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________________ बाक के चार भेद है।' वैदिकों के मत से भू, भुवः, स्व और ओंकाररूप (प्रणव) इन चारों के अन्तर्गत समस्त वाङ्मय परिमित है। वैयाकरणों का कहना है कि नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपात इन चारों से समस्त शब्दजाल परिच्छिन्न है। नाम द्रव्यप्रधान है, आख्यात क्रियाप्रधान है, आख्यात पद से पूर्व प्रयुक्त होने वाला पद उपसर्गसंज्ञक है और ऊंचे नीचे अर्थो में पतनशील शब्द निपात कहलाते हैं। इस प्रकार अखण्ड ( समस्त ) वाक् की व्याकृति होने से उसके चार प्रकार हुए। पहले वाक् अथवा वाणी का स्वरूप अव्याकृत था। इन्द्र ने बीच में अवक्रमण कर इसे व्याकृत किया । इसीलिए इले व्याकृतवाक् कहते हैं । ज्ञानमूर्ति प्रकाशात्मक तत्व ही इन्द्र है जिसके आलोक में शब्द के तत्तदर्थ भासित होते हैं। इसीलिए इन्द्र को वाक भी कहते हैं। वाक् का व्याकरण ही जगत् का विकास है। यह समस्त शब्दप्रपञ्च वाक्तत्वात्मक है। इन्द्र इस तत्व का संग्राहक है। अाकाश अथवा शून्य से जब संचरणशील वायु का आघट्टन अथवा संघर्षण होता है तव . शब्द उत्पन्न होता है। आरम्भ में इस शब्द की अव्याकृत अवस्था ही रहती है। ज्ञानमूर्ति इन्द्र के आलोक में इसका विभक्तीकरण होता है। .. याज्ञिकों का मत है कि मन्त्र, कल्प, ब्राह्मण और लौकिकी नाम से दान के चार भेद हैं। अनुष्ठेय अर्थ का प्रकाशक वेदाग मन्त्र कहलाता है, अर्थात् हमारे इष्ट को प्रकाश में लाने वाली वैदिक ऋचाएं मन्त्र हैं। मन्त्रविधान के प्रति १. क. चत्वारि वाक्परिमिता पदानि तानि विदुर्ब्राह्मणा ये मनीषिणः । गुहा त्रीणि निहिता नेगयन्ति तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति ।। ऋग्वेदः ।। ... ख. वैखरी शब्दनिष्पत्तिमध्यमा श्रुतिगोचरा । उद्यतार्था च पश्यन्ती सूक्ष्मा वागनपायिनी ।। सैवोरः कण्ठतालुस्था शिरोबाणहृदि स्थिता । ... जिह्वामूलोष्टनित्यूता सर्ववर्ण परिग्रहा ॥ शब्दप्रपञ्चजननी श्रोत्रग्राह्या तु वैखरी ।। वाचस्पत्यम् ।। .. २. क. वाग वै पराची अव्याकृतावदत । तामिन्द्रो मध्यतोऽवक्रम्य व्याकरोत् । तस्मादियं व्याकृता वागुच्यते ॥ . . . . ख. अन्याकृता हि परमा प्रकृतिस्त्वमाद्या । मार्कण्डेय पु० । ३. क. इन्द्रो वागित्याहुः । शतपथ ब्रा० शट' ख, अथ य इन्द्रस्सा वाक् । जैमिनीय उप० ११३३१२ ग. वाग वा इन्द्रः । कौपी. उप० २१७११३१५ ४. व्याकरणं शास्त्रभेदे, नामरूपे, जगतो विकासने च । वाचस्पत्यम्, पृष्ठ ४६८६ ।
SR No.010619
Book TitleBhuvaneshvari Mahastotram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay, Gopalnarayan Bahura
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1960
Total Pages207
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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