्ञानकरे परे ।
अमृतत्वं निधेह्यस्मिन् वस्तुनि क्लिन्नरूपिणि ।। पुनरानन्दभैरवमिथुनं तविन्दुभिरेव सन्तर्प्य
तद्रूपेणैक्यरस्यत्वं दत्वा ह्येतत्स्वरूपिणी ।
भूत्वा कुलामृताकारे मयि चित्स्फुरणं कुरु । . पुनरानन्दभैरवमिथुनं तदबिन्दुभिरेव सन्तर्प्य मूलेन सप्तधाऽभिमन्व्य अस्त्रेण संरक्ष्य कवचेनावगुण्ठ्य धेनुयोनिमुद्राः प्रदर्शयेत् । 'समुद्र मथ्यमाने तु' इत्यनेन सुधां ध्यात्वा सुधागायत्री जपेत् । 'ऐं सुधादेवि विद्महे ह्रीं समुद्रोद्भवे धीमहि श्रीं तन्नो रक्काक्षी प्रचोदयात्' इति सुधागायत्री सप्तवारं जपित्वा आवाहनादिमुद्राः प्रदर्श्य विशेषार्ध्यवारिणा आत्मानं पूजोपकरणानि च प्रोक्ष्य पात्रं गन्धादिनैवेद्यान्तं पूजयेत् । इति विशेपार्घ्यपात्रस्थापनम् । तत्पुरतः मूलेन शक्तिपात्रं स्थापयेत् । तत्पुरतः मूलेन भोगपात्रं स्थापयेत् । तत्पुरतः गुरुपादुकाविद्यया गुरुपात्रं स्थापयेत् । तत्पुरतः मूलेन आत्मपात्रं स्थापयेत् । पात्राणि कलशामृतेन मूलविद्यया पूरयेत् । गन्धाधु पचारान्तं पूजयेत् । बलिपात्राणि च बलिदानसमये स्थापयेत् । इति पात्रस्थापनविधिः ॥ • अथात्मपूजनम् । तत्रादौ संविद्वदनं ततः शिरः पीठे ह्रीं शिवशक्तिसदाशिवेश्वरशुद्धविद्यामायाकलारागकालनियतिपुरुषप्रकृतिअहङ्कारबुद्धिमनस्त्वक्चक्षुःश्रोत्रजिह्वाघ्राणवाक्पाणिपादपायपस्थशब्दस्पर्शरूपरसगन्धाकाशवायुवह्निसलिलभूम्यात्मने योगपीठासनाय नमः, इति शिरसि गन्धाक्षतपुष्पादिभिः श्री गुरोः पीठं संपूज्य । ॐ ह्रीं बीजेन श्रात्मपात्रं संस्पृश्य दक्षहस्ते गृहीत्वा वाम अक्षतान् गृहीत्वा मूलमंत्रमुच्चार्य मूलाधारं चतुर्दलं देवतासहितं पूजयामि तर्पयामि नमः, एकैकं चुलुकं ग्राहयेत् । मू० स्वाधिष्ठानं षड्दलं देवतासहितं पू० त० । मू० मणिपूरं दशदलं देवतासहितं पू० त०, मू० अनाहतं द्वादशदलं देवतासहितं पू० त०,
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१४० ]
पृथ्वीधराचार्यपद्धती - मू० विशुद्धं पोडशदलं देवतासहितं पू० त० । मू० आज्ञाचक्रं द्विदलं देवतासहितं पू० त० । इति पट्चक्राणि संतl पुनस्तत्तेजस्त्रिपुष्कररूपेण त्रिधा कृत्वाऐं स्वयंभूलिङ्गश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नम इत्याधारे सम्पूज्य ३ ई वाण ... लिङ्ग श्री० त० हृदये । ३ औः इतरलिंग श्री० त० भ्रमध्ये । ३ ऐ ई औः परलिंग श्री० त० मूनि । इत्याधारहृदयभ्रू मध्यमूर्द्धसु वह्निसूर्यसोमतत्समष्टीरूप. तयानुसंधाय । पुनस्तत्तेजो निष्कलीकृत्य. सर्गव्यपुटान्तस्था मनच्कद्वयसंश्रयाम् ।
तेजोदण्डमयीं ध्यायेत् कुलाकुलनियोजनात् ॥ ___ ॐ ह्रीं भुवनेश्वरी पराम्बा श्री० पा० त० इति तां संतl । ॐ ऐं आत्मतत्वरूपं स्थूलदेहं शोधयामि पू० त० । ॐ ह्रीं विद्यातत्वरूपं मूक्ष्मदेहं शोधयामि पू० त० । इति देहत्रयं सन्तर्प्य मूलविद्यामुच्चार्य श्रीभुवनेश्वरीपरास्वामयं जीवशिवं पू० त० । इत्ययं निवेद्य
प्रकाशैकघने धान्नि विकल्पप्रसवादिकान् । ... निक्षिप्याभ्यर्चनद्वारा वह्नाविव घृताहुतिः॥ प्रकाशाकाश हस्ताभ्यामवलम्ब्योन्मनि सुचम्। धर्माधर्मों कलास्नेहं पूर्णावग्नौ जुहोम्यहम् ॥ धर्माधर्महविर्दीप्तमात्माग्नौ मनसा सुचा।
सुषुम्णा वर्त्मना नित्यमक्षवृत्तिर्जुहोम्यहम् ॥ इत्यादिना चान्तवनं कृत्वा मुलाधारे सर्वभूतानि तृप्यन्विति सन्तl । रोमकृपेषु चतुःपष्टिकोटियोगिन्यस्तृप्यन्त्विति सन्तर्प्य । ॐ ह्रीं आत्मतत्वं शोध। .. ॐ ह्रीं विद्यातत्वं शोधः । ॐ ह्रीं शिवतत्त्वं शोधः । ॐ ही सर्वतत्वं शोध । इति तत्वचतुष्टयशोधनं कृत्वा यात्मानं विगलिततनुत्रयं तत्साक्षित्वाद वन्धनिर्मुक्तवादात्मानं परमशिवात्मानमनुसन्धाय
मायान्ततत्वे सदई शिवोऽहं शक्त्यन्ततत्वे चिदहं शिवोऽहम् । शिवान्तनत्वे च सुखं शिवोऽहमतः परं पूर्णमनुत्तरोऽहम् ॥
यस्मात् परं नापरमस्ति किञ्चित् । इति पठेत् । शिवो ऽ स्मि शिवो ऽ स्मीत्य- .. नुसन्धाय विगलिताखिलवन्धः सन् जीवन्मुक्तः सुखी विहरेत् । इत्यात्मपूजनम् । ..
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भुवनेश्वरीक्रमचन्द्रिका
[ १४१ ततः पश्चामयागं कुर्यात् । अथ पीठावरणदेवतानां पूजाक्रमः । पूरकक्रमेण मनः संयोज्याकुच्य प्राणापानसमानव्यानमप्यन्तः परिक्षभ्यत्पवनं दण्डाहतभुजङ्गाकृतिविद्युद्विलासितोज्ज्वलां कुलकुण्डलिनीमाधारादिषट्चक्राणि निर्भिद्य मूलबीजोच्चारणेन द्वादशान्तेन्दुमण्डलं नीत्वा ध्यायेत् ।
सर्गद्वयपुटान्तस्थामनच्कद्वयसंश्रयाम् । तेजोदण्डमयीं ध्यायेत् कुलाकुलनियोजनात् ॥
इत्थं कुण्डलिनीमुत्थाप्य ध्यायेत् । तत्र सामान्याोदकेन यन्त्रमभ्युक्ष्य पीठदेवताः पूजयेत् । तद्यथा-ऐं ह्रीं श्रीं गं गणपतये नमः । ३ मं मण्डूकाय । ३ कच्छपाय० । ३ अनन्ताय० । ४ वाराहाय० ३ कालाय० ३ कूर्माय० । ३ अमृता
र्णवाय० ।३ सुवर्णद्वीपाय० । ३ रनवेद्यै ० ।३ रत्न सिंहासनाय० इत्यक्षतयुक्तैकादश. . पुष्पाणि पीठोपरि निक्षिपेत् । श्राग्नेयादिकोणेषु, ३ धर्माय नमः । ३ ज्ञानाय० । ३
वैराग्याय० ३ ऐश्वर्याय० । पूर्व दिक्ष. ३ अधर्माय० । ३ अज्ञानाय० । ३ ... अवैराग्याय० । ३ अनैश्वर्याय० । वायव्यादि ईशानान्तां गुरुपंक्तिं पूजयेत् । ३ ... ३ गुरुभ्यो नमः । ३ परमगुरुभ्यो नमः । ३ परात्परगुरुभ्यो नमः । ३ ..परमेष्ठिगुरुभ्यो नमः शिवादिगुरुभ्यो नमः । ह्रीं चतुर्दाराय नमः । ३ चतुरस्रायः ।
३ षोडशपद्माय० । ३ ह्रीं अष्टदलपद्माय० । ३ षट्कोणाय० । ३ त्रिकोणाय० ।
३ वैन्दवाय .मः । ह्रीं प्रकाशात्मने सत्वाय० । ह्रीं प्रवृत्यात्मने रजसे० । ह्रीं . प्रमोदात्मने तमसे नमः । ह्रीं अर्कमण्डलाय० ।हीं वह्निमण्डलाय।हीं चन्द्रमण्ड
लायनहीं आत्मतत्वाय० ।ह्रीं विद्यातत्वायहीं शिवतत्वाय नहीं परमतत्वाय० । ही आत्मने । हीं अन्तरात्मने । ही परमात्मने । हीं पद्माय० ।हीं कन्दाय० । ही मलाय० । हीं नालाय० । ह्रीं केसरेभ्यो।हीं कणिकायैः । इत्यासनं सम्पज्य। ही आत्मशक्तिकमलासनाय० । ह्रीं शङ्खनिधये । ह्रीं पं पद्मनिधये । ततः प्राग्दिक्क्रमेण पीठदेवताः पूजयेत् । ह्रीं जयायै नमः । ह्रीं विजयायै नमः। ह्रीं अजितायै नगः । ह्रीं अपराजितायै नमः ।हीं नित्यायै नमः । ह्रीं विलासिन्यै नमः। ह्रीं दोग्ध्रयै नमः । ह्रीं अघोरायै नमः । एताः सम्पूज्य । ह्रीं मंगलायै नमः। इति मध्ये संपूज्य । अथ पीठमन्त्रः । ॐ नमो भगवत्यै सर्वेश्वर्यं सर्वज्ञानत्मिकायै पद्मपीठायै नमः' । ततः पुष्पाञ्जलिं गृहीत्वा पूर्वोक्तध्यानपूर्वकं त्रिकोणमध्ये स्वहृदयाद् वा सूर्यमण्डलाद् वा परमेश्वरी सर्वलक्षणसंपन्नां तेजोरूपां वहन्नासापुटेन पिंगलाद् बहिः पूजार्थमानीय संचिन्त्य मूलमन्त्र स्मृत्वा
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पृथ्वीराधराचार्यपद्धती
एह्येहि देवदेवेशि भुवनेशि सुरपूजिते ! परामृतप्रिये शीघ्रं सान्निध्यं कुरु सिद्धिदे ! ॥ महापद्मवनान्तस्थे करुणानन्दविग्रहे ।
सर्वभूतहिते मातरेह्येहि परमेश्वरि ! ।। अस्मिन् मण्डले सान्निध्यं कुरु कुरु नमः' इति विन्दौ पुष्पाणिनिक्षिपेत् । सकलीकृत्य-हीं भुवनेश्वरी सकलीकरोमि स्वाहा । ह्रीं भुवनेश्वरी आवाहयामि । स्वाहा । ह्रीं भुवनेश्वरी स्थापयामि स्वाहा । ह्रीं भुवनेश्वरी संरोधयामि स्वाहा ।। ह्रीं भुवनेश्वरी प्रसादयामि स्वाहा । एताः पञ्चमुद्राः प्रदर्शयेत् ।
ततः मूलविद्यायाः पडङ्गन्यासध्यानं विधाय यन्त्रमध्ये श्रीभुवनेश्वरीप्राण- . प्रतिष्ठां कुर्यात् । तद्यथा “ॐ श्रां ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं पं सं हं हं हं सः । सोहं अस्मिन् मण्डले श्री भुवनेश्वरी प्राणा इह प्राणाः, ॐ श्रां ह्रीं क्रों यं रं लं .... वं शं पं सं हं हं हं सः सोहं अस्मिन् मण्डले श्रीभुवनेश्वरीजीव इह स्थितः, ॐ श्रां ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं पं सं हं हं हं सः सोहं अस्मिन् मण्डले श्रीभुवनेश्वरीसर्वेन्द्रयाणि वाङ मनस्त्याचक्षुःश्रोत्रजिह्वाघ्राणप्राणा इहैवागत्य सुखं चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा ।'इति यन्त्रोपरि पुष्पाक्षतान्निक्षिपेत् । ततः पञ्चदशमुद्राः प्रदर्शयेत् । ह्रीं भुवनेश्वर्यै अमृतमुद्रां परिकल्पयामि स्वाहा । एवमन्याः प्रदर्शयेत् । धेनुमुद्रा १, योनि २, महायोनि ३, नवयोनि ४, सिंह ५, महाक्रांतमुद्रा ६, ग्रंथित ७, सम ८, मुकुल ६, पद्म १०, पाश ११, अंकुश १२, अभय १३, वरद १४, एताः प्रदर्शयेत् । पुनः 'उद्यदिनद्युतिमिन्दुकिरीटा मिति ध्यात्वा मूलमंत्रमुच्चार्य श्रीभुवनेश्वर्यम्बा श्रीपादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि । त्रिःपादयोः पुष्पाञ्जलिं दत्वा सन्तप्र्य । ततो मूलमन्त्रेण देव्यै आसनं कल्पयेत् । तद्यथा ह्रीं भुवनेश्वर्यै आसनं नमः । ह्रीं भुवनेश्वर्यै अयं स्वाहा । ह्रीं भुवनेश्वर्यै पाद्यं स्वधा । ह्रीं भुवनेश्वर्यै आचमनीयं स्वधा । हीं भुवनेश्वर्यै मधुपर्क स्वधा । ह्रीं भुवनेश्वर्यै स्वर्ण पादुकां समर्पयामि नमः । उत्तरतः स्नानमण्डपं परिकल्प्य . रत्न सिहासने संस्थाप्य ह्रीं भूवनेश्वर्यै केशप्रसाद ध]नमभ्यङ्गं सं०, ह्रीं .. भुवनेश्वर्यै गन्धामलकोद्वर्त्तनं स०, मूलबीजं भवनेश्वर्यै इति सर्वत्र योजनीयम् ।
१. कारणानन्द इत्यपि पाठः।
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भुवनेश्वरीक्रमचन्द्रिका
[ १४३ . उष्णोदकस्नानं स०, पश्चगव्यस्नानं सं०, पश्चामृतस्नानं स०, फलरत्नादियुक्ततीर्थस्नानं स०, अङ्गप्रोञ्छनार्थे वस्त्र स०, केशसंस्कारचिकुरशोधनं स०, वसनं गृहाण नम इति वस्त्रयुग्मं स०, नीराजनादिमङ्गलाचारान् विधाय भूषितमण्डपे रत्नसिंहासने समुपवेशनं स०, मुकुटरत्नताटङ्कनासामौक्तिकौवेयहारकेयूरकङ्कणाङ्गलीयकस्तनबन्धनमध्यवन्धन-काश्चिकलापपादकटकनूपुरपादाङ्ग लीयकादिनानाजातीयैर्विविधैर्भूषणैर्भू पयित्वा, सर्वाङ्गे महामृगमदालेपन स०, कण्ठे कल्हारमालां स०, चक्षुषोर्दिव्याञ्जनं स०, भाले रक्षां स०, आदर्शदर्शनं स०, छत्रचामराणि समर्प्य पूजामण्डपमानीयशिवाङ्के समुपवेशनं स०, गन्धं स०, अक्षतान् स०, पुष्पाञ्जलित्रयं घण्टानादं स०, धूपं स०, दीपं स०, नैवेद्यं स०, करोद्वर्त्तनं स०, ताम्बूलं सं०, आरार्तिकं स० यथाशक्तिवारं प्रथमादिभिः सन्तर्प्य पुष्पाञ्जलिं गृहीत्वा
संविन्मये परे देवि परामृतरसप्रिये । अनुज्ञां देहि देवेशि परिवारार्चनाय मे ।।
इति पुष्पाञ्जलिपुरःसरमनुज्ञां लब्ध्वा । अक्षतद्वितीयायुक्तविन्दुना वामाचारेण वा दक्षिणाचारेण तत्वमुद्रया आवरणदेवताः पूजयेत् । तद्यथा-'ॐ ह्रीं विन्दुचक्राय नमः,' इति पुष्पाञ्जलित्रयं दत्वा । ॐ ह्रीं भुवनेश्वर्यम्बा श्रीपादुकां पूजयामि नमस्तर्पयामि । त्रिवार संतl । एषा विन्दुचक्राधिष्ठात्री श्रीभुवनेश्वरी सायुधा सवाहना सालङ्कारा सर्वोपचारैः सुपूजिता वरदा भवतु इत्यादिना गन्धादि पुष्पाञ्जल्यन्तं समर्पयेत् ।
अभीष्टसिद्धिं मे देहि भुवनेशि सुरपूजिते । भक्त्या समर्पये तुभ्यं प्रथमावरणार्चनम् ।। इति योनिमुद्रां प्रदर्शयेत् । इति प्रथमावरणम् ॥
अथ द्वितीयावरणम् । त्रिकोणस्य पुरतो मध्ये गुरुपात्रस्थद्रव्येण गुरुपंक्ति पूजयेत् । तद्यथा-'ॐ ह्रीं त्रिकोणचक्राय नमः' इति पुष्पाञ्जलित्रयं दत्त्वा ऐं ह्रीं श्री गुरुभ्यो नमः श्री० पू० त० । ३.परमगुरुभ्यो नमः श्री० पू० त० । ३ परास्परगुरुभ्यो नमः श्री० पू० त० । ३ परमेष्ठिगुरुभ्यो नमः श्री० पू० त० । ३
शिवादिगुरुभ्यो नमः श्री० पू० त० । ततो विदिक्ष हां हृदयाय नमः हृदयशक्ति ... श्री० पू० त० । आग्नेये । ह्रीं शिरसे स्वाहा शिरःशक्ति श्री० पू० त० । ईशान्ये ।
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१२४ ]
पृथ्वीराधाचार्यपद्धती
हूं शिखायै वषट् शिखाशक्ति श्री० पू० त० । नैर्ऋ त्ये । हैं कवचाय हुं कवचशक्ति श्री० पू० त० । बायौ । ह्रौं नेत्रत्रयाय वौषट् नेत्रशक्ति श्री० पू० त० | पुरतः । हः अस्त्राय फट् अस्त्रशक्ति श्री० पू० त० | चतुर्दितु । त्रिकोणमध्ये ह्वां हृल्लेखाम्बा श्री० पू० त० मध्ये | हूं गगनाम्बा श्री० पू० त० पूर्वे । हैं रक्ताम्बा श्री० पू० त० दक्षिणे । ह्रौं करालिकाम्वा श्री० पू० त० पश्चिमे । ह्नः महोच्छुष्माम्बा श्री० पू० त० उत्तरे । एताः त्रिकोणगतद्वितीयावरणदेवताः साङ्गाः सायुधाः सवाहनाः सालङ्काराः सर्वोपचारैः सम्पूजिताः तर्पिताः संत्वित्यादिना गन्धादिपुष्पाञ्जयन्तं समर्पयेत् ।
अभीष्टसिद्धिं मे देहि भुवनेशि सुरपूजिते । भक्तया समर्पये तुभ्यं द्वितीयावरणार्चनम् || इति महायोनिमुद्रया नमस्कारं कुर्यात् । इति द्वितीयावरणम् ॥
अथ तृतीयावरणम् । ३ पट्कोणकेसरेषु । ह्रीं अनङ्गकुसुमाम्बा श्री० पू० त० । ह्रीं अनङ्गकुसुमातुराम्बा श्री० पू० त० । ह्रीं श्रनङ्गमदनाम्बा श्री० पू० त० ह्रीं भुवनपालाम्बा श्री० पू० त० । ह्रीं गगनाम्वा श्री० पू० त० ॥ ह्रीं गगनमेखलाम्बा श्रीपादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि । ततः पट्कोणपत्रेषु ह्रीं दण्डकमलाक्षमालाभयवरकरपितामहसहितायै गायत्र्यम्वायै श्री इन्द्रको । ह्रीं शङ्खचक्रगदापद्मधारिण्यै पीतवसनायै विष्णुसहितायै सावित्र्यम्वायै श्री० पू० त० रक्षःकोणे । ह्रीं परस्वधाक्षमालाभयवरदायै श्वेतवसनायै श्वेतायै रुद्रसहितायै सरस्वत्यम्वायै श्री० पू० त० वायुकोणे । ह्रीं रत्नकुम्भमणिकरण्डधारिण्यै धनदाङ्कस्थितायै दक्षिणहस्तेन धनदमालिङ्गच स्थितायै अपरेणाम्बुजधारिण्यै महालक्ष्म्यम्वायै श्री० पू० त० अग्निकोणे । ह्रीं वाणपाशांकुशशरासनधारिण्यै मदनसहितायै सव्येन पतिमालिङ्गन्य इतरेण नीलोत्पलधारिण्यै रमणाङ्कस्थितायै रत्यम्वायै श्री० पू० त० वरुणकोंणे | ह्रीं विघ्नराजाय सृणिपाशधराय प्रियात्महितकान्तावराङ्गमङ्गुल्याश्रितस्थिताय माध्वीमदघूर्णिताय पुष्करे रत्नचषकधराय सिन्दूरवर्णाय अन्यां कान्तां पुष्टिं समदां धृतरोत्पलां अन्यपाणिना तध्वजस्पृशन्तीमालिङ्गच स्थिताय श्री० पू० त० ईशान्ये । पट्कोण पार्श्वयोनिधी पूज्यौ । ह्रीं पद्मनिधि श्री० पू० त० ॥ ह्रीं शङ्खनिघि श्री० पू० त० । एताः पट्कोणान्तर्गतवतीयावरणदेवताः सांगा इति गन्धादिपुष्पाञ्जल्यन्तं समर्पयेत् । 'अभीष्टसिद्धिं मे देहि' इति नवयोनिमुद्राः प्रदर्शयेत् । इति तृतीयावरणम् ॥
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श्रीभुवनेश्वरीक्रमचन्द्रिका
१४५ .. अथ चतुर्थावरणम् । ३ अष्टदलपत्राय नमः ।' इति पुष्पाञ्जलित्रयं दत्वां अष्टदलपत्रेषु मूले ह्रीं अनङ्गरूपाम्बा श्री० पू० त० । ह्रीं अनङ्गमदनाम्बा श्री० पू० त० । हीं अनङ्गमदनातुराम्बा श्री० पू० त० । ह्रीं भुवनवेगाम्बा श्री० पू० त० । ह्रीं लोकपालिकाम्बा श्री० पू० त० । ह्रीं सर्वतोमुख्यम्बा श्री० पू० त० ह्रीं अनङ्गवसनाम्बा श्री० पू० त० । ह्रीं अनङ्गमेखलाम्बा श्री० पू० त० । अष्टपत्रमध्ये । हां ब्राह्यम्बा श्री० पू० त० । हीं माहेश्वर्यम्बा श्री० पू० त० । हं, कौमार्यम्वा श्री० पू० त० । हैं वैष्णव्यम्बा श्री० ५० त० । हौं वाराह्यम्बा श्री० ए० त० । हः इन्द्राएयम्वा श्री० पू० त० । ऐं चामुण्डाम्बा श्री० पू० त० । हीं महालक्ष्म्यम्वा श्री० पू० त० । पत्राग्रेषु मातृका न्यसेत् । ह्रीं अं आं इंई उ ऊ ऋ ऋ ल ए ऐ ओ औं अं अः पूर्वपत्रे । ह्रीं कं ४ आग्नेये ।
ही चं ४ दक्षिणे। हीं टं ४ नैर्ऋत्ये । हीं तं ४ वायव्ये । हीं पं ४ पश्चिमे । .. ही यं रं लं वं उत्तरे । हीं शं पं सं हं हं ईशान्ये । एता अष्टपत्रान्तर्गत
चतुर्थावरणदेवताः सांगा इति गन्धपुष्पाञ्जल्यन्तं समर्पयेत् । 'अभीष्टसिद्धिं मे देहि'
इति पाशमुद्रां प्रदर्शयेत् । इति चतुर्थावरणम् । . अथ पञ्चमावरणम् । पोडशदलपत्रेषु करालिकाद्याः पूजयेत् । तद्यथा । . ३ पोडशदलकमलाय नमः । इति पुष्पाञ्जलित्रयं दत्वा ह्रीं कराल्यम्या श्री० पू०
त० । हीं विकराल्यम्बा श्री० पू० त० । ह्वी उमाम्बा श्री० पू त । ह्रीं सरस्वत्यम्बा श्री० पू० त० । ह्रीं श्रयम्बा श्री० पू० त० । ह्रीं दुर्गाम्बा श्री० पू० त०। ही ऊष्माम्बा श्री० पू० त० । ह्रीं लक्ष्म्यम्बा श्री० पू० त० । ह्रीं श्रत्यम्बा श्री० पू० त० । ह्रीं स्मृत्यम्बा श्री० पू० त० । ह्रीं धृत्यम्बा श्री० पू० त० । ह्रीं श्रद्धाम्बा श्री० पू० त० । ही मेधाम्बा श्री० पू० त० । ह्रीं भृत्यम्बा श्री० पू० त० । हीं कान्त्यम्बा श्री० पू० त० । ह्रीं आर्याम्बा श्री० पू० त० । एताः पोडशदलान्तगर्तपञ्चमावरणदेवताः सांगा इति गन्धादिपुष्पाञ्जल्यन्तं समर्पयेत् । 'अभीष्टसिद्धिं मे देहि' इति अंकुशमुद्रां दर्शयेत् । इति पञ्चभावरणम् । ___अथ पष्ठावरणम् । इन्द्रादिलोकपालान् पूर्वादिक्रमेण पूजयेत् । ३ भूग्रहचक्राय नमः, इति पुष्पाञ्जलित्रयं दत्वा 'ह्री इन्द्राय सुराधिपतये वज्रहस्ताय ऐरावताधिरूढाय सपरिवाराय सशक्तिकाय नमः श्रीपादुकां पू० त०। ह्रीं अग्नये तेजोऽधिपतये मेषारूढाय शक्तिहस्ताय सपरिवाराय सशक्तिकाय नमः श्री० पू० त० । हीं यमाय
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१४६ ]
पृथ्वीधराचार्यपद्धती प्रेताधिपतये महिपारूढाय सपरिचाराय सशक्तिहस्ताय नमः श्री० पू० त० । ह्रीं नैऋतये रक्षोधिपतये प्रेतवाहनाय खङ्गहस्ताय सपरिवाराय सशक्तिकाय नमः श्री० पू० त० । ह्रीं वरुणाय जलाधिपतये पाशहस्ताय मकराधिरूढाय सपरिवाराय सशक्तिकाय नमः श्री० पू० त० । ह्रीं वायवे प्राणाधिपतये ध्वजहस्ताय मृगाधिरूढाय सपरिवाराय सशक्तिकाय नमः श्री० पू० त०। ह्रीं सोमाय यक्षाधिपतये अश्वारूढायं अंकुशहस्ताय सपरिबाराय सशक्तिकाय नमः श्री० पू० त० । ह्रीं ईशानाय भूताधिपतये वृषाधिरूढाय त्रिशूलहस्ताय सपरिवाराय सशक्तिकाय नमः श्री० पू० त० । ततः पूर्वादिक्रमेणायुधानि पूज्यानि । ह्रीं बज्राय नमः श्री० पू० त० । ह्रीं शक्तये नमः श्री० पू० त० । ह्रीं दण्डाय नमः श्री० पू० त०। ह्रीं . खड्गाय नमः श्री पू० त० । ह्रीं पाशाय नमः श्री० पू० त० । ह्रीं ध्वजाय नमः श्री पू० त० । ह्रीं गदायै नमः श्री० पू० त० । ह्रीं शूलाय नमः श्री० पू० त०। . ह्रीं ब्रह्मणे लोकाधिपतये सबाहनाय सायुधाय सपरिवाराय सशक्तिकाय नमः श्री० पू० त० । ईशानपूर्व योर्मध्ये । ह्रीं विष्णवे नागाधिपतये गरुडारूढाय सायुधाय सपरिवाराय सशक्तिकाय नमः श्री० पू० त० । पूर्वाग्नेययोमध्ये । तत्पुरतः आयुधानि पूज्यानि । ह्रीं शङ्खाय नमः श्री० पू० त० । ह्रीं चक्राय नमः श्री० पू० त० । ह्रीं गदायै नमः श्री० पू० त०। ह्रीं पद्माय नमः श्री० पू० त० । त्रिकोणपुरतो देव्यायुधानि पूज्यानि । ह्रीं पाशाय नमः श्री० पू० त० । ह्रीं अंकुशाय नमः श्री० पू० त०।। ह्रीं अभयाय नमः श्री० पू० त० । ह्रीं वरदाय नमः श्री पू० त० । ततो देव्या वामभागे बटुकं पूजयेत् । ऐं ह्रीं क्लीं बटुकनाथाय नमः श्री पू० त० | आग्नेयकोणे गणेशं पूजयेत् । ऐं ह्रीं ग्लौं गणपतये नमः श्री० . पू० त० । ऐं ह्रीं क्लीं द्वारदेवताभ्यो नमः श्री पू० त० । ही कामाक्षादिपीठेभ्यो नमः श्री० पू० त० । ऐं ह्रीं क्लीं पीठनाथेभ्यो नमः श्री० पू० त० । ऐं ह्रीं क्लीं : .. पीठेश्वरीभ्यो नमः श्री० पू० त० । भृगृहस्य प्रथमरेखायां ह्रीं सत्वाय नमः श्री० पू० . त० । द्वितीयायां ह्रीं रजसे नमः श्री पू० त० । तृतीयायां ह्रीं तमसे नमः श्री० ... पू० त० । एता भूगृहगतपष्ठावरणदेवताः सांगा इति गन्धादिपुष्पाञ्जल्यन्तं समर्पयेत् । .. 'अभीष्टसिद्धिं मे देहि' इति अभयवरदमुद्रां दर्शयेत् । इति पष्ठावरणम् ॥ .. .
- पुनः ह्रीं भुवनेश्वर्यम्वा श्री० पू० त० विन्दौ पुष्पाञ्जलिपूर्वकं मूलदेवीं त्रिवारं... सन्तर्प्य गन्धाधु पचारैः सम्पूज्य महानैवेद्यपात्रं सान्नं साधारं . संस्थाप्य अस्त्रमन्त्रेण
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[ १४७
भुवनेश्वरीक्रमचन्द्रिका संरक्ष्य गन्धादिभिरभ्यर्च्य धेनुमुद्रां वद्ध्वा ॐ जगद्ध्वनि मन्त्र मातः स्वाहा' इति घण्टा सम्पूज्य वामकरे धृत्वा धृनयन् नीचैधूपं बनस्पत्युदभवेति मन्त्रेण मूलयुक्तेन समर्पयेत् । ततो दीपमुचैः
सुप्रकाशमहादीपः सर्वत्र तिमिरापहः । सबाह्याभ्यन्तरज्योतिर्दीपोऽयं प्रतिगृह्यताम् ॥
इति मूलयुक्तेन समर्पयेत् । मूलेन नैवेद्य सम्प्रोक्ष्य वायव्यादिवीजैः शोषणादिकं विधाय सुरभिमुद्रयाऽऽमृतीकृत्य- .
नैवेद्यं षड्रसोपेतं पञ्चभक्ष्यसमन्वितम् ।.
सुधारसमहोदारं शिवेन सह गृह्यताम् ।। . ॐ ह्रीं आत्मतत्त्वाधिपतिश्रीभुवनेश्वरी तृप्यतु । ह्रीं विद्यातत्याधिपति श्री । - ह्रीं शिवतत्वाधिपति श्री० । इति चतुर्धा सन्तर्प्य अमृतोपस्तरणमसीत्युक्त्वा प्राणादि
मुद्राः प्रदर्शयेत् । तद्यथा-ॐ प्राणाय स्वाहा इत्यङ्गुष्ठेन कनिष्ठानामिके स्पृशेत् । ॐ ' व्यानाय स्वाहा इत्यङ्गुष्ठेन तर्जनीमध्यमे स्पृशेत् । ॐ उदानाय स्वाहा इत्युङ्गष्ठेनामिकामध्यमातर्जनीः स्पृशेत् । ॐ समानाय स्वाहा इत्यङ्गष्ठेन सर्वाः स्पृशेत् । जवनिकां मध्ये कृत्वा यावदभोजनतृप्तिपर्यन्तं मूलमन्त्रं स्मरेत् । मूलेन मध्यपानीयमुत्तरापोशन( पणं )करशुद्धयर्थं हस्तोदकमाचमनीयं करोद्वर्तनं फलताम्बूलदक्षिणां. समर्प्य ॥
ततो नित्यहोमं कुर्यात् । तद्यथा-आत्मनो दक्षिणभागे चतुरस्त्र मण्डलं कृत्वा अथवा सिद्धकुण्डमानीय तस्मिन् यन्त्रं सम्भाव्य तत्र मूलेन 'फट्' इति प्रोक्ष्य मूलेन अग्निं संस्थाप्य मूलेन अग्निं परिसमूह्य मूलविद्यापडङ्गं विधाय अग्नौ देवीं ध्यात्वा गन्धादिभिरभ्यर्च्य ज्वालिनिमुद्रां प्रदर्श्य घृतेन व्याहृतिभिर्तुत्वा मूलेन घृताहुतिभिः पोडशभिक्षु त्वा पुनः गन्धादिताम्बूलान्तं मूलेन समर्प्य पुनासध्यानं विधाय
भो भो वहे महाशक्ते सर्वकर्मप्रसाधक ! . कर्मान्तरनियुक्तोऽसि गच्छ देव ! यथासुखम् ॥
इति विसर्जयेत् । संहारमुद्रया नमस्कारं कुर्यात् ।
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१४८ ]
पृथ्वीधराचार्यपद्धती ___ इत्थं नित्यहोमं विधाय वलिदानं कुर्यात् । तद्यथा-यन्त्रस्याये दक्षपृष्ठवामभागेषु भूविम्बवृत्तपटकोणत्रिकोणात्मकान् मण्डलचतुष्कान् विरच्य साधारं पात्रचतुष्टयं संस्थाप्य तेषु क्रमेण बटुकयोगिनीगणेशक्षेत्रपालान् यजेत् । वां वटुकाय नमः। यां योगिनीभ्यो नमः । गं गणेशाय नमः । क्षा क्षेत्रपालाय नमः । एक चेत् पात्रं तस्मिन्नेव चतुरो यजेत् । तत्त शहादुत्तरतः संस्थाप्य कलशस्थहेतुनाऽऽपूर्य प्रथमाद्वितीयायुक्तचरक गृहीत्वा मुख्यदेवताबलिं दद्यात् । तद्यथा-ततो देव्याः पुरतश्चतुरस्र त्रिकोणं मण्डलं विधाय तस्योपरि 'ऐं ह्रीं श्रीं भुवनेश्वरि इमं वलिं गृह्ण गृह्ण स्वाहा' वलिदानोपरि अंगुष्ठानामिकाभ्यां योगेन विशेषाद्यपात्रस्थद्रव्येण धारां दत्वा दीपं गन्धपुष्पाक्षतादीन् समर्पयेत् । ततो देव्याः पश्चिमे 'ॐ हीं वां एहि एहि देविपुत्र बटुकनाथ पिङ्गलजटाभारभासुर त्रिनेत्र ज्वालामुख मम सर्वविघ्नान्नाशय नाशय मम ईप्सितं कुरु कुरु इमं सर्वोपचारसहितं वलिं गृह्ण गृह्ण हुं फट् स्वाहा' इत्यनेन सदीपं चरुक गन्धाक्षतपुष्पसहितं बटुकाय निवेद्य तत्पात्रस्थद्रव्येण वामतर्जन्यंगुष्ठाभ्यां धारां पातयन् ध्यायेत् ।
या काचिद्योगिनी रौद्रा सौम्या घोरतरा परा। ___ खेचरी भूचरी व्योमचरी प्रीतास्तु मे सदा ॥
पूर्वे । एलां ग्लीं ग्लू ग्लैं ग्लौं ग्लः गणपते एहि एहि मम विघ्नं नाशय . मम ईप्सितं कुरु कुरु इमं वलिं गृह्ण गृह्ण स्वाहा' इत्यनेन सदीपं चरुकं गन्धाक्षतपुष्पसहितं गणेशायदत्वा तत्यानस्थद्रव्येणयामेनाङ्गष्ठयोगेन धारां. पातयन् ध्यायेत्
थीजापूरगदेक्षुकार्मुकयुजा चक्राजपाशोत्पलं ब्रीह्यग्रस्वविषाणरत्नकलशप्रोद्यत्कराम्भोरुहः । ध्येयो वल्लभया च पद्मकरया श्लिष्टस्त्रिनेत्रो विभुः विश्वोत्पत्तिविनाशसंस्थितिकरोऽविघ्नो विशिष्टार्थदः ॥
दक्षिणे । 'क्षांक्षी च क्षौं क्षा हुं स्थानक्षेत्रपाल मुकुटखपरमुण्डमालाभूषण : महाभीषणरूपधर वर्वरकेश - जय जय दिगम्बर महाभृतपरिचारसंत्रासकर अग्मिनेत्र . मद्यपानमदोन्मत्त त्रिशूलायुधधर शृङ्गीवादनतत्पर एहि एहि मम वितं नाशय नाशय-.अमुकं दुष्टं खादय खादय मम ईप्सितं कुरु कुरु इमं वलिं गृह्ण गृह्ण हुं फट् स्वाहा' .
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भुवनेश्वरीक्रमचन्द्रिका
[ १४६ इत्यनेन सदीपं चरुकं गन्धाक्षतपुष्पसहितं क्षेत्रपालाय दत्वा तत्पात्रस्थद्रव्येण वामकनिष्ठाङ्गष्ठयोगेन धारां पातयन् ध्यायेत्
एकं खट्वाङ्गहस्तं भुजगमपि वरं पाशमेकं त्रिशूलं कापालं खड्गहस्तं डमरुग[ क सहितं वामहस्ते पिनाकम् । चन्द्रार्द्ध केतुमालाकिरतिवरशरं सर्पयज्ञोपवीतं कालं विभ्रत्कपालं मम हरतु भयं भैरवः क्षेत्रपालः॥ योऽस्मिन् क्षेत्रे निवासी च क्षेत्रपालस्य किङ्करः ।
प्रीतोस्तु बलिदानेन सर्वरक्षां करोतु मे || - इत्थं बलिदानं विधाय । के[प] चिन्मतेन-'हुँ सर्वविघ्नकृद्भयो भूतेभ्यो नमः' इति मन्त्रेण सदीपं अलिपिशितसहितं चरुकं गन्धाक्षतपुष्पसमन्वितं गृहाबहिनिक्षि: पेत् । इति भृतवलिः । ततः शालिगोधूमादिपिष्ट न सगुड़ेन सजीरकेन सालिद्वितीयेन . सार्धं त्रिकोणाकारान् डमरुकरूपेण नव पञ्च त्रीन् वा विधाय घृतेन पाचयित्वा ताम्रा
दिभाजने अष्टदलं त्रिकोणं विधाय मूलेन सम्पूज्य अष्टदले अष्टदीपान् संस्थाप्य E. त्रिकोणे एकं दीप संस्थाप्य एवं नवदीपान् संस्थाप्य मूलेन फलपुष्पताम्बूल. सुवर्णादिकं पात्रे निक्षिप्य मूलेन प्रज्वाल्य सामयिकं श्लोकद्वयं पठन् मूलेन देव्युपरि सार्द्धत्रिवारं भ्रामयेत् ।
अन्तस्तेजो बहिस्तेज एकीकृत्य निरन्तरम् । विधा देव्युपरिभ्राम्य कुलदीपं निवेदयेत् ॥ चन्द्रादित्यौ च धरणी विद्युदग्निस्तथैव च । त्वमेव सर्वज्योतींषि प्रार्तिक्यं प्रतिगृह्यताम् ॥ ... ततो मूलेन लवणनिम्बपत्राद्यैः अन्नपिष्टपिण्डादिभिर्वा दृष्टिमुत्तार्य पश्चाद् द्वात्रिंशत्संख्यया अथवाष्टोत्तरशतसङ्ख्यया मूलविद्यां जपेत् । गुह्यातिगुह्यति देव्यै जप निवेदयेत् । स्तोत्रसहस्रनामादिकं पठित्वा योनिमुद्रया नमस्कार कुर्यात् ।
अथ शक्तिपूजनम् । स्वशक्तिं वा वीरशक्तिं चाहूय स्ववामभागे त्रिकोणं विधाय तस्योपरि आवाहयेत्
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१५० ]
.. पृथ्वीधराचार्यपद्धती आयाहि वरदे दवि मण्डलोपरि मत्वरम् । पूजां गृहाण देवेशि त्वत्कृपाभाजनस्य मे ॥
इत्याबाह्य तस्याश्चरणक्षालनपूर्वक पूजां कृत्वा हरिद्राकुमकजलादिभिर्भूपयित्वा तस्यै मूलेनाभिमंत्रितं शक्तिपात्रं पिशितसहितं दत्वा, तत्र मन्त्रः
अलिपात्रमिदं तुभ्यं दीयते पिशितान्वितम् । स्वीकृत्य सुभगे देवि जयं देहि रिपुं दह ॥ इत्यनेन मन्त्रेण निवेदयेत्वत्स तुभ्यं मया दत्तं पीतशेष कुलामृतम् । तव शत्रु हनिष्यामि सर्वाभीष्टं ददाम्यहम ॥
इत्यनेन मन्त्रेण तदवशेष स्वयमङ्गीकृत्य तस्या वस्त्रकञ्च की आभरणादिक यथाशक्त्या दत्वा नमस्कारं कुर्यात् । इति शक्तिपूजनम् । ततः कुमारं बटुकरूपं पूजयेत् । ततः कुमारी पूजयेत् ।।
अथ गुरुपूजनम् । ततः गुरुसन्निधौ चेत् तस्य पूजादिकं विधाय तस्मै .. गुरुपात्र निवेदयेत् । तत्र मन्त्रः
ततः श्री गुरुरूपाय साक्षात् परशिवाय च । .. कराभ्यां पात्रमुद्धृत्य सद्वितीयं समर्पयेत् ॥
इत्यनेन निवेदयेत् । सन्निधौ गुरुर्नास्ति चेत् तत्स्थाने श्रेष्ठं पूर्णाभिषेकयुक्तं आचार्य पूजयेत् । आचार्योऽपि नास्ति चेत् सहस्रदलकमले गुरुपात्रस्थद्रव्येण श्रीगुरु त्रिःसन्तर्प्य स्वयं गृह्णीयात् । इति गुरुपूजनम् । __ततो वीरपूजादिकं विधाय तेषां शङ्खोदकेन प्रोक्ष्य तेभ्यः पात्राणि दद्यात् । ततः पुष्पाञ्जलिं गृहीत्वा मूलेन स्तोत्रेणाथवा वैदिकमन्त्रेण देव्य पुष्पाञ्जलिं . . समर्पयेत् । पञ्चमुद्राभिर्नमस्कारं कुर्यात् ।
स्तम्भनं चतुरस्रं च मत्स्यगोक्षुरमेव च । योनिमुद्रेयमाख्याता पञ्जमुद्राभिवादने ॥
इति पञ्चमुद्राः । अथ कुलदीपसमर्पणम् । वामहस्ते सचरु दीपं गृहीत्वा दक्षहस्ते पात्रं गृहीत्वा मूलमन्त्रमुच्चार्य
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________________
भुवनेश्वरीक्रमचन्द्रिका देहस्थाखिलदेवता गजमुखाः क्षेत्राधिपा भैरवा योगिन्यो वटुकाश्च यक्षपितरो भूताः पिशाचा ग्रहाः । अन्ये दिक्चर भूचराश्चरवरा वेतालगास्तोयगास्तृप्ताः स्युः कुलपुत्र कस्य पिवतां पानं सदीपं चरुम् ।। इत्यनेन सचरुं दीपं भक्षयेत् । पात्रं गृह्णीयात् । इति कुलदीपसमर्पणम् । आवाहन न जानामि न जानामि च पूजनम् । विसर्जनं न जानामि क्षम्यतां परमेश्वरि ! ॥१॥ मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं च पार्वति ! यत्पूजितं मया देवि परिपूर्ण तदस्तु मे ॥२॥ त्वमीशि विष्णुश्चतुराननश्च त्वमेव भक्तिः प्रकृतिस्त्वमेव । त्वमेव सूर्यो रजनीपतिश्च त्वमेव शक्तिः प्रकृतिस्त्वमेव ॥३॥ त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव । त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव त्वमेव सर्वं मम देवि देवि ॥ ४ ॥ त्वमेव कर्ता करणस्य हेतुर्गोप्ता विधाता प्रलयस्त्वमेव । भूतान्यपि त्वं करणान्यपि त्वं त्वं ब्रह्मविद्या हि त्वमेव चात्मा ॥२॥ उमा ख्याता उमा भोक्ता उमा सर्वमिदं जगत् । उमा जयति सर्वत्र यदुमा सोऽहमेव च ॥६॥ स्तुवतो देवतां स्तुत्यानया तुष्टा प्रयच्छति । ऐश्वर्यमायुरारोग्यं विद्यां कीर्तिं श्रियं सुखम् ॥७॥ अपराधसहस्राणि क्रियन्तेऽहर्निशं मया । दासोऽहमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वरि ! ॥८॥ ज्ञानतोऽज्ञानतो वापि यन्मया क्रियते शिवे! मम कृत्यमिदं सर्वमिति मातः क्षमस्व मे ॥६॥
इति वहुधा प्रणतिपूर्वकं क्षमाप्य विशेषार्योदकं चुलुकेनादाय इतः पूर्व प्राणवुद्धिदेहधर्माधिकारतो जाग्रत्स्वामसुषुप्तितूर्यावस्थासु मनसा वाचा कर्मणा हस्ताभ्यां पझ्यामुदरेण शिश्ना यत्स्मृतं यदुक्त यत्कृतं तत्सर्वं गुरुदेवसमर्पितं तत्सर्व ब्रह्मार्पणं भवतु इत्यनेन देव्याश्चरणारविन्दयोस्समर्पयेत् । ॐ ह्रीं भुवनेश्वरि क्षमस्त्र, इति तालत्रयेण देवी प्रबोध्य तेजोरूपां तां संहारमुद्रया निर्माल्यपुष्पे तत्तेजः
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________________
१५२ ]
पृथ्वीधराचार्यपद्धती समुधृत्याघ्राय पूरकप्रयोगेन सहस्रदलकमलं प्राप्य तत्र क्षणं ध्यात्वा सुपुम्णा- .. वर्त्मना 'ऐं हृदयाय नमः' इति हृदयकमलमानीय तत्र ध्यायन्
ही तिष्ठ तिष्ठ परे स्थाने स्वस्थाने परमेश्वरि । यत्र व्रमादयः सर्वे सुरास्तिष्ठन्ति मे हृदि ।। इति हृदयकमले स्थापयित्वा ततः शान्तिस्तवं पठेत् । तदुक्त वामकेश्वरतन्त्रे30 नश्यन्तु प्रेतकूष्माण्डा नश्यन्तु दृषका नराः । साधकानां शिवाः सन्तु अान्नायपरिपालिनाम् ।। जयन्तु मातरः सर्वा जयन्तु योगिनीगणाः । जयन्तु सिद्धडाकिन्यो जयन्तु गुरुपंक्तयः ॥ नन्दन्तु अणिमासिद्धयो नन्दन्तु भैरवादयः । नदन्तु देवताः सर्वाः सिद्धिविद्याधरादयः॥ ये अम्नायावशुद्धाश्च मंत्रिणः शुद्धबुद्धयः । सर्वानन्दानन्दहृदया नन्दन्तु कुलपालकाः॥ इन्द्राद्यास्तर्पितास्सन्तु तृप्यन्तु वास्तुदेवताः। .. चन्द्रसूर्यादयो देवास्तृप्यन्तुं मम भक्तितः ॥ . . नक्षत्राणि ग्रहा योगाः करणाद्यास्तथा परे । सर्वे ते सुखिनो यान्तु मासाश्च तिथयस्तथा ॥ तृप्यन्तु पितरः सर्वे ऋतवो वत्सरादयः । खेचरा भूचराश्चैव तृप्यन्तु मम भक्तितः ॥ . अन्तरिक्षचरा ये च ये चान्यदेवयोनयः। सर्वे ते सुखिनो यान्तु सर्वा नद्यश्च पक्षिणः ॥ पशवस्तरवश्चैव पर्वताः कन्दरा गुहाः । ऋषयो ब्राह्मणाः सर्वे शान्ति कुर्वन्तु से सदा ॥ शिवं सर्वत्र मे चास्तु पुत्रदारधनादिषु । राजानः सुखिनः सन्तु क्षेमं मार्ग तु मे सदा ॥ तीर्थानि पशवो गावो ये चान्ये पुण्यभूमयः । वृद्धाः पतिव्रता नार्यः शिवं कुर्वन्तु मे सदा ॥ शुभा मे दिवसा यान्तु मित्राणि सन्तु मे शिवाः ।।
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________________
(१५३
- भुवनेश्वरीक्रमचन्द्रिका साधका जापिनः सन्तु शिवं तिष्ठन्तु पूजकाः ॥ ये ये चापधियः स्वभूषणरता मन्निन्दकाः पूजने दैवाचारविरुद्धनष्टहृदया दुष्टाश्च ये बाधकाः । दृष्ट्वा चक्रमपूर्वमन्धहृदया ये कौलिकद्वेषकास्ते ते यान्तु विनाशमत्र समये श्रीभैरवस्याज्ञया । द्वेष्टारः साधकानाञ्च सदैवान्नायदूषकाः। डाकिनीनां मुखे यान्तु तृप्तास्तत्पिशितैस्तु ताः ॥ शत्रवो नाशमायान्तु मम निन्दांकराश्च ये।
द्वेष्टारः साधकानाञ्च विनश्यन्तु शिवाज्ञया । - ये निन्दकास्ते विलयं प्रयान्तु ये साधकास्ते प्रभवन्तु सिद्धाः। .
सर्वत्र देवोकरुणावलोकाः पुरः परेशी मम सन्निधत्ताम् ॥ इति शान्तिपाठं पठित्वा सर्वान् सामयिकान् सामान्याोदकेन अभिषिश्चयेत् । ततो विशेषाध्येपात्रमुद्धृत्य शिरसि स्थिताय श्रीगुरवे समर्पयेत् । ततः सामयिकैः साध कौलधर्मादिकं कृत्वा यथासुखं विहरेत् । ततः सर्वोच्छिष्टेन उच्छिष्टमातङ्गी- बलिं दद्यात् । तद्यथा-'क्लीं नमः उच्छिष्टचाण्डालि मातङ्गि सर्ववशङ्करि स्वाहा' इति मंत्रेण स्ववांमभागे त्रिकोणमण्डलं कृत्वा तत्र धारायुक्तबलिं निक्षिपेत् । ध्यानम्
ध्यायेदुच्छिष्टमातङ्गी देवी लोकैकमोहिनीम् । वीणावाद्यविनोदगीतनिरतां नीलांशुकोल्लासिनी बिम्बोष्ठी नवयावका[]चरणामाकीर्णनीलालकाम् । हृद्यागी नवरत्नकुण्डलधरामारक्तभूषोज्वलां मातङ्गी प्रणतोऽस्मि सुस्मितमुखी देवी शुकश्यामलाम् ॥'
इति ध्यात्वा पञ्चमुद्राभिर्नमस्कारं कुर्यात् । सर्वेभ्यस्ताम्बूलदक्षिणादिकं दत्त्वा विसर्जयेत् । । इति पृथ्वीधराचार्यपद्धतिं शारदातिलकं नानातन्त्रमतमालम्ब्य श्रीदाईदेवसम्प्रदायिना मातृपुरस्थितेन अनन्तदेवेन विरचितायां भुवनेश्वरीक्रमचन्द्रिकायां - पूजाविवरणं नाम तृतीयः कल्पः ॥ ॐ ॥ श्रीगुरुदेवार्पणमस्तु ॥ .
.............
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________________
श्रीपृथ्वीधराचार्यप्रणीतं
लघुसप्तशतीस्तोत्रम् [ॐ अस्य श्रीलघुसप्तशतीस्तोत्रमन्त्रस्य भगवान् सदाशिव ऋषिः शिरसि, : अनुष्टुपछन्दसे नमो मुखे, त्रिमूर्तिर्देवता हृदये, वाग्भवं ऐं वीजं, माया ही शक्तिः, . श्रीलक्ष्मीः कीलकं, मम चतुर्विधपुरुषार्थे जपे विनियोगः सर्वाङ्गे ।।
नमो विरञ्चेरवल्लभायै नमोस्तु ते शङ्करवल्लभायै । नमोस्तु नारायणवल्लभायै श्रीचण्डिकायै शरणं प्रपद्ये ॥१॥ ब्रह्मादयो देवि भजन्ति देवा वसिष्ठमुख्या ऋषयश्च सर्वे । सिन्दूरवी तरुणाकान्ति श्रीचण्डिके! त्वां सततं स्मरामि ॥२॥ सहस्रचन्द्रार्कसमानकान्ति बन्धूकपुष्पारुणपङ्कजाभाम् । देदीप्यमानाग्निसमानकान्ति श्रीचण्डिके ! त्वा सततं स्मरामि ॥३॥
श्रीसिद्धिनाथ ! भवतो भुवनैक भर्नु
र्भाषा परामृतमयी निगमान्तरस्था । एषा त्वनन्धशरणस्य ममाश्रुतस्य वृत्ता निसर्गकरुणावरुणालयस्था ॥]'.
ॐ नमश्चण्डिकायै यत्कर्म धर्मनिलयं प्रवदन्ति तज्ज्ञा ___ यज्ञादिकं तदखिलं सकलं त्वयैव । त्वं चेतना यत इति प्रविचार्य चित्तं . . नित्ये ! त्वदीयचरणौ शरणं प्रपद्ये ॥१॥
१. कोष्ठान्तर्वर्ती भागस्तु द्वितीयपुस्तके नोपलब्धः । २. ख. श्रीगणेशाय नमः । ३. ख. कलयन्ति ।
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________________
[१५५
लघुसप्तशतीस्तोत्रम् पाथोधिनाथतनयापतिरेष शेषपर्यङ्कलालितवपुः पुरुषः पुराणः । त्वन्मोहपाशविवशो जगदम्ब ! सोऽपि व्याघूर्णमाननयनः शयनञ्चकार ॥२॥ त्वत्कौतुकं जननि ! यस्य जनार्दनस्य कर्णप्रसूतमलजौ मधुकैटभाख्यो । तस्यापि यौ न भवतः सुलभौ निहन्तुं त्वन्मायया विकलितौ विलयं गतौ तौ ॥ ३ ॥ यन्माहिषं वपुरपूर्वबलोपपन्नं यन्नाकनायकपराक्रमजित्वरञ्च । यल्लोकशोकजननव्रतबद्धहार्द . तल्लीलयैव दलितं गिरिजे ! भवत्या ॥४॥ यो धूम्रलोचन इति प्रथितः पृधिव्यां' भस्मीबभूव चरणे तव हुकृतेन । सर्वासुरक्षयकृते गिरिराजकन्ये ! मन्ये स्वमन्युदहने कृत एष होमः ॥ ५॥ केषामपि त्रिदशनायकपूर्वकाणां जेतुं न जातु सुलभावपि चण्डमुण्डौ । तौ दुर्मदी सपदि शम्बरतुल्यमूर्ती' मातस्तवासिकुलिशात्पतितौ विशीर्षों ॥६॥ दौत्येन ते शिव इति प्रथितप्रभावो देवोऽपि दानवपतेः सदनं जगाम ।
.. १.. - ख. प्रथितप्रभावो।
ख. दू[ दौ] व्ये च ।
२. ख, समरे।
३. ख. चाम्बरतुख्यमूर्ते ।
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________________
पृथ्वीधराचार्यप्रणीतं
भूयोऽपि तस्य चरितं प्रथयाञ्चकार सा त्वं प्रसीद शिवदूति विजृम्भितं ते ॥ ७ ॥
१५६ ]
चित्रं तदेतदमरैरपि ये न जेयाः शस्त्राभिघातपतिताद्रुधिरादपर्णे ! भूमौ बभूवुरमिता: प्रतिरक्तबीजास्तेऽपि त्वयैव गिलिता गगने' समस्ताः ॥ ८ ॥
आश्चर्यमेतदखिलं यदसू सुरारी त्रैलोक्यवै भवविलुण्ठनपुष्टपाणी । शस्त्रैर्निहत्य भुवि शुम्भ निशुम्भसंज्ञी' नीती त्वया जननि । तावपि नाकलोकम् ॥ ६ ॥
त्वत्तेजसि प्रलयकाल हुताशनेऽस्मिन् यस्मिन् प्रयान्ति विलयं भुवनानि सद्यः ।
तस्मिन्निपत्य शलभा इव दानवेन्द्रा भस्मीभवन्ति हि भवानि ! किमत्र चित्रम् ॥ १० ॥
तत् किं गृणामि भवती भवतीव्रतापनिर्वापणप्रणयिनी' प्रणमज्जनेषु । तत् किं गृणामि भवती भवतीव्रतापसंवर्द्धनप्रणयिनी विमतस्थितेषु ॥ ११ ॥
वामे करे तदितरे च यथोपरिष्टात् पात्रं सुधारसभृतं वरमातुलुङ्गम् ।
3
खेटं गदाश्च दधतीं भवती भवानि ! ध्यायन्ति येऽरुणनिभां कृतिनस्त एव ॥ १२ ॥
.१ ख वदने ।
५. ख. रणासि ।
२.
ख. तथोपरिष्टात् ।
ख, यदिमौ ।
६.
३. ख. दैत्यौ ।
ख. संछेदनप्रणयिनी ।
४. ख. नाकिलोकम् ख. विपदि स्थितेषु |
Page #191
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________________
[ १५७
. लघुसप्तशतीस्तोत्रम् यद्वारुणात्परमिदं जगदम्ब ! यस्ते' बीजं स्मरेदनुदिनं दहनाधिरूढम् । मायाङ्कितं तिलकितं तरुणेन्दुबिन्दुनादैरमन्दमिह राज्यमसौ भुनक्ति ॥ १३ ॥ अन्तः स्थिताप्यखिलजन्तुषु तन्तुरूपा विद्योतसे बहिरिहाखिलविश्वरूपा। का भूरि शब्दरचना वचनातिगासि दीनं जनं जननि ! मामव निःप्रपञ्चम् ॥ १४॥ . आवाहनं यजनवर्णनमग्निहोनं कार्पणं त्वयि विसर्जनमत्र देवि ! मोहान्मया कृतमिदं सकलापराधं मातः क्षमस्व वरदे ! बहिरन्तरस्थे ! ॥ १५ ॥ एतत्पठेदनुदिनं दनुजान्तकारि चण्डीचरित्रमतुलं भुवि यस्त्रिकालम् । श्रीमान् सुखी स विजयी सुभगः क्षमः स्यात् त्यागी चिरन्तनवपुः कविचक्रवर्ती ॥१६॥ श्रीसिद्धनाथापरनामधेयः श्रीशम्भुनाथो भुवनैकनाथः । तस्य प्रसादात् सकलागमाञ्च . पृथ्वीधरः स्तोत्रमिदं चकार * ॥१७॥
१. ख. सोऽपि। २. ख. सदा । ३. . स्व. क्षमी। ४. ख. यः शम्भुनाथो। ५. ख. सुलभागमश्रीः । * ख, पुस्तके एतावान् पाठस्त्वधिकः-- "प्रथमा विष्णुमाया च द्वितीया चेतना तथा ।
बुद्धिनिद्रा क्षुधाच्छाया शक्तिस्तृष्णात्तथाष्टमी ।। १८ ।। ........ शान्तिर्जातिस्तथा लज्जा शान्तिः श्रद्धा च कान्तिका ।
लक्ष्मीवृत्तिः स्मृतिश्चैव दया दीप्तिस्तथैव च ॥ १ ॥
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________________
१५८ ]
पृथ्वीधराचार्यप्रणीतं देव्याः स्तवं ज्ञानमयं कृतं यत् पृथ्वीधराचार्यवरण सम्यक् ।। यचोदधृतं सप्तशतीस्थसारं सर्वान्वितं तन्निगमस्य सारम् ॥१८॥
॥ इति पृथ्वीधराचार्यविरचितं लघुसप्तशतीस्तोत्रम् ॥
नुष्टिः पुष्टिस्तथा माता भ्रान्तिः सर्वात्मिका तथा । प्रयोविशंतिसंख्याता या देवी गणिता शुभा ।। २० ।। भुक्तिनुक्तिन दूरस्था शुद्धपाठवतां नृणाम् ।। २ ॥ सबीजपूरं सगदं सखेटं सपानपात्रं शयनं चकार । जयातटान्त कृतये न लिङ्गी तनाथ ! नित्यं शरणं प्रपद्ये ॥ २२ ॥" १, ख, पुस्तके नास्त्येप श्लोकः ।
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________________
अनुक्रमणिकाप्रयुक्तसंकेताक्षरविवरणम् संकेताक्षराणि
ग्रन्थनामानि १. पू० प०
पूजापद्धतिः ( रुद्रयामलीया) २ भु० अ०
भुवनेश्वर्यष्टकम् ३. भु० अ० श०
भुवनेश्वर्यष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम्
भुवनेश्वरीक्रमचन्द्रिका ५. भु० क०
भुवनेश्वरीकवचम् ६. भु०प०
भुवनेश्वरीपटलः (रुद्रयामलीयः ) ७. भु० स०
भुवनेश्वरीसहस्रनाम ८. भु० ह.
भुवनेश्वरीहृदयस्तोत्रम् १. रु. ४० स्तो.
रुद्रयामलीयभुवनेश्वरीस्तोत्रम् १०. ल. स. स्तो
लघुसतशतीस्तोत्रम्
४. भु० ०
Page #194
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________________
श्लोकांश:
प्रकुल स्था०
श्रखण्डमण्डला ०
श्रखण्डमण्डला ०
श्रखण्डमण्डला ०
अटैकरसा
अङ्गानिजाति
अज्ञानतिमिरा०
अत्यायताक्ष०
प्रतिवृद्धा०
श्रतितीच्या ०
अन्तःशक्ति
श्रन्तः स्थिता०
अन्तरिक्षचरा०
श्रन्तस्तेजो ० अथ पूजाविधि
अथ वक्ष्ये
प्रधानन्दमयीं ०
श्रनन्तरुपिणी ०
श्रनन्तो०
श्रनङ्गकुसुमा
अपूर्णा
प्रमाज्येन०
श्रपसर्पन्तु०
अपसर्पन्तु
श्रपसर्पन्तु
०
अपराधी
अपीतापीत
संकेताक्षराणि पृष्ठम्
भु० क्र०
१३५, १३६
पू० पृ० ३।
४४
भु० क्र०
११०
सु० क्र०
११८
भु० क्र०
१३४, १३६
भु०प०७२।
१३४, १३६
पू० प० २।
४४
रु०सु०स्तो ० २४ । १०४
भु०स० २७|
७४
पू० प०
भु० क्र०
ल०स० तो ० १० १४|
भु० प्र.०
भु० प्र०
पू० पृ० १
पू० ५० १,
रु० मु०स्तो०] १.
भु०क्र०
पू० प०
のの
चपराधसहस्राणि पू० प०
अपराधहखाणि
सु० क्र०
पृ० प०
मु०क०
भु०स० ४८
भु०प०
भु०प० ३३|
भु०क्र० १३|
भु०प०८२
श्लोकानुक्रमणिका
५०
१६१
१५२
૧૪૨
४४
३१
१०३
७६
२०
६६
20
११८
܀
६÷
૧૨
६५
१३.६
लोकांश:
श्रभयं भिन्दिपालं.
अभीष्टसिद्धि०
प्रन्मुक्त०
श्ररूपा च०
श्ररूपा च०
प्रपा बहुरूपा च प्रलिपात्रमिदं०
प्रत्यहि०
अष्टादश०
श्रष्टाभिरुग्र०
अष्टौ बीज०
श्रहं देवी न०
श्राकाशगामिनी
श्राद्या कात्यायनी ०
श्राद्यासाया
श्राद्याप्यशेप०
श्राद्या माया०
श्राद्यामशेष०
श्रादिक्षान्त०
श्राद्यो मौलि०
श्रायो मौलि०
श्रादौ कुम्भं०
श्रादौ वान्मव०
श्राधारे लिङ्गनाभौ
श्राधारे हृदये
श्रान्तरं स्नान०
श्रानन्दयेत् ०
श्रीपादमस्तकं०
मायाहिघरदे०
संकेताक्षराणि पृष्ठम्
भु० क्र०
१३६ १४३
भु० क्र०
सु० ६.०
१२३
भु०स० ६७ !
भु०स० ७०।
भु०प्र०१२ ॥
भु० क्र०
भु० क्र० २५१ :
मु०क्र०
रु० भु०स्तो १४ |
पू० प०
पू० प०
भु०क्र०
भु० स्तो० १७ ।
भु० ०
भु० स्तो०
१२४
1919
भु०स० ५६६
भु०स० ५२॥
७६.
७२
भु०स० २१| रु०सु०स्तो०६ । १०३.
भु०स० ६।
७२
रु० भु०स्तो० ॥। १०३. भु०स्तो०२
३.
भु० ऋ
मु०न्तो० २३|
०१२३
ون
१५०
७०
१३६
१०४
५२
४६
७८
१२५
१७
१३२
કર્
१०
भु० क्र०
०भुस्तो० १०३
口口
999
भु० क्र०
-१५०
૦૨
परवा
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________________
श्लोकांश:
श्रायुमलं यशो वर्चः
आयुष्करं पुष्टिकरं
-आरब्धं यन्मया ०
आराधना ०
श्रालम्बिकुण्डल
श्रावाहनं न०
श्रावाहनं न०
श्रावाहनं ०
श्रावाहयामि०
प्राविनिंदाघज लशी ० भविश्य मध्यपदवी रु० भु०स्तो ० ६ । भावस्तुषारकरलेख रु० ० स्तो०२५ ।
संकेताक्षराणि
भु० क्र०
भु०प्र० श०१६ |
पू० पृ०
भु०स० ५।
रु० भु०स्तो० ११ |
पू० प
भु०क्र०
ल०स०स्तो ०१
आस्थाय योगमवजित्य रु० भु०
श्रासाद्य जन्म ०
श्राश्चर्यमेतदखिलं • इच्छाज्ञानक्रियारूपा . इडया पूरयेद् वायु
इडा च वामनासा० इडा. गंगेति०
इत्थं प्रतिक्षणमुदश्रु
इत्थं मासश्रयम० इति ज्ञात्वा ० इति ते कवचं पुण्यं इति श्री भुवनेश्वर्या
इदमष्टक माद्याया इन्द्रातियंम०
इन्द्राशास्त
इन्द्रादयः पुनः०
इइ भुक्त्वा वरान्० ईशेऽपि गेहपिशुन उक्तानि यानि ०.
उम्रा उग्रप्रभा०
उच्चाटन द्वेपिणी.. उत्तप्तहाटकनिभा.
रु० भुस्तो०७॥
सस्तो ०३
ल०स०
भु०प्र० श० । भु० क्र०
भु० क्र०
लोकानुक्रमणिका
भु० क्र०
भु० स्तो० ४१|
भु०स्तो ० ८४ |
भु० क्र०
पृष्ठम्
१०६
८३
भु० क्र०
१३०
रु० भु०स्तो०१५ | १०४
५०
७२
१०३
६५
१५१
१०३
१०४
१०३
१०३
ह
१२७
१२७
११०
२७
४२
११३
भु०क्र०२४।
भु०स०६२रा
भु० श्र०हा
भु०प०४२।
भु० क्र०.
८०
भु० प० भु०स०१०७॥ रु० भु० स्तो०२१ । १०३ भु०स०६१।.....
७६
भु०स०१६।
७३
भु०स०|
७६
रु० भुं० स्तो० १३ । १०३
७०
७६
८४
३४
१५२
लोकांश संकेताक्षराणि
उदिन तिमिन्दु .
भु०प०१३।
उदिन तिमिन्दु .
पू० प०
उदिन तिमिन्दु .
उद्यद्भास्वत्समाभां ० उपपातकरोमा
उमा ख्याता उमा०
ऊर्ध्वं ब्रह्मांडतो वा
ऊर्ध्वाधः क्रमतः ०
ऊरू स्मरामि
प्याथाः पूर्वमुक्ता
ऋषिः शक्ति०
ऋषीणां ब्रह्मपुत्राणां
एकमेव परं ब्रह्म
एकमेव परं ब्रह्म
एकरूपा महारूपा
एका लिंगे करे तिस्र०
एकं खटवांगहरुतं
दि
एतत्तु हृदयं स्तोत्रं एवमाराधयेद्देवीं
एवं न्यासे कृते ०
एवं वर्णमयं
एवं स्वाममृतेश्वरी
कथयस्व महादेव
कनिष्ठिकानासिकां ० कपालखट्वांगधरा कपालिभपण
भु०प०८
भु० प० ३।
भु० स०६०।
भु० क्र०
पू० प०
भु०प्र० श० २।
भु० क्र०
भु० क्र० ल०स०स्तो०१६ |
भु० क्र०
१२८
भु० क्र०
१२८
भु० क्र०
१२०
भु० क्र०
१५१
पू० प०
६७
भु० प०
४५
रु० भु०स्तो०१८ । १०४
४०
३१
७७
१३३
५७
भु० हृ०१६ |
भु० प०८१|
भु० क्र०
भु०स्तो ० भु० तो ० ३४ |
भु० क्र०
भु० क्र०२३। भु० स्तो० १ ॥
भु० क्र०.७।
० १५१
एह्येहि देवदेवेशि
ऐं क्लीं सौः सततं •
ऐंदन्या कलयावतं •
पातु दक्षनेत्रं ओंकाररूपिणी ० भु०स०७४ | कटाक्षमोक्षाचरणो० भु० हृ०६।
कण्ठातिरिक्तगल
रु० भु०स्तो ० २२ ।
[ १६१
भु०स०३।
पू० प०
भु०स०१७ |
भु०स० १७१
पृष्ठम्
३२
५७
८२
१०८
.१४६
१०२
४०
१२६
१८
.२३
. १४२
७०
२
.६३
.७८
१०१
१०.४
७२
や
७३
७३
Page #196
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________________
१६२]
श्लोकानुक्रमणिका श्लोकांशः. संकेताक्षराणि पृष्ठम् लोकांशः. संकेताक्षराणि पृष्टम कमलाकामिनी भु०स० १२१ - ७३। गच्छन्तु ऋपयो० पू०प० . १०८... कर्णस्वर्णविलोल. भु.स्तो० ११ १. गजस्वगम्बरा० भु०प०६ .४० कणिकायां निधि० भु०प०३२। ३३ गजो मेपश्च महिपः भु० प०४३। ३.४ कपूरचूर्णहिसवारि० रु.भु०स्तो०८।१०३ गायत्री त्वं सावित्री० भु० अ०७। २४ कर्पूरागरकस्तरी भु० ऋ० १३० गायत्री पूजयेन् मन्त्री भु० प० २२॥ कर्पूरागरसंयुक्त भु०प०५०। ३५ गुदात्तु व्यंगुला० भु० ऋ० १२... - कपूरं कुमुदाकरं भु० स्तो०३११ ३५ गुरुंच गुरुपती व भु० क्र. ७ १०५-... कर्मणा मनसा पू० प०
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः पू० प० ॥ ४४ कराभ्यां बिभ्रतं भु० प० २५॥ ३३ गुल्लातिगुह्यगोत्री० - भु० ऋ० १२८ कल्पादौ.कमला० भु० स्तो० ३।
गुह्यातिगुह्यगोप्त्री० पू० प० ६ ७ क्लीं करौ त्रिपुरे० भु० ऋ० १० - ६६ घटार्गलमिदं यन्त्रं. भु० प०८ ७४ कवचं परमं पुण्यं भु०क्र०१६॥ ७१ घोररूपा घोरतेजा भु० स० २५॥ ... ७४ कादिर्दक्षिणतो. भु० स्तो० २४॥ १७ पञ्चन्मौक्तिकहेम० भ० स्थो०१ काननवृत्तद्व यक्षिः भु० क. १२२ चतुर्विशेषाचमोऽयं भु० क्र. ११६ कार्यसिद्धिकरी देवी भु० स०६४ ७७ चतुरष्टत्रिपभिश्च भु. क्र. . १०३ कालरूपा सूक्ष्म० भ० स० ५७७६ चन्द्रसूर्यसमा० भु० स० २शः ७४ कादिदक्षिणतो. भु० ऋ० १२६. चन्द्रादित्यौ च० भु० ऋ० १४६ कान्ति पुष्टिं० · भु० प०१०१, . ४३ चरणं पवित्रं०. भु० ऋ० ११८ कालान्तरी काल. · भु०अ०श०११। ८२ . चपकं तालवृन्तं च पू० प०. ६५. कालीकपालिनी. भु० स०१६। . ७३ चामरं चांशुक० .. भु० प. ४०1. . ३४ कुलीना कुलकन्या. भु० स०४११. ७५ चार्वगी चारुरूपा० भु० स० ३३. ७४ केपामपि त्रिदश०. ल०स०स्तो०६।
चित्यकाशं गुरु भु० ऋ० ११ १०५ कोटरी कोटराक्षी च भु० स०३६। ७५. चित्प्रकाशं गुरु भु० ऋ० . १३०. कोऽप्यचिन्त्यः भु० स्तो०४६। २६ चित्रं तदेतदमरैरपि ल० स० स्तो० ८।. . कोशेष्वष्टयुगार्ण भु०प०६७)
चित्तानन्दकरी देवी भु० स० ४७। ७६. की पातु नाभिदेशं०. भु० क्र. ६६६६ चितासंस्था. .. .. भु० स० ६१॥ ७६.: खड्गखेटकधारिण्यः भु० प०३७ ३४ चिन्तामणिनृसिंहा० भु० प० ५७ .३६. . खड्गचर्मधरं पापं पू०प०५॥ ५१ . चूडा चन्द्रकला भु० स्तो० ११ ११. . खड्गधारी सहारूपा भु.अ.श०१४। ८३ । चूतचम्पकजम्बूक भु० ० . १०६. गङ्गा काशी सती.. भु० स०२॥ . .७३ जगज्जनानन्दकरी०. भु. हृ०.६ १.०१.... गंगे च यमुने चैव पू. प० । ४८ जटिला केशवढाच भु०स० ८७ .७६. गंगे च यमुने चैव भु० क्र०
जयन्तु मातरः सर्वाः - भु०क्र० .१५२ : गंगे च यमुने चैव भु० क्र.
जयरूपा जयाख्या च . भु०स० ७॥ ....७८. गच्छ गच्छ परं० पृ० ५०
जयाख्या विजया ..... भु.प० १७. . . .३२. .
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्लोकांश : संकेताक्षराणि
जलमध्ये वह्निमध्ये जाग्रद्बोधसुधामयूख भु०स्तो०
जानामि धर्म न च
पू० प०
तृणैराच्छाद्य तं देशं भु०क्र० तृप्यन्तु पितरः सर्वे
भु०क्र०
त्वं कारणं च कार्यं च
भु० श्र० ६ |
त्वं कला त्वं कला ०
त्वं मातापितरौ
त्वं स्वाहा त्वं स्वधा०
त्व कौतुकं जननि
त्वत् तेजसि प्रलय ०
त्वत्तो ये सर्वदेवाः ०
त्वदालोकनमात्रेण
त्वमारस्त्वमभिज्या च
भु०स०६६।
त्वमौशि विष्णुश्च० माता च
त्वमेव
त्वमेव कर्ता करणस्य त्वयि तिष्ठति कलशे
भु० श्र० ८
भु० स्तो०
भु० श्र० ४ ॥ ल०स०स्तो. ३।
१०।
33
त्वामश्वत्थदलानु० त्वामाधारचतुर्दला० तत् किं गृणामि तद्गन्धघ्राणमात्रेण तत्वलक्षं जपेन् मन्त्रं
तन्निर्गतामृतरसैः०
तन्मे विश्वपथीन
तन्मातः कृपया. तस्यैक्यस्य तत्स्थां विद्युल्लताकारां
भु०क्र०
भु०क्र०
तत्स्वादौ च क्रिया० भु०क्र०
भु०क्र०
भु०क्रह
भु० श्र० ३।
भु०क्र०
भु०क्र०
भु०क्र०.
भु०क्र०. भु० स्तो० ५.
भु० स्तो० मा ल०स०स्तो १११,
भु०क्र०
भु०प० ७४ ।
रु०पु० स्तो०१० |
भु०स्तो० १६ । भु० स्तो० २० ।
ततः श्रीगुरुरूपाय
भु०क्र०
ततो जपन् महेशानी भु०क्र० तथा गोरोचनाद्यैश्च भु०स० १०३। तर्पणान्ते साधकेन्द्रो भु०क्र० तस्मान्नन्दनचारु० भु०स्तो० ११॥
लोकानुक्रमणिका
पृष्ठम्.
८०
२४
४६
१०८
१.२५
८४
८४
२४
८४
१३५
१३५
.८४
१५१
१५१
१.५१
१३५
५
७
३६
१०३
१२१
१३६
. १५०
११४
८०
लोकांश
तत्सारस्वत सार्वभौम०
तस्य गेहे च संस्थानं
११६
ह
तस्य त्वत्करुणा ०
तत् संयोगपद्वन्द्व
तस्य तुष्टा भवेद्०
तस्य सर्वम् भवेत्
तस्याज्ञया ०
तस्यै दिशे सततमं०
तारं दुर्गे युगं रक्षि०
तारं ह्रीं दुर्गायै नमः
तारं माया रमा
तिष्ठ तिष्ठ परे स्थाने
तिष्ठ तिष्ठ परे स्थाने
तीर्थानि पशवो गावो
द्वेष्टारः साधकाना०
१२
१५
दाद दिनेशाय १३५,१३६ ददाति धनमायुष्यं
दधानं रक्तया० दधिक्षौद्रघृताक्ताभिः दयास्फुरत्कोरक
द्वादशान्ते दुमध्य०
द्वाभ्यां समीक्षितु०
नाथ गुरो
[ १६३
संकेताक्षराणि पृष्ठम्
भु०स्तो०१८ |
भु०स० ६७
भु० स्तो० २२|
पृ० प०
दाक्षायणी दुर्गा
दातव्यः स्तवराजश्व दारिद्र्यं परमं प्राप्य दिव्यौघांव ०
भु०स० १०२
भु०स० ह भु० स्तो३८ ।
तीच्णदंष्ट्र महाकाय
तुलसी
तोतुला०
तं तमाप्नोति कृपया द्रव्यहीनं क्रियाहीनं
द्य मूर्धानं यस्य ०
पू०प०
द्वन्द्वंद्वन्द्वं स्वराणाम् भु०स्तो० भा० दृश्यते प्राणिभिः भु०प०६३।
भु०क्र०
भु०क्र३ १५१
भु०क्र० १४ ।
भु०क्र०१४। .
पू०प०
भु०क्र०
भु०क्र०
भु०क्र०
भु०स० ३२|
भु० अ० १२ ।
पू०प०
भु०क्र०
रु० भु०स्तो १७ |
पू०प०
भु०क्र०
भु०प० १४ ।
भु०ह० २०
भु०क्र० ११
भु०प०
भु०हृ० १२
भु०सं० ३१|
भु०स० ११०
भु०क० ३२
भु०प० ४१
१४
०५
१६
५१
८०
७६
२५
१०६.
६६
६६
६३
६६
१५२
१५२
११७
७४
P
३६
४८
१३
४१
१२२
१०४
५०
१३५
३२
१०२
१०५
४०
१०२
७४
८ १
७१
३४
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9
0
0
१६४ ]
__ श्लोकानुक्रमणिका श्लोकांशः संकेताक्षराणि पृष्ठम् । श्लोकांशः संकेताक्षराणि . पृष्ठम् देव्याः स्तवं ज्ञानमयं ल०स०स्तो०१८। | न विद्यते क्वापि तु. भुह. सा ... देवकी कृष्णमाता च । भु० स० २४ ७४ नश्यन्तु प्रेत. भु०क्र० .. ११२ ... देवदानवसंवादे भु०क्र. १३५ नक्षत्राणि ग्रहा. भु०० १२५ .. देव देव महादेव भु०स० ५। ७२ नात्यायत रचितमम्वु रु०भु०स्तो... देवमाता दितिर्दशा भु०स०.२८१ ७४ नानावेशधरा देवी भु०स०७१ : ७८ देवस्तव्या देवपूज्या भु०स० ८६।
नाभौ स्कन्धे गले० भु०क. १९२ . देवी दात्री च भोक्त्री पू०प०
नारायणी महादेवी भु००।०६। २ देवीं प्रागुक्तमार्गेण भु०प०६६। ३६ निजग्रामाद् बाहिरै . भु०क्र० ३०८...... देवेशि भक्तिसुलभे पू०प०
निर्मला विमला० भु०स० १३१७ ... देहस्याखिलदेवता भु०० .. १५१ नैवैद्य पदसोपेतं भु०क्र० . १४७. दौत्येन ते शिव इति ल०स०स्तो०७।
निष्कलीकृत्य हृदपे भु०क्र०१ ६ ध्यायेद् ब्रह्मादिकानां भु०हृ०
४ ०१ निशुम्भशुम्भमधिनी भु०स० ३८! . .७५ धनदांकसमारूढां भु०प० २६। ३३ प्रकाशमाना प्रथम० पू०प० . . . ४६ .. धर्मार्थकाममोक्षार्थ भु०क० १ ६६ प्रकाशाकाराहस्ता० भुक्र० . . .१४. . धर्माधर्महविर्दीप्तं भु०क्र. १४० प्रकाशैकघने धाम्नि भु०० : ..११... धरिणी धारिणी... भु०स० ४३। ७५ प्रचंडा चंडिका चंडा भु०स०६६। ७७ धारणं पोपणं त्वत्तो भुक्र० ११० प्रतिदिनापि कुर्यात् भु०० ... १२. धारयन्तं समारक्त. भु०प० २७. ३३ प्रथमोऽष्टालरो मन्त्रः भु०प०६६ . ४२ धारयेत परया० . भुल० १०४. ८० प्रभजेन्मन्त्रविन्मन्नं . भु०प० १३। . . ३४ धृतरक्कोत्पला . भु०प० ३१ . ३३ . प्रभो, श्रीभैरवश्रेष्ठ भु०अ०१ ८ ४ धूपदीपादिभिश्चैव . भु०स० १००। ८० . प्रस्तामृतरश्म्यौव भु०क...., १११ न्यस्तव्यं वदने । भु०प० १० ३२ प्रसन्नवदन शान्तं भु०क्र०:६। , . . १०५ नकुलीशोऽग्निसारुढो भु०प० १) .. ३१ । प्रशास्महे नमोवाक - भु०क० २।...१०५ नकुलीशोऽग्निमारूढो भु०० १२६ प्रसीदतु प्रेमरसाद.. भु०हृ० १७१ . १०२ न दातव्यं महेशानि भु०स० १०६.८१ प्रक्षाल्य पाणिचरणौ भु०क० १११ नन्दन्तु अणिमा० भु०क्र. .. १५२ . प्राक् प्रोक्तान्यपि भु०प० ६६ .४१ नन्दन्तु साधकाः० पू०प० . ६७ प्रातः प्रमृति सायान्तं पू०प०:....... ६६ नमस्ते नाथ भगवन् पू०प० ६॥ ४५ प्रातः प्रभृति सायान्तं पू०प० . . ४६ नमःश्रीपादुकान्ते तुः भुक्र० . .६१६ प्रातः प्रभृति सायान्तं भु०क्र० . . १०६ नमामि सद्गुरुं० पू०प० ।। ४४ प्राप्नोति देवदेवेशि भु०स० १०८ . .८० नमामि जगदाधारां भु०प०३. . . ८४ पृथ्ख्या जलेन० रु.भु०स्तो० ३। १०३ नमो विर . ल०स०स्तो. . . पृथ्वि,त्वया एता० पू०प० . . . . . . .५० - नर नारी नरपति भु०प० ६८ ., ३६ पृथ्वि त्वया. धृता. भु०क० . ....११७ भवाय नवरूपाय - पू०प० ७ .४५ पञ्चविंशति संजप्तं० मु०५१ ४६. . ३५ .
०
०
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________________
श्लोकानुक्रमणिका
[१६५ श्लोकांशः... संकेताक्षराणि पृष्ठम् । श्लोकांशः संकेताक्षराणि पृष्ठम् पनविंशति संजस्तैः० भु०प० ४८) ३५ ब्राह्मीधृतं पिबेजप्तं भु०प० ५७ . ३६ पशापाने दश करे भु०० १०८ ब्राह्मी नारायणी. भु०स० ॥ ७२ पश्चाशद्वर्णरूपां च पू०प०
ब्राहो मुहूर्ते चोत्थाय भु०क्र.
४ ०१ पत्रासद् वर्णभेदैः भु०० १२ १२५ नया स्वस्तिक. भु०स्तो० ११ १२ पममष्टदलं बाये
पू०प० पू०प० ६०
बन्धूकाभां त्रिनेत्रां भु०क० १२३ पभमष्टदलं नाले भु०प० १५ बालादित्यसमा० भु०स० ३१ पमनाभेन कविना भु०स्तो०भा० . २६ बिन्दुत्रिकोणं रस० पू०प० ६०० परावस्तरवरचैव भु०क.. .
निन्दु त्रिकोणं० भु०० .१३० पावजन्य महानाद भु०क.
बिन्दु त्रिकोणं० मु०प० १६॥ ३२ पाणिना रमणांकस्था भु०प० २८॥ ३३ विसतन्तुस्वरूपां पू०प० - ५ पाथोधिनाथतनया ल०स०स्तो० ३।
वीजायमासनं० " भु०प० १८.: ३३ . पार्वति शृणु वक्ष्या० भु०क० ३। ६८ वीजान्तः स्थिता० :: भु०प० १६॥ .. ३६. -- पाशांकुशवराभीति भु०प० ३१ ३४ बीजापूरगदेक्षु० भु०० - १४८ . . पीठान्यादौ प्रताथ भु०० ११६ बीजं व्याहृतिमि० भ०५० ५। ३७ पुण्यदा पुण्यरूपा च भु०स० २२। ७३ भक्तिप्रिया महादेवी भु०अ०श० ५। ८२ पुरस्तात् पार्श्वयोः० पू०प० १०॥
भगगीतमहाप्रीतिः भु०स० ८.१ ७८ पुरुषो दक्षिणे बाहौ भु०क० ३०
भगलिङ्गप्रमोदा च । भु०स० ७६ .७८ पुस्तकज्ञानमुद्रांकां भु००
भगवन् ब्रूहि तत् भुव्ह० । पुष्कलं विगलद्रत भु०प० ३०
भस्मस्नान पुरा० भु०० - पूज्यते सकलैर्देवैः . भु०प० ४६।
भाव्या भव्या भवा० भु०स० श ७६ पूज्याः पोडशपत्रेषु भु०प० ८०
भुवनपाला गगन० भु०प० ३४॥ पूजनं शृणु देवेशि भु०० १३० भुवनेश्याश्च देवेश भु०क. ११ पूर्णिमायां चतुर्दश्यां भु०हृ० २१।। १६२ भूतप्रेतपिशाचाश्च भु०प० १०६ :४३ पुराणी पुण्यरूपा च 'भु०अ०श० ॥ ८२ भूतप्रेतपिशाचाया भु०प० ११॥ ५ फेने गङ्गा स्थिता० : भु००
भूता प्रेता पिशाची० भु०स० ४४! . ५ . · ब्रह्महत्या शिरःस्कन्धं पू०प० ५ १ भूम्यासने यशोहानिः भु०क्र० ११७ ब्रह्महत्या शिरस्कं च भुक्र०
भूमौ शय्या भु०स्तो० ४३ . २७ ब्रह्मकेशवरुद्रायः . भु००
भूमौ स्खलित. ब्रह्माण्याचा स्तनौ भु०प०: ३२ भूर्जे लिखितमेत० भु०प० १०६।. . .४३, ब्रह्मांडखंडसम्भूतं भु०क. १३८
भैरवांकसमारूढा भु०प० ७७। . ४.. ब्रह्मांडोदरतीर्थानि भु०क. , .
भैरवी भयही च भु०स० १३॥ ७३ ब्रह्मादयो देवि० , ल०स०स्तो.
भो भो वहने महा. भु०क्र० . १४७ . ब्रह्मास्त्रादीनि भुक० ३१ .७१ . | मत्स्याशी मांस... - भुस० २६। .... ७४...
प्रासणान् वशयेत् । भु०प० ४७ . ३५. मध्यादि हस्ववीजा भु०प० ७, ... ३१
१२५
६८.
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________________
~
~
१४२
00 .. G
७
१६६ ]
श्लोकानुक्रमणिका श्लोकांशः संकेताक्षराणि पृष्ठम् । श्लोकांशः संकेताक्षराणि. पृष्ठम् । मध्यप्रदक्षिणो० भु०प० १६॥ २२ यत्र कुत्रापि पाठेन भु०६० २२११०२ मधुमत्ता माधविका भु०स० ५६॥
यतो जगजन्म० भ० हृ० १० - १०२ . मन्त्रहीन क्रिया० भु०म०
यद्दत्तं भक्तिमात्रेण पू०प० ६॥ . ." मन्त्रन्यासं ततः भु०प० ।
यहाल्णात् परमिदं ल०स०स्तो० १३।। मन्त्रेणानेन संजप्तं भु०प० ८२।
यदक्षरपरिभ्रष्टं पृ०प० मन्दारं वेष्टयित्वा० भु०क १३६ यदाज्ञयेदं गगना० भुव्हः १ . .. .... . मर्नु यदीयं हर० भ०हृ० १६॥
यदानुरागानुगता० भु०ह० १४ १०२ महती देवहानिश्च भुक्र० ११७ यदि मेऽनुग्रहः कार्यः भु०० २! .. १०६.. महापद्मवनान्तस्थे भु०००
यन्त्रं देवमयं प्रोक्त भुक० : ३० . . महाभयप्रदात्री च भु०स० १८
यन्त्रमित्याहुरेतस्मिन् भु०क० ३ ३ . . महामाया मुक्त० भू०स० १०
यन्त्र दिनेशगुणितं भु०प० ५८ ३७ . . महामाया महा भु०स०५१
यन्मया क्रियते कर्य पू०प० .. महारतिर्महाशक्तिः भु०प्र०स० ३। २ यन्मात्राविन्दुविन्दु · भु०स्तो०मा० .. ३०... महासम्मोहिनी देवी मु००श० । ८२ यन्माहिपं वपुरपूर्व ल०स०स्तो० ४ महासिंहासनस्था च भु०स० ३४ .७४ यमुना यामुना० भु०स० १५॥ . . ३८ ., . महिषमर्दिनी स्वाहा भु०क० ८७० यस्वां ध्यायति . भु०स्तो० ३.१ . . २१ ।। मातदेहमृतामहो भु०स्तो० ४... यस्त्वांविp मपल्लव० भु०स्तो० २८ .. मातर्मातृकयाविदर्भि० भु०स्तो० १७१
यःपठेत् प्रातल्याय भु०स० ६३ ७६ , मातः पातकनाल भु०स्तो०६
या काचिद्योगिनी० भुक्र०१८ मातःश्रीभगमालि०. भु०स्तो० ३० २१ . या नित्या प्रकृति० भु०स० ४ .७२ मान्या, मानप्रिया० भु०स० ७६। । या सुधा सा उमा०. भु०० १३६ मायान्ततत्वे सदहं० भु०० ४० युद्ध बहून् रिपून्० भु०प० १०७) . - ४३.. माया पद्मवती० मु०क० १६॥ ७० . युवती युवतीरूपा भु०स० ३६७४ । साया बीजविदर्भितं भु०स्तो० २७१, । ये अाम्नायविशुद्धाश्च भु०क्र० . १५२ , माया बीजादिका० भु०क०.१६॥
। ये जानन्ति जपन्ति भु०स्तो० २६॥ १८ मिथुनानि यजेन्० भु०प० ७६।
ये निन्दकास्ते० भुक्र० . १५३ . मुदा.सुपाठ्यं० . भुल्ह० ।
१०२ ये ये चापधियः० भु०० १५३ ।। मूलशक्तिदृढत्वेन पू०प०
येषां परं
भु०स्तो० ३६॥ २६ : मूलादिब्रह्मरन्धान्तं मु००
१०६ योगिनी योगरूपा च भु०स० ६२ . ७७ .: मूलाधारे मूल० पू०प० .
यो धूम्रलोचन इति ल०स०स्तो० ० . . . य इदं भुवनेश्वर्याः भु०सह ११११ योऽस्मिन् क्षेत्रे निवा० भु०० .. ११६....। यजेत सरस्वती भु०प० २४१ ३३ . रका करालिका मु०प०६। ३१ यत्कर्म धर्मनिलयं ले०स०स्तो० 11
रक्ताम्भोधित्य० भ०० . १२१ : यत्र तत्र पठित्वा च भु०स०.६४ ७६ .. रकाक्षी रक्तवत्रा च मु० स० १॥ - : :७३ :
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D
६६
GG
श्लोकानुक्रमणिका. .
[ १६७ .. श्लोकांशः . संकेताक्षराणि पृष्ठम् । श्लोकांशः संकेताक्षराणि पृष्ठम्, रज्यते सकलैलोकैः भु०प० ६२१ ४१ वाग्बीजपुटिता माया. भु०प० ७१। ३६ . रणे राजकुले चापि : भु०स० १०५ ८०
वाग्बीजं भुवनेश्वरी भु०स्तो १६ .. १४ रखांकं स्वर्ण कोटिं च भुक्र० ११५ वाग्भवं शम्भुवनिता भु०० १२६ . रविलक्षं जपेन् मन्त्रं भु०प० ६५॥
वाग्भवं शम्भुवनिता भु०प०.६२ . ३८ . . रसज्ञा रसना जिह्वा भु०स० ६॥ ७७ वाङमया कमला० भु०० ६२। ११६ . राज्यश्रियमवाप्नोति भु०प० ७०।
वाणीवीजमिदं भु०स्तो० १३ १.० . . राजवृक्षसमुद्भूतैः भु०प० ६५॥ ४१ वाणी च निवसेन० भु०क्र०.२८) राजानं वशयेत् सद्यः भु०प०६४।
| वामकर्णं सदा पातु भु०क० ८ राजिनी रंजिनी० । भु०स०५४। ७६ वाममूले वामदेवो . भु०क्र० रुद्राणी रुद्रभक्ता० भुस०७। .
वामे करे तदितरे च ल०स०स्तो० १२॥ लज्जाशीला साधु० भु०स० ४० . ७५ वामेन पूरकं कृत्वा पू०प० ... लसन्मुखाम्भोरुह० ; भु०हृ० १३। १०३ विद्यास्तम्भं जलस्त० भु०स० १०६। ८० लक्ष्मीप्रदा महा० । भु०स० ७२।
विनासनेन मन्त्रज्ञः भु० क्र. ११६ लाक्षया ताम्ररजत०. भु०प० १०३।
विमुक्तिसाधनं पुंसां भु०क्र० लिखित्वा भस्मना० भु०प० ५४
वीणावाद्यविनोद.. भु०क० लिखित्वा भूर्जपत्रा० भु०प० १०१।
वेदवेदांगरूपा च भु०अ०२० १०। ८२ . .. लिखेत् सरोज रस० भु०प० ११५॥
वेदानां प्रणवो बीजं भु०क्र० लेखप्रस्तुतवेद्य० भु०स्तो० ६।
वेदानां प्रणवो बीजं पु०प० लेखाभिस्तुहिन० भु०स्तो० २१। १६ देणवे बलहानि० भु०क? ११७ व्योमेन्द्रौरसनार्ण० पू०प० ५४. वैष्णवी विष्णुभक्ता० भु०स० ५१ . ७६ ग्रतेन हीनोऽप्यन० भु०स्तो०४५ २८ शृणु देवि प्रवक्ष्यामि भु०ह०.३।। वज्रशक्तिर्महाशक्तिः भु०प०श० १३॥
श्रिया गणपतिं भु०प० ।। ३१ वज्रशक्तिस्तथा दंडः भु०प० ४४। ३४. श्रीगुरुं परमानन्दं पू०प० २। ४४ . पत्रांकिते वह्निः भु०प० १० .४३
श्रीबीजं सकला० भु०स्तो० २८ १६ वत्स तुभ्यं मया० . भु०क०
श्रीमृत्युजयनामधेय भु०स्तो० ३३॥ २३ वनस्पतिरसोत्पन्नो पू०प० ६ १ श्रीशम्भुनाथ भु०स्तो० ४०। २२ . वर्तुं लेन भवेद् भु०० १ ३ श्रीसिद्धिनाथ भु०स्तो० ३७। २५ परपाशांकुशा भु०प० २ । ३२ श्रीसिद्धिनाथ० ल०स०स्तो. वरांकुशौ पाशमभीति भु०प० ८६। ४ श्रीसिथापर० ल०स०स्तो० १७ वशयेत् सकलान्० भु०प० १ २ . ४३ श्रुतिसुचरितपार्क रु.भु०स्तो० ११ १०४ वशं नयति राजानं . भु०प० ५२। ३५ श्रौण्यौ स्तनौ च० रु०भु०स्तो० १६१ १०४ वक्ष्ये प्रत्याहिकं कर्म भु०क्र. १०८ श्मशानवासिनी० भु०स० ३७ ७५ वाक् त्रिपुरा त्रिवर्णा · भु०क० ६ ६६ श्मशाने प्रान्तरे दुर्गे भु०स० १४। १४ वासिद्धिमेव .. भु०स्तो० ४२। २७ श्मशाने प्रान्तरे० भु०स०:१८ ८ ०
३५
१३३
m
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--------------------------------------------------------------------------
________________
१६८ ]
संकेताक्षराणि
श्यामांगीं शशिशेखरां भु०५० ७३ |
स्ताविकं विना ०
श्लोकांश:
शक्त्यन्तः स्थित०
शक्ति वरं गदां घंटां भु०क्र०
शत्रवो नाशमायान्तु
भु१क्र०
शाहरी शाम्भवी०
भु०स० ४५!
शालिपिष्टमयीं
भु०० ५१|
शास्त्रार्था शास्त्रवादा० भु०स० ६८।
शिवदा शिववक्षःस्या सु०स० ३१|
शिरखात्मा महा० शिर्ष सर्वत्र मे वास्तु शिवः स्वयं त्वमेवा० शुक्रस्या शुक्रिfro
शुभा मे दिवसा०
षट्कोणेषु यजेन्मन्त्री
पातं गणनाथस्य पदीर्घयुक्तबीजेन पदीर्मयुक्तवीजेन
भु०क्र०
भु०प० १५१
पटिसंख्या समारभ्य
सणिपाशधरं ०
श्रीभेदा प्रा.
भु०क्र०
शूलिनीशूलहस्ताच भु०स० ८
भु०प० २१|
पू०५० ७०१
भु०प० ६३३
भु०प० ४ |
भु०क्र०.
स्तम्भनं चतुरश्रं व
स्तम्भनं चतुरश्रं च
स्वता देवता स्तुत्या
स्तोत्रपाठ देवता ०
स्थावरा जङ्गमा० स्पात् पूर्वमदना
सृष्टिस्थितिकरा०
स्वतन्त्राय दया०
स्वप्रकाशविम०
भु०क्र०
भु०क्र०
भु०क्र०
भु०स० दश
भु०प०२६।:
भु०स० ६५।
भु०क्र०
भु०क्र०
भु०क्र०
भु००
भु०स० ७७१
भु०प० ३६|
भु०स० ६०१
पू०प०
भु०क्र० ३।
स्वयम्भूः पुरुषरूपा० भु०स० ८१
स्वाद व संस्थितः० स्वाहा वरी
भु०क्र०
शु०क० २१|
श्लोकानुक्रमणिका
पृष्टम्
३६
११७
*
१४३
१५३
७५
३५
७७
७५
११३
१५१
१३२
७८
१५२
७६
२२
४७
३८
३१
११६
३३
७७
१२६
१५०
૧૨૧
११६
७८
૪
७६
४५
१०५
७८
१३.६
७०
श्लोकांश:
सकारेण बहिर्यान्तं
सख्यः स्मरस्य
सदानन्दा सदा०
समस्तचक्रचक्रेशी
समुद्रमेखले देवि
समुद्रमेखले देवि
समुदे मध्यमाने तु सर्गद्वयपुटान्तस्था
सप्तमा त्रिगुणा •
सम्पूज्य विधिवज्ज.
सर्वशक्तिर्महाशक्तिः
सर्वपीठमयी देवी
सर्वदेवमयी देवी
सर्वपापप्रशमनं
सर्वभूतमयी देवी सर्वमङ्गलसंयुक्ते
सर्वसम्पत्प्रदं स्तोत्रं सर्वशा सर्वकार्या च
सर्वे सिद्धीश्वराः सन्तः
सरस्वती श्रीदुर्गापा सर्वेषामपि देवानां
सर्वेषां चन्द्रदं यंत्रं
सर्व कथितं देव
सहस्रमात्मने दधात्
सावित्र्या सहितं०
सिद्धयो वशगास्तत्य
संकेताक्षराणि पृष्ठम्
भु०क्र०
१०७
रु०सु०स्तो० २० । १०४
७६
४८
सिद्धिविद्यामयं देवि
सिन्दूरारुणविग्रहां० प्रकाशो महादीपः
सुरतरुवरकान्तं सुप्रकाश महादीप
भु०स० 8el
पू०प०
भु०क्र०
पू०पं०
भु०क्र०
• भु०क्र०
मु०प्र० श० ७/
भु०स०] १०११:
भु०प्र० श० १५१
भु०स० ८३|
भु०स० ५३|
भु०प्र० श० १० |
भु०स० १८.
भु०स० ६६।
भु० अ० १३ |
भु०स० ह
भु०क० २६|
भु०प० ३६|
भु०क्र०
भु०प० १११ |
सत्त्रियमनुसृत्य सव्यांसे पार्श्व युगले भु०प० ११| सहस्रचन्द्रार्कसमा० ल०स०स्तो ०
पू०प०
भु०क्र०
भु०क०
भु०प०८
भु० श्र० १० १ भु०क० ४।
मु०प० ६४ | पू०प०
भु०स० ११२
मु०क्र०
१०८
१३१
१३५
१४०,
८२
८०
:=1
७६
७६
८६
७४
༢༠
ㄐㄨ
७६
७०
૨૪
१३.१
४३
१३०
११०
३२
४७
३१.
८४
६८
३८
६२
६ १
१४७
१४१
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________________
9 m
m ०
9 ०
६२ .
०
४
श्लोकानुक्रमणिका
१६६ ] श्लोकांशः संकेताक्षराणि पृष्ठम् । श्लोकांशः संकेताक्षराणि पृष्ठम् सुषुप्तिकाले जन० भु०हृ० ११ १०२ हां हां हूं हूं तथा० भु०स० २०॥ सूर्यमण्डलसम्भूते पू०प०
हुत्वा वशीकरोत्याशु भु०प० ६६। ३६ सूर्यमण्डलसम्भूते भु०क. १३३ हुंक्षे ही फट महा० भु०क० २२ सोऽहं त्वत्करुणा० भु०स्तो० ।।
हेमपात्रगतं दिव्यं पू०प० संवत्सरकृतायास्तु भु०० २७।
हेरम्ब क्षेत्रपालं च भु०क्र० १०६ संविन्मये परे देवि भु००
हैमी हा हेमरूपा भु०स० ३२।। संस्पृश्य तजपेन् मंत्रं भु०प० १०४
हंसैगतिक्वणित० रु०भु०स्तो० १६। १०४ संसारयात्रामनुवर्त० पू०प०
क्षमस्व देवदेवेशि पू० प० हरुलेखाविहिते पीठे भु०प० ७॥
क्षेमङ्करी शङ्करी च भु०स० ७८। हरलेखाविहिते पीठे भु०प० ६६।
त्रयोदशार्णा ताराद्या भु०क० २०। ७. हृल्लेखाथा यजेदादौ भु०प० ६० ११ त्रिपुरा परमेशानि भु०स० ८ ७२ हल्लेखाचाः सम० पू०प०
निरुन्मृज्य सकृत् भु०क० ११३ ११३ ही गौरि रुद्रदयिते भु०प० १०० ४२ त्रिसहस्र जपेन्मन्त्रं भु०प० ५३। ३५ हीं पातु गुपदेशं मे भु०क्र० १२।
त्रिस्रोतसःसक० रु०भु०स्तो० ४। १०३ हरिविरिचिहर० भु०४० १५ १०२ त्रैलोक्यमङ्गलस्यास्य भु०क. श हरौ प्रसुप्ते भुवन० भु०० ७।
त्रैलोक्यचैतन्यमये पू०प० हविष्यभुग जपेन्० भु०प० ८७)
त्रैलोक्यमङ्गलं नाम भु०क० २। हविष्या च हवि० भु०स० ३०॥
ज्ञानतोऽज्ञानतो वापि भु०० इसन्ती शिवसंगेन भु०स० ४२।
। ज्ञानिनां ज्ञानरूपाय पू०प० ।।
३६
०
16
१०१
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राजस्थान पुरातन ग्रन्थ-माला प्रधान सम्पादक पुरातत्त्वाचार्य मुनि श्री जिनविजयजी
प्रकाशित ग्रन्थ
१-संस्कृतग्रन्थाः १. प्रमाणमञ्जरी, तार्किकचूडामणि सर्वदेवाचार्यकृता, सम्पादक-मीमांसान्यायकेसरी पं० पट्टाभिराम___शास्त्री, विद्यासागर ।
मूल्य-६:०० २. यन्त्रराजरचना, महाराजा-सवाई-जयसिंह-कारिता सम्पादक-स्व. पं० . केदारनाथ . . ज्योतिर्वित ।
मूल्य-१:७५ . . ३. महर्षिकुलवैभवम्, स्व. पं० मधुसूदन अोझा प्रणीत, सम्पादक-म० म० पं० गिरिधर . . . . . शर्मा चतुर्वेदी।
मूल्य-१७५ : ४. तर्कसंग्रह, अन्नम्भकृत, सम्पादक -डॉ. जितेन्द्र जेटली, एम. ए., पी-एच. डी., 'मूल्य-३.०० ५. कारकसंबंधोद्योत, पं० रभसनन्दिरचित सम्पादक-डा. हरिप्रसाद शास्त्री, एम. ए., . . . . . पी-एच. डी,
मूल्य-१७५ ६. वृत्तिदीपिका, मौनिकृष्णभट्ट, सम्पादक -स्व. पं० पुरुषोत्तमशर्मा चतुर्वेदी, साहित्याचार्य । :.
. ... मूल्य-२००.. ७. शब्दरत्नप्रदीप, अज्ञातकर्तृक, सम्पादक-डॉ० हरिप्रसाद शास्त्री, एम. ए., पी-एच. डी.,। .
मूल्य-२०० ८. कृष्णगीति, कवि-सोमनाथकृत, सम्पादिका-डॉ. प्रियवाला शाह, एम. ए., पी-एच डी., डी. लिट् ।
मूल्य-१:७५ ६. नृत्तसंग्रह, अज्ञातकर्तृक, सम्पादिका-डॉ. प्रियबाला शाह, एम. ए., पी-एच.डी., डी. लिट्. ।
मूल्य-१७५ १०. शृङ्गारहारावली, श्री हर्पकवि-रचित, सम्पादिका-डॉ. प्रियबाला शाह, एम. ए., पी-एच. डी., डी. लिट्. । .
मूल्य-२७५ ११. राजविनोद महाकाव्य. महाकवि-उदयराजरचित, सम्पादक-पं. श्री गोपालनारायण बहुरा,
एम. ए., उप-सञ्चालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर। - मूल्य-२२५ १२. चक्रपाणिविजयमहाकाव्य, भह लक्ष्मीधर विरचित, सम्पादक-केशवराम. काशीराम शास्त्री ।
१३. नृत्यरत्नकोप (प्रथम भाग), महाराणा कुम्भकर्ण-घिरचित, सम्पादक-प्रो. रसिकलाल । ___ छोटालाल परिख तथा डॉ. प्रियवाला शाह, एम. ए., पी-एच. डी., डी. लिट् । मूल्य-३७५ १४. उक्लिरत्नाकर, साधुसुन्दर गणि-विरचित; सम्पादक-पुरातत्वाचार्य श्री जिनविजय मुनि। . सम्मान्य सञ्चालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्टान, जोधपुर।
मूल्य-४.७५ १५. दुर्गापुप्पाञ्जलि, म०म० पं० दुर्गाप्रसादद्विवेदीकृत, सम्पादक-पं० गङ्गाधर द्विवेदी, साहित्याचार्य।
___ मूल्य-४२५ १६. कर्णकुतूहल, महाकवि भोलानाथविरचित, सम्पादक-०पं श्रीगोपालनारायण बहुरा, एम.ए.,
उपसञ्चालक-राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर । इसी ग्रन्थकार की अपर कृति श्रीकृष्णालीलामृत सहित ।
मूल्य-१.५०
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२२
१७. ईश्वरविलासमहाकाव्यम्, कविकलानिधि श्रीकृष्ण भट्ट विरचित, सम्पादक-श्रीमथुरानार्थ शास्त्री, साहित्याचार्य, जयपुर ।
मूल्य-११५० १८. रसदीविका, कवि विद्याराम प्रणीत, सम्पादक-पं० श्रीगोपालनारायण बहुरा, उपसञ्चालकराजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान. जोधपुर ।
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मूल्य-१२००
___ भाग २ मूल्य-८२५ २२, वस्तुरत्नकोष, अज्ञातकर्तृक । सम्पादिका-डॉ. प्रियवाला शाह। मूल्य-४०० २३. दशकण्ठवधम् पं० दुर्गाप्रसादद्विवेदी कृत; सम्पादक-पं० गङ्गाधर द्विवेदी मूल्य-४०० २५. श्रीभुवनेश्वरीमहास्तोत्रम्, पृथ्वीधराचार्यविरचित, कवि पद्मनाभकृत भाष्य सहित स०-५० श्री गोपालनारायण बहुरा, एम. ए. उपसञ्चालक-राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान :जोधपुर ।
मूल्य-३७५ राजस्थानी और हिन्दी २५. कान्हड़दे प्रबन्ध, महाकवि पमनाभ विरचित, सम्पादक - प्रो० के० वी० व्यास, एम. ए. ।
मूल्य-१२२५ २६. क्यांमखां रासा, कविवर जानरचित, सम्पादक- डा. दशरथ शर्मा, श्री अगरचन्दजी श्री भंवरलालजी नाहटा।
मूल्य-४७५ २७. लावा रासा, चारण कविया गोपालदान विरचित, सम्पादक- श्री महताबचन्द खारैड ।
मूल्य-२७५ २८. बांकीदासरी ख्यात, कविवर बांकीदासकृत, सम्पादक-श्री नरोत्तमदासकृत स्वामी, एम. ए.
मूल्य-५५० २६. राजस्थानी साहित्य संग्रह भाग १, सम्पादक श्री नरोत्तमदास स्वामी, एम. ए.।
मूल्य-२२५ ३०. कवीन्द्र कल्पलता, कवीन्द्राचार्य सरस्वती विरचित, सम्पादिका-श्रीमती रानी लक्ष्मीकुमारी चूंडावत।
मूल्य-१७५ ३१. जुगलविलास, महाराज पृथ्वीसिंहकृत; सम्पादिका श्रीमती रानी लक्ष्मीकुमारी चूंडावत।
मूल्य-१७५ ३२. भगतमाल, ब्रह्मदासजी चारणकृत, सम्पादक-श्री उदेराज. उज्वल । मूल्य-१ ७५ ३३. राजस्थान पुरातत्व मन्दिर के हस्तलिखित ग्रन्थों की सूची भाग १। मूल्य-७.५० ३४. मुहतानणसीरी ख्यात, भाग१ । मुंहता नैणसीकृत; सम्पादक-श्री बदरीप्रसाद साकरिया ।
. मूल्य-१० ३५. रघुवरजसप्रकास, किसनाजी पाढा कृत, सम्पादक-श्री सीताराम लालस। मूल्य-८२५ ३६. राजस्थानी हस्तलिखित ग्रन्थ सूची भाग २, सम्पादक-श्री मुनि जिनविजयजी ।
मूल्य-४,५० . ३७. वीरवाण, ढाढी बादर कृत, सम्पादिका-श्रीमती रानी लक्ष्मीकुमारी चूंडावत । मूल्य-४.५०
३८. राजस्थानी साहित्य संग्रह भाग २। सम्पादक-श्री पुरुषोत्तमलाल मेनारिया, एम. ए, . साहित्यरत्न ।
मूल्य-२५०
.
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(३)
प्रेसों में छप रहे ग्रन्ध ...... संस्कृत ग्रन्थ १. शकुनप्रदीप, लावण्य शर्मरचित सम्पादक-मुनि श्रीजिनविजय। . २. त्रिपुराभारती लघुस्तव, धर्माचार्यप्रणीत सम्पादक-मुनि श्रीजिनविजय . . ३. करुणामृतप्रपा, ठक्कर सोमेश्वरविनिर्मित सम्पादक-मुनि श्रीजिनविजय । . ४. बालशिक्षाव्याकरण, ठक्कुर संग्रामसिंहरचित सम्पादक-मुनि श्रीजिनविजय ५, पदार्थरत्नमंजूषा, पं. कृष्णमिश्र विरचित सम्पादक-मुनि श्रीजिनविजय । ३. वसन्तविलास फागु, अज्ञातकर्तृक, सम्पादक-श्री एम० सी० मोदी। ७. नन्दोपाख्यान, अज्ञातकर्तृक, सम्पादक-श्री बी. जे. सांडेसरा। ८. चान्द्रव्याकरण, प्राचार्य चन्द्रगोमिविरचित, सम्पादक-श्री. बी. ग. जोशी । ६. वृत्तजातिसमुच्चय कवि विरहारचित, सम्पादक-श्री एच. डी. वेलणकर । १०. कवि दर्पण, अज्ञातकर्तृक, ११. स्वयंभूछन्द, कवि स्वयंभूरचित १२. प्रास्तानन्द, रघुनाथ कवि रचित, सम्पादक-मुनि श्री जिनविजय । १३. कविकौस्तुभ, पं० रघुनाथ रचित, सम्पादक-श्री एम० एन० गोरी। १४ नृत्यरत्नकोश भाग २, महाराणा कुम्भा प्रणीत सम्पादिका-डॉ. प्रियवाला शाह । . २५. इन्द्रप्रस्थप्रबन्ध, सम्पादक-डॉ० दशरथ शर्मा दिल्ली विश्वविद्यालय ।। १६. हम्मीरमहाकाव्यम्,नयचन्द्रसूरिकृत, सम्पादक-मुनि श्री जिनविजय । १७. रत्नपरीक्षादि, ठक्कुर फेरू रचित, ., . , , , , । १७. स्थूलिभद्रकाकादि, सम्पादक-डॉ. आत्माराम जाजोदिया । १६. वासवदत्ता, सुनन्धु कृता, सम्पादक-डॉ. जयदेव मोहनलाल शुक्ल .. २०. घटसर्परादि, ,, पं० अमृतलाल मोहनलाल । ११. भुवनदीपक, यावनाचार्यकृत, सम्पादक-पं० पुरुषोत्तम भट्ट। राजस्थानी और हिन्दी ग्रन्थ २२, मुहता नैणसीरी ख्यात, भाग २, मुंहता नैणसीकृत, सम्पादक-श्री बदरीप्रसादजी साकरिया । २३. गोरा बादल पदमिणी चऊपई, कवि हेमरतन कृत, सम्पादक-श्री उदयसिंह भटनागर । २४ राजस्थान में संस्कृत साहित्य की खोज, भार० एस० भण्डारकर, हिन्दी अनुवादक-श्री
ब्रह्मदत्त त्रिवेदी एम. ए. । २५ राठोड़ारी वंशावली, सम्पादक-मुनि श्री जिनविजय। . . २६. सचित्र राजस्थानी भाषासाहित्य ग्रन्थसूची, सम्पादक-मुनि श्री जिनविजय । ६७. मीरां वृहत् पदावली, स्व. पुरोहित हरिनारायणजी विद्याभूषण द्वारा संकलित,
सम्पादक-मुनि श्री जिनविजयजी। २८. राजस्थानी साहित्य संग्रह, भाग ३, सम्पादक-श्री लक्ष्मीनारायण गोस्वामी । ... २६. सूरजप्रकाश, कविया करणीदान कृत, सम्पादक-श्री सीताराम लालस । ३०. विद्याभूपणग्रन्थसूची, सम्पादक-श्री गोपालनारायणजी बहुरा. और श्री लक्ष्मीनारायण , - गोस्वामी। ३१. नेहतरङ्ग, बुधसिंह हाड़ा कृत, सम्पादक-श्री रामप्रसाद दाधीच ।
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