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॥ श्रीः ॥ प्रास्ताविक परिचय श्रीभुवनेश्वरी' महास्तोत्र भगवती आद्याशक्ति का स्तवन है। यह समस्त विश्वप्रपंच भुवनों से व्याप्त है। भुवनों की अधिष्ठात्री श्राद्याशक्ति ही भुवनेश्वरी है जो अव्यय, अक्षर और क्षर के त्रिपुर की आधारशक्ति है। त्रिपुर में ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, अग्नि और सोम इन पांचों की समष्टि होने के कारण इसे पञ्चपत्नी सी कहते हैं।
शब्दावच्छिन्न ज्ञान का नाम वेद है और विषयावच्छिन्न ज्ञान ब्रह्म कहलाता है। शब्द और विषय दोनों सामान्य ज्ञान करा कर लीन हो जाते हैं। यही सामान्य ज्ञान अनुभूति द्वारा विशेष भाव को प्राप्त होता है और आत्मा में खचित हो जाता है। वैज्ञानिक परिभाषा से इस ज्ञान को विद्या कहते हैं। इस अनुभवजन्य ज्ञान की सम्प्राप्ति और विकास की आधारसूत शक्ति ही भुवनेश्वरी महाविद्या है।
भवनेश्वरी ही सरस्वती हैं। सरस्वती को वाणी और वाक कहते हैं।' वाक्तत्व से प्रादुर्भूत शब्दप्रपञ्च से कोई भी स्थान खाली नहीं है। इसीलिए ये सब भुवन और त्रिलोकी वाड्मय कहलाते हैं।
वाक का अर्थ प्रायः बोली अथवा वाणी होता है। परन्तु यह शब्द, आवाज़ अथवा ध्वनि का भी द्योतक है। अचेतन पदार्थों से उत्पन्न होने वाला शब्द भी इसी के अन्तर्गत ग्रहण किया जाता है। अर्थ विषय अथवा वस्तु को कहेंगे, समके हुए अर्थ को प्रत्यय कहते हैं।
१. शिवाविनाभूतशक्तिः स्वतन्त्रा निरुपलवा । समस्तं व्याप्य भुवनमीष्टे तेनेश्वरी मता ।। २. भवतीति भुवनं चराचरं जगत् । अथवा, भवत्यस्मादिति भुवनम् । ... ३. वाग वै सरस्वती। शतपथ ब्रा० २।१४।६, ३।६।११७ ४. क. अथो वागेवेदं सर्वम् । ऐतरेय श्रारण्यक ३११६ । ख. वाचं देवा उपजीवन्ति विश्वे .
वाचं गन्धर्चाः पशवो मनुष्याः । वाचीमा विश्वा भुवनान्यर्पिता
सा नो हवं जुपतामिन्द्रपत्नी ॥ तैत्ति० ब्रा० २।८ ।। ग. अनादिनिधना नित्या वागुत्सृष्टा स्वयम्भुवा । . . आदौ वेदमयी दिव्या यतः सर्वाः प्रवृत्तयः ।। सहा. भा०शा० प० ३१वाँ अध्याय ।